प्रकृति जब वार्ता शुरू करती है , तो हर तरफ से सिर्फ एक ही आवाज सुनाई देती है , दूसरी सब आवाजे स्वयं ही झरती जाती है। उनका कोई अस्तित्व ही नहीं बचता।
यहाँ भी आपके ऊपर ईश्वर ने अनुकम्पा की है , जो उसने प्रकर्ति को वक्ता और आपको श्रोता नियुक्त किया। फिर तो आप कहीं भी चले जाएँ वो ही बात करता नजर आएगा। कोशिश करके देखिये ! पर्वत जंगल सागर नदिया पुष्प कलियाँ पाखी मछली बादल सूरज चन्द्रमा नक्षत्र आकाशगंगा। सब जगह से एक ही ओमकार प्रतिध्वनित हो रहा है। हर बंध में अपने ही विष में डूबे बंध दिखेंगे , हर फेरे में स्वयं ही घूमते नजर आएंगे। ये जो स्वयं आप घूम रहे है ये ही आपका वास्तविक : मैं " है , जो स्वयं की सत्य_सत्ता से अनजान है। माया में उलझा है।
शीघ्र दर्शन होगा समस्या वहां नहीं जहाँ दिख रही है , वो तो मायावी प्रतिबिम्ब है , मात्र छाया है। , यहाँ समस्या है, ह्रदय के अंदर ,बहुत निजी , जीव जो फेरो में उलझा है , जकड़ा है , सुलझने देने को मस्तिष्क तैयार नहीं। तर्क करता है , दलील देता है। सत्य को असत्य और असत्य को सत्य की तरह , दृश्य बना के प्रस्तुत कर देता है , और हम घूमते रह जाते है।
माया के साथ घूमना भी गलत नहीं , जीवन है तो जीना भी है , और पूरी कर्तव्यपरायणता के साथ जीना है , हर्ष के साथ , उल्लास के साथ जीना है। यहाँ तक भी सही है , पर जब मस्तिष्क असत्य दृश्यों के माध्यम से हमको ही पीड़ा देने लगे , तब तो सोचना ही पड़ेगा ! जागरूकता का महत्त्व यही है , की हम सब जान रहे है समझ रहे है , माया हमसे खेल रही है और हम माया से खेल रहे है। इस जागरूकता और कर्तव्यपरायणता को समझने के बाद अब , दृश्य तो वो ही है , परिस्थितियां भी वो ही है , सिर्फ दृष्टि बदल गयी , और दृष्टि बदलते ही , मायावी दृश्य भी ! यही समझना चमत्कार करने जैसा है !
बड़ी सुन्दर बात आपसे बांटना चाहती हूँ ,' ध्यान यदि सध गया , समस्त सरलता और सुवास ने प्रवेश पा लिया , तो जीवन यही का यही , इतना सुन्दर हो जाता है इसका उदाहरण सिर्फ सुवासित आस पास शीतलता फैलाती पवन से ही दिया जा सकता है , जो प्रदुषण रहित है। आपके अंदर बाहर सिर्फ स्वक्छ्ता ही स्वक्छ्ता , कल्पनातीत है की जब आप वास्तविक रूप से धरती पे रह रहे है जीवन जी रहे है , सम्पूर्ण आभार और करुणा भाव के साथ , किसी पे अधिकार नहीं , कोई मोह नहीं , लोभ नहीं , माया का ज्ञान हो गया है , सबसे प्रेम का जो पवित्र भाव उपजता है उसको शब्दों में बंधना संभव नहीं , बस जिया ही जा सकता है , उसका आधार सिर्फ ध्यान बनता है , ध्यान ही समस्त फेरों को काटता है ,
जब आपका बल पूर्वक अधिकार भाव समाप्त हो जाता है तो सभी को प्रेम करते है , और परिणाम स्वरुप सभी से प्रेम मिलता है , ये परिवर्तन इतना गहरा है की फिर परिणाम में किस व्यवहार के किस भाव का क्या फल मिल रहा है और क्या नहीं इसका भी कोई कीड़ा मस्तिष्क में रेंगने को नहीं बचता , ये भी गणित समाप्त हुआ , जो भी मिलगया , जितना भी मिलगया , और जैसा मिला , सब उसी का आशीर्वाद और उसी की अनुकम्पा । जिस भाव का विचार इतना सुखद है उस जीवन को जीना कितना सुन्दर होगा ! परन्तु एक भी फेरा यदि बच गया तो प्रदुषण होना ही है।
