Monday, 11 August 2014

ओशो : शक्तिपात / तुम बोले चले जा रहे हो,ज्ञानी ऐसा नहीं बोलता



प्रश्न: एक साधक का कई व्यक्तियों के माध्यम से शक्तिपात लेना उचित है या हानिप्रद है? कंडक्टर बदलने में क्या-क्या हानियां संभव हैं और क्यों?

असल बात तो यह है कि बहुत बार लेने की जरूरत तभी पड़ेगी जब कि शक्तिपात न हुआ हो। बहुत लोगों से लेने की भी जरूरत तभी पड़ेगी जब कि पहले जिनसे लिया हो वह बेकार गया हो, न हुआ हो। अगर हो गया, तो बात खतम है। बहुत बार लेने की जरूरत इसीलिए पड़ती है कि दवा काम नहीं कर पाई, बीमारी अपनी जगह खड़ी है। स्वभावतः, फिर डाक्टर बदलने पड़ते हैं। लेकिन जो बीमार ठीक हो गया, वह नहीं पूछता कि डाक्टर बदलूं, या न बदलूं। वह जो ठीक नहीं हुआ है, वह कहता है कि मैं दूसरे डाक्टर से दवा लूं या क्या करूं! दस-बीस डाक्टर बदल लेता है।

तो एक तो अगर शक्तिपात की किरण उपलब्ध हुई जरा भी, तो बदलने की कोई जरूरत नहीं पड़ती है। वह प्रश्न ही नहीं है फिर उसका। नहीं उपलब्ध हुई, तो बदलना ही पड़ता है; और बदलते ही रहते हैं आदमी। और अगर उपलब्ध हुई है कभी एक से, तो फिर किसी से भी उपलब्ध होती रहे, कोई फर्क नहीं पड़ता। वे सब एक ही स्रोत से आनेवाले माध्यम ही अलग हैं, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। रोशनी सूरज से आती, कि दीये से आती, कि बिजली के बल्ब से आती, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; प्रकाश एक का ही है। उससे कोई अंतर नहीं पड़ता। अगर घटना घटी है तो कोई अंतर नहीं पड़ता, और कोई हानि नहीं है।

लेकिन इसको खोजते मत फिरना; वही मैं कह रहा हूं, इसे खोजते मत फिरना। यह मिल जाए रास्ते पर चलते, तो धन्यवाद दे देना और आगे बढ़ जाना। इसे खोजना मत। खोजोगे तो खतरा है। क्योंकि फिर वे जो दावेदार हैं, वे ही तो तुम्हें मिलेंगे न! वह नहीं मिलेगा जो दे सकता था; वह मिलेगा, जो कहता है, देते हैं। जो दे सकता है वह तो तुम्हें उसी दिन मिलेगा, जिस दिन तुम खोज ही नहीं रहे हो, लेकिन तैयार हो गए हो। वह उसी दिन मिलेगा।

इसलिए खोजना गलत है, मांगना गलत है। होती रहे घटना, होती रहे। और हजार रास्तों से प्रकाश मिले तो हर्ज नहीं है। सब रास्ते एक ही प्रकाश के मूल स्रोत को प्रमाणित करते चले जाएंगे। सब तरफ से मिलकर वही... - "ओशो  Jin Khoja Tin Paiyan -13




तुम बोले चले जा रहे हो--अकेले हो तो, नहीं अकेले हो तो। 

ज्ञानी ऐसा नहीं बोलता।

ज्ञानी अपने अकेले में तो बोलता ही नहीं। अपने अकेले में तो वह शून्य मंदिर की भांति होता है, जहां गहन सन्नाटा है, जहां निबिड़ मौन है, जहां विचार की एक तरंग भी नहीं आती। झील बिलकुल बिलकुल शांत है, जहां एक शब्द नहीं उठता, एक ध्वनि नहीं उठती। अपने अकेले में तो बोलना बिलकुल निष्प्रयोजन है। तो ज्ञानी चुप है अपने एकांत में। और जब वह दूसरे से भी बोलता है तब भी उसका बोलना रेचन नहीं है। बोलना उसकी बीमारी नहीं है। चुप होने में वह कुशल है। बोलना उसकी आवश्यकता नहीं है। वह अगर दो-चार साल न बोले तो कोई परेशानी नहीं होगी। वह वैसा ही होगा जैसा बोलता था तब था। शायद बोलने में थोड़ी परेशानी हो, मौन में उसे कोई परेशानी न होगी। बोलने में परेशानी होती है। क्योंकि उसे उन सत्यों के लिए शब्द खोजने पड़ते हैं, जिनके लिए कोई शब्द नहीं।

उसे उन अनुभूतियों को बांधना पड़ता है रूप में, आकार में, जो निराकार की हैं। उसकी कठिनता बड़ी गहन है। और सब कुछ करके भी उसे पता चलता है कि वह जो कहना चाहता था वह तो नहीं कह पाया। शब्दों का कितना ही मालिक हो वह, कितना ही धनी हो शब्दों का, विचार उसके कितने ही साफ, निखरे हुए हों, तो भी जब वह सत्य को कहता है तो पाता है, सब धूमिल हो गया, बात कुछ बनी नहीं। इसीलिए तो बार-बार कहता है। - "ओशो  TAO UPANISHAD - 95



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