Saturday 28 March 2015

साक्षी की तलाश ही अध्यात्म (Osho)


साक्षी का मतलब क्या है? साक्षी का मतलब है: देखने वाला, गवाह। 

उपनिषद इसी की खोज में चलते हैं। साफ करते चले जाते हैं; एक-एक चीज को अलग करते जाते हैं, जैसे कोई प्याज के छिलके को उघाड़ता चला जाए। और जब तक छिलके बचते हैं, उघाड़ते ही चले जाते हैं। अगर प्याज के छिलके उघाड़ते चले जाएं तो पीछे आपके हाथ कुछ भी न लगेगा। प्याज छिलका ही छिलका है, वस्त्र ही वस्त्र; निकालते चले जाएं तो भीतर कुछ भी न मिलेगा। जैसे किसी ने कपड़ों की एक गुड़िया बनाई हो, और हम एक-एक कपड़ा निकालते चले जाएं। एक कपड़े को निकालें, दूसरा कपड़ा बचे। उसे निकालें, तीसरा निकल आए। निकालते चले जाएं, लेकिन कपड़े की ही गुड़िया हो तो आखिर में सब कपड़े निकल जाएंगे, गुड़िया पीछे बचेगी नहीं। आखिर में शून्य हाथ लगेगा।

तो बड़ी खोज यही है मनुष्य की कि आदमी भी कहीं पर्तों का ही एक जोड़ तो नहीं है? कि हम उघाड़ते चले जाएं और भीतर फिर कुछ बचे ही न! कह दें कि शरीर भी मैं नहीं हूं और मन भी मैं नहीं हूं; और यह भी नहीं और यह भी नहीं; फिर कहीं ऐसा न हो कि प्याज की कहानी हो जाए! आखिर में कुछ भी न बचे जिसको हम कह सकें कि मैं हूं।

लेकिन उपनिषद कहते हैं, अगर यह भी हो तो भी सत्य को जान लेना जरूरी है। अगर यह भी सत्य हो कि भीतर कुछ भी नहीं है, तो भी जान लेना जरूरी है; क्योंकि सत्य को जान लेने के परिणाम महत्वपूर्ण हैं। लेकिन खोज करने पर अंततः पता चलता है कि नहीं, वस्त्रों का जोड़ ही नहीं है आदमी, मात्र पर्त और पर्त और पर्त ही नहीं है, पर्तों के भीतर भी कुछ है जो पर्तों से भिन्न है। लेकिन उसका पता तभी चलता है जब हम सब पर्तों को उखाड़ कर भीतर पहुंच जाएं।

उस तत्व का नाम उपनिषद कहते हैं साक्षी। यह बड़ा कीमती शब्द है, और बड़ा मूल्यवान। और पूरब का सारा चिंतन, सारी मनीषा, सारी प्रतिभा, इस एक छोटे से शब्द में निहित हो गई है। इससे महत्वपूर्ण शब्द पूरब ने दूसरा दुनिया को नहीं दिया है--साक्षी।


साक्षी का मतलब क्या है? साक्षी का मतलब है: देखने वाला, गवाह।


मैं शरीर नहीं हूं, ऐसा किसको अनुभव होता है? मैं मन नहीं हूं, ऐसा किसको अनुभव होता है? ऐसा कौन इनकार करता चला जाता है कि मैं यह नहीं हूं, मैं यह नहीं हूं, मैं यह नहीं हूं?


एक तत्व है हमारे भीतर दर्शन का, दृष्टि का, द्रष्टा का, देखने का। हम देख रहे हैं; हम जांच रहे हैं।


वह जो देख रहा है, वही है साक्षी; जो दिखाई पड़ रहा है, वही है जगत। जो देख रहा है, वही हूं मैं; और जो दिखाई पड़ रहा है, वही है जगत। अध्यास का अर्थ है कि जो देख रहा है, वह भूल से यह समझ लेता है कि जो दिखाई पड़ रहा है वह मैं हूं। यह अध्यास है।


एक हीरा मेरे हाथ में रखा है। उसे मैं देख रहा हूं। अगर मैं यह कहने लगूं कि मैं हीरा हूं तो अभ्यास होगा। क्योंकि हीरा मेरे हाथ पर रखा है, दिखाई पड़ रहा है, आब्जेक्ट है, एक विषय है, और मैं देखना वाला हूं, अलग हूं। देखना वाला सदा ही अलग है उससे जो दिखाई पड़ता है। देखने वाला कभी भी दृश्य के साथ एक नहीं है। देखने वाला सदा ही दिखाई पड़ने वाले से भिन्न है। मैं आपको देख रहा हूं क्योंकि आपसे भिन्न हूं, आप मुझे देख रहे हैं क्योंकि मैं आपसे भिन्न हूं। जो भी दिखाई पड़ता है वह आपसे भिन्न है। उसको ही अपने से अभिन्न समझ लेना अध्यास है। जिसको आप देख रहे हैं उसके साथ इतने मोहित हो जाना कि लगने लगे यह मैं ही हूं, यही भ्रांति है। इस भ्रांति को तोड़ना है और अंततः उस शुद्ध तत्व को खोज लेना है जो सदा ही देखने वाला है और कभी दिखाई नहीं पड़ता। 

यह थोड़ा कठिन है। जो देखने वाला है वह कभी दिखाई नहीं पड़ सकता। क्योंकि वह किसको दिखाई पड़ेगा? आप सारी चीजों को देख सकते हैं जगत की, सिर्फ अपने को छोड़ कर। आप अपने को कैसे देखिएगा? क्योंकि देखने में दो की तो जरूरत पड़ेगी ही--जो देखे और जो दिखाई पड़े। आप सब कुछ देख सकते हैं, अपने भर को आप नहीं देख सकते हैं। कैसे देखिएगा? किसी चमीटे से हम उसी चमीटे को पकड़ने की कोशिश करने लगें! सब पकड़ सकते हैं उस चमीटे से, सिर्फ उसी चमीटे को पकड़ने की कोशिश असफल जाएगी। और तब बड़ी मुश्किल होगी कि यह चमीटा भी कैसा पागल है! सब कुछ पकड़ लेता है तो अपने को क्यों नहीं पकड़ पाता?