किसी ने ये भी कहा है , की एक को बदलने से संसार नहीं बदलता। पर ये भी सही है की एक-एक से ही संसार बदलता है। और उसका तो सम्पूर्ण संसार ही परिवर्तित हो जाता है जिसका अंतस्थल परिवर्तित हो चुका ।
आज के ध्यान के लिए आपको एक विधि देती हूँ , फूलों का आपने अन्य बहुत उपयोग किया होगा इस बार ध्यान के लिए उपयोग कीजिये। सुविधानुसार एक गुलाब का सुन्दर पुष्प का चित्र लीजिये या ताज़ा पुष्प...... यहाँ आप अपने ह्रदय में संकल्प ले चुके है की आप अपने अंदर के चक्रो को सुलझाएंगे , कष्टो को दूर करेंगे। एक एक पुष्प पत्ती आहिस्ता आहिस्ता खोलते जाना है , पूरे ध्यान के साथ खुली आँखोसे , एक एक पत्ती के साथ आपका एक फेरा स्पष्ट होगा , जो इन पंखुड़ियों जैसा ही सुन्दर भी हो सकता है और नकली महक वाला भी। यदि स्वतः नेत्र बंद होते है तो होने दीजिये , हर फेरा दूर होता हुआ नजर आएगा। ये कैसा भी हो सकता है , कभी आपके अपने स्वभाव से उपजा हुआ आपको कष्ट देता हुआ , तो कभी दूसरे के कारण आपको कष्ट जो महसूस हो रहा है , उसकी वजह भी आपको अपने ही अंदर मिलगी। ध्यान दीजिये , इस फूल का बलिदान है आपके लिए ; व्यर्थ नहीं जाना चाहिए ! एक भी पत्ती ऐसी नहीं टूटनी चाहिए जो आपके फेरे को स्पष्ट न करती हो , प्रत्यक्ष न करती हो , प्रकट न करती हो। फिर देखिएगा धीरे से इन विषाक्त भावों का ज्ञान ही आंतरिक परिवर्तन लाएगा।
परन्तु इस ध्यान के लिए , मनःस्थति का आपकी मंशा के अनुकूल होना आवश्यक है , आपके मस्तिष्क का सहयोग आवश्यक है। आपका संकल्प होना आवश्यक है।
बाहरी फेरे इस पुष्प के ही सामान है , शुरूआती पंखुड़ीयां आसानी से खुलेंगी , पर जैसे जैसे इस पुष्प के अंदर और अपने आंतरिक फेरीं की तरफ प्रवेश करने चलेंगे , अंतःस्थति आपको आग्यां नहीं देगी , आपका मस्तिष्क आपको ही कुछ भी समझायेगा , पर आपको धैर्य पूर्वक पुष्प के अंदर जकड़ी हुई पत्तीओं वाली कलि के अंदर की आखिरी पंखुड़ी को खोलना है। निर्भार होने के लिए आवश्यक है।
इस ध्यान में सबसे अधिक एकाग्रता स्वयं के ह्रदय स्थान पे ही है और दूसरी मस्तिष्क यानि की अज्ञान चक्र पे। श्वांस सजह , और चित्त की स्थति निष्पक्ष होनी ही चाहिए। बिलकुल जैसे एक पद पे आसीन न्याधीश होता है , ईश्वर के समक्ष , आप भी तो अपने केंद्र से मिलरहे है , ईश्वर का वास है जहाँ। निष्पक्ष होके एक एक पंखुड़ी खोलिए। और स्वयं को स्वयं के बंध से स्वतंत्र कीजिये।
कोई आवश्यक नहीं की पहली बार में सफलता मिल जाये , मिल भी सकती है और नहीं भी , आपकी स्वयं की मनःस्थति को आपके द्वारा स्वीकार करने की शक्ति पे निर्भर करता है , इसको दोहराइए , यदि आपको शांति मिलती है , इसको कई बार भी दोहराया जा सकता है। अंतर्मन का निरीक्षण जो है !
ऐसा भी संभव है की आपको अपने ही छद्म भावो के दर्शन हो जिसमे आप स्वयं का प्रतिनिधित्व करते नजर आएं , संभवतः ऐसे भाव के हर संभव प्रयास से या तो दुसरो के द्वारा और अगर बहार से नहीं तो स्वयं के द्वारा स्वयंको ही सहानुभूति देता है। पर ये आपका मस्तिष्क ही है। और मन उसका सहयोगी। यकीं मानिये अगर कोई कष्ट बाहर जन्म ले रहा है तो उसका जन्म स्थान अर्थात स्वीकार केन्द्र आपका अपना व्यक्तित्व ही है। यानि की आपके विचार ही बाधा है। यानी की आपने जो स्वभाव अर्जित किया , वो ही रोड़ा है। जबकि वस्तुस्थति को गहराई से देखेंगे तो पाएंगे। स्वाभाव और सच्चाई का कोई मेल ही नहीं। स्वभाव परिस्थत्यों और समाज से अर्जित है और आपकी सच्चाई कुछ और है। इनका कोई मेल ही नहीं। आप मस्तिष्क , मन और इद्रियों के खेल से परे है। इसको जानना ही प्रथम दर्शन है स्वयं का। फिर आपके स्ववभाव जनित कष्ट भी आपको सहज दिख जायेंगे।
स्वयं के बदलते ही संसार के दृश्य बदल जाते है , बाहर सब मायावी है। दृष्टि बदल के देखिये !
और ये ज्ञान ही समस्त कष्टो का इलाज है , क्यूंकि समस्त मौलिक शक्ति स्वयं में ही तो है , बाहर तो सिर्फ विस्तार है। नीव अंदर ही है।
शुभकामनाये।
यहाँ भी आपके ऊपर ईश्वर ने अनुकम्पा की है , जो उसने प्रकर्ति को वक्ता और आपको श्रोता नियुक्त किया। फिर तो आप कहीं भी चले जाएँ वो ही बात करता नजर आएगा। कोशिश करके देखिये ! पर्वत जंगल सागर नदिया पुष्प कलियाँ पाखी मछली बादल सूरज चन्द्रमा नक्षत्र आकाशगंगा। सब जगह से एक ही ओमकार प्रतिध्वनित हो रहा है। हर बंध में अपने ही विष में डूबे बंध दिखेंगे , हर फेरे में स्वयं ही घूमते नजर आएंगे। ये जो स्वयं आप घूम रहे है ये ही आपका वास्तविक : मैं " है , जो स्वयं की सत्य_सत्ता से अनजान है। माया में उलझा है।
शीघ्र दर्शन होगा समस्या वहां नहीं जहाँ दिख रही है , वो तो मायावी प्रतिबिम्ब है , मात्र छाया है। , यहाँ समस्या है, ह्रदय के अंदर ,बहुत निजी , जीव जो फेरो में उलझा है , जकड़ा है , सुलझने देने को मस्तिष्क तैयार नहीं। तर्क करता है , दलील देता है। सत्य को असत्य और असत्य को सत्य की तरह , दृश्य बना के प्रस्तुत कर देता है , और हम घूमते रह जाते है।
माया के साथ घूमना भी गलत नहीं , जीवन है तो जीना भी है , और पूरी कर्तव्यपरायणता के साथ जीना है , हर्ष के साथ , उल्लास के साथ जीना है। यहाँ तक भी सही है , पर जब मस्तिष्क असत्य दृश्यों के माध्यम से हमको ही पीड़ा देने लगे , तब तो सोचना ही पड़ेगा ! जागरूकता का महत्त्व यही है , की हम सब जान रहे है समझ रहे है , माया हमसे खेल रही है और हम माया से खेल रहे है। इस जागरूकता और कर्तव्यपरायणता को समझने के बाद अब , दृश्य तो वो ही है , परिस्थितियां भी वो ही है , सिर्फ दृष्टि बदल गयी , और दृष्टि बदलते ही , मायावी दृश्य भी ! यही समझना चमत्कार करने जैसा है !
