याज्ञवल्क्य ने कहा कि तू ध्यान से सुन। यह ध्यान बड़ा मुश्किल है। यह तीसरी बात है। ध्यान का अर्थ हैःजबरदस्ती नहीं, किसी लोभ और भय के कारण नहीं। अपने पर कोई तनाव डाल कर नहीं--सहज, शांत भाव से।
ध्यान से सुनना बड़ी कठिन बात है ।
तब तुम सिर्फ सुनते हो, सुनने में ही रस होता है। कोई आगे पुरस्कार, कोई फल--कारण नहीं होता। तुम सुनते हो, क्योंकि सुनना प्रीतिकर होता है, रसपूर्ण होता है। और सुनने में तुम पूरे खुल जाते हो। कोई तनाव भी नहीं होता है कि तुम अपने को ताने हुए हो। तुम अपनी मौज से सुनते हो। "ध्यान देकर तुम सुनते जाना, ज्यों-ज्यों मैं बोलता जाऊं।' यही तुम्हें मेरे साथ करना है। बैठना सीखना है। ध्यानपूर्वक सुनना सीखना है।
मैत्रेयी बैठ गई ध्यानपूर्वक सुनने लगी, तो याज्ञवल्क्य ने कहा, "अरे, पति की कामना के लिए पति प्रिय नहीं होता, अपनी आत्मा की कामना के लिए पति प्रिय होता है!' यह उपनिषदों का सार है--इन वचनों में।
इसलिए याज्ञवल्क्य ने बार-बार दुहराया है : "पत्नी की कामना के लिए नहीं, अपनी कामना के लिए ही पत्नी प्रिय होती है; आत्मा की कामना के लिए ही पत्नी प्रिय होती है। पुत्र की कामना के लिए नहीं, अपनी आत्मा की कामना के लिए ही पुत्र प्रिय होते हैं।'
उपनिषद कहते हैं कि तुम जो भी चाहते हो, वह तुम वस्तुतः किसलिए चाहते हो? क्या चाह का कारण वस्तु में है? या चाह का कारण तुम्हारे भीतर है? तुम पत्नी को चाहते हो--यह तुम पत्नी के लिए चाहते हो? या पत्नी को भी अपनी आत्मा के लिए चाहते हो? यह पत्नी सुख देती है, यह पत्नी प्रीतिकर है। इसके चारों तरफ सदा एक सुगंध बनी रहती है, एक ताजगी बनी रहती है, एक गीत गूंजता रहता है--यह तुम्हें प्रीतिकर है, यह तुम्हारा आनंद है। इसलिए यह पत्नी प्रीतिकर है। "अपने ही आनंद के लिए पत्नी प्रीतिकर है। अपने ही आनंद के लिए सब कुछ प्रीतिकर है।'
इस जगत में तुमने जो भी चाहा है, वह अपने लिए चाहा है। तुम कितना ही कहो कि मैं तेरे लिए ही चाहता हूं, तुम भी जानते हो, सुनने वाला भी जानता है कि वह "मधुर-असत्य' है। झूठ है, लेकिन कभी-कभी झूठ सुनना भी अच्छा लगता है।
अगर दो प्रेमियों की बातें सुनो, तो तुम्हें पता चलेगा कि मधुर-असत्य का क्या अर्थ होता है। दोनों झूठ बोल रहे हैं। जरूरी नहीं है कि जानकर बोल रहे हों। धोखा दे रहे हों, ऐसा भी नहीं है। खुद धोखे में हो सकते हैं।
यही तो मजा है, यही तो नशा है--प्रेम का। कि ऐसा नहीं है कि कोई तुम झूठ बोल रहे हो--जानकर--कि "तुझसे सुंदर कोई स्त्री नहीं है। कि तेरे बिना मैं एक क्षण न जी सकूंगा।' ऐसा नहीं है कि तुम जान कर झूठ बोल रहे हो। तुम इतने नशे में हो कि तुम्हें लगता है कि तुम ठीक ही बोल रहे हो। तुम्हें लगता है : तुम भीतर से ही बोल रहे हो। लेकिन होश नहीं है।
अगर होश हो, तो तुम्हें लगेगा : सारा प्रेम, सारा राग, सारी आसक्ति, सारी चाह, सारी वासना अपने ही सुख के लिए है। तुम सबको अपना साधन ही बना रहे हो। साध्य तुम ही हो।
तुम कितना ही कहो कि मैं कुरबान हो जाऊंगा--तुम्हारे लिए, लेकिन यह भी हो सकता है कि तुम कुरबान भी हो जाओ, लेकिन उस कुरबानी में भी तुम्हें ही सुख आ रहा है, इसलिए तुम कुरबान हो रहे हो।
