एक आध्यात्मिक और एक धार्मिक के बीच बहस और वार्ता निरर्थक है , क्यूंकि एक तरफ आस्था है तो दूसरी तरफ शोध। एक को जो जैसी सामाजिक संरचना और धार्मिक व्यवस्था है पूर्ण स्वीकार है। तो दूजा संसार से ऊपर उठ के स्थित है। उसने सीधा सम्पर्क बनाया है।
धर्म शास्त्र भी बोलते है , पर उनकी सुनने को मौन में उतरना पड़ता है। धर्म के रखवाले इतना मौन होने नहीं देते , उनकी व्यवस्था ही ऐसी है ,जिसमे व्यक्ति रिति रिवाजो में उलझ उत्सव में डूबा रहता है।
और सच माने तो अस्सी प्रतिशत जनता को यही चाहिए , उसको सूत्र चाहिए , शोध नहीं ! इसीलिए धर्म सफल है, ये मनोविज्ञान ऋषि मुनियो ने बहुत पहले समझा था।
इस विधि से देखें तो धर्म शास्त्र में ही परम आध्यात्मिक होने का फल्सफा छिपा है। क्यूंकि हमारे ऋषि आध्यात्मिक थे , तपस्वी थे , धार्मिक नहीं।
इस धर्म और अध्यात्म के प्रेम सम्बन्ध को एक और तरीके से भी समझा जा सकता है , जैसे दो सगी बहनो ने जिम्मेवारी ली हो रसोई को सँभालने की , एक पाक विद्या में तो दूजी प्रदर्शन में , एक का शोध और व्यंजन दूसरी ने परोसने का जिम्मा ले लिया। सरल भाषा में मंदिर मस्जिद और चर्च परोसने की कला के अंदर ही आते है। जबकि ईश्वरीय दिव्य व्यंजन पकता अध्यात्म की पाक शाला में।
जो आध्यत्मिक है वो अपने ज्ञान के लिए शास्त्र का सहारा लेता ही नहीं , क्यूंकि शुद्ध भक्त जैसा व्यवहार है इनका , सीधे संपर्क है परमात्मा से। जबकि तथाकथित (प्रचलित सन्दर्भ में) धार्मिक होने के लिए शास्त्र अनिवार्य है , सिर्फ जानना ही नहीं ऋचाओं और मन्त्रों कथाओं के वाचन- गायन में निपुणता भी आनी चाहिए, समाज में प्रतिष्ठित धार्मिक का यही मापदंड है (मंदिरों के पुजारी इसी धार्मिकता का स्पर्श करते है ) ।
शास्त्र स्वयं में शुद्ध है , शोधित है , ऋषि के अनुभव का निचोड़ है। सराहनीय है और पठनीय भी।
पर यहाँ मैं कार्तिकेय और श्री गणेश की एक अति प्रसिद्द कथा का जिक्र करुँगी सिर्फ इसलिए क्यूंकि विषय पे केंद्रित रहने का सजीव वर्णन ऋषि मुनि द्वारा लिखी इस कथा में है , और आपको बताऊँ की ऋषियों ने ये प्रतीक कथाएं हमारे जैसे मूर्खों के लिए ही लिखीं है , ताकि हम रस भी ले और ज्ञान भी। , इस कथा में भी श्री गणेश के र्रूप में जो पुत्र है वो अपने केंद्र से विमुख नहीं। और यही उनकी जीत का रहस्य भी है। कार्तिकेय के पास शारीरिक बल है सेना है , शास्त्र है गतिशील वाहन है पर उत्तेजना भी है , उत्तेजनावश वो सोच समझ के निर्णय नहीं ले पाते। (और ये सुंदर प्रतीक कथा हमारे अपने शास्त्र से है , तो कृपया आँखें मूँद पौराणिक कथाओं से परहेज न करे , नहीं तो आप कार्तिकेय का पात्र जीवित करेंगे , श्री गणेश के सामन केंद्रित हो के कार्य सम्पादित करना है , चिंतन करना है ) कथा तो आपको मालूम ही है माता पिता की परिक्रमा करनी थी दोनों में प्रथम आने की प्रतिस्पर्धा हो गयी , कार्तिकेय अपने गतिशील वाहन के साथ शीघ्र लौटने की व्यग्रता में ब्रह्माण्ड को निकल गए , और चतुर गणेश अपने माता पिता की परिक्रमा करके अपने स्थान पे वापिस खड़े हो भाई का इन्तजार करने लगे। और प्रथम तो गणेश ही ठहरे !