बड़ी सुन्दर बात आपसे बांटना चाहती हूँ ,' ध्यान यदि सध गया , समस्त सरलता और सुवास ने प्रवेश पा लिया , तो जीवन यही का यही , इतना सुन्दर हो जाता है इसका उदाहरण सिर्फ सुवासित आस पास शीतलता फैलाती पवन से ही दिया जा सकता है , जो प्रदुषण रहित है। आपके अंदर बाहर सिर्फ स्वक्छ्ता ही स्वक्छ्ता , कल्पनातीत है की जब आप वास्तविक रूप से धरती पे रह रहे है जीवन जी रहे है , सम्पूर्ण आभार और करुणा भाव के साथ , किसी पे अधिकार नहीं , कोई मोह नहीं , लोभ नहीं , माया का ज्ञान हो गया है , सबसे प्रेम का जो पवित्र भाव उपजता है उसको शब्दों में बंधना संभव नहीं , बस जिया ही जा सकता है , उसका आधार सिर्फ ध्यान बनता है , ध्यान ही समस्त फेरों को काटता है ,
जब आपका बल पूर्वक अधिकार भाव समाप्त हो जाता है तो सभी को प्रेम करते है , और परिणाम स्वरुप सभी से प्रेम मिलता है , ये परिवर्तन इतना गहरा है की फिर परिणाम में किस व्यवहार के किस भाव का क्या फल मिल रहा है और क्या नहीं इसका भी कोई कीड़ा मस्तिष्क में रेंगने को नहीं बचता , ये भी गणित समाप्त हुआ , जो भी मिलगया , जितना भी मिलगया , और जैसा मिला , सब उसी का आशीर्वाद और उसी की अनुकम्पा । जिस भाव का विचार इतना सुखद है उस जीवन को जीना कितना सुन्दर होगा ! परन्तु एक भी फेरा यदि बच गया तो प्रदुषण होना ही है।
किसी ने ये भी कहा है , की एक को बदलने से संसार नहीं बदलता। पर ये भी सही है की एक-एक से ही संसार बदलता है। और उसका तो सम्पूर्ण संसार ही परिवर्तित हो जाता है जिसका अंतस्थल परिवर्तित हो चुका ।
आज के ध्यान के लिए आपको एक विधि देती हूँ , फूलों का आपने अन्य बहुत उपयोग किया होगा इस बार ध्यान के लिए उपयोग कीजिये। सुविधानुसार एक गुलाब का सुन्दर पुष्प का चित्र लीजिये या ताज़ा पुष्प...... यहाँ आप अपने ह्रदय में संकल्प ले चुके है की आप अपने अंदर के चक्रो को सुलझाएंगे , कष्टो को दूर करेंगे। एक एक पुष्प पत्ती आहिस्ता आहिस्ता खोलते जाना है , पूरे ध्यान के साथ खुली आँखोसे , एक एक पत्ती के साथ आपका एक फेरा स्पष्ट होगा , जो इन पंखुड़ियों जैसा ही सुन्दर भी हो सकता है और नकली महक वाला भी। यदि स्वतः नेत्र बंद होते है तो होने दीजिये , हर फेरा दूर होता हुआ नजर आएगा। ये कैसा भी हो सकता है , कभी आपके अपने स्वभाव से उपजा हुआ आपको कष्ट देता हुआ , तो कभी दूसरे के कारण आपको कष्ट जो महसूस हो रहा है , उसकी वजह भी आपको अपने ही अंदर मिलगी। ध्यान दीजिये , इस फूल का बलिदान है आपके लिए ; व्यर्थ नहीं जाना चाहिए ! एक भी पत्ती ऐसी नहीं टूटनी चाहिए जो आपके फेरे को स्पष्ट न करती हो , प्रत्यक्ष न करती हो , प्रकट न करती हो। फिर देखिएगा धीरे से इन विषाक्त भावों का ज्ञान ही आंतरिक परिवर्तन लाएगा।
