रुको रुको ... अनवरत भागति दौड़ती बुद्धियों ! विवेचनाओं और आलोचनाओं के सम्बन्ध में थोड़ा सुधार करना है ..... ! पर ये भी एक सत्य है इस खजाने की कुंजी अध्यात्म पथ के साधक के ही हाथ आनी चाहिए, नासमझ बच्चे के हाथ नहीं चाहिए वर्ना उपयोग दुरूपयोग में भी बदल सकता है , अर्थ का अनर्थ अपनी बौद्धिक विवेचनाओं से हो सकता है। नतीजा उस नासमझ की यात्रा इस सत्य पथ पे और लम्बी हो सकती है
किसी ने कहा ओशो से - ' रात जिसको आप समाधि कह रहे थे, वह तो आटो-हिप्नोसिस या हिप्नोटिज्म जैसी मालूम हो रही थी, सम्मोहन जैसी मालूम हो रही थी। ' ओशो ने कहा ,' मालूम नहीं हो रही थी, है ही। " मैं " एक सम्मोहन है। जिसको हम कहते हैं मैं, यह एक सम्मोहन है जो हमने पैदा किया हुआ है। इस मैं को तोड़ने के लिए हमें विपरीत, एंटी-हिप्नोटिक सजेशन, विपरीत सम्मोहक सुझाव देकर इसे तोड़ देना पड़ेगा। मैं हमारा एक सम्मोहन है, इससे ज्यादा नहीं है। यह हमारा एक भ्रम है कि मैं हूं। जो है वह तो विराट है। जो है उसकी तो कोई सीमा नहीं है। जो है वह तो अनंत है। जो है वह मुझसे पहले से है और मेरे बाद है। लेकिन मैं हूं, यह सिर्फ हमारा एक सम्मोहन है। यह हमारी बचपन से पकड़ी गई जिंदगी की एक आदत है। कामचलाऊ आदत है। उसे हमने पकड़ लिया है। उसे हमने पकड़ लिया है, तो हम...अगर आपने कभी सम्मोहन का कोई प्रयोग देखा हो तो आप बहुत हैरान हो जाएंगे। सम्मोहन में हम जो मान लेते हैं, वही सत्य हो जाता है। जो हम स्वीकार कर लेते हैं, मन उसी के लिए राजी हो जाता है। सम्मोहन हमारे चित्त को उन सत्यों को पैदा कर देता है, जो हैं ही नहीं।
हम सब भी ऐसे ही जीते हैं। अगर एक स्त्री आपको बहुत प्रीतिकर लगने लगे या एक पुरुष बहुत प्रीतिकर लगने लगे, तो आप शायद सोचते होंगे कि सच में वहां सौंदर्य है। सब सौंदर्य आपके द्वारा आरोपित और सम्मोहन है। इसलिए हर मुल्क में सौंदर्य की जैसी आदतें हैं, वैसा सौंदर्य होता है। अफ्रीका में कोई कौम स्त्रियों के बाल घोट कर सिर संन्यासियों जैसा कर देती है और मानती है कि बहुत सुंदर है। जिस स्त्री की खोपड़ी जितनी चमकदार निकल आए, वह उतनी सुंदर हो जाती है। आप उस स्त्री को देख कर भागेंगे तो पीछे नहीं लौटेंगे। लेकिन वहां कोई उसके लिए दीवाना हो सकता है। आखिर सिर घुटी स्त्री! हम सोच भी नहीं सकते! हम तो अपने मुल्क में संन्यासिनियों को सिर घुटवाते हैं। वह इसीलिए घुटवाते हैं, ताकि कोई पुरुष मोहित न हो जाए। वह इसीलिए घुटवाते हैं। हम संन्यासी, संन्यासिनी को कुरूप बनाने की कोशिश करते हैं, ताकि आप सम्मोहित न हो जाएं, किसी भांति उसके प्रति आकर्षित न हो जाएं। इसलिए सब तरह की अग्लीनेस पैदा करने की कोशिश करते हैं साधु-संन्यासी में कि वह कुरूप हो, कि आपके सम्मोहन के जो नियम हैं...लेकिन अगर हमारी संन्यासिनी अफ्रीका चली जाए, तो उसको बड़े प्रेमी मिल सकते हैं।
कोई कौम है जो मानती है कि ओंठ पतले हों तो ही सुंदर हैं। कोई कौम मानती है कि ओंठ जितने चौड़े हों, उतने ही सुंदर हैं। तो ओंठों को चौड़ा करने के भी उपाय करते हैं। ओंठों में पत्थर बांध लेते हैं, लटका लेते हैं पत्थर बचपन से, ताकि ओंठ चौड़े से चौड़े हो जाएं। और जब ओंठ बहुत चौड़ा हो जाता है कि चेहरे पर कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता, सिर्फ ओंठ ही दिखाई पड़ने लगता है, तब स्त्री परम सुंदर हो जाती है, उसको प्रेमी मिल जाता है। थोड़ा सोचने जैसा है कि जिसको हम सौंदर्य कहते हैं, वह है या हमारा सम्मोहन है? या हमने आदत बना रखी है?
