Thursday, 28 August 2014

जीवन नृत्य जन्मजन्मातंर का ; एक लेख


जीवन - जन्मजन्मांतरो का लेखा जोखा


जन्मजन्मांतरो का लेखा जोखा है , गठबंधन है , ऊर्जा का , और समस्त ऊर्जा का  सूक्ष्म ऊर्जा पुंज के रूप में या फिर केंद्र की विशाल शक्तिशाली  वृहत ऊर्जा चेतना  के रूप में।  इसको  गणपति देव  को हाजिर- नजीर जान के ,  उनको तथा आपके अंदर  विराजित ऊर्जा को  प्रणाम के साथ ही कहने का लघु प्रयास नीचे  किया है , "  हिन्दू ऋषियों ने इस गूढ़  विषय को सरल बनाने के लिए अद्भुत प्रतीक गढ़े हैं.प्रायः ये प्रतीक बहुस्तरीय हैं,अर्थात उनके अलग-अलग स्तरों पे अलग-अलग अर्थ हो सकते हैं.और तर्क का भी उपयोग अतर्क्य में प्रवेश के लिया किया जा सकता है और किया जाना चाहिए,जीवन में तर्क व्यर्थ नहीं हैं अगर वो अतर्क्य की ओर ले जाने में सहयोगी हो जाये,और अतर्क्य ही ह्रदय की भाषा है.यहीं से प्रेम और ज्ञान की किरणें निकलती हैं और भक्ति के सूर्य में बदल जाती हैं. "

निम्नलिखित प्रसंग पढ़ते वख्त  नामों  में न उलझिएगा , उस  संकेत को पकड़ने की कोशिश कीजियेगा जो इस निम्न प्रसंग में छिपा है।  किसने कहा ? क्यों कहा ! इनमे भी मत फंसियेगा , और सही गलत जैसे निर्णयात्मक  भाव को  अभी के लिए  छोड़िये , इसका निर्णय  बुद्धि के परिपक्व होने पे करेंगे , ये सब मस्तिष्क की दौड़ और भ्रमित करने वाला  माया जाल है , पढ़ना है  नितांत साक्षी भाव से , जैसे  ये हमारे ही किसी जन्म की कथा का छोटा सा टुकड़ा है , क्यों न हो  इंसान  (जीव) तो वर्षों से प्रवाहित है , तो अनुभव भी  वर्षों पुराने है 

प्रस्तुत है : 

एक पोस्ट पे अघोर शिवपुत्र  ने कहा ,कलियुग हो या कोई भी युग,
'असुर जब अपनी औकात पर उतर आए तब उसके अनुसार ही उससे वर्ताव करना चाहिए।'
'असुरत्व का दमन आवश्यक हो जाता है।'

'असुरों के दमन का यह अधिकार शास्त्र सम्मत है।'

अन्यथा,

'यह समाज के कोढ़ बन कर मानव सभ्यता को दूषित व कलंकित करते हैं।' 



तो दूजी पोस्ट पे उन्होंने कहा , '  एक महत्वपूर्ण सुचना ।
"द्वापरयुग के महाभारत कालीन हस्तिनापुर के कौरव सम्राट 
'महाराजा धृष्टराष्ट्र' 
इस जन्म में अपनी शैया पर पहुंच चुके हैं।"
.............
''Aghor Shivputra''
आगे उन्होंने  फिर ऐसा ही कॉमेंट किया  : अच्छा लगा--धन्यवाद। 
जरासंध और शकुनि का मृत्यु समाचार सुनकर कुछ लोगों ने अपशब्द बकने आरंभ कर दिए। 
मुझ पर इतना बड़ा उपकार करके उन्होंने अपने 'वंशानुगत लक्षण' का परिचय दिया। 
भोग और वासनाओं में डूबे हुए कुंठित ज्ञानी लोगों की क्षुद्र भाषा ही उनका परिचय बता देती है। 
इससे मुझे जगत् में उनकी उपस्थिति और 'सोच का ज्ञान' प्राप्त होता है। 
"अघोर शिवपुत्र" के अधरों पर उभरी 'मुस्कुराहट' और गहरी होती जाती है।
.........................
''Aghor Shivputra''


इसके पहले भी  वो गांधारी तथा  कृष्णा  जन्मदात्री माता देवकी के  इस जन्म और मृत्यु के बारे  पोस्ट  कर चुके  हैं। सही या गलत का निर्णय इतना सहज नहीं।इसलिए  यहाँ  शीघ्रता  न करें कोई भी निर्णय  थोड़ा बाद के लिए  छोड़ें ; क्यूंकि पूर्णतः न कुछ सही है नहीं गलत।   बहुत सारी समय की  चाल  इसमें शामिल है ,  और ऊर्जाओं के कार्मिक बंधन भी इसी में गुथमगुथ्हा  है।  

उपर्युक्त  और निम्न  प्रसंग  पढ़ के जब आप  धीरे धीरे  पूरा ब्लॉगनोट  पढ़ेंगे  तब आपको  थोड़ा विषय स्पष्ट होगा और अधिक तो  ध्यान में उतर  के ही स्वयं के अंतमन से ही  उत्तर मिलेंगे।  




जो भी चित्र है , मात्र सांकेतिक है और उदाहरण के लिए है  , उस सत्य को सिर्फ आपका ध्यान  मौन और आपका केंद्र  ही छू सकता है )



नीचे इसी को और अधिक विस्तार से समझने का प्रयास  करते है : 

जन्मो  जन्मो के फेरे  कटते  है , कैसे  भाग्य भोग से , और ये अंध विश्वास नहीं  , इसको समझने के लिए पुनः पुनः उसी बिंदु को छूना होगा , जो  जन्म  का और मृत्यु का  है  उस आधे आधे दो भागों में विभाजित घेरे को मिला के उस में पूरा घूमना होगा , जो प्रकाशमय  जीवन में जागृत  रहता है  और मृत्यु में सुप्तावस्था में आ जाता है , ये ऊर्जा का छोटा  पुंज है , जो निरंतर प्रवाहित है और आवागमन से बाधित है  , संभवतः  माया  का आगोश इस जागृत अवस्था में कर्म के लिए  आवश्यक भी है और  उसका जानना और काटना  भी उतना ही आवश्यक है।  

संभवतः , ये  जीवन के भाव , संघर्ष  और  कर्म के चक्के में लगातार घूमना  इस माया का अद्वितीय  उपहार है , अन्यथा  ये भाव प्रेम, समर्पण , जिम्मेदारी और आभार जैसे शब्द होते ही नहीं , ये भी सत्य है  की हर जीव की यात्रा अपनी है , अपना जीवन और अपनी मृत्यु , अपने ही समस्त भोग है। यहाँ कार्मिक बंधन ही है  जो  एक दूसरे से कड़ी अथवा श्रृंखला के रूप में मिलता है और जोड़ता है , और यहाँ इस स्थति में  भी  जो भी साथ भोग्य है , उसके समस्त भोग और परिणाम एक साथ ही प्राप्त होते है , और जो व्यक्तिगत है वो व्यत्किगत  परिणाम के रूप में मिलता है।  

कई प्रश्नो और जिज्ञासा की श्रृंखला बनने लगती है  जैसे  यहाँ भी एक सहज जिज्ञासा  आती है : तो क्या  दुर्घटना की स्थति में भी ऐसा ही कुछ होता है !  समस्त कार्मिक  परिणाम इकठे होने लगते है , जी हाँ ! बिलकुल सही है , एक नाव पे बैठे  व्यक्ति भले ही  अलग अलग कुंडली के मालिक हों , अलग अलग प्रारब्ध से जुड़े हो , पर इस दुर्घटना के समय  इनके कार्मिक बंधन एक ही है )

साथ ही सामूहिक भोग अथवा कर्म  क्या और व्यक्तिगत भोग अथवा कर्म  क्या  ये भी प्रश्न आ सकता है , यहाँ  शारीरक भोग  व्यक्तिगत  है , आत्मिक भोग व्यक्तिगत  है , और पारिवारिक भोग  सामूहिक है , जिनका भोग व्यक्तिगत है , पर हाथ पकड़ के, मिल के चलने से  ये भोग  सामूहिक से  प्रतीत होते है। परन्तु वस्तुतः  ये कार्मिक बंधन है।  