हम सब कुछ देख लेते हैं, अपने को नहीं देख पाते। देख भी नहीं पाएंगे। और जिसको भी हम देख लेंगे, जान लेना कि वह हम नहीं हैं। तो जिस चीज को भी आप देखने में समर्थ हो जाएं, आप समझ लेना कि इतनी बात तय हो गई कि यह मैं नहीं हूं। कोई आदमी अगर ईश्वर का दर्शन कर ले, तो समझ लेना एक बात पक्की हो गई कि आप ईश्वर नहीं हैं। आपको भीतर प्रकाश का दर्शन हो जाए, तो समझ लेना एक बात पक्की हो गई कि आप प्रकाश नहीं हैं। आपको भीतर आनंद का अनुभव हो जाए, तो आप एक बात पक्की समझ लेना कि आप आनंद नहीं हैं। जिस चीज का भी अनुभव हो जाए वह आप नहीं हैं। आप तो वह हैं जिसको अनुभव होता है।

तो जो भी चीज अनुभव बन जाती है, उसके आप पार हो जाते हैं। इसलिए एक कठिन बात समझ लेनी उपयोगी होगी, कि अध्यात्म कोई अनुभव नहीं है। दुनिया में सब चीजें अनुभव हैं, अध्यात्म कोई अनुभव नहीं है। अध्यात्म तो उसकी तरफ पहुंच जाना है जिसको सब अनुभव होता है और जो स्वयं कभी अनुभव नहीं बनता--अनुभोक्ता, साक्षी, द्रष्टा।

आपको मैं देखता हूं; उधर आप हैं, इधर मैं हूं। उधर आप हैं जो दिखाई पड़ रहा है; इधर मैं हूं जो देख रहा है। ये दो हैं। अपने को बांटने का कोई उपाय नहीं है कि मैं अपने को दो टुकड़े में कर लूं, और एक देखे और एक दिखाई पड़े। अगर टुकड़ा हो सके--दो टुकड़े हो सकें--तो जो टुकड़ा देखेगा, वही मैं हूं; और जो टुकड़ा दिखाई पड़ेगा, वह मैं नहीं रहा। वह बात समाप्त हो गई। वह मुझसे टूट गया। वह अलग हो गया।

उपनिषद की व्यवस्था, प्रक्रिया, विधि यही है: नेति-नेति। जो भी दिखाई पड़ जाए, कहो कि यह भी नहीं। जो भी अनुभव में आ जाए, कहो यह भी नहीं। और हटते जाओ पीछे, हटते जाओ पीछे, हटते जाओ पीछे। उस समय तक हटते जाओ, जब तक कि कोई भी चीज इनकार करने को बाकी रहे। 

एक ऐसी घड़ी आती है, सब दृश्य खो जाते हैं। एक ऐसी घड़ी आती है, सब अनुभव गिर जाते हैं--सब। ध्यान रखना, सब। कामवासना का अनुभव तो गिरता ही है, ध्यान का अनुभव भी गिर जाता है। संसार के, राग-द्वेष के अनुभव तो गिर ही जाते हैं, आनंद, समाधि, इनके भी अनुभव गिर जाते हैं। बच रहता है खालिस देखने वाला। कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता, शून्य हो जाता है चारों तरफ। रह जाता है केवल देखने वाला और चारों तरफ रह जाता है खाली आकाश। बीच में खड़ा रह जाता है द्रष्टा, उसे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता; क्योंकि उसने सब इनकार कर दिया। जो भी दिखाई पड़ता था, हटा दिया मार्ग से। अब उसे कुछ भी अनुभव नहीं होता। हटा दिए सब अनुभव। अब बच रहा अकेला, जिसको अनुभव होता था।

जब कोई भी अनुभव नहीं होता, और कोई दर्शन नहीं होता, और कोई दिखाई नहीं पड़ता, और कोई विषय नहीं रह जाता, और जब साक्षी अकेला रह जाता है, तब कठिनाई है भाषा में कहने की कि क्या होता है। क्योंकि हमारे पास अनुभव के सिवाय कोई शब्द नहीं है। इसलिए इसे हम कहते हैं आत्म-अनुभव, लेकिन अनुभव शब्द ठीक नहीं है। हम कहते हैं चेतना का अनुभव या ब्रह्म-अनुभव। लेकिन यह शब्द, कोई भी शब्द ठीक नहीं है; क्योंकि अनुभव उसी दुनिया का शब्द है, जिसको हमने तोड़ डाला। अनुभव उस द्वैत की दुनिया में अर्थ रखता है जहां दूसरा भी था, यहां अब कोई अर्थ नहीं रखता। यहां सिर्फ अनुभोक्ता बचा, साक्षी बचा।

इस साक्षी की तलाश ही अध्यात्म है। 


- ओशो

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