सहस्रार- परम भोग - पुरुष और प्रकृति का सम्भोग
कृष्ण राधा को रास में प्रकृति के रूप में धारण नहीं करते,
रास में तो सिर्फ रस ही है,
रस ही रस को रस के द्वारा छूता है,
रस ही रस को रस द्वारा चूमता है,
रस ही रस को रस द्वारा देखता है,
रस ही रस को रस द्वारा सुनता है,
रस ही रस को रस द्वारा सूंघता है ,
प्राकृति जैसी त्रिपुटी ( द्रष्टा, दृश्य, दर्शन) तत्व में नहीं है | सम्भोग का अनुभव है
आप किसी से आकर्षित होकर उससे सम्बन्ध बनाते हैं तो जल्दी ही आपको स्पष्ट हो जाएगा की आकर्षण का स्रोत हाथ में नही आ रहा है.
वह कहीं चला जाता है यह मूलाधार का सम्बन्ध है.
एक स्थिति और है- ह्रदय का.
आपको सम्भोग की ज़रूरत नही रह जाती
लेकिन आप इसमें जाते हैं
क्यूँ की आप अपने प्रिय को अपने में समा लेना चाहते है या उसमे समा जाते हैं
मूलाधार में भी यही प्रयास है - अद्वैत का
लेकिन कुछ भी स्पष्ट नही है
वहां हम दास हैं- सम्भोग की ऊर्जा हमे नचा रही है परवश
अद्वैत की झलकें ह्रदय या अनाहत पर मिलती हैं.
लेकिन यह भी पूरा नही हो पाता और बहुत निराशा होती है
क्यूँ की दोनों में से कोई अपने व्यक्तित्व को छोड़ नही पाता
उसे छोड़ने के लिए पूर्णता चाहिए जो दोनों में से किसी के पास नही है
फिर आता है आज्ञा चक्र का सम्बन्ध
या वहां का मिलन
वहां एक समर्पित हो जाता है... दूसरा ग्राहक..
वह उच्चतम तल है- लेकिन वहां के सम्भोग का अनुभव व्यष्टि का है.
वहां दुसरे की आवश्यकता ही नही रहती- परम एकांत.
जैसे मीरा...
फिर आता है सहस्रार- यहाँ परम भोग है
पल पल अहर्निश आनंद- नुतनम-नुतनम पदे-पदे.
आनंद के पल पल नये द्वार खुलते हैं
पुरुष और प्रकृति का सम्भोग है
शिव लिंग इसी का चिन्ह है
यही वह स्थिति है
जिसे ओशो कहते हैं
जीवन उत्सव है
कृष्ण इसी स्थिति में रास करते हैं
इसके नीचे का अनुभव मात्र बात-चीत है.
(from net )
कृष्ण राधा को रास में प्रकृति के रूप में धारण नहीं करते,
रास में तो सिर्फ रस ही है,
रस ही रस को रस के द्वारा छूता है,
रस ही रस को रस द्वारा चूमता है,
रस ही रस को रस द्वारा देखता है,
रस ही रस को रस द्वारा सुनता है,
रस ही रस को रस द्वारा सूंघता है ,
प्राकृति जैसी त्रिपुटी ( द्रष्टा, दृश्य, दर्शन) तत्व में नहीं है | सम्भोग का अनुभव है
आप किसी से आकर्षित होकर उससे सम्बन्ध बनाते हैं तो जल्दी ही आपको स्पष्ट हो जाएगा की आकर्षण का स्रोत हाथ में नही आ रहा है.
वह कहीं चला जाता है यह मूलाधार का सम्बन्ध है.
एक स्थिति और है- ह्रदय का.
आपको सम्भोग की ज़रूरत नही रह जाती
लेकिन आप इसमें जाते हैं
क्यूँ की आप अपने प्रिय को अपने में समा लेना चाहते है या उसमे समा जाते हैं
मूलाधार में भी यही प्रयास है - अद्वैत का
लेकिन कुछ भी स्पष्ट नही है
वहां हम दास हैं- सम्भोग की ऊर्जा हमे नचा रही है परवश
अद्वैत की झलकें ह्रदय या अनाहत पर मिलती हैं.
लेकिन यह भी पूरा नही हो पाता और बहुत निराशा होती है
क्यूँ की दोनों में से कोई अपने व्यक्तित्व को छोड़ नही पाता
उसे छोड़ने के लिए पूर्णता चाहिए जो दोनों में से किसी के पास नही है
फिर आता है आज्ञा चक्र का सम्बन्ध
या वहां का मिलन
वहां एक समर्पित हो जाता है... दूसरा ग्राहक..
वह उच्चतम तल है- लेकिन वहां के सम्भोग का अनुभव व्यष्टि का है.
वहां दुसरे की आवश्यकता ही नही रहती- परम एकांत.
जैसे मीरा...
फिर आता है सहस्रार- यहाँ परम भोग है
पल पल अहर्निश आनंद- नुतनम-नुतनम पदे-पदे.
आनंद के पल पल नये द्वार खुलते हैं
पुरुष और प्रकृति का सम्भोग है
शिव लिंग इसी का चिन्ह है
यही वह स्थिति है
जिसे ओशो कहते हैं
जीवन उत्सव है
कृष्ण इसी स्थिति में रास करते हैं
इसके नीचे का अनुभव मात्र बात-चीत है.
(from net )
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