सन्यास दिया नहीं जाता लेना पड़ता है संन्यास सदा ही गुरु से बंधा रहा है। कोई गुरु दीक्षा देता है। संन्यास कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे कोई दे सके। संन्यास ऐसी चीज है जो लेनी पड़ती है, देता कोई भी नहीं। या कहना चाहिए कि परमात्मा के सिवाय और कौन दे सकता है संन्यास ?
अगर मेरे पास कोई आता है और कहता है कि मुझे दीक्षा दे दें , तो मैं कहता हूं, मैं कैसे दीक्षा दे सकता हूं, मैं सिर्फ गवाह हो सकता हूं, विटनेस हो सकता हूं।
दीक्षा तो परमात्मा से ले लो, दीक्षा तो परम सत्ता से ले लो, मैं गवाह भर हो सकता हूं, एक विटनेस हो सकता हूं कि मैं मौजूद था, मेरे सामने यह घटना घटी। इससे ज्यादा कोई अर्थ नहीं होता। गुरु से बंधा हुआ संन्यास सांप्रदायिक हो ही जाएगा। गुरु से बंधा हुआ संन्यास मुक्ति नहीं ला सकता, बंधन ले आएगा। संन्यास उनका परमात्मा के बीच का संबंध होगा। इसके लिए कोई उत्सव नहीं किया जाएगा संन्यास देने के लिए,नहीं तो फिर छोड़ते वक्त भी उलटा उत्सव करना पड़ता है ।" ओशो
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