समस्त शास्त्र मात्र संकेत है , पात्रों के रंगो में कोई उलझे नहीं ; यही कामना है। धर्म ग्रंथो के रंगबिरंगे पात्र आपके हमारे ह्रदय के रंगो के समान है , जो आप तक आ के अपना कार्य पूरा करदेते है। इन संकेतो का स्वागत कीजिये , पर उलझिए नहीं , ठहरिये नहीं। आत्मसात करके आगे बढिए , निरंतर आगे ही बढ़ना है।
जो भी उस ऊंचाई तक गए सबने एक ही बात कही सबके शास्त्र एक ही तरफ इशारा करते है वो है एक परम ऊर्जा , इसमें दो राय है ही नहीं , तो बहस कहाँ है ? किसके शास्त्र सही किसके गलत ! किसके देवता सही किसके गलत ! किसका धर्म सही किसका गलत ! यही न !! और यकीन मानिये अधिकतर ये बहस राजनीती प्रेरित है। क्यूंकि भाव को भाव जोड़ता है बहस नहीं। ईशवर भी भाव से ही जुड़ते है बहस से नहीं।
हिन्दुओं में जब हम अपनी अपनी आस्था अनुसार देवी देवताओं की सीढ़ी चढ़ना शुरू करते है तो अंत में तीन देवों और देवियों ठहरते है त्रिदेव ब्रह्मा विष्णु महेश और इनकी पत्निया ,यानिकि इस पायदान पे भी ऊर्जा देव और देवी के द्वैत्व में है और अंततोगत्वा ये त्रिदेव और समस्त देवियाँ भी एक ऊर्जा का ही विभाजन है। सभी धार्मिक और आध्यात्मिक इसे संज्ञान में ले सकते है। ये है हिंदू धर्म का सम्मानजनक विस्तार और संकुचन। सराहनीय है !
हिंदी मुस्लिम ईसाई आदि अपने अपने समुदाय को जीवित रखने के लिए निरंतर संघर्षशील है।स्वाभाव से मुस्लिम कट्टर और उग्र ज्यादा अनुपात में है अपने ही दो समुदायों में मार काट मचाते रहते है , जानवरो को क़त्ल करना उनके गुनाह में नहीं , हिंन्दुओं में भी है ऐसे जो मार काट कर सकते है पर अनुपात कम है, क्यों ? क्यूंकि हमारा धार्मिक ढांचा ही ऐसा है , हमारे यहाँ जीव हत्या गुनाह में है , सब सही है पर फिर भी ये सबी धार्मिक-राजनीती प्रेरित है।
आध्यात्मिक के लिए विभाजन और विवादों का औचित्य न के बराबर ! ये विवाद उसकी समझ के बाहर है। उसकी तो दुनिया ही छोटी सी है , अपने अंदर की। और यहाँ जन्म और धर्म का भी भेद नहीं , हिन्दू मुस्लिम ईसाई कोई भी आध्यात्मिक हो सकता है।
निष्कर्ष-विहीन लम्बी बहस है। बेहतर है इसमें न ही उलझे ! क्यूंकि मैं जानती हु शास्त्र सही है , शास्त्री में ही समस्या है। नाव सही है, खेवनहार कलुषित है। धार्मिक की नाव में हुजूम सवार है , और आध्यात्मिक की नाव का वो अकेला खेवैया।
ये संसार है , यहाँ गलत कुछ नहीं , इसीलिए आस्था के नाम पे क़त्ल हो जाते है , क्यूंकि सब सही है !
जेहादी सही है , आतंकवादी सही है , सैनिक सही है , राजनेता सही है , धर्मनेता सही है , मान्यताएं सही है , रूढ़िवादिता सही है , मानना सही है और न मानना भी सही ..