अब यह आपको पता ही है, आज से पचास साल पहले कैक्टस सुंदर नहीं था। और घर में अगर कोई धतूरे का पौधा लगा लेता, तो हम उसे पागल कहते, कि दिमाग खराब हो गया। अब कैक्टस बड़ा बुर्जुआ हो गया है, बड़ा सुसभ्य हो गया है। अब कैक्टस ग्रामीण न रहा। अब एकदम जिस आदमी के घर में कैक्टस नहीं है, वह अनकल्चर्ड है, वह सुसंस्कृत नहीं है। अब जो ठीक से शिक्षित आदमी है, उसके घर में कांटों वाला पौधा जरूरी है। पचास साल पहले गुलाब सुंदर था, अब कैक्टस ने गुलाब की जगह ले ली है। उसने गुलाब को कहा, राजा, उतारो सिंहासन से! बहुत दिन तुम रह लिए, अब मजदूर आते हैं, अब हम ऊपर आते हैं। अब कैक्टस बहुत दिन गरीब शूद्र की तरह रह लिया, अब जगह खाली करो! गुलाब हट गया है, कैक्टस आ गया है। अब कैक्टस बैठा है। अब कैक्टस बड़ा सुंदर मालूम पड़ रहा है, जो कभी सुंदर नहीं मालूम पड़ा था। कैक्टस कभी सुंदर था? कभी सुंदर न था। कोई आश्चर्य नहीं है। आदत और नया सम्मोहन। ऊब गए हम गुलाब के फूल से। चिकनापन भी ऊबा देता है, फिर खुरदुरेपन की इच्छा शुरू हो जाती है। अब खुरदुरापन अच्छा लगता है। सब चीजों से आदमी ऊब जाता है। फिर नये सम्मोहन पैदा करता है। नये सम्मोहन पैदा करता चला जाता है। जिसे हम सौंदर्य कहते हैं, वह हमारा सम्मोहन है।
अब चीन में तो चपटी नाक सुंदर होती है; गाल की हड्डियां उठी हुई हों तो सुंदर होती हैं। हमारे मुल्क में गाल की हड्डियां उठी हों तो फिर सुंदर होना बहुत मुश्किल हो जाता है। सुंदर क्या है? हमारा थोपा हुआ भाव है। इसलिए पृथ्वी पर हजारों तरह के सौंदर्य हैं, सब तरह के सौंदर्य हैं। ऐसा कोई आदमी नहीं है जिसे किसी कोने में सुंदर न माना जा सके। और ऐसा भी कोई आदमी नहीं है जो किसी दूसरे कोने में असुंदर न हो जाए। हमारी आरोपित धारणाएं हैं। सुंदर हमें दिखाई पड़ने लगता है, क्योंकि हमने देखना शुरू कर दिया। हम जिसमें सौंदर्य देखने लगें वही सुंदर हो जाता है।
मेरे एक मित्र सोवियत रूस गए हुए थे। उनके हाथ बड़े सुकोमल थे। कभी कोई काम नहीं किया। स्त्रैण थे हाथ। उनका हाथ हाथ में लें और आंख बंद कर लें, तो ऐसा न लगे कि पुरुष का हाथ हाथ में है, स्त्री का हाथ हाथ में है। आंख खोल कर देखें तो ही पता चले कि पुरुष का हाथ है। हाथ बहुत कोमल थे। वे रूस पहली दफा गए। तो वहां जिस आदमी, जो उनका स्वागत करने आया था एयरपोर्ट पर, उसने हाथ मिला कर हाथ पीछे खींच लिया। तो वे कुछ हैरान हुए! उन्होंने कहा, क्या हुआ? उस आदमी ने कहा, आप जरा हाथ के प्रति सावधान रहना! रूस में ऐसे हाथ को हम शोषक का, खून पीने वाले का हाथ समझते हैं। आपके हाथ में मजदूर के गट्ठे नहीं हैं। आपका हाथ जो भी छुएगा, हाथ खींच लेगा ग्लानि से। आप अच्छे आदमी नहीं हैं।
यहां तो उनका जो भी हाथ छूता था, वह कहता था, धन्य हैं आप, इतना सुंदर हाथ! रूस में, वे कहने लगे, मैं अपने हाथ खीसों में डाल कर रखने लगा। क्योंकि दो-चार दफे जिससे भी हाथ मिलाया, उसने ही हाथ ऐसा खींचा कि किसी गलत आदमी का हाथ छू गया।
