जिंदगी का फलसफा , वस्तुतः दिमागी खेल ही है , जो जन्म से शुरू हो के मृत्यु तक पीछा करता है , अगर न जाना गया तो पीड़ा भी देता है , खुशिया भी देता है , अहंकार , मोह , क्रोध , द्वेष और पता नहीं क्या क्या , सभी रंगों की यात्रा और उठापटक ताजीवन कराता रहता है , और हम बेबस से रोलर कोस्टर में झूला झूलते रहते है।
इसी के मध्य में सम्बन्ध भी बनते है और बिगड़ते भी है , सवारते भी है और एक दूसरे की यात्रा के सहायक भी बनते है , कभी कभी विपरीत से दीखते हुए भी अप्रत्यक्ष रूप से दिव्य यात्रा का कारन बनते है। अपनी अपनी गति और प्रारब्ध अनुसार। मूलतः सभी लौकिक राग द्वेष का ठिकाना यही पे है। सबसे प्रिय पड़ाव है माया का। बे रोकटोक यहाँ से वो अपना शासन चलती है।
बड़े बड़े ज्ञानवान लोगो को विचलित होते देखा , सम्पूर्ण जीवन योग में लगा दिया जिन्होंने , इस अहंकार में भरे रहे अब और क्या सीखना .... सीख लिया। वो भी अंतकाल तो दूर इसी जीवन काल में परम को विस्मृत कर जीवन को क्रीड़ा समझ ; मोह में बंधे देखे गए।
मोह लोभ ईर्षया द्वेष अहंकार मद आदि अतिशक्तिशाली है, समस्त ज्ञान के बाद भी चिपके रहते है मन और बुद्धि से।
कहा जाता है , शरीर से सोचेंगे तो शरीर तक ही सोच पाएंगे , सच है ! इन्द्रिओं से सोचेंगे तो इन्द्रियां मार्ग में आएँगी ही ! फिर ऐसा क्या करे की इन इन्द्रियों से बाहर निकल के विचार बने !
क्या आपको पता है ? जी हाँ , अवश्य पता होगा !! आप सभी सयाने है , सब जानते है , कई तो अनुभव से भी गुजरें होंगे " ध्यान की क्रिया वस्तुतः मन और बुद्धि के संयोग से ही शुरू होती है।"
मूलतः ध्यान का उपयोग भागते मन और बुद्धि को काबू में लाने के लिए ही किया जाता है , मनोवैज्ञानिक रूप से। यदि इतने से आप संतