एक चिंतन कुछ प्रश्न के साथ ; सभी सभ्य उन्नत आत्माओं के लिए ; क्या आधुनिक मनुष्य अधिक सभ्य विकसित और समझदार है ? मनुष्य-संस्कृति किस काल में सभ्य थी - पाषाण , युगीन ( त्रेता / सतयुग /द्वापर / या कलियुग ) कलियुग के भी प्रथम चरण में मध्य चरण में या आधुनिक चरण में ? कहाँ आप मनुष्य को मनुष्य पाते है ? या कभी नहीं सिर्फ मनुष्य मनुष्य होने के लिए प्रयासरत सदियों से !
भुलक्कड़ मनुष्य के भूलने के लिए " बड़ी से बड़ी घटना का प्रभाव " दिन घंटे ही काफी है , फिर सालों-साल का समय तो बहुत है , उस पे युगों का समय। कहना ही कठिन है की क्या स्वप्न है और क्या वास्तविक , अक्सर पहले तो सच क्या और काल्पनिक क्या इसी में बुद्धिजीवों में घमासान है, फिर दूसरा मानसिक द्वंद्व है ' धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से मेरा क्या और तेरा क्या ? तीसरा द्वंद्व है मेरी कथा , मेरा इतिहास , मेरा साम्राज्य , मेरा धर्म महान ! और चौथा द्वद्व है की मेरा राज्य , मेरी सीमा , मेरी सभ्यता , यानि मैं मैं और सिर्फ मैं !
तर्क की सामूहिक कुशलता के साथ आर्थिक कुशलता मेरी अधिक राजनैतिक व्यवहारिक कुशलता मेरी अधिक , धरती के इस टुकड़े पर " मैं " कुछ ज्यादा ही अधिक विकसित हो के फल-फूल रहा है , कुछ इतिहास बना रहे है तो कुछ इस रूप में इतिहास अलग ही निर्मित कर रहे है की पीछे के तमाम संस्कृतियों और सभ्यताओं के निशान आधुनिक हथियारों से मिटाते जा रहे है उदाहरण है , बुद्ध की विशाल प्रतिमा जो ध्वस्त हुई और ताजा उदहारण है हटारा इराक़ में ध्वस्त हुआ म्यूज़ियम , जो दो हजार वर्ष प्राचीन पार्थियन सभ्यता कला और संस्कृति के संग्रह का प्रतीक है ( था )......
मानवता और संवेदना गयी घास चरने वो तो मुट्ठी भर आध्यात्मिक नकारो के सोचने का विषय है ,तार्किक पढ़े लिखे व्यस्त ऐसा नहीं सोचा करते उनकी सर्वाधिक सफलता का मापदंड जरा अलग है निरंतर सफलता की ओर बढ़ती उनकी सीढ़ियां भी अलग है।
इन्ही में से कुछ विचारक और बुद्धिजीवियों ने ( जिनको ऋषि मुनि या सद्गुरु के सिंहासन पे बिठाया जा सकता है ) थोड़ा सोचा और माना भी तो फूलों की सुगंध जैसा विशाल सभ्यता के बगीचों से इकठा हुआ अंश ही बचा इतिहास के समय की शीशी में इत्र जैसा । शास्त्रों और पुराणो में सिमट गया दिव्य जादूगर भगवान अवतार अथवा राजा और रानी की कथा के रूप में। पता नहीं निर्भया जैसी कथा समय के पहिये पे कितनी दूर चल पाएगी ..............
किसी तरह दो कदम लड़खड़ा के चलती, दम तोड़ देती है
आम जीवन की कथाएं कहाँ युगों दूर चल पाती है दोस्त !
