Saturday, 28 March 2015

एकम सत्यम जगन्मिथ्या

सत्य  तो एक है , पर मन करोड़  बँटें हुए  अरबों  में  वास्तविक रूप से  असंख्य  अगिनित , रंग तो सात ही पर  उनके मिश्रण  अनगिनत  सभी के नाम  सभी के उपयोग , महायोगी का  परम प्रस्फुटन " आध्यात्म "  का पूर्ण प्रयास  ध्यान द्वारा  सभी विभाजन को समाप्त  करते हुए, अपने तेज से ,जन्म से इकठे  समाज से इकठे और धर्म से इकठे  सभी विश्वासो और अंधविश्वासों से मुक्त करते हुए जीव द्वारा  पुनः  उस वैभव का स्पर्श करना , पुनः  उस सत्ता को सार्वभौमिक  अर्थ में  छू पाना।   इससे  ज्यादा  कुछ  तो नहीं निरंतर खाली ही होना है   पर जो भी हाथ आएगा वो  कीमती है , बेशकीमती है , अपनी सत्ता का  भान  और अपनी क्षुद्रता  का अहसास , ये दोनों ही पूर्ण भाव अकेले समस्त अंतरिक विष विकारो  से  लड़ने में समर्थ है।  
ये भी क्या कम है ? हैं न ! 

ऐसे प्रश्न सरल लगते हैं। सभी के मन में उठते है। पर ऐसे प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं है। ऐसे प्रश्न वस्तुत: प्रश्न ही नहीं हैं, इसलिए उनका उत्तर नहीं।

जीवन क्या है, इसका उत्तर तभी हो सकता है जब जीवन के अतिरिक्त कुछ और भी हो। जीवन ही है, उसके अतिरिक्त कुछ और नहीं है। हम उत्तर किसी और के संदर्भ में दे सकते थे, लेकिन कोई और है नहीं, जीवन ही जीवन है। तो न तो कुछ लक्ष्य हो सकता है जीवन का, न कोई कारण हो सकता जीवन का। कारण भी जीवन है और लक्ष्य भी जीवन है।

ऐसा समझो, कोई पूछे—किस चीज पर ठहरे हो? 
—छत पर। 
और छत किस पर ठहरी है? 
तो कहो—दीवालों पर। 
और दीवालें किस पर ठहरी हैं? 
तो कहो—पृथ्वी पर। 
और पृथ्वी किसी पर ठहरी है? 
तो  कहो गुरुत्वाकर्षण पर। 
और ऐसा कोई पूछता चले—गुरुत्वाकर्षण किस पर ठहरा है? 
तो—चाँद —सूरज पर। 
और चांद—सूरज — तारो पर। 
तारे  — अपनी अपनी आकाशा गंगाओं  पर।  
आकाशगंगाये  — अपने अपने केंद्र से  आकर्षित  , किन्तु सभी  एक केंद्र से बंधे है 
और अंतत: यदि जिज्ञासु ये  पूछे कि वो केंद्र किस पर ठहरा है? तो प्रश्न तो ठीक लगता है, भाषा में ठीक जंचता है, लेकिन सब किसी पर कैसे ठहर सकेगा, सब में तो वह भी आ गया है जिस पर ठहरा है। सब में तो सब आ गया। बाहर कुछ बचा नहीं।

इसको ज्ञानियो ने अति प्रश्न कहा है। सब किसी पर नहीं ठहर सकता। इसलिए परमात्मा को स्वयंभू कहा है। अपने पर ही ठहरा है। अपने पर ही ठहरा है, इसका अर्थ होता है, किसी पर नहीं ठहरा है।

जिज्ञासा  उठी , एक सत्य को लेकर , प्रश्न जगे , प्रश्न जगे तो उत्तर  भी तैयार  हो गए , देने ही पड़ेंगे , क्यूंकि प्रश्न उठे है , तो ज्ञाता के सामने उठे है , अब समाधान  देना हो तो  कैसे ?  एक सत्य को बाँटना पड़ेगा  दो भागो में , समझाने के लिए बाँटना ही पड़ेगा , जिन ज्ञानियों  ने तपस्वियों ने दार्शनिकों ने  उत्तर दिए, उन्होंने जीवन को दो हिस्सों में तोड़ लिया। एक को कहा—यह सत्य  जीवन और एक को कहा—वह मिथ्या जीवन। यह जीवन माया, वह जीवन सत्य इस जीवन का अर्थ फिर खोजा जा सकता है। इस सत्य जीवन का अर्थ है—उस मिथ्या जीवन को खोजना। इस मिथ्या जीवन का प्रयोजन है—उस सत्य जीवन को पाना। यह अवसर है। मगर तब जीवन को बांटना पड़ा। बाटो तो उत्तर मिल जाएगा। मगर उत्तर थोड़ी दूर तक ही काम आएगा। फिर अगर कोई पूछे कि वह जीवन क्यो है—सत्य का, मोक्ष का, ब्रह्म का—फिर बात वहीं अटक जाएगी। एक सीमा के बाद उत्तर  भी बंद हो जायेंगे।

पर विभाजन  मस्तिष्क के साथ आदतन चिपक गया , क्यूंकि विभाजन बड़े काम का  है  कृत्रिम है, फिर भी काम है। अपने भीतर भी  इन दो धाराओं को थोड़ा पृथक—पृथक करके देखा जा सकता  है। थोड़ी दूर तक सहारा मिलेगा। इसी आधार पे  सारे   विषय जो  मूल में एक है  ऊपर से विभाजित है।  सभी विषयों का उद्गम एक है , किन्तु नन्हे  बालक तक जाते जाते  खंड खंड हो जाता है , क्यूंकि एक एक कदम चलना ,   एक एक श्वांस लेते लेते  जीवन जीना , एक एक  सफलता की उंच्याइयों  को छूना , अपनी ही रुचियों को  और भी अधिक सूक्ष्तम् साधन से समझ पाना और बढ़ना  आसान होता है।  रंगो में  दो हो रंग सफ़ेद और काला  किन्तु  सात रंगो के अस्तित्व को  भी इन्द्रधनुष से  सिर्फ अलग ही नहीं किया  उन रंगो के भी हजारो मिश्रण  बनाये , जिनके नाम भी दिए।  समाज  बनता ही है  खंड खंड हो के , पृथ्वी बांटी , देश बांटे ,  प्रदेश बांटे , शहर , सड़क  गली मोहल्ले  बांटे ,  घर  बंटे  कमरों  में  और लोगो के दिल भी बंटे बंटे , विषय बंटे-बंटे , अध्याय , अध्यन शैली  बंटी , योग्यताएं भी बँटी , व्यवसाय , रोजगार  बंटे, बांटने  का क्रम  मनुष्य  में संस्कार रूप में  रचा बसा है , सुविधा है , बंटवारा काम का है थोड़ा थोड़ा  इसने किया  थोड़ा उसने किया और समाज खड़ा हो गया ,  इसीलिए  धर्म भी  राई राई  बंटा  है। जाति  धर्म सम्प्रदाय में जन्म से बंटे हुए  मनुष्य के  धर्म में भयंकर बंटवारा  है वो भी कठोरता के साथ अपनी आस्थाओं के नाम पर  उसी  एक के लिए एक दूसरे को  मारडालते है  और ठीक इसके विपरीत  अध्यात्म  परम मौन में  शांति के साथ  अपने परम प्रिय केंद्र के साथ तादात्म्य और एकात्मता का  अनुभव है।  

आध्यात्म  इसी गुथी हुई  रस्सी के रेशा रेशा  हुए तारों को पुनः बिनते  हुए  को एक एक कदम  पुनः वापिस मूल की तरफ जाने का  नाम है  इन असंख्य बँटवारों को एक एक कर साथ  लेकर एक एक कड़ी को  जोड़ते  हुए गर्भ रहस्य  में  पुनः  बीज रूप में  बैठ  उस एक शक्ति का स्पर्श करना है। और इसी पुनः वापिसी के प्रयास को नेति नेति  के सिद्धांत के साथ जलकुम्भी रुपी कचरा हटाते हुए  विषय को जोड़ते चले जाते है। और अंत में  उस एक को  महसूस कर पाने में ह्रदय  मस्तिष्क के सहयोग से समर्थ होता है , जिसको सहस्त्रधार का खुलना भी कहते है। सहस्त्रधार खुलने पर  एक दिव्यता का स्वाभाविक  जन्म होता है  जिस सहस्रदल के अनुभव होते ही अपनी  क्षुद्रता  के साथ अपनी  सम्पूर्णता भी स्वयं में  प्रकट होती है।   सांसारिक माया  का अस्तित्व दृष्टिगत होता है  जो  मात्र  अपनी ही वासनाओ का सिलसिला है।  वास्तव में माया है ही नहीं।  उसका अस्तित्व हमारे  छद्म जीवन के प्रति  लगाव से है। और मुख्य है की ये अनुभवातीत ज्ञान माना हुआ नहीं  जाना गया अनुभवजनित होता है, इसलिए शंकारहित है , संभवतः  कहने के लिए शब्द हो या नहीं , अनुभव  और मौन स्वयं बोलता है।  और सुनने वाला सुनता भी है किन्तु  ध्यान रहे मानने के लिए नहीं जानने के लिए  सुना गया फलित भी होता है।