एक देश के सैनिक जब दूसरे देश में क़त्ल करके वापिस आते है पुरस्कार पाते है , नायक का दर्जा पाते है , (क्यूंकि ये उस देश का सच है ) वो ही जहाँ युद्ध की बर्बादी फैला के लौटते है , वहाँ के वो दुश्मन या खलनायक कहे जाते है !!
लंका में रावण राजा है और सही है , अयोध्या में श्री राम सही। वृन्दावन और मथुरा में कान्हा सही है , और बाकि स्थान रिक्त भविष्य के इतिहास के लिए छोड़ देते है
ध्यान दीजियेगा !! अपने अपने क्षेत्र से बाहर सभी विद्वान और यहाँ तक की भगवान भी विवादों के घेरे में है ... उदाहारण के लिए रावण राम कृष्ण उल्लेखनीय है ! वाद भी मनुष्य के और विवाद भी मनुष्ये के ही है। अपने दिमाग से अलग मनुष्य कहाँ जायेगा ?
ये भी सच है की विजय गाथा ही इतिहास बनती है , हारे हुए के चरित्र धूमिल पड़ जाते है , सही या गलत सोचने का और मंथन करने का समय और ऊर्जा किसी के पास ज्यादा नहीं। इसीलिए सभी अपने अपने निष्कर्ष पकड़ के चलते है।
धर्म की बात कहें तो , पुरातन और आधुनिक मुसलमानो के कट्टरवाद ने हिन्दू कट्टरवादिता को बढ़ावा दिया , वर्ना हिंदुओं में विभिन्न देवी देवता प्रतीक है विविधता के सम्मान का पर धार्मिक और राजनीती के मेल से जिनको धर्म से मतलब नहीं , सिर्फ अपना जातिगत अस्तित्व बचने में लड़ाई लड़ रहे है . ( यहाँ भी सही और गलत तुलनात्मक है , परिस्थतिजन्य है )
अध्यात्म और धर्म कहने को एक जुड़वां है , पर धर्म संसार की व्यवस्था में ज्यादा लिप्त है , और अध्यात्म स्वयं की साधना में .. बस इतनी ही तुलना है अब इसको समानता या विभिन्नता कुछ भी कह सकते है।
और ये कहने की स्वतंत्रता भी हिन्दू समाज में ही है , शायद मुसलमान के फतवा तले सभी आवाजें दब जाती है ...
पर एक आध्यात्मिक को फिर वो किसी भी धर्म का हो , सिर्फ एक ही साधना पथ है , अंतरयात्रा का .. बहस या विषय वाचालता पथ से भटकती है ।
एक अभ्यासी का ध्येय बहस में जीतना नहीं ! वार्ता या बहस बाह्यगामी ऊर्जा है , आध्यात्मिक की यात्रा अंतरयात्रा है। उद्देश्य ऊर्जा का क्षय नहीं संचय है।
इसका ध्यान रखियेगा !! यदि आपके द्वारा उपयोग में लाये गए शब्द मौन से ज्यादा प्रभावशाली है , तो बोलिए , वर्ना मौन का साधना ज्यादा उपयोगी है।
हर वक्त अपना मत रखना हर वक्त वाचालता की प्रतिस्पर्धा में उतरजाना , मस्तिष्क की पुरानी आदत है !