रूस का सम्मोहन बदल गया है। अब वे कहता हैं, हाथ पर गट्ठे होने चाहिए, मजदूरी की छाप होनी चाहिए, तो अच्छा आदमी है। अगर मजदूरी की छाप नहीं है तो अच्छा आदमी नहीं है। अगर महावीर या बुद्ध चले जाएं रूस में, मुश्किल में पड़ जाएं, हाथ पर मजदूर की गट्ठी की छाप नहीं है। और हम? हम कहते हैं, चरण कमल! आपके हाथ कमल की भांति हैं; आपके पैर कमल की भांति हैं। रूस में वे कहेंगे, पैर आपके? खूनी के हैं, हत्यारे के हैं। हाथ? हाथ आपके दुष्ट के हैं। ये हाथ न चलेंगे यहां रूस में! सम्मोहन बदल गया उन्नीस सौ सत्रह से। नया सम्मोहन पैदा कर लिया। अब वे उसके अंतर्गत जी रहे हैं।
सौंदर्य हमारा सम्मोहन है। कुरूपता भी हमारा सम्मोहन है। हमारी जिंदगी में बहुत से सम्मोहन हैं जो हमें खयाल में नहीं आते। और जब हमारे खयाल में नहीं आते तो हम उनमें जीए चले जाते हैं। अब अगर एक आदमी अपने सिर के बाल उखाड़ने लगे, तो आप उसको पागलखाने भेज देंगे। लेकिन अगर वह जैन मुनि हो जाए, फिर आप उसके पैर छुएंगे। क्या बात है? एक आदमी को सिर के बाल उखाड़ता, अगर यह जैन मुनि न हो तो पागलखाने जाएगा। लेकिन अगर जैन मुनि हो तो चलेगा। क्यों? क्योंकि वे जैन मुनि के आस-पास जो लोग हैं, वे बाल उखाड़ने की बात से हजारों साल से सम्मोहित हैं। वे कहते हैं, यह तपस्वी का लक्षण है।
अगर आप स्नान न करें, तो आपकी पत्नी आपको घर के बाहर कर देगी। लेकिन अगर आप जैन मुनि हो जाएं और स्नान न करें, तो आपकी पत्नी ही पैर छुएगी, कि आप परम तपस्वी हैं, आप स्नान नहीं करते हैं। क्योंकि स्नान न करने को किसी ने, बहुत दिन से सम्मोहित हो गया। वह कहता है, स्नान करना, यह भोगियों की बात है, त्यागी स्नान नहीं करते। त्यागी को स्नान की क्या जरूरत है? उसको शरीर को सजाने का कोई सवाल नहीं है।
हम जिस चीज से सम्मोहित हो जाते हैं, वह हमारे मन को पकड़ लेती है। अब दो ही रास्ते हैं। या तो हम समझ जाएं और समस्त सम्मोहन से मुक्त हो जाएं। समझ मुक्ति ला सकती है। अगर कोई व्यक्ति अपने जीवन व्यवहार में, उठने-बैठने में, चलने में, सोचने में, हर बात में इस बात की खोज कर ले कि मैं सम्मोहित होकर जी रहा हूं, तो सम्मोहन टूटना शुरू हो जाता है। लेकिन अगर हम यह न समझ पाएं, तो फिर एंटी-हिप्नोटिक, सम्मोहन के विपरीत सम्मोहन की जरूरत पड़ जाती है।
जो लोग प्रज्ञा को उपलब्ध हो सकते हैं, अंडरस्टैंडिंग को, उनके लिए किसी ध्यान और समाधि की कभी कोई जरूरत नहीं है। नहीं जो उपलब्ध हो सकते, जो कहते हैं, कांटा तो हमें गड़ा ही है, असली गड़ा है, हम कैसे मानें कि कांटा नकली है! और कांटा गड़ा नहीं है उनके पैर में। अब उनके लिए हमें एक कांटा और भी नकली ईजाद करना पड़ेगा, जो उनके पुराने कांटे को निकाले।
जो लोग प्रज्ञा को उपलब्ध हो सकते हैं, अंडरस्टैंडिंग को, उनके लिए किसी ध्यान और समाधि की कभी कोई जरूरत नहीं है। नहीं जो उपलब्ध हो सकते, जो कहते हैं, कांटा तो हमें गड़ा ही है, असली गड़ा है, हम कैसे मानें कि कांटा नकली है! और कांटा गड़ा नहीं है उनके पैर में। अब उनके लिए हमें एक कांटा और भी नकली ईजाद करना पड़ेगा, जो उनके पुराने कांटे को निकाले।