इमेनुएल कांट ने एक बहुत महत्वपूर्ण बात कही है और इमेनुएल कांट पर उपनिषदों का बड़ा प्रभाव है। उसने कहा है कि एक आदमी नदी में डूब रहा है; तुम किनारे पर खड़े हो। तुम छलांग लगाकर, अपनी जान को जोखिम में डालकर उस आदमी को बचाते हो। सारी दुनिया कहेगी कि यह परार्थ है, कि परोपकार किया तुमने, कि तुमने अपनी जान को दांव पर लगाया। तुम साधन बने हो, दूसरे को साध्य बनाया है। लेकिन इमेनुएल कांट कहता है कि बहुत सोचने पर ऐसा नहीं लगता। बहुत खोजने पर ऐसा लगता है कि वहां खड़े रहना--किनारे पर, तुम्हें दुखद हो गया। "यह आदमी डूब रहा था', यह दुख नहीं है। इसका डूबना "तुम्हें' दुखद हो गया। अपना दुख मिटाने के लिए तुम कूदे।
लेकिन यह तो बहुत विश्लेषण करोगे तो समझ में आयेगा। और जब तुमने इसे बचा लिया, तो तुम प्रसन्न हुए। और तुमने अपनी जान दांव पर लगाई। इससे भी तुम प्रसन्न हुए कि तुम जान दांव पर लगा सकते हो, कि तुम कुरबानी कर सकते हो, कि तुम शहीद हो सकते हो। लेकिन सब चीजें घूमकर आत्मा पर आ जाती हैं। तुम ही केंद्र हो अपने जगत के। कोई दूसरा केंद्र हो भी कैसे सकता है !
कोई उपाय भी नहीं है कि तुम किसी दूसरे को अपना केंद्र बना दो। तुम कितना ही दूसरे का चक्कर लगाओ, लेकिन अंततः गहरे में तुम ही अपने केंद्र रहोगे। तुम ही साध्य हो।
कोई उपाय भी नहीं है कि तुम किसी दूसरे को अपना केंद्र बना दो। तुम कितना ही दूसरे का चक्कर लगाओ, लेकिन अंततः गहरे में तुम ही अपने केंद्र रहोगे। तुम ही साध्य हो।
उपनिषद इस पर जोर क्यों दे रहे हैं? याज्ञवल्क्य इसको क्यों इतना दुहरा रहे हैं? इसको दुहराने का कारण है। याज्ञवल्क्य यह कहना चाहता है कि अगर सभी चीजों का अंत तुम ही हो तो पहले इसका तो पता लगा लो कि तुम कौन हो? जो सभी चीजों का अंत है और जो सभी चीजों का साध्य है : इसे बिना जाने तुम क्यों जीवन को खराब कर रहे हो !
जिसके आनंद के लिए सब कुछ चाहा गया है, तुमने उसको ही नहीं जाना है अभी तक, तो तुम उसका आनंद कैसे उपलब्ध कर पाओगे? जो अंतिम सिंहासन पर विराजमान है, उससे पहचान तो कर लो।
आत्म-ज्ञान की इतनी आकांक्षा का कारण ही यही है कि जब तक तुम आत्म-ज्ञानी न हो जाओ, तब तक तुम जो भी करोगे, वह गलत होगा, वह भ्रांति में होगा। क्योंकि तुमने एक मौलिक सत्य जीवन में नहीं देखा--कि तुम्हारे अतिरिक्त कोई भी तुम्हारा केंद्र नहीं हो सकता।
आत्म-ज्ञान की इतनी आकांक्षा का कारण ही यही है कि जब तक तुम आत्म-ज्ञानी न हो जाओ, तब तक तुम जो भी करोगे, वह गलत होगा, वह भ्रांति में होगा। क्योंकि तुमने एक मौलिक सत्य जीवन में नहीं देखा--कि तुम्हारे अतिरिक्त कोई भी तुम्हारा केंद्र नहीं हो सकता।
और पति-पत्नी की ही बात नहीं है; देवता भी देवता के लिए नहीं, अपनी ही आत्मा के लिए प्रिय होता है। भगवान भी भगवान के लिए नहीं, अपनी ही आत्मा के लिए प्रिय होता है। इसलिए उपनिषद कहते हैं ः आत्मा से बड़ा कोई भी सत्य नहीं है। इसलिए वे परमात्मा को भी आत्मा से बड़ा सत्य नहीं कह सकते। क्योंकि परमात्मा भी परिधि पर ही रह जाता है; केंद्र पर तो तुम्हीं हो। तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हारी जीवन ऊर्जा का कोई भी साध्य नहीं है। तो तुम कौन हो, जिसके लिए यह सारा जगत चारों तरफ घूम रहा है?