यदि अभी भी आप , मस्तिष्क और मन की क्रीड़ा को समझने में व्यस्त है , तो इसका अर्थ ये भी है , की आप नर्सरी क्लास से आगे ही नहीं बढे !! यानि की आप विश्विद्यालय में जा चुके है ये भी दिमागी कल्पना ही है। वस्तुतः आप अभी भी अध्ययन के शुरुआती दौर में है।
अपने ही खिलाफ कुछ भी सोच पाना साधारण व्यक्ति के बस में नहीं , ये भी अभ्यासी ही कर सकता है।
यदि आप अपने मन और मस्तिष्क के मनोरंजक खेल को समझ पा रहे है , तो आप बधाई के पात्र है , और यदि नहीं , तो ध्यान में उतरिये , तुरंत , क्यूंकि टिक टिक की सुई बढ़ रही है आगे निरंतर।
एक बात और जो सजह स्वीकार करनी है , आप स्वयं को बदल रहे है संसार को नहीं ! स्वयं की सोच बदलिये।
अक्सर ये गलती होती देखि गयी है की बहस और वार्ता जल्दी ही गर्म हो के हार जीत का प्रश्न बन जाती है , वास्तव में ऐसी वार्ताएं मूल्यहीन है , दो कौड़ी की। आध्यात्मिक को ऐसी बहस से परहेज करना ही चाहिए। एक आध्यात्मिक का उद्देश्य अपने वर्चस्व की स्थापना नहीं , बल्कि स्वयं के मानसरोवर में विचरण है। जबकि बहसी का जीवन और उद्देश्य खुद के वर्चस्व की स्थापना में है।
और अंत में , हर बहस का मात्र उद्देश्य हो के समाप्त हो जाना है , न कुछ पक्ष में जा के बदलेगा और न विपक्ष में , बंद कमरे की बहस का कोई औचित्य नहीं , जब मिडिया की बहस डब्बे में बंद हो जाती है , तो दो इंसान की वार्ता या बहस चिड़ियों की चहचहाट से ज्यादा नहीं। इसमें कितना आपको हिस्सा लेना है आपका अपना निर्णय है।
पर एक बात निश्चित है , आध्यात्मिक और धार्मिक दो अलग रसायन है , इनका मिश्रण एक शरीर में दुर्लभ है , यदि भाग्य से हो गया तो भगवान हो जाते है , और आप तो एक हो ही नहीं सकते , दो शरीर दो मस्तिष्क दो रसायन एक नहीं हो सकते , धमाके हो सकते है। धार्मिक धमाके सह सकता है क्यूंकि व्यवस्था में अक्सर धमाके सहने पड़ते है , आध्यात्मिक के लिए बाहरी विस्फोट सहना कठिन है क्यूंकि वो अपने आंतरिक विस्फोटों से दो-चार कर रहा है , अभ्यास के दौरान प्रयास कीजिये ये रसायन अलग अलग ही अपनी अपनी यात्रा पे चले , क्यूंकि रास्ता एक है मंजिल एक , बस रसायन अलग अलग।
धर्म शास्त्र भी बोलते है , पर उनकी सुनने को मौन में उतरना पड़ता है। धर्म के रखवाले इतना मौन होने नहीं देते , उनकी व्यवस्था ही ऐसी है ,जिसमे व्यक्ति रिति रिवाजो में उलझ उत्सव में डूबा रहता है।
और सच माने तो अस्सी प्रतिशत जनता को यही चाहिए , उसको सूत्र चाहिए , शोध नहीं ! इसीलिए धर्म सफल है, ये मनोविज्ञान ऋषि मुनियो ने बहुत पहले समझा था।
इस विधि से देखें तो धर्म शास्त्र में ही परम आध्यात्मिक होने का फल्सफा छिपा है। क्यूंकि हमारे ऋषि आध्यात्मिक थे , तपस्वी थे , धार्मिक नहीं।
इस धर्म और अध्यात्म के प्रेम सम्बन्ध को एक और तरीके से भी समझा जा सकता है , जैसे दो सगी बहनो ने जिम्मेवारी ली हो रसोई को सँभालने की , एक पाक विद्या में तो दूजी प्रदर्शन में , एक का शोध और व्यंजन दूसरी ने परोसने का जिम्मा ले लिया। सरल भाषा में मंदिर मस्जिद और चर्च परोसने की कला के अंदर ही आते है। जबकि ईश्वरीय दिव्य व्यंजन पकता अध्यात्म की पाक शाला में।
