Wednesday, 13 August 2014

झूठे धर्म की दिशा Osho

धर्मशास्त्र
एक तो इसलिए आदमी धार्मिक नहीं हो पाता कि वह बाहर की चीजों को इकट्ठा करने में सारी शक्ति, सारा समय, सारा जीवन गंवा देता है। और इससे भी ज्यादा खतरनाक बात दूसरी है। यह बाहर की दौड़ का आदमी तो कभी न कभी जाग सकता है और इसे खयाल आ सकता है कि मैं क्या कर रहा हूं? ये मैं कौन से सपने बसा रहा हूं? ये मैं कैसी व्यर्थ की आशाओं में जीवन गंवा रहा हूं? ये मैं कैसे रेत के मकान बना रहा हूं जो कल गिर जाएंगे? यह मैं कैसी कागज की नाव बहा रहा हूं जो अभी-अभी डूब जाएगी? एक न एक दिन बाहर की जिंदगी में दौड़ने वाला आदमी खड़ा हो जाता है, सोचता है, विचारता है। लेकिन एक और खतरा है। जो लोग बाहर की जिंदगी से ऊब जाते हैं और जिन्हें यह भी समझ में आ जाता है कि व्यर्थ है बाहर की दौड़, वे फिर भीतर की खोज में निकलते हैं। और भीतर की खोज में दो दिशाएं हैं।

बाहर की खोज अधर्म है। भीतर की खोज में दो दिशाएं हैं: एक धर्म की दिशा है, एक झूठे धर्म की दिशा है। और भीतर जो झूठे धर्म की दिशा पर चला जाता है वह फिर फिजूल हो जाता है, फिर वह भी कहीं नहीं पहुंचता।

बाहर से जाग जाना बहुत आसान है, लेकिन झूठी, भीतर की झूठी धार्मिक दिशा से जागना बहुत कठिन है। जब आदमी बाहर से थक जाता है और समझ लेता है कि कुछ भी पाने योग्य नहीं है...और कौन नहीं समझ लेता है! जिसके पास थोड़ी भी बुद्धि है उसे दिखाई पड़ने लगता है कि कोई प्रयोजन नहीं है बाहर। कुछ भी पा लिया तो अर्थ नहीं है, क्योंकि मृत्यु सब छीन लेती है। तब आदमी भीतर मुड़ता है। लेकिन भीतर एक झूठी दिशा है, एक झूठे धर्म की दिशा है। और उस झूठे धर्म की दिशा में फिर आदमी भटक जाता है और व्यर्थ हो जाता है। फिर आनंद को उपलब्ध नहीं हो पाता।

वह झूठे धर्म की दिशा क्या है? धर्म के नाम पर कुछ ऐसी बातें धर्म बना दी गई हैं जो धर्म नहीं हैं। जैसे एक आदमी रोज सुबह उठता है और मंदिर हो आता है और सोचता है कि मंदिर हो आने से धर्म हो गया। ऐसा आदमी भ्रांति में है। मंदिर में हो आने से कभी भी धर्म नहीं हुआ है। और कोई भी आदमी का बनाया हुआ मंदिर भगवान का मंदिर नहीं है। आदमी कैसे भगवान का मंदिर बना सकता है? आदमी भगवान का मंदिर बना लेगा तो आदमी भगवान से भी बड़ा हो जाएगा। 
भगवान आदमी को बनाता होगा, आदमी भगवान को नहीं बना सकता। लेकिन झूठे धर्म ने यह तरकीब समझाई है कि आदमी भगवान को बना सकता है। एक पत्थर की मूर्ति आदमी बना लेता है और कहता है, भगवान हो गया। और फिर उसकी पूजा शुरू कर देता है। पागलपन की हद्द है! अपने ही हाथ से बनाई गई मूर्तियां भगवान की कैसे हो सकती हैं?
भगवान की कोई मूर्ति नहीं है और भगवान का कोई मंदिर नहीं है। और या फिर सभी मूर्तियां भगवान की हैं और सब कुछ भगवान का मंदिर है। यह सारी पृथ्वी, यह सारा आकाश, ये सारे चांदत्तारे भगवान की मूर्ति हैं। यह समुद्र, ये हवाएं, ये लोग, ये आंखें, ये धड़कते हुए दिल, यह रेत, ये सब भगवान की मूर्ति हैं। या तो यह सच है और या फिर यह सच है कि भगवान की कोई भी मूर्ति नहीं। अमूर्ति है, भगवान अरूप है।

लेकिन इन दोनों के बीच में एक तीसरी तरकीब निकाली गई--कि हमने मंदिर बना लिए हैं, मूर्तियां पत्थर की बना ली हैं, मंदिर हैं, मस्जिद हैं, गिरजे हैं। और न मालूम कितने प्रकार के रूप हैं आदमी के बनाए हुए मंदिरों के, आदमी के बनाए हुए भगवानों के। और इन भगवानों और मंदिरों में हम भटक जाते हैं और खो जाते हैं।

आदमी न मंदिर बना सकता है, न भगवान बना सकता है। आदमी मंदिर में प्रवेश कर सकता है, आदमी भगवान में प्रवेश कर सकता है, लेकिन बना नहीं सकता। आदमी का बनाया हुआ कुछ भी धर्म नहीं हो सकता। धर्म वह है जो हमसे पहले है और हमसे बाद रहेगा। धर्म वह है जिससे हम बनते हैं और जिसमें हम लीन होते हैं। हम धर्म को नहीं बना सकते।

लेकिन हमने धर्म खड़े कर लिए हैं--हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध। ये हमारे बनाए हुए धर्म हैं। जो हम बनाते हैं वह नकली होगा, वह कभी असली धर्म नहीं हो सकता। इसे थोड़ा ठीक से समझ लेना जरूरी है। जो भी आदमी बनाएगा धर्म, वह नकली होगा, वह झूठा होगा। वह असली नहीं हो सकता। असली धर्म वह है जो हमें धारण किए हुए है। असली धर्म वह नहीं है जो हम बनाते हैं। इसलिए धर्मशास्त्र जैसा कोई शास्त्र दुनिया में नहीं है। शास्त्र हैं, धर्मशास्त्र कोई भी नहीं है। धर्मशास्त्र कैसे हो सकता है! आदमी की बनाई हुई किताब धर्म की किताब कैसे हो सकती है!

हां, एक किताब है जो चारों तरफ खुली हुई है। सूरज उस किताब के पन्नों में है, आकाश उस किताब के पन्नों में है, हवाएं उस किताब के पन्नों में हैं, यह सारी की सारी प्रकृति और यह सारा जीवन उस किताब के अध्याय हैं।

लेकिन उस किताब को कोई खोलने नहीं जाता। लोग रामायण को खोल लेते हैं, कुरान को खोल लेते हैं, बाइबिल को खोल लेते हैं और सोचते हैं: धर्मशास्त्र पढ़ रहे हैं।

धर्मशास्त्र एक ही है--यह पूरा जीवन। परमात्मा का जो बनाया हुआ है वह धर्मशास्त्र है। आदमी की बनाई हुई किताबें धोखा हैं। आदमी की बनाई हुई किताब सुंदर हो सकती है, काव्य हो सकती है, अदभुत हो सकती है, लेकिन धर्मशास्त्र नहीं हो सकती।
ओशो

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