इसी आधार पर  कुछ  को दैवीय संकेत मिलते है , जादुई   नहीं  दैवीय।   दैवीय से तात्पर्य  है वो मौन की ब्रह्माण्डीय भाषा , जो सांकेतिक है करोड़ों  वर्षों का इतिहास जिसमे समाहित है , तरंगित है , और जैसे ही वो तरंगे अपना मेल पाती है , वो गतिशील हो जाती है और प्रवाह शुरू हो जाता है। बिलकुल ये समझने की भूल न करे   मस्तिष्क जैसी कोई तत्वीय ताकते  बैठी प्रशासन चला रही है , आपने  जो भी प्रशासन सीखा है जो भी कला आप अतिरेक जी सकते है  वो अत्यंत लघु है उस दिव्य प्रशासन के  आगे। एक तो हम वो न सोच सकते है न कर सकते है  जो इस दिव्यता से हमने मिला नहीं , हमारी तो कल्पना भी उतनी ही है  जो  की वास्तविक है , उसके परे कल्पना भी नहीं कर सकते ।  

यहाँ  भी उर्जाये  विद्युत समान  है  विदुयत की तरंगो को सही  धातु के जरिये प्रवाहित तो किया जा सकता है पर  विभाजित नहीं , ऊर्जा के रेशे (सेल अथवा फ्रीक्वेंसी ) अलग नहीं हो सकते , पर हर रेशा मौजूद है उस प्रवाह में भागीदार है , और हर रेशे का अपना पूर्ण  विकसित स्वरुप और योगदान है , विद्युत को पूर्ण प्रवाहित करने में।  उदाहरण के लिए  आवाज को ले सकते है , आवाज जो हमें पूर्ण भाषा के रूप में  , वास्तव  में वो गले में स्थित वोकल कॉर्ड  और हवा के घर्षण से उत्पन्न  अति सूक्ष्म  तरंगो का  परिणाम है। बस उसी रूप   ऊर्जातत्व को लेना है , सामूहिक रूप में ऊर्जा   तत्व रूप में प्रकट होती  है तो बाहर से देखने में  ये  शरीर और जीवन दिखता है , वास्तविक तौर पे  ऊर्जा पुंज कहलाता है ,  महापुंज  परमात्मा , या केंद्र। ये ऊर्जा पुंज  सैकड़ों  तरंगो का समूह है , जो अपने  कार्मिक बंधन के कारन  एक शरीर में वैसे ही प्रकट हुआ है  , जैसे कार्मिक बंधन के कारन  सम्बन्ध बनते है।  जैसे कार्मिक बंधन के कारन  खून के रिश्ते, एक मित्र ,एक धर्म ( धारा ) ,  एक समाज और एक देश बनता है।   जैसे कार्मिक बंधन के कारन  ही एक उच्च आत्मा के संपर्क में  सैकड़ो आत्माएं आती है।   सबका  नाता  है सबका सम्बन्ध है।  सब अंदर से उसी एक कार्मिक सूत्र से बंधे है।  अपने अपने व्यक्तिगत भोग  और  सह कार्मिक भोग के अनुसार निश्चित समय पे  निश्चित अवधि के लिए  ऊर्जाएं मिलती है  और   आगे  को बढ़ जाती है , आगे से मतलब अगले भोग के लिए।  एक उदाहरण  के साथ आपको अति सरलतम भाव से कहती हूँ ,' किसी  आत्मीय  के दाहसंस्कार के बाद उसकी एकत्रित राख  को जिस पावन नदी में प्रवाह किया जाता है , प्रवाह के पश्चात  वो ही राख के परिचित टुकड़े एक साथ इकठा नहीं होते , सम्पूर्ण नदी का हिस्सा बनते है।  हाँ ! प्रेम विव्हल वियोगी  जो दुःख से पीड़ित है  वो उसी नदी में पुनः अपने प्रिय का स्मरण अवश्य कर सकता है।  पर वस्तुतः  राख  तो मिटटी में मिल गयी , तत्व  तत्व के साथ मिल गए , अब रेशे कैसे अलग होंगे ? वैसे ही ऊर्जा भी जब ऊर्जा से मिल गयी  तो  अपने प्रिय के  परिचित रेशों को अलग करना, उनकी पहचान करना असंभव है। कर्म बंधन  के गुणात्मक घेरे ही चुंबकत्व से आकर्षित होते है  और  पुनः संयुक्त  हो के जन्म का कारन बनते है। "