जो आध्यत्मिक है वो अपने ज्ञान के लिए शास्त्र का सहारा लेता ही नहीं , क्यूंकि शुद्ध भक्त जैसा व्यवहार है इनका , सीधे संपर्क है परमात्मा से। जबकि तथाकथित (प्रचलित सन्दर्भ में) धार्मिक होने के लिए शास्त्र अनिवार्य है , सिर्फ जानना ही नहीं ऋचाओं और मन्त्रों कथाओं के वाचन- गायन में निपुणता भी आनी चाहिए, समाज में प्रतिष्ठित धार्मिक का यही मापदंड है (मंदिरों के पुजारी इसी धार्मिकता का स्पर्श करते है ) ।
शास्त्र स्वयं में शुद्ध है , शोधित है , ऋषि के अनुभव का निचोड़ है। सराहनीय है और पठनीय भी।
पर यहाँ मैं कार्तिकेय और श्री गणेश की एक अति प्रसिद्द कथा का जिक्र करुँगी सिर्फ इसलिए क्यूंकि विषय पे केंद्रित रहने का सजीव वर्णन ऋषि मुनि द्वारा लिखी इस कथा में है , और आपको बताऊँ की ऋषियों ने ये प्रतीक कथाएं हमारे जैसे मूर्खों के लिए ही लिखीं है , ताकि हम रस भी ले और ज्ञान भी। , इस कथा में भी श्री गणेश के र्रूप में जो पुत्र है वो अपने केंद्र से विमुख नहीं। और यही उनकी जीत का रहस्य भी है। कार्तिकेय के पास शारीरिक बल है सेना है , शास्त्र है गतिशील वाहन है पर उत्तेजना भी है , उत्तेजनावश वो सोच समझ के निर्णय नहीं ले पाते। (और ये सुंदर प्रतीक कथा हमारे अपने शास्त्र से है , तो कृपया आँखें मूँद पौराणिक कथाओं से परहेज न करे , नहीं तो आप कार्तिकेय का पात्र जीवित करेंगे , श्री गणेश के सामन केंद्रित हो के कार्य सम्पादित करना है , चिंतन करना है ) कथा तो आपको मालूम ही है माता पिता की परिक्रमा करनी थी दोनों में प्रथम आने की प्रतिस्पर्धा हो गयी , कार्तिकेय अपने गतिशील वाहन के साथ शीघ्र लौटने की व्यग्रता में ब्रह्माण्ड को निकल गए , और चतुर गणेश अपने माता पिता की परिक्रमा करके अपने स्थान पे वापिस खड़े हो भाई का इन्तजार करने लगे। और प्रथम तो गणेश ही ठहरे !
समस्त शास्त्र मात्र संकेत है , पात्रों के रंगो में कोई उलझे नहीं ; यही कामना है। धर्म ग्रंथो के रंगबिरंगे पात्र आपके हमारे ह्रदय के रंगो के समान है , जो आप तक आ के अपना कार्य पूरा करदेते है। इन संकेतो का स्वागत कीजिये , पर उलझिए नहीं , ठहरिये नहीं। आत्मसात करके आगे बढिए , निरंतर आगे ही बढ़ना है।
जो भी उस ऊंचाई तक गए सबने एक ही बात कही सबके शास्त्र एक ही तरफ इशारा करते है वो है एक परम ऊर्जा , इसमें दो राय है ही नहीं , तो बहस कहाँ है ? किसके शास्त्र सही किसके गलत ! किसके देवता सही किसके गलत ! किसका धर्म सही किसका गलत ! यही न !! और यकीन मानिये अधिकतर ये बहस राजनीती प्रेरित है। क्यूंकि भाव को भाव जोड़ता है बहस नहीं। ईशवर भी भाव से ही जुड़ते है बहस से नहीं।
हिन्दुओं में जब हम अपनी अपनी आस्था अनुसार देवी देवताओं की सीढ़ी चढ़ना शुरू करते है तो अंत में तीन देवों और देवियों ठहरते है त्रिदेव ब्रह्मा विष्णु महेश और इनकी पत्निया ,यानिकि इस पायदान पे भी ऊर्जा देव और देवी के द्वैत्व में है और अंततोगत्वा ये त्रिदेव और समस्त देवियाँ भी एक ऊर्जा का ही विभाजन है। सभी धार्मिक और आध्यात्मिक इसे संज्ञान में ले सकते है। ये है हिंदू धर्म का सम्मानजनक विस्तार और संकुचन। सराहनीय है !