तो जिसे मैंने रात कहा है, वह सम्मोहन ही है। आपके पूर्व-सम्मोहनों को नष्ट करने के लिए, उनको विदा करने के लिए उनसे विपरीत सम्मोहन की स्थिति पैदा करनी जरूरी है। लेकिन अगर आपको लगता हो कि नहीं, कोई जरूरत नहीं है विपरीत सम्मोहन की, मैं समझ सकता हूं कि यह सम्मोहन है और समझपूर्वक मुक्त हो जाऊंगा। इससे शुभ कुछ भी नहीं है। अगर आप समझपूर्वक मुक्त हो सकें तो इससे शुभ कुछ भी नहीं है।
मैंने सुना है, एक आदमी दो वर्षों से पैरालाइज्ड था, लकवा लग गया था। हिल-डुल नहीं सकता था; उठ नहीं सकता था। चिकित्सक हार गए थे चिकित्सा करते-करते, ठीक नहीं होता था। ठीक हो जाता, अगर सच में लकवा लगा होता। लकवा लगा न था। चिकित्सक मुश्किल में थे, ठीक कैसे हो? बीमारी थी नहीं। लेकिन वह आदमी कैसे माने! जिसका हाथ न हिलता हो, जिसका पैर न हिलता हो--वह आदमी कैसे माने कि बीमारी झूठी है! फिर एक दिन आधी रात मकान में आग लग गई। घर भर के लोग बाहर हुए। वह जो लकवे से लगा आदमी था, वह भी दौड़ कर बाहर पहुंच गया। वह दो साल से नहीं हिला था। जब वह बाहर आ गया, घर के लोगों ने कहा, क्या आप भी चल गए? वह आदमी वहीं गिर पड़ा! उसने कहा, मैं कैसे चल सकता हूं? यह कैसे हुआ? यह कुछ समझ में नहीं आता। क्योंकि मैं तो लकवे से पीड़ित हूं।
अब यह आदमी अगर समझ सके, तो लकवे के बाहर हो जाए। नहीं तो इसके मकान में झूठी आग लगानी पड़े, ताकि यह बाहर निकल आए। अगर यह कहे कि मेरा लकवा असली है, तो फिर हमें एक आग का इंतजाम करना पड़े, जिसमें यह दौड़ कर बाहर आ जाए। अगर यह समझ जाए तो बात खतम हो गई, फिर किसी मकान में आग लगाने की कोई जरूरत न रही। समझ ले!
लेकिन बहुत कठिन है। कठिन इसलिए है कि हम अपनी बीमारियों को प्रेम करने लगते हैं। और शारीरिक बीमारियों से तो हम छुटकारा चाहते हैं, मानसिक बीमारियों को हम जोर से पकड़ लेते हैं। क्यों? क्योंकि मानसिक बीमारियों पर ही हमारा होना निर्भर है।
सबसे बड़ी बीमारी तो है मैं की, ईगो की। अगर वही छूट जाए तो हम कहां होंगे? तो आदमी डरता है। वह अपने मैं को जोर से पकड़े रहता है। अगर आप उससे, उसके पैर में धक्का लग जाए आपके पैर का, या भीड़ में आपका धक्का लग जाए, तो वह कहेगा, देख कर नहीं चल रहे हैं! जानते नहीं मैं कौन हूं! खुद भी पता नहीं है कि कौन है, दूसरे से कहता है, जानते नहीं मैं कौन हूं! उसके, वह अपने मैं को बचा रहा है, बचा रहा है। धन कमा रहा है। गरीब भी दिखलाना चाहता है अपने मैं को, लेकिन दिखाने के साधन नहीं होते उसके पास। यही गरीब की तकलीफ है। अमीर साधन खोज लेता है। उसके मैं के लिए सहारा मिल जाता है। वह कहता है, हां, यह रहा मेरा मैं और ये रहे मेरे साधन। वह एक बड़ा मकान बनाता है। बड़ा मकान रहने के लिए जरूरी नहीं है। लेकिन बड़ा मकान बड़े मैं को प्रकट करने के लिए बहुत जरूरी है। रहा तो शायद बहुत छोटे मकानों में जा सके, और शायद बड़े मकान से ज्यादा सुविधा से भी रहा जा सके, लेकिन...
