एक क्षुद्रतम प्रयास
दोस्त !
ज्यादा कुछ कहने को अब बचा ही नहीं , बहुत गिने चुने शब्द है और भाव है , इनको भी पहले कई बार मैं भी कह चुकी हु और शताब्दियों से ये कई कई बार दोहराये गए है , इसलिए नयापन नहीं है , सिर्फ सांकल का एक बार फिर खटखटाना है। इस उम्मीद से की शायद ये शब्द किसी केलिए हों , कोई इनका रखवाला बने। ओशो का वक्तव्य याद आता है , जिसमे उन्होंने अपने चित्रकार होने का जिक्र किया था , ऐसा चित्रकार जिसका काम रंग भरते ही जाना है , और चित्रकारी फिर भी खाली ही रहती है , कोरी की कोरी। बिलकुल यही भाव आ रहा है मेरे मन में भी।
सब कुछ तो आँखों के आगे घट रहा है , कहना क्या और सुनना क्या ! पर फिर भी कहीं कहीं ऐसा भी देखा गया है , की कुछ कहा और सुना गया जीवनदायी का काम कर जाता है , अनजाने में ही सही , पर निमित्त पूर्वनिर्मित सा प्रतीत होता है।
ध्यान का सबसे प्रमुख योगदान है आंतरिक दृष्टि को खोल देना , जिससे न सिर्फ आस पास देखने की दृष्टि बदलती है , बल्कि स्वयं के प्रति निष्ठा और प्रेम में भी बढ़त होती जाती है , स्वयं के अस्तित्व का ज्ञान होने से , कर्तव्यनिष्ठा और अन्य सहोदर प्रेम में भी बढ़त होती जाती है , समस्त मलिनता स्वयं ही समाप्त होने लगती है , और बस एक स्वक्छ नीला विस्तृत आकाश , जिसपे सभी का सामान अधिकार है।
माया के फेरे भी उतने ही गंभीर और उलझे हुए अनगिनत है जितने माया को पार करने के बाद अनंत की यात्रा को करते वक्त उन असंख्य फेरों का आभास होता है। अनंत से नीचे माया का साम्राज्य है , यहाँ भी वो ही सब है जो अनंत में वृहत रूप में है पर अति भ्रमात्मक , सब माया जनित है , इसलिए अभी दृष्टि में है और अभी दृष्टि से गायब जैसे कभी हुआ ही नहीं , जैसे कभी था ही नहीं ।
आप यदि इतना ही कर पाये की , की माया को जान के समझ के उससे ऊपर उठ सके तो ही आगे की यात्रा का भाव और गहराई को नाप सकेंगे। वर्ना बार बार किनारे तक आ के माया का मोह वापिस वहीं खींच लेता है , और जीव बार बार माया सागर से ऊपर को मुह बाहर निकलता है और वापिस माया नीचे और भी अधिक तृष्णा की गहराई में घसीट लेती है। और बस उम्र चुक जाती है विदाई का पल आ खड़ा होता है ।
सदियों से विकास का क्रम चला आ रहा है , ये विकास क्रम आप समझते ही होंगे , जहाँ मानव एक सामायिक आयु और सिमित शक्ति के साथ आपने श्रम को जीते हुए , आयु को पूरा करता है और देह छोड़ चला जाता है , आने और जाने का क्रम इतना अधिक प्रवाह में है की कुछ भी अद्भुत नहीं लगता है , बस सब हो रहा है , इसलिए हम भी उसी चाक में घूम रहे है। जन्म हमें सुखी कर जाते है तो मृत्यु हमें दुखी।
कभी कभार जोर का भावनात्मक झटका लगता है , आत्मा तक हिल जाती है , और वहीं से शुरू होता है आध्यात्मिक सफर , जहाँ जीव वो जानने को उत्सुक होता है , जिसका वो पात्र है। जहाँ उसका शुरू से अनुभव करना शुरू होता है , जन्म क्या , मृत्यु क्या , अस्तित्व क्या , हमारा प्रयोजन क्या , इतने कष्ट का कारन क्या , प्रारब्ध क्या , और भाग्य क्या , विज्ञानं क्या और ज्ञान क्या ? कर्म क्या कर्म बांध क्या ? आदि आदि। कई तो सिर्फ भ्रम चूँकि धार्मिक या पारिवारिक परंपरा से चले आ रहे है वो ऐसी जड़ जमाते है की उनका होना उनका मानना ही सही लगता है।