हिंदी मुस्लिम ईसाई आदि अपने अपने समुदाय को जीवित रखने के लिए निरंतर संघर्षशील है।स्वाभाव से मुस्लिम कट्टर और उग्र ज्यादा अनुपात में है अपने ही दो समुदायों में मार काट मचाते रहते है , जानवरो को क़त्ल करना उनके गुनाह में नहीं , हिंन्दुओं में भी है ऐसे जो मार काट कर सकते है पर अनुपात कम है, क्यों ? क्यूंकि हमारा धार्मिक ढांचा ही ऐसा है , हमारे यहाँ जीव हत्या गुनाह में है , सब सही है पर फिर भी ये सबी धार्मिक-राजनीती प्रेरित है।
आध्यात्मिक के लिए विभाजन और विवादों का औचित्य न के बराबर ! ये विवाद उसकी समझ के बाहर है। उसकी तो दुनिया ही छोटी सी है , अपने अंदर की। और यहाँ जन्म और धर्म का भी भेद नहीं , हिन्दू मुस्लिम ईसाई कोई भी आध्यात्मिक हो सकता है।
निष्कर्ष-विहीन लम्बी बहस है। बेहतर है इसमें न ही उलझे ! क्यूंकि मैं जानती हु शास्त्र सही है , शास्त्री में ही समस्या है। नाव सही है, खेवनहार कलुषित है। धार्मिक की नाव में हुजूम सवार है , और आध्यात्मिक की नाव का वो अकेला खेवैया।
ये संसार है , यहाँ गलत कुछ नहीं , इसीलिए आस्था के नाम पे क़त्ल हो जाते है , क्यूंकि सब सही है !
जेहादी सही है , आतंकवादी सही है , सैनिक सही है , राजनेता सही है , धर्मनेता सही है , मान्यताएं सही है , रूढ़िवादिता सही है , मानना सही है और न मानना भी सही ..
एक देश के सैनिक जब दूसरे देश में क़त्ल करके वापिस आते है पुरस्कार पाते है , नायक का दर्जा पाते है , (क्यूंकि ये उस देश का सच है ) वो ही जहाँ युद्ध की बर्बादी फैला के लौटते है , वहाँ के वो दुश्मन या खलनायक कहे जाते है !!
लंका में रावण राजा है और सही है , अयोध्या में श्री राम सही। वृन्दावन और मथुरा में कान्हा सही है , और बाकि स्थान रिक्त भविष्य के इतिहास के लिए छोड़ देते है
ध्यान दीजियेगा !! अपने अपने क्षेत्र से बाहर सभी विद्वान और यहाँ तक की भगवान भी विवादों के घेरे में है ... उदाहारण के लिए रावण राम कृष्ण उल्लेखनीय है ! वाद भी मनुष्य के और विवाद भी मनुष्ये के ही है। अपने दिमाग से अलग मनुष्य कहाँ जायेगा ?
ये भी सच है की विजय गाथा ही इतिहास बनती है , हारे हुए के चरित्र धूमिल पड़ जाते है , सही या गलत सोचने का और मंथन करने का समय और ऊर्जा किसी के पास ज्यादा नहीं। इसीलिए सभी अपने अपने निष्कर्ष पकड़ के चलते है।
धर्म की बात कहें तो , पुरातन और आधुनिक मुसलमानो के कट्टरवाद ने हिन्दू कट्टरवादिता को बढ़ावा दिया , वर्ना हिंदुओं में विभिन्न देवी देवता प्रतीक है विविधता के सम्मान का पर धार्मिक और राजनीती के मेल से जिनको धर्म से मतलब नहीं , सिर्फ अपना जातिगत अस्तित्व बचने में लड़ाई लड़ रहे है . ( यहाँ भी सही और गलत तुलनात्मक है , परिस्थतिजन्य है )
अध्यात्म और धर्म कहने को एक जुड़वां है , पर धर्म संसार की व्यवस्था में ज्यादा लिप्त है , और अध्यात्म स्वयं की साधना में .. बस इतनी ही तुलना है अब इसको समानता या विभिन्नता कुछ भी कह सकते है।
और ये कहने की स्वतंत्रता भी हिन्दू समाज में ही है , शायद मुसलमान के फतवा तले सभी आवाजें दब जाती है ...