अभी मैं एक घर में मेहमान था। तो उस घर में नहीं तो कम से कम सौ कमरे होंगे। पति-पत्नी अकेले हैं। सारा मकान खाली है। कोई पंद्रह-बीस नौकर रखने पड़ते हैं जो पूरे मकान को साफ करते रहें। मैंने उनसे पूछा कि इतना बड़ा मकान, इतने नौकर-चाकर, सिर्फ खाली साफ करने के लिए! किसलिए है यह? आपके रहने के लिए तो यह बहुत जरूरत से ज्यादा है। वे हंसने लगे। उनकी मुस्कुराहट में उनके अहंकार ने बड़ा विस्तार पा लिया। उनकी हंसी में उन्होंने कहा कि हम कोई साधारण आदमी नहीं हैं जो हम एक कमरे में रह लें, बड़े आदमी को कई कमरों में रहना पड़ता है। हम कोई साधारण आदमी नहीं कि एक बिस्तर पर सो जाएं, बड़े आदमी को कई बिस्तर पर सोना पड़ता है। हम कोई साधारण आदमी नहीं कि एक ही कपड़ा पहन कर निकल जाएं बाजार में, बड़े आदमी को कई कपड़े इकट्ठे पहनने पड़ते हैं। उनकी मुस्कुराहट फैल गई। उनकी मुस्कुराहट ने कहा कि वी कैन अफर्ड। उनकी मुस्कुराहट ने कुछ कहा नहीं, लेकिन कहा कि नहीं, हम अफर्ड कर सकते हैं, हम सौ कमरे भी रख सकते हैं।
वह मैं, उस मैं की बीमारी को हम सब तरफ से पोसते हैं। इसलिए छोटी कुर्सी दुख देने लगती है, क्योंकि बड़ी कुर्सी वाले का मैं बड़ा प्रकट हो सकता है। छोटी कुर्सी वाले को जरा सिकुड़ कर मैं प्रकट करना पड़ता है। हां, अपने से छोटी कुर्सी वालों के सामने जरा वह फैल सकता है। ऊपर की कुर्सी वाला आता है, तो वह एकदम दब कर और पूंछ हिलाने लगता है। तो उसे ऐसा लगता है: उस जगह कब पहुंच जाऊं जब कि मुझे किसी की तरफ पूंछ न हिलानी पड़े और सारे लोग मेरे चारों तरफ पूंछ हिलाएं। इसलिए दौड़ चलती है कि कैसे राष्ट्रपति हो जाऊं! कैसे प्रधानमंत्री हो जाऊं! फिर जो हो जाए, वह जब तक मर न जाए, उस जगह को नहीं छोड़ता। क्योंकि जगह छोड़ दे तो मुश्किल में पड़ जाता है। फिर नीचे उतर आता है। फिर मैं को सिकोड़ना और भी मुश्किल हो जाता है। मैं अगर फैल जाए, तो फिर सिकोड़ना बहुत ही कष्टपूर्ण हो जाता है। फिर बहुत ही मुसीबत हो जाती है उसे वापस अपनी जगह लौटाना। इसलिए अगर एक मिनिस्टर नीचे उतर आए मिनिस्टरी से, तो उसकी बड़ी तकलीफ हो जाती है। तकलीफ? तकलीफ मिनिस्टरी खोने की उतनी नहीं होती है, तकलीफ इस बात की हो जाती है कि मिनिस्टर का अहंकार फैल गया होता है, फिर नीचे सिकुड़ जाना पड़ता है।
एक गांव में मैं मेहमान था और रास्ते से गुजरता था। तो उस प्रदेश के, पीछे कोई मुख्यमंत्री थे, वे मेरे साथ थे। अब तो वे नहीं हैं, अब तो भूतपूर्व हो गए वे, तो वे मेरे साथ थे। रास्ते में कार बिगड़ गई। और सुनसान रास्ता था और बहुत कम गाड़ियों के गुजरने की उम्मीद थी। रात का वक्त था। तो वहां से एक नॉन-स्टाप बस गुजरती थी। तो उन्होंने कहा कि नहीं, कोई चिंता की बात नहीं, उसे रुकवा लेंगे। वह रुकती तो नहीं है, लेकिन रुकवा लेंगे। भूतपूर्व मुख्यमंत्री थे, सोचा रुकवा लेंगे। तो एक नाके पर, जहां एक पुलिस का आदमी सोता था, उसको जाकर उन्होंने उठाया। और उन्होंने कहा कि वह जो बस यहां से गुजरती है, जो रुकती नहीं है, उसे रोकना है, क्योंकि हमारी गाड़ी बिगड़ गई। उस आदमी ने, मैं मौजूद था, उस आदमी ने कहा कि महाराज...वे ब्राह्मण हैं, अभी भी ब्राह्मण होना मुख्यमंत्री होने के लिए बड़ा जरूरी है...उसने कहा, महाराज, बहुत मुश्किल है, वह न रुकेगी।
तो उन्होंने कहा, क्या कहते हो! न रुकेगी? जानते नहीं हो कि मैं कौन हूं!
तो उन्होंने कहा, क्या कहते हो! न रुकेगी? जानते नहीं हो कि मैं कौन हूं!