अब आप जरा ऊपर  पढ़ें , जहाँ  कहा गया है , " पहले जिस सरलता से वो ये  चले गए  अब इस बार उनके लिए वो  सरल नहीं होगा " शिवपुत्र  ने  ऐसा उसी अवस्था में कहा है , जहाँ से वो उन उर्जाओ को  मिटते और पुनः पुनः  प्रकट होते देखते है साथ ही कार्मिक  बंधन  आत्माओं को ज्ञान लेने की प्रेरणा ही नहीं देते,जिस कारण  अज्ञानता  और माया का अँधेरा हर जनम में और भी गहरा होता जाता है। और इसी कारन वे अधिक मस्तिष्क के अधीन उन्ही अंधेरो को अपना सुख मनके  कार्मिक चक्र में दौड़ लगा रहे है।  यहाँ एक बात और भी है , जब ऊर्जा  शरीर छोड़ती है ,तो उसका मूल स्वरुप तरंगमय है पर कार्मिक  आवरण साथ में घेरे  है , और यही कार्मिक घेरे  का आवरण उन अति सूक्षम तरंगों  को पुनः पुनः एकत्रित  करते है , इसमें सम्भावना ये भी है  की पुंजः वैसा ही न हो  जैसा  उस शरीर में था , पर ये सत्य है  की कार्मिक  घेरे का मापक  अपने अनुसार उनको एकत्रित कर के पुनः पुनः प्रकट करता है।  

इसके साथ ही , अब मैं ये कहने का प्रयास कर सकती हूँ , की  मोक्ष  आखिर क्या है  और कैसे मिलता है। मोक्ष कर्म बंधन का कटना ही है , कर्म बंधन  वे  जो जन्मो से  ऊर्जा पुंज से चिपके है , वो  रंगीन  है , सभी भाव है इन कर्मों में  , प्रेम , ममता , करुणा , क्रोध  लोभ , अज्ञानता , क्रूरता, जन्म देने का भाव और  जीवन को वापिस  लेने  का भाव (इसमें हत्या और आत्महत्या दोनों सम्मलित है ) , मोक्ष सांसारिक भाव के ही पूर्ण कटने की स्थति है , और अंतिम फलस्वरूप ये अंतिम अवस्था  सर्वथा  प्रयासरहित है।  सारे प्रयास भोग  और कर्म को काटने में ही है। नए कर्म का जन्म न होने देने का प्रयास  भी  अंततः पुनः  पुनः कर्म को जन्म देता है।  पर ये भी  कार्मिक रास्ता ही है। जिसपे  चलना ही होगा , कर्म को कटना ही होगा।  

अगला  जो जिज्ञासाधीन जीव  जानना चाहते है , की क्या मोक्ष के बाद  जन्म संभव है ?  ये प्रश्न मित्रों ऐसा ही है  यदि बालक छोटी छोटी कहानियों  से अलग  शास्त्र  के मर्म समझना  चाहे , समझने में कोई अनुचित नहीं।  परन्तु क्या  उसका अर्थ वैसे ही ग्रहण होगा इसमें संदेह हो जाता है , कई तो  अर्थ जान के हिम्मत ही हार जाते है इस भाव के साथ ; लो ! फिर क्या फ़ायदा ! 

क्यूंकि ऊर्जा पुंज  अपनी चेतना की उच्च और निम्न स्थति के अनुसार  प्रकट होते है कर्म करते है , और पुनः सुप्तावस्था  में चले जाते है।  और अवस्था कर्म और ज्ञान के अनुसार आवरण देती है।  अति उच्च अवस्था  तो केंद्र की  है , उससे थोड़ा नीचे उतरते ही जो जीव या ऊर्जा पुंज प्रकट होता है वो ईश्वर कहा जाता है , उसकी पूजा होने लगती है , उसके नाम पे पवित्र स्थल बन जाते है , क्यूंकि इस ऊर्जा का गुणात्मक  स्वभाव करुणा है।  इसके बाद  ज्ञान की स्थति अनुसार समय  और अवधि  प्रकर्ति  तै करती है। प्रकर्ति कैसे तय करती है ? (ये जिज्ञासा  आई न ! )   जैसा पहले ही  कहने की चेष्टा की है  कोई आकार प्रकार  नहीं जो बैठा  प्रशासन का दायित्व ले रहा है , स्त्री पुरुष का भेद भी  प्रकर्ति और प्रथम पुरुष का विभाजन है।  उदाहरण के तौर पे वृक्ष  पूर्ण है  विभाजित है , इसीलिए दिव्य है  और पूज्यनीय है।  और वृक्षों में वृक्ष बरगद  का , जिसमे मात्र स्त्री और  गुणात्मक  दिव्यता है।  पर ये भी प्रतीक  रूप में समझने के लिए है।  यहाँ मानव जन्म  प्रथम दर्शन में  स्त्री और पुरुष में शारीरिक तौर पे  विभाजित दीखता  है।  मूल  में भाव रूप में  स्थति थोड़ा भिन्न  है  एक स्त्री में थोड़ा पुरुष जीवित है  और एक पुरुष में थोड़ी स्त्री जीवित है।  प्रजनन  का एक सूत्र पुरुष और एक स्त्री से जुड़ता है।  यही लीला है।  