सभी दुविधा का उत्तर सिर्फ एक , " ध्यान / आत्ममंथन, और वो भी उत्तर नहीं मात्र उपाय है , सब अनुभव होते जाते है एक-एक कर साधना मार्ग पे पथिक चल पड़ते है , कभी सुगंध तो कभी रौशनी से भेंट होती है , संकेत दिशा के मिलते चले जाते है। और सहसा कहे या आहिस्ता आहिस्ता , प्रयोजन स्पष्ट होता है , और सभी अन्य प्रश्नो के उत्तर मिलते है मात्र एक शब्द से वो है अज्ञानता , तमाम उद्वेग उथल पुथल , और इन चिंताओंके फलस्वरूप शारीरिक स्वस्थ्य का क्षय , और सब बे बुनियाद , जिनका कोई अस्तित्व ही नहीं वो बेबुनियाद ही है , परन्तु माया वष जीव भर्मित रहता है और कष्ट भोगता है।
ज्ञान उपलब्ध होते ही , सबसे पहला भाव आता है , इस पल को जीना , इस पल को जानना , समझना। क्यूंकि आगे पीछे सिर्फ अस्तित्व विहीन दिमागी उधेड़बुन है। जीवन तो अभी है , इसी पल है।
सम्पूर्ण सृष्टि से सम्बन्ध बन जाता है , फिर किसी से बैर नहीं , सभी अपने है , सभी सहयात्री है।
कितना खोदोगे कुछ नहीं मिलेगा , क्यूंकि जो खोद रहे हो वो तो बिना खोदे ही सुलभ है , सिर्फ दृष्टि की सरलता और मन का संयत होना आवश्यक है।
फिर संसार क्रीड़ा स्थल से ज्यादा कुछ नहीं।
उसके लिए :
गति का विज्ञानं समझना आवश्यक है ,
घेरो की माया को अनुभव करना आवश्यक है ,
परिधि के चक्र को समझना है ,
केंद्र के महत्त्व को जानना है।
मित्रों , जबकि मुझको सब सहज ही एक साथ दिखाई पड़ रहा है , पर शब्दों में कहते ही उसका प्रदर्शन बंध जाता है , चारो तरफ से दिखने वाला समझ में आने वाला अस्तित्व अचानक शब्दों में ढलते ही , एक तरफ से ही समझने योग्य बचता है। पर सधे कदमो से धीरे धीरे चारो पक्ष दिखेंगे।
इसीलिए ध्यान में आवश्यक है स्वयं को अनुभव करना की आप देह का हिसा नहीं , देह से बाहर है। स्वयं को कल्पना लोक की उंचाईयों तक ले के जाना होता है सिर्फ इसलिए की वहां उस ऊंचाई से आप स्वयं को देख सके , और अपने ही सामान अन्य को भी देखे। फिर सामान्य होनेक लिए वापिस अपने मन और बुद्धि द्वारा देह में प्रवेश करने की सलाह दी जाती है। ताकि आप दोबारा सामान्य सांसारिक दृष्टि पा सके , और अपने कर्तव्यों को सामान्य रूप से कर सके। इस ध्यान द्वारा , आंतरिक स्थति के परिवर्तन धीरे धीरे आते है।
मन के विष को समाप्त करने के लिए साथ साथ चक्र साधना आवश्यक है। ये आपके देह और आत्मा के बीच संपर्क का जरिया है।
माया का भी पर्यावरण-जाल है इसका भी अपना वातावरण है जैसे हमारे शरीर के जीवन के लिए ओज़ोन है। वैसे ही माया का छाता भी तना हुआ है , पृथ्वी से ऊपर उठते ही दीखता है। गलतफहमियों की धुंध है , भावनाओ का जाल है , मानसिक दांव पेंच है , सिर्फ मनुष्यों में ही नहीं , हर जीव में ये गुण पाया जाता है , मनुष्य तो सिर्फ मनुष्यतावश सबसे अलग हो जाता है।
वैज्ञानिको का हमारी अपनी गलैक्सी में दस लाख रहायशी नक्षत्रो का अनुमान है ,
अनुभवी ASTRONOMER सेठ शोस्तक सेती इंस्टिट्यूट केलिफोरिनिया में है , इनका अपना ज्ञान और अनुभव जो भी इनको मिला है का कहना है , "Unfortunately, it's probably still a needle-in-a-haystack because we don't know how many needles are out there," said Seth Shostak, senior astronomer at the SETI Institute in California. आगे सेठ शोस्तक कहते है ,' "What we do know that we didn't know, even a year ago, is what fraction of stars have planets that might be habitable," Shostak told The Huffington Post. "And these days, the answer is maybe one in five. That's a preliminary analysis of Kepler data. We now know that there are going to be lots of worlds out there where you could have life.