रामतीर्थ ने कहा है : "मैं कौन हूं--जिसके चारों तरफ चांदत्तारे घूम रहे हैं? मैं कौन हूं--जिसके लिए सुबह होती है, सांझ होती है, आकाश में तारे उगते हैं?'
"मैं कौन हूं?' इसको बिना जाने, सब अधूरा है। और तब तक मैं जो भी करूंगा, वे कदम--अंधेरे में उठाये गये कदम हैं। वे मुझे मंजिल पर नहीं ले जायेंगे।
मंजिल यहां भीतर छिपी है। और हम सदा मंजिल बाहर देखते हैं। पति देखता है--पत्नी में, पत्नी देखती है--पति में। दोनों चूक जाते हैं। आब्जेक्ट में, वस्तु में, कहीं बाहर, बाह्य में मंजिल दिखाई पड़ती है। जबकि मंजिल है--सब्जेक्ट में--भीतर अंतस में। जबकि मंजिल तुम हो।
"मंजिल बाहर है'--इस धोखे को जो व्यक्ति तोड़ लेता है, उसके जीवन में पहली किरण उतरती है--ज्ञान की। इसलिए दुहराये जाता है याज्ञव*लकय, ताकि मैत्रेयी को सब तरफ से खयाल में आ जाये कि "इस सब कुछ की कामना के लिए नहीं, अपनी आत्मा के लिए ही सब कुछ प्रिय होता है।'
एक बात याज्ञवल्क्य कहता है कि मैत्रेयी, तू ठीक से समझ ले, बैठकर समझ ले, ध्यान से समझ ले कि तेरे भीतर ही केंद्र छिपा है--सारे अस्तित्व का। और तू उसे बाहर खोजती फिरे, तो अनंत-अनंत जन्मों तक भटकती रहेगी--परिधि पर। वह केंद्र तुझे मिलेगा नहीं। क्योंकि वह खोजने वाले में छिपा है।
हमारी सारी कठिनाई यही है--सारी अड़चन, उलझन यही है, पहेली यही है कि हम जिसे खोज रहे हैं, वह भीतर छिपा है। काश, वह बाहर होता, तो हम कभी का उसे पा लेते। दिखाई पड़ता होता, तो हम कभी का उसे देख लेते। मुट्ठी में आता, तो हमने कभी का उसे मुट्ठी में ले लिया होता। लेकिन वह दिखाई नहीं पड़ता। वह वहां छिपा है, जहां से हम देखते हैं। वह मुट्ठी की पकड़ में नहीं आता, क्योंकि वह वहां छिपा है--मुट्ठी के भीतर, अंगुलियों में। उसे छूने का कोई उपाय नहीं, क्योंकि वह छूनेवाला है। यह जो शि*फट करना है ध्यान का--बाहर से भीतर की तरफ, कि वह चाह के विषयों में नहीं, चाहनेवाले में छिपा है--यह घटना जिस दिन घटती है, उसी दिन व्यक्ति वानप्रस्थ हो जाता है।
वानप्रस्थ होने के क्षण में याज्ञवल्क्य ने ये सत्य कहे। यह उसे दिखाई पड़ रहा था, यह उसके जीवन का अनुभव था। जीवन में--गृहस्थी में रहकर उसने जाना था--धन, संपत्ति, यश, कीर्ति इकट्ठी करके उसने जाना था कि "सब कुछ चाहा जाता है--अपने लिए। और अपने को ही हम भूल जाते हैं। जो सब चाहने के भीतर छिपा है, उसकी विस्मृति हो जाती है।'
"मैत्रेयी, यह आत्मा देखने, सुनने, चिंतन करने और ध्यान करने योग्य है। जब यह आत्मा देखी जाती है, सुनी जाती है, विचारी जाती है, जानी जाती है, तब सब कुछ जान लिया जाता है।'
कहते हैं उपनिषद कि उस एक को जानने से सब जान लिया जाता है। और जो सबको जानने में लगा रहता है, वह उस एक से भी वंचित रह जाता है।
"यह आत्मा देखने, सुनने, चिंतन करने, ध्यान करने योग्य है।' यही तो जीवन का सारा आधार है, जिस पर सब खड़ा है। वही है देखने योग्य, बाकी कुछ भी देखने योग्य नहीं है। इसलिए ज्ञानी की आंखें धीरे-धीरे संसार के प्रति झपती जाती हैं। बाहर की तरफ उसकी आंख का परदा गिरने लगता है। क्योंकि अब सारी ऊर्जा भीतर की तरफ बहती है। अब उसे देखना है, जो सबका देखने वाला है।
ध्यान में अगर तुम आंख बंद करके बैठते हो, तो उसका प्रयोजन यही है, ताकि ऊर्जा बाहर न जाये। देखने की शक्ति भीतर की तरफ बहे।
"वही' सुनने योग्य है, इसलिए ध्यानी धीरे-धीरे बाहर के सुनने की तरफ रस को क्षीण करता है। और भीतर के नाद की तरफ प्रवाहित होता है। वह अंतर्नाद--उसको हिंदुओं ने ओंकार कहा है--वहां ओंकार की ध्वनि निरंतर गूंज रही है। ओंकार कोई मंत्र नहीं है, वह तुम्हारे भीतर गूंजती हुई ध्वनि है। वह तुम्हारे अस्तित्व का संगीत है। वह तुम्हारे भीतर का सन्नाटा है, जो ओंकार जैसा मालूम पड़ता है।
लेकिन जब तक तुम्हारे कान बाहर की आवाज से भरे होंगे, तब तक तुम भीतर की उस छोटी, धीमी, सू*म आवाज को कैसे सुनोगे? इसलिए कान को बाहर की भीड़, और बाहर के बाजार, और बाहर की आवाज से खाली कर लेना है।
आंख को बाहर के रूप-रंग-आकृति से खाली कर लेना है। जीभ को बाहर के स्वाद से, नाक को बाहर की गंध से, हाथ को बाहर के स्पर्श से खाली कर लेना है।
जब तुम बाहर की समस्त संवेदनाओं से खाली हो जाते हो, तब तुम्हें जीवन के केंद्र की संवेदना पहली दफा होती है। तब तुम पहली दफा अपने को सुनते हो, तब तुम पहली दफा अपने को देखते हो, तब पहली दफा तुम्हें अपना स्पर्श होता है, अपना स्वाद आता है। और यह स्वाद सच्चिदानंद का है। क्योंकि जिसने इस "एक' को चख लिया, उसने जीवन का सारा रहस्य चख लिया। क्योंकि तुम्हारे भीतर स्रोत छिपा है, जड़ें छिपी हैं; तुम्हारे भीतर परमात्मा छिपा है।
लेकिन जब तक तुम्हारे कान बाहर की आवाज से भरे होंगे, तब तक तुम भीतर की उस छोटी, धीमी, सू*म आवाज को कैसे सुनोगे? इसलिए कान को बाहर की भीड़, और बाहर के बाजार, और बाहर की आवाज से खाली कर लेना है।
आंख को बाहर के रूप-रंग-आकृति से खाली कर लेना है। जीभ को बाहर के स्वाद से, नाक को बाहर की गंध से, हाथ को बाहर के स्पर्श से खाली कर लेना है।
जब तुम बाहर की समस्त संवेदनाओं से खाली हो जाते हो, तब तुम्हें जीवन के केंद्र की संवेदना पहली दफा होती है। तब तुम पहली दफा अपने को सुनते हो, तब तुम पहली दफा अपने को देखते हो, तब पहली दफा तुम्हें अपना स्पर्श होता है, अपना स्वाद आता है। और यह स्वाद सच्चिदानंद का है। क्योंकि जिसने इस "एक' को चख लिया, उसने जीवन का सारा रहस्य चख लिया। क्योंकि तुम्हारे भीतर स्रोत छिपा है, जड़ें छिपी हैं; तुम्हारे भीतर परमात्मा छिपा है।
"यह आत्मा देखने, सुनने, चिंतन करने और ध्यान करने योग्य है।' तुम अपनी जीवन की ऊर्जा को--चाहे वह देखने की हो, चाहे सुनने की हो, चाहे चिंतन करने की हो, चाहे ध्यान करने की हो--सबको भीतर लगा दो।
- "ओशो "
Sahaj Samadhi Bhali - 14
Sahaj Samadhi Bhali - 14
"Know thyself " The soul of all Religions..The purpose of Life...
ReplyDeletePranam , Bilkul sahi kaha Mitr .
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