उसने कहा, मैं भलीभांति जानता हूं। आपको और न जानूं! लेकिन आप भूतपूर्व हैं। उस कांस्टेबल ने कहा, आप भूतपूर्व हैं। बस न रुकेगी।
वे मुख्यमंत्री एक दफा उस कांस्टेबल की तरफ देखे, एक दफा मेरी तरफ देखे। अब उनके अहंकार को ऐसी पीड़ा जो उस दिन हुई वह कभी न हुई होगी। एकदम सिकुड़ गए, जब उसने कहा, भूतपूर्व हैं आप, पहचानता अच्छी तरह हूं। लेकिन बस न रुकेगी, नॉन-स्टाप है, वह नहीं रुकती।
अब एक कांस्टेबल जो है मुख्यमंत्री को पूंछ हिलवा दिया। कांस्टेबल को भी तो कभी-कभी मौका मिलना चाहिए। कई बार इनके आस-पास घूमा होगा, आज इनको भी घुमा दिया। अब उन्हें ऐसा लगने लगा कि अगर पुराना जमाना होता तो शायद पृथ्वी माता से कहते कि फट जाओ, और समा जाते उसमें मुख्यमंत्री। मैंने उनसे कहा कि मत कहिए, पृथ्वी माता से कुछ मत कहिए, लौट चलिए। ठीक है, उसको भी मौका मिला है, आपको मिल चुका है। उसको भी मौका मिला है, सबको मिलने दीजिए।
हमारा जो अहंकार है वह ऐसा रोग है जिसे हम प्रेम करते है, तो उसे छोड़ें कैसे? उसे हम बचाते फिरते हैं। अगर कोई उसे तोड़ने वाला है तो उसे हम दुश्मन समझते हैं। तो हम उसे कैसे तोड़ेंगे? हमारी मानसिक बीमारियां हमें बड़ी प्रीतिकर हैं। हमारे मानसिक इल्यूजंस, भ्रम बड़े प्रीतिकर हैं। हमने उन्हें खड़ा किया है, हमने उन्हें पाला है, पोसा है, पानी सींचा है, खाद दी है, मेहनत की है, बड़ा किया है किसी तरह। हम उनको कैसे सिकोड़ लें?
समाधि में जिसे जाना है, या तो वह समझ ले कि यह अहंकार की सारी की सारी यात्रा एक आटो-हिप्नोसिस है, एक आत्म-सम्मोहन है, जो मैं व्यर्थ ही अपने ऊपर थोपे चला जा रहा हूं। यदि यह समझ में आ जाए, तब किसी ध्यान की कोई भी जरूरत नहीं है। लेकिन अगर यह समझ में न आ सके, तो फिर मैं मानता हूं कि हमें इससे उलटा प्रयोग शुरू करना चाहिए। हमें मैं को मिटाने का भाव करना चाहिए। शायद जिस तरह हमने मैं को बनाया है, उसी तरह हम उसे मिटा भी सकें। अगर भाव से ही बना है, तो विपरीत भाव से मिट जाएगा। और तब खाली जगह रह जाएगी।
इसलिए सम्मोहन के मैं विरोध में भी हूं और पक्ष में भी। विरोध में इसलिए हूं कि सम्मोहन अगर भ्रम में ले जाता हो तो मैं विरोध में हूं, लेकिन अगर सम्मोहन पुराने भ्रमों को तोड़ता हो और रिक्त में ले आता हो तो मैं पक्ष में हूं। पाजिटिव सम्मोहन के मैं विरोध में हूं, निगेटिव सम्मोहन के मैं पक्ष में हूं। यह भी सम्मोहन है कि मैं यह हूं और यह भी सम्मोहन है कि मैं कुछ भी नहीं हूं। लेकिन "मैं हूं' इस सम्मोहन के मैं विरोध में हूं, क्योंकि यह सत्य से निरंतर दूर ले जाएगा। "मैं नहीं हूं' इस सम्मोहन के मैं पक्ष में हूं, क्योंकि यह सत्य के निरंतर पास ले आएगा।
और ध्यान रहे, रास्ता तो वही होता है दूर जाने के लिए भी और पास आने के लिए भी, सिर्फ रुख बदल लेना पड़ता है। अगर मुझे आपके पास आना है, तो चेहरा आपकी तरफ करके आना पड़ता है। और अगर आपसे दूर जाना है, तो आपकी तरफ पीठ करके जाना पड़ता है। रास्ता वही होता है। अभी जिस रास्ते से आप घर से यहां तक आए हैं, उसी रास्ते से वापस भी लौटिएगा। लेकिन आप कभी अपने मन में यह न सोचिएगा कि जिस रास्ते से हम गए थे, उसी रास्ते से वापस कैसे लौट सकते हैं? वह रास्ता तो घर से दूर ले जाने वाला है! नहीं, वह रास्ता घर के पास भी ले आएगा। फर्क इतना पड़ेगा कि जब दूर आए थे तो घर की तरफ पीठ करनी पड़ी थी और जब पास आ रहे हैं तो घर की तरफ मुंह करना पड़ेगा।
सम्मोहन दूर ले जा रहा है हमें, पीठ कर ली है अपनी तरफ; सम्मोहन पास ले आएगा, अगर मुंह कर लें अपनी तरफ।
तो मैं सम्मोहन के विरोध में भी हूं। ऐसे सम्मोहन के विरोध में हूं जो आपको किसी कल्पना को मजबूत करने के लिए किया जाता है। और ऐसे सम्मोहन के बिलकुल पक्ष में हूं जो कल्पनाओं को विसर्जित करने के लिए किया जाता है और निर्विकल्प कर देता है।
जैसे, मैं इस सम्मोहन के विरोध में हूं कि आप बैठ कर यह सोचें कि मैं ब्रह्म हूं, मैं ब्रह्म हूं, मैं ब्रह्म हूं। मैं इसके विरोध में हूं। लेकिन मैं इसके पक्ष में हूं कि मैं नहींहूं, मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं। क्या फर्क है इन दोनों में?