"The number of habitable worlds in our galaxy is certainly in the tens of billions, minimum, and we haven't even talked about the moons. You know, moons can be habitable, too. And the number of galaxies we can see, other than our own, is about 100 billion. So 100 billion times 10 billion is a thousand billion billion [habitable planets] in the visible universe," he said. Shostak is featured in Tuesday night's episode of Science Channel's "Alien Encounters" series, ( आप यू-टयूब पे इस लिंक के साथ देख सकते है http://youtu.be/wZRoBW9PTvY .और निश्चित आपको अच्छा लगेगा ) which explores the idea that an alien presence on Earth has spawned a generation of human-alien hybrids who eventually connect with a powerful quantum super computer. So far, he noted, the concept of one species breeding with another is just the stuff of sci-fi. वे कहते है "It's science fiction, of course, that they're coming here to breed with us, to make hybrids. We don't do that with other species of our own planet very often. We might crossbreed a couple species, but nobody here has got experiments to crossbreed humans with mayflies or something like that," सेठ शोस्तक कहते है "Maybe with parrots -- that would be good because then maybe we would live longer, and we'd still be able to talk. We don't do that kind of thing because it doesn't make any sense biologically."
Given the staggering number of potentially habitable planets now thought to exist by astronomers, the House Committee on Science, Space and Technology was interested enough to invite Shostak and Dan Werthimer, director of SETI's research center at the University of California, Berkeley, to testify before the committee last month. Shostak and Werthimer told lawmakers that more funding would increase SETI's chances of finding that elusive proof of ET's existence.
"I told them it would be a couple of decades," सेठ शोस्तक कहते है "and explained to the committee why I thought that was the right time scale to find some sort of life. You might find it in the solar system. You might finally build a telescope that could find oxygen and methane in the atmosphere of nearby planets around other stars -- we could build that today except for the fact that there's no budget, but there may be budget within 20 years to do that. And the third approach, of course, is SETI."
"Each of these has a decent chance of succeeding," he added, "and I also think that one of them will."
सब कुछ प्रयोग स्तर पे है। पर सम्भावना से इंकार नहीं है। कई पृथ्वी , कई समान जीवन , अन्य ग्रहो पे। अथवा एक गृह पे जीवन समाप्त होने लगे उसके पहले केंद्र की व्यवस्था ऐसी ही हो की अन्य कही जीवन पनपने लगे।
पर एक सच है की यह अंतहीन चक्र है और इस चक्र में सैकड़ों चक्र अपनी ही धुरी पे अटके या लटके कुछ भी कह लीजिये , पर घूम रहे है , अपनी अपनी परिधि में , और अपनी अपनी परिधि में घूमते घूमते इनका अपना परिधि का घेरा भी निश्चित है , और सब इसी प्रकार निरंतर घूम रहे है , इसी प्रकार हमारी पृथ्वी भी अपनी धुरी पे घूम रही है साथ ही अपनी परिधि के भी चक्कर काट रही है क्या आपको पता है आपकी अपनी पृथ्वी की गति क्या है ?