पर एक आध्यात्मिक को फिर वो किसी भी धर्म का हो , सिर्फ एक ही साधना पथ है , अंतरयात्रा का .. बहस या विषय वाचालता पथ से भटकती है ।
एक अभ्यासी का ध्येय बहस में जीतना नहीं ! वार्ता या बहस बाह्यगामी ऊर्जा है , आध्यात्मिक की यात्रा अंतरयात्रा है। उद्देश्य ऊर्जा का क्षय नहीं संचय है।
इसका ध्यान रखियेगा !! यदि आपके द्वारा उपयोग में लाये गए शब्द मौन से ज्यादा प्रभावशाली है , तो बोलिए , वर्ना मौन का साधना ज्यादा उपयोगी है।
हर वक्त अपना मत रखना हर वक्त वाचालता की प्रतिस्पर्धा में उतरजाना , मस्तिष्क की पुरानी आदत है !
यदि अभी भी आप , मस्तिष्क और मन की क्रीड़ा को समझने में व्यस्त है , तो इसका अर्थ ये भी है , की आप नर्सरी क्लास से आगे ही नहीं बढे !! यानि की आप विश्विद्यालय में जा चुके है ये भी दिमागी कल्पना ही है। वस्तुतः आप अभी भी अध्ययन के शुरुआती दौर में है।
अपने ही खिलाफ कुछ भी सोच पाना साधारण व्यक्ति के बस में नहीं , ये भी अभ्यासी ही कर सकता है।
यदि आप अपने मन और मस्तिष्क के मनोरंजक खेल को समझ पा रहे है , तो आप बधाई के पात्र है , और यदि नहीं , तो ध्यान में उतरिये , तुरंत , क्यूंकि टिक टिक की सुई बढ़ रही है आगे निरंतर।
एक बात और जो सजह स्वीकार करनी है , आप स्वयं को बदल रहे है संसार को नहीं ! स्वयं की सोच बदलिये।
अक्सर ये गलती होती देखि गयी है की बहस और वार्ता जल्दी ही गर्म हो के हार जीत का प्रश्न बन जाती है , वास्तव में ऐसी वार्ताएं मूल्यहीन है , दो कौड़ी की। आध्यात्मिक को ऐसी बहस से परहेज करना ही चाहिए। एक आध्यात्मिक का उद्देश्य अपने वर्चस्व की स्थापना नहीं , बल्कि स्वयं के मानसरोवर में विचरण है। जबकि बहसी का जीवन और उद्देश्य खुद के वर्चस्व की स्थापना में है।
और अंत में , हर बहस का मात्र उद्देश्य हो के समाप्त हो जाना है , न कुछ पक्ष में जा के बदलेगा और न विपक्ष में , बंद कमरे की बहस का कोई औचित्य नहीं , जब मिडिया की बहस डब्बे में बंद हो जाती है , तो दो इंसान की वार्ता या बहस चिड़ियों की चहचहाट से ज्यादा नहीं। इसमें कितना आपको हिस्सा लेना है आपका अपना निर्णय है।
पर एक बात निश्चित है , आध्यात्मिक और धार्मिक दो अलग रसायन है , इनका मिश्रण एक शरीर में दुर्लभ है , यदि भाग्य से हो गया तो भगवान हो जाते है , और आप तो एक हो ही नहीं सकते , दो शरीर दो मस्तिष्क दो रसायन एक नहीं हो सकते , धमाके हो सकते है। धार्मिक धमाके सह सकता है क्यूंकि व्यवस्था में अक्सर धमाके सहने पड़ते है , आध्यात्मिक के लिए बाहरी विस्फोट सहना कठिन है क्यूंकि वो अपने आंतरिक विस्फोटों से दो-चार कर रहा है , अभ्यास के दौरान प्रयास कीजिये ये रसायन अलग अलग ही अपनी अपनी यात्रा पे चले , क्यूंकि रास्ता एक है मंजिल एक , बस रसायन अलग अलग।
!! ॐ !!
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