जैसे, मैं इस सम्मोहन के विरोध में हूं कि आप बैठ कर यह सोचें कि मैं ब्रह्म हूं, मैं ब्रह्म हूं, मैं ब्रह्म हूं। मैं इसके विरोध में हूं। लेकिन मैं इसके पक्ष में हूं कि मैं नहींहूं, मैं नहीं हूं, मैं नहीं हूं। क्या फर्क है इन दोनों में?
इनमें फर्क यह है कि ब्रह्म होने में आप एक पाजिटिव, एक विधायक सम्मोहन कर रहे हैं, जिसका आपको पता नहीं है। आपको पता नहीं है कि मैं ब्रह्म हूं, और आप थोप रहे हैं अपने ऊपर कि मैं ब्रह्म हूं। हो सकता है आप सम्मोहित हो जाएं और आपको ऐसा लगने लगे कि मैं ब्रह्म हो गया। वह भ्रम होगा, सत्य नहीं होगा। ब्रह्म होने के लिए आपको अपने को सम्मोहित करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि ब्रह्म आप हैं ही। अगर सब सम्मोहन टूट जाएं, तो आपको पता चल जाएगा कि मैं ब्रह्म हूं।
लेकिन आपने एक दूसरा सम्मोहन पैदा कर रखा है कि मैं यह हूं, मैं यह हूं--इसका पति हूं, इसका पिता हूं, इसका बेटा हूं, इस पद पर हूं, यह मेरा धन है, यह मेरी प्रतिष्ठा है, यह मेरी पदवी है--ये सारी उपाधियां आपने अर्जित कर ली हैं कल्पना में। मैं इस सम्मोहन के पक्ष में हूं कि आप कहें--न मेरा कोई नाम है, न मैं किसी का पिता हूं, न किसी का पति हूं, न बेटा हूं--मैं कोई भी नहीं, मैं कोई भी नहीं, मैं कोई भी नहीं। और एक ऐसी घड़ी आ जाए कि आप कुछ भी न रह जाएं। जिस क्षण यह घड़ी आ जाएगी कि आपको पता चले कि आप कुछ भी नहीं हैं, उसी क्षण भीतर एक विस्फोट हो जाएगा और आपको पता चलेगा--मैं तो ब्रह्म हूं। यह आपको सोचना न पड़ेगा, यह तो हो जाएगा। यह अपने से हो जाएगा। यह विस्फोट होगा। आप सिर्फ जगह खाली कर दें, आप मंदिर से सब मूर्तियां हटा दें, फिर जो मूर्ति शेष रह जाएगी वह परमात्मा की होगी। आपके हटाने के बाद, जब आपने मंदिर बिलकुल खाली कर दिया, कोई मूर्ति न रखी, जो आपने रखी थीं, सब मूर्तियां हटा लीं, तब भी जो शेष रह जाएगा वही परमात्मा है। आपकी रखी हुई मूर्तियां आपके हाथ की मूर्तियां हैं, उनका कोई भी मूल्य नहीं है।
लेकिन आपने एक दूसरा सम्मोहन पैदा कर रखा है कि मैं यह हूं, मैं यह हूं--इसका पति हूं, इसका पिता हूं, इसका बेटा हूं, इस पद पर हूं, यह मेरा धन है, यह मेरी प्रतिष्ठा है, यह मेरी पदवी है--ये सारी उपाधियां आपने अर्जित कर ली हैं कल्पना में। मैं इस सम्मोहन के पक्ष में हूं कि आप कहें--न मेरा कोई नाम है, न मैं किसी का पिता हूं, न किसी का पति हूं, न बेटा हूं--मैं कोई भी नहीं, मैं कोई भी नहीं, मैं कोई भी नहीं। और एक ऐसी घड़ी आ जाए कि आप कुछ भी न रह जाएं। जिस क्षण यह घड़ी आ जाएगी कि आपको पता चले कि आप कुछ भी नहीं हैं, उसी क्षण भीतर एक विस्फोट हो जाएगा और आपको पता चलेगा--मैं तो ब्रह्म हूं। यह आपको सोचना न पड़ेगा, यह तो हो जाएगा। यह अपने से हो जाएगा। यह विस्फोट होगा। आप सिर्फ जगह खाली कर दें, आप मंदिर से सब मूर्तियां हटा दें, फिर जो मूर्ति शेष रह जाएगी वह परमात्मा की होगी। आपके हटाने के बाद, जब आपने मंदिर बिलकुल खाली कर दिया, कोई मूर्ति न रखी, जो आपने रखी थीं, सब मूर्तियां हटा लीं, तब भी जो शेष रह जाएगा वही परमात्मा है। आपकी रखी हुई मूर्तियां आपके हाथ की मूर्तियां हैं, उनका कोई भी मूल्य नहीं है।