वैज्ञानिक जानकारी के लिए आप इस लिंक पे जाके विस्तार से पढ़ सकते है "
http://imagine.gsfc.nasa.gov/docs/ask_astro/answers/970401c.html
इस गति से पृथ्वी लगातार घूम रही है , उसी गति से एक एक कण घूम रहा है , जिनसे हम आप अज्ञान है इन चक्रो के सैकड़ो बिना उत्तर के प्रश्नो के अपने घेरे है , संक्षिप्त में इतना जान लीजिये की फेरे को समझना ही फेरो का तोड़ है , आस्था के लिए कोई जमीन है ही नहीं। तर्क निरर्थक है , कहाँ तक दिमाग ले जाईयेगा ? सीमा है उसके बाद दिमाग चलना बंद करदेगा , मन की गति सबसे अधिक है , पर मन की सीमा कल्पना शीलता है , और कल्पनायें दिमाग उतनी ही करसकता है जो अति सूक्ष्म अवस्था में मस्तिष्क की जानकारी में है , इसके बाद कल्पना भी हथियार दाल देती है , फिर आपकी छठी इन्द्रिय का कार्य शुरू होता है यदि केंद्र की इक्षा हुई तो आपके लिए अनुभव मार्ग सुगम होता जाता है , ध्यान देने वाली बात ये है की कल्पना से आपकी आत्मिक यात्रा की शुरुआत है जो शून्य पे समाप्त हो जाती है। पर इस यात्रा में भले ही आपके हाथ कुछ न लगे , आपका दिमाग थक जाए , पर एक चीज़ जो नायाब है वो आपके पास ही रह जाती है , वो है व्यक्तिगत अनुभव। असारता का ज्ञान होते ही माया जनित पीडये स्वयं ही थम जाती है। आप के अंदर का सन्यासी जागृत हो जाता है। और अध्यात्म का कार्य भी यही है , सन्यासी को सब ज्ञात है की उसे कुछ भी ज्ञात नहीं। शरीर की पीडये माया का जाल मात्र प्रतीत होती है , और भावनात्मक उथल पुथल तो समुद्र की लहरो सदृश रह जाती है। जी हाँ ये सन्यासी की परिभाषा है छोटी सी। इसके अलावा सब अज्ञात है। परम से जुड़ जाना ही उसको पा लेना है। तरंगो का अतित्व यही है। वो कभी रंगो जैसी नहीं दिखती , बस सुगंध जैसी महसूस होती है।
विज्ञानं को माध्यम बनाइये या के अध्यात्म को या फिर जहां तक विज्ञान आपका साथ दे पाये वहां तक विज्ञानं के साथ , और फिर अध्यात्म का साथ कीजिये , मनुष्यों को सिर्फ संके देने वाले चिन्हो के रूप में ही समझिए , नाम कोई भी रखिये , गुरु सद्गुरु मित्र कुछ भी कहिये , जिनको एक दिन उचित समय पे छोड़ना ही है , पकड़ना यहाँ किसी भी न वस्तु को न भाव को , सब अपना कार्य करके चले जायेंगे , उनको शांत भाव से जाने दीजिये , फिर देखिये आपकी आखिरी छलांग के लिए क्या बचता है ?
क्यूंकि एक केंद्र परम का है तो दूजा केंद्र आपके पास भी है , जो उसी का अंश है उतना ही पवित्र है। तो केन्द्र का केंद्र से संपर्क संभव है , अवश्य संभव है , मुझे पूरा भरोसा ही नहीं विश्वास है , की परमात्मा से संपर्क संभव है और संभव ही क्यों ! हम सब संपर्क में है , सिर्फ अज्ञानता का घेरे जरा ज्यादा गहरे है। जैसे घेरे हटे की प्रकाश की किरण झिलमिलाना शुरू , और बस फिर क्या , मनचाहा तुरंत उपलब्ध हो गया , यही इसी पल , इसी क्षण हमारे अपने केंद्र में।
( आपके सहज ध्यान के लिए आज ये चित्र दे रही हूँ , इसको देखिये , स्वयं को बैठाइए , और अकेले ही चल पढ़िए , और हाँ अपने अनुभव जरूर बाँटियेगा अच्छे सहयात्री के सामान , पता नहीं किसके काम आजाये )
आप सभी को अपनी अपनी आध्यात्मिक यात्रा की शुभकामनाये !
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