परन्तु इस ध्यान के लिए , मनःस्थति का आपकी मंशा के अनुकूल होना आवश्यक है , आपके मस्तिष्क का सहयोग आवश्यक है। आपका संकल्प होना आवश्यक है।
बाहरी फेरे इस पुष्प के ही सामान है , शुरूआती पंखुड़ीयां आसानी से खुलेंगी , पर जैसे जैसे इस पुष्प के अंदर और अपने आंतरिक फेरीं की तरफ प्रवेश करने चलेंगे , अंतःस्थति आपको आग्यां नहीं देगी , आपका मस्तिष्क आपको ही कुछ भी समझायेगा , पर आपको धैर्य पूर्वक पुष्प के अंदर जकड़ी हुई पत्तीओं वाली कलि के अंदर की आखिरी पंखुड़ी को खोलना है। निर्भार होने के लिए आवश्यक है।
इस ध्यान में सबसे अधिक एकाग्रता स्वयं के ह्रदय स्थान पे ही है और दूसरी मस्तिष्क यानि की अज्ञान चक्र पे। श्वांस सजह , और चित्त की स्थति निष्पक्ष होनी ही चाहिए। बिलकुल जैसे एक पद पे आसीन न्याधीश होता है , ईश्वर के समक्ष , आप भी तो अपने केंद्र से मिलरहे है , ईश्वर का वास है जहाँ। निष्पक्ष होके एक एक पंखुड़ी खोलिए। और स्वयं को स्वयं के बंध से स्वतंत्र कीजिये।
कोई आवश्यक नहीं की पहली बार में सफलता मिल जाये , मिल भी सकती है और नहीं भी , आपकी स्वयं की मनःस्थति को आपके द्वारा स्वीकार करने की शक्ति पे निर्भर करता है , इसको दोहराइए , यदि आपको शांति मिलती है , इसको कई बार भी दोहराया जा सकता है। अंतर्मन का निरीक्षण जो है !
ऐसा भी संभव है की आपको अपने ही छद्म भावो के दर्शन हो जिसमे आप स्वयं का प्रतिनिधित्व करते नजर आएं , संभवतः ऐसे भाव के हर संभव प्रयास से या तो दुसरो के द्वारा और अगर बहार से नहीं तो स्वयं के द्वारा स्वयंको ही सहानुभूति देता है। पर ये आपका मस्तिष्क ही है। और मन उसका सहयोगी। यकीं मानिये अगर कोई कष्ट बाहर जन्म ले रहा है तो उसका जन्म स्थान अर्थात स्वीकार केन्द्र आपका अपना व्यक्तित्व ही है। यानि की आपके विचार ही बाधा है। यानी की आपने जो स्वभाव अर्जित किया , वो ही रोड़ा है। जबकि वस्तुस्थति को गहराई से देखेंगे तो पाएंगे। स्वाभाव और सच्चाई का कोई मेल ही नहीं। स्वभाव परिस्थत्यों और समाज से अर्जित है और आपकी सच्चाई कुछ और है। इनका कोई मेल ही नहीं। आप मस्तिष्क , मन और इद्रियों के खेल से परे है। इसको जानना ही प्रथम दर्शन है स्वयं का। फिर आपके स्ववभाव जनित कष्ट भी आपको सहज दिख जायेंगे।
स्वयं के बदलते ही संसार के दृश्य बदल जाते है , बाहर सब मायावी है। दृष्टि बदल के देखिये !
और ये ज्ञान ही समस्त कष्टो का इलाज है , क्यूंकि समस्त मौलिक शक्ति स्वयं में ही तो है , बाहर तो सिर्फ विस्तार है। नीव अंदर ही है।
शुभकामनाये।
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