ये तो राजा लोगो का और उन्नत आत्माओं का प्रभाव है , जिन कथाओं की गूँज कलियुग में सुनाई दे रही है , .... पर निश्चित ही समय चक्र का पहिया घूमता हुआ फिर से त्रेतायुग में ले जा के खड़ा कर देगा , आज के युग में ऐसी हजारो लाखो कथा है जो गली-गली में घर-घर में मिलेंगी ..... देखते है ; समय के इस कैप्सूल में कलियुग की कौन सी कथा इस गोल-चक्र में नाचती हुई सतयुग में प्रवेश कर पायेगी और मनुष्यता के ऊपर हास्य का कारण बनेगी .. ( वस्तुतः इस सत्य को थोड़ा उपहास के लिए सोचिये की सीता हरण के समय अब रावण सीता से क्या कहेगा ! अरे ! खैर मनाओ की तुम राम की पत्नी हो जो सतयुग में मुझ रावण के द्वारा हरण हो रही हो कलियुग में होती तो पता चलता कैसे निर्भया जैसी अनगिनत सीताये स्वाहा हो रही है , सम्पूर्ण संकलित श्रीमद भगवद-कलियुग-कथा पुराण श्रद्धा से पढ़ना , आकाओं ने और तत्कालीन ज्ञाताओं ने अति बौद्धिक श्रम और तपस्या से इसे रचना बद्ध किया है, एकांत में चिंतन पूर्वक तुलनात्मक अध्ययन से पढ़ना की कलियुग पुराण क्या क्या कहता है इस पुराण की एक एक कथा में कलियुग के वातावरण की गहन छाप है , गहन ध्यानाभ्यास के साथ अशोक वाटिका में वृक्ष के नीचे सुखपूर्वक बैठ के आराम से सेविकाओं के बीच प्रेम से समय व्यतीत करो और तब तुम कहना रावण व्यभिचारी है की नहीं , निश्चित तुम मुझसे प्रेम करोगी यदि राम की तरह नहीं तो रावण की तरह अवश्य प्रेम करोगी ) राजकुमारी और पांडव रानी द्रौपदी स्वयं अग्नि पुत्री और सूर्यवंशी रानी सीता स्वयं में देवी लक्ष्मी का अवतार मानी जाती है या पर्वतराज हिमवान पुत्री राजकुमारी पार्वती सदृश प्रखर नहीं .. फिर भी आज कल की कथा निर्भया का अस्तित्व छोटी सी किंवदंती तो बन ही जाएगी जो सालो सभ्यता के ऊपर हँसेगी ...
अभी तो सतयुग का दैत्य अट्टहास और द्वापर की कौरव हंसी थमी नहीं , बुद्धिशील आलोचक मनुष्य हंस रहे है निरंतर , उन बीते हुए कालो पे , उन चरित्रों पे हंस रहे है , आलोचना भी कर रहे है , एक एक चरित्र की धज्जिया अपने सही और गलत से उधेड़ रहे है उनके पराक्रम पर कटाक्ष और संदेह करते है सीता द्रौपदी की कथा में कथानक रूप में भी सही गलत अंश सूत्रधार के सामान ढूंढते है और जरा सा सूत्र मिलते ही ऐसी की तैसी कर गुजरते है , और साथ ही साथ अपनी भी कलियुग की कथा का निर्माण भी कर रहे है , आखिर उन युगों में भी तो हास्य के लिए कुछ कथा प्रसंग चाहिए !
धन्य है
मनुष धर्म.. !
मनुष्य चेतना !
और
मनुष समाज !
मनुष्य जो बना ही सोने और हंसने के लिए है ....अध्यात्म की सीख का सार यही है , हसिबा खेलिबा करिबा ध्यान ..... तो फिर हँसते खेलते हुए मनुष्यों के बीच में से सिसकने की आवाज़ कहाँ से निरंतर आ रही है !! कहीं ऐसा तो नहीं की स्वयं से प्रसन्न रहने का ज्ञान मिलने पर उसने ये ज्ञान बाहर ढूँढना शुरू कर दिया और प्रसन्नता का माध्यम दुसरो को बना लिया यानि प्रसन्नता की खुंटिया बाहर गाड़ दी। की जाने वाली बौद्धिक आलोचनाओ को आंतरिक प्रसन्नता का आधार मान लिया और सोने के लिए अपने अंदर कुछ ऐसा सुला दिया जिसको ज्ञान पूर्वक जागना चाहिए था ! और खेल का अर्थ भी कुछ और ही बन गया जिसमे स्वयं के अतिरिक्त सब कुछ खेल और मनोरंजन का साधन हो गया न केवल अन्य जीव और प्रकर्ति वरन अन्य मनुष्य भी इसी खेल की गोटिया बन गए। .... ये समाज जिसमे व्यक्ति विशेष खुद तो सोना हंसना खेलना चाहते है देते है शासन परतंत्रता , अंधानुकरण की योजना , जबकि स्वयं इन सबसे बचते है और अनजाने में सुनाई देती है रुदन और सिसकिया , साथ ही चाहते है स्वयं और समाज का समृद्धि विकास , ये कैसा विरोधाभास , कैसे होगा मानवता का विकास ?
तो ये तथाकथित समाज कौन सी सीख का नतीजा है ? अध्यात्म तो निश्चित ही अन्तर्मार्गी है , तो !! कौन धर्म ऐसा सीखा रहा है ? अवश्य ये धर्म की सीख नहीं , तो फिर ? मनुष्यता का " ये पाठ " कौन पढ़ा रहा है , जिसको बालक जन्म से ही कंठस्त कर लेते है बिना सिखाये पारंगत होते है।
विचारिये !
जन्म के साथ ही धरती के प्रति आपकी भी जिम्मेदारी और निष्ठा है ! जाने अथवा अनजाने जन्म लिए हर जीव का उद्देश्य होता ही है , इस जन्म का उद्देश्य आपका भी तो है !
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