तो उन मित्र ने ठीक ही पूछा है, वह सम्मोहन ही है। लेकिन कहना चाहिए डी-हिप्नोटाइजेशन है। सम्मोहन, सम्मोहन तोड़ने के लिए, मिटाने के लिए। कांटा झूठा, झूठे कांटों को अलग कर देने के लिए। और अगर आपको समझ में आ जाए कि कांटा झूठा है, इसलिए है ही नहीं, फिर तो कोई सवाल नहीं है, बात खतम हो गई। फिर आपके लिए कोई सवाल शेष नहीं रह जाता। लेकिन अगर बात खतम न हो गई हो, तो फिर कांटे को निकालना पड़ेगा। वह गड़ रहा है। झूठा सही, लेकिन गड़ रहा है, अच्छी तरह दुख दे रहा है। दूसरा कांटा खोजना पड़ेगा। फिर दोनों कांटे एक-दूसरे को काट देंगे। ऋण और धन मिल कर शून्य हो जाएगा। कट जाने पर शून्य रह जाएगा। उस शून्य में स्वयं का साक्षात्कार हो सकता है। - "ओशो"....SAMADHI KE DWAR PAR 03
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द्ववित्व में बंटे गुण धर्म , या तो पूरा मान लो असत्य , तो सब असत्य नजर आएगा और अगर मान लो की सब सत्य तो सब सत्य नजर आएगा , भटकन सत्य और असत्य के बीच भागने और दौड़ने में है , वस्तुतः सत्य और असत्य जैसा कुछ है ही नहीं , बस जो जैसा है वो है ! फिर भी द्वत्व के अपने नियम है , वो हमेशा आधा आईना देखने का आदी है , और आधा छुपा लेता है , किसलिए , अरे भाई दिमाग के लिए ! वो छुपा आधा दिमाग का उतावलापन बनता है क्यूंकि दिख रहा आधा तो है ही सुलझा हुआ । और लो जी शुरू हो गयी लव स्टोरी ................... !!
ऐसा लगता है क्यूंकि सब कभी विज्ञानं से प्रमाणित और कभी कवि की कविता और शायर की शायरी जैसा है काल्पनिक सत्य , हालाँकि उसका भी अपना सच है और उसका सच ही उसको जीवन दे रहा है यहाँ झूठ तो पैदा होते ही समाप्त हो जाता है , सब तरफ सिर्फ सच ही जीवन पाता है ! गति का सिद्धांत बड़ा वैज्ञानिक है इसको समझना रुचिकर है , और असंभव नहीं क्यूंकि गति का विज्ञानं सभी जानते है , आभार विज्ञानं का जिसने इस अनजान राह पे अपने प्रमाण चिन्हित कर के सफर को काफी हद तक आसान कर दिया
वख्त नहीं बीतता ..... न ही नदी जैसा प्रवाहित, न ही अपनी ही धुरी पे घूमते लट्टू जैसा , उफ्फ्फ ये कितनी उपमाएं , दिमागी पुलाव सा व्यक्त अव्यक्त भाव और वख्त ! ये तो कहीं गया ही नहीं , तभी तो युगों का प्रसंग इतिहास इसके नाखून के अंश पे जैसे स्थित है , और हम एक बालक जैसे अपनी ही बनायीं हुई एक भागती गाडी पे खिड़की की सीट पे बैठे हुए बाहर ऊँगली दिखा दिखा के चिल्ला रहे है , वो देखो पेड़ भाग रहे है , वो देखो सूरज चल रहा है , वो देखो चाँद तारे निकल के डूब रहे है , क्यूंकि हम है जो सो रहे है और जाग रहे है , तो बताएं जरा कौन भाग रहा है ? चलती हुई गाडी से चिल्लाते इस बच्चे को अगर पेड़ कह सकते तो क्या कहते ?
अरे भाई हम नहीं , तुम भाग रहे हो !
गति हममे नहीं तुममे है ....
हा हा हा हा हा उफ़ ये द्वित्व और दृष्टि !
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