तो जन्म तो  हैं , और बार बार है ! इसका कोई काट ही नहीं ! बस  गुणात्मक भेद आते जाते है , और जिस दिन ईश्वर तत्व को ये ऊर्जा पुंज छू पाते है , उस दिन ईश्वर मय  हो जाते है , इस  परिभाषा में  ईश्वर भी केंद्र  नहीं , उससे  एक निचे की अवस्था है , केंद्र तो शिव है , आदि है अनंत है !  समाहित होना  समस्त ऊर्जा चाहती है।  और इसी को  ऊर्जा का  उर्ध्व ऊथ्हान कहा जाता है।  जब उर्ध्व  है तो अधो भी  अवश्य है , अधोगति  भी ऊर्जा को  मिलती है , इसकी भी प्रेरणा का स्रोत  जुड़ा है ,  जहाँ  मस्तिष्क  बेकाबू होता है , मन  और बुद्धि का मेल विषयवसनाओ में भ्रमित करता रहता है।  जहाँ  मस्तिष्क  दुष्कर्म की प्रेरणा देता है , ऐसे कर्म  जिनसे  न सिर्फ  निश्चित ऊर्जा पुंज का  अहित ही  वरन  सामूहिक ऊर्जा पुंज को भी क्षति यही से  पहुँचाने का काम  होता है ,जो  अद्भुत  अहंकार का स्वरुप   ले लेता है।   इस अहंकार की छाया तले  कुछ नहीं दीखता , इसीलिए  कुछ गुन माने गए  कुछ अवगुण , गन वो जिनसे  अन्य चराचर जगत का भला हो  और अवगुण वो जो मात्र  विष से भरे हो  जिनमे मात्र  अहित का कर्म और भाव  भरा हो। ऐसे भाव अधोगति की तरफ उन्मुख होते है।  मानवीय चेतना को समझने  के लिए  एक को पाताल लोक  का नाम दिया गया और दूजे को दिव्य आकाश लोक , (तर्क से परे  सभी उदाहरण मात्र सांकेतिक और भाव से ग्रहण योग्य है )  एक  स्वर्ग लोक  बना तो दूजा नरक लोक , एक में देवता का वास  दिखाया  समस्त सुविधाओं के साथ , तो दूजे में भोग और कष्ट रोग दुःख  का कारण  बताया।  दोस्त  !  समझ समझ के देखा तो असत्य कुछ नहीं , सभी सत्य है।  पर सांकेतिक।  और ये संकेत  मौन में ही वार्ता करते है।   वो जहाँ  मन मस्तिष्क  खूंटे से बंध जाते है , और स्वामी के दास  बन जाते है।  

और कार्मिक बंधन कटने का सिलसिला भी यही से  शुरू होता है।  लीजिये  गोल गोल घूमके  हम फिर उसु बिंदु पे आ गए , की  ये सिलसिला भी तो ध्यान से ही जिया जाता है , अंतर्मन की यात्रा करके।   वास्तव में ध्यान अद्भुत है , न केवल  आज जन्म ले रहे  विष का नाश करता है शरीर को ऊर्जावान और निरोग रखता है अपितु   उस परम लोक को भी  उज्जवल बनाता  है। जब  आप ध्यानावस्था  में मंथन करेंगे  तो विषय आपको और भी स्पष्ट होगा।  

जो भी चित्र है , मात्र सांकेतिक है और उदाहरण के लिए है  , उस सत्य को सिर्फ आपका ध्यान  मौन और आपका केंद्र  ही छू सकता है )


अपनी काल्पनिक  कल्पनाओ को   मात्र कल्पना  न जान  उनको सत्य  जान के क्या आप  उस ब्रह्माण्ड के रहस्यों में जाने को स्वयं को तैयार  पाते है ? स्वयं ध्यान कीजिये  और स्वयं अपने कार्मिक बंधन काटिये , दूसरा कोई उपाय है ही नहीं ! 


असीम शुभकामनाओ के साथ 

   ॐ 

 प्रणाम 



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