सशंकित सत्य के खोजी के लिए  एक तो वह है जो  दिखायी पड़ता है, और एक वह है जो देखता है।

दृश्य और द्रष्टा । 
ज्ञाता और ज्ञेय । 
जाननेवाला और जाना जाने वाला।

उसमें ही जीवन को खोजना जो जानने वाला है। इस तरह  दर्शन शास्त्र  बन गया  उसके, एक मौलिक  दर्शन शास्त्र भी  विद्वान समीक्षा के आधार पे  विभाजन हुए , द्वैत  और अद्वैत , ईश्वर की सत्ता दोनों में थी  किन्तु द्वैत   ईश्वर भी विभाजित हुआ  लिंग के आधार पे , भाव के आधार पे , कर्म के आधार पे स्थान के आधार पे , तत्व के आधार पे  और विभाजन  होता चला गया , लोगो को भाव उड़ेलने की  सुविधा होती चली गयी , पूजा  अर्चन होम  कर्मकांड  होते चलेगये।  अद्वैत  की सत्ता को छूना  आसान नहीं था।  मन की एकाग्रता , निर्दोष ह्रदय की भाव लौ  अत्यंत आवश्यक थी , इसलिए इसको  अभ्यासी योगियों  का विषय  बना दिया।

दर्शन शास्त्र में भी अधिक लोग उसमें खोजते हैं जो दृश्य है , दिखने वाला पकड़ना ज्यादा आसान है , तत्वों को छूने  की सुविधा है इन्द्रियां सहयोग करती है , इसीलिए  खोजी  धन में  और धन द्वारा खोजते है , पद में और पद द्वारा  खोजते है । पद और धन दृश्य हैं। समाज के  धर्म में  दृश्य  को स्थान मिला है , मंदिर  पूजन , पंडित , कहने का अर्थ है जो भी   बाहर खोजते है सब दृश्य है।  दूसरा  दृष्टा  भाव  उसमे खोजना अत्यधिक कठिन और अरुचिकर लगता है , साक्षी है, तो परम जीवन की स्फुरणा मिलेगी। उसी स्फुरणा में सारे प्रश्न के  उत्तर है—मेरे पास अथवा किसी के पास  उत्तर नहीं है ,  कोई उत्तर कभी किसीने  नहीं दिया  है। उत्तर है ही नहीं, जो है वो मजबूरी है— देना चाहा है बहुतों ने कभी किसी  ने कोई उत्तर नहीं दिया है । और जिन्होंने उत्तर सच में देने की चेष्टा की है, उन्होंने सिर्फ इशारे बताए हैं कि उसमे से  अपना उत्तर जैसे चाहो तोड़ मरोड़ के खोज लो , बना लो , अपनी संतुष्टि के लिए  या सामने वाले की संतुष्टि के लिए  ।

ज्ञानयों ने उत्तर  नहीं दिया, संकेत किए हैं—ऐसे चलो, तो उत्तर मिल जाएगा। राह दिखाई है  स्वयं मशाल बनके उन राहों पे खड़े भी है , किन्तु उस  सत्य को क्या शब्द देंगे जो स्वयं में निःशब्द है , उस भाषा को क्या कहेंगे जिसकी कोई भाषा ही नहीं।  उसका आकार क्या कहेंगे ? 

वास्तव में  कोई उत्तर बाहर नहीं है,सारे  उत्तर  वहीं भीतर है जहाँ प्रश्न है । उत्तर है इस रूपांतरण में कि मेरी आखें बाहर न देखें, भीतर देखें। मेरी आखें दृश्य को न देखें, द्रष्टा को देखें। मैं अपने अंतरतम में खड़ा हो जाऊं, जहां कोई तरंग नहीं उठती; वहीं उत्तर है, क्योंकि वहीं जीवन अपनी पूरी विभा में प्रकट होता है। वहीं जीवन के सारे फूल खिलते हैं।

वहीं जीवन का नाद है—ओंकार है।

1 comment:

  1. "जब आंख भी बंद, कान भी बंद और भीतर होश का दीया जला, फिर कैसा विचार? उसी को तो निर्विचार कहा है। उसी को तो निर्विकल्प समाधि कहा है। ऐसी ही घड़ी में तो आकाश तुम्हारे भीतर उतर आता है। ऐसी ही घड़ी में तो बूंद में सागर समाविष्ट हो जाता है।"
    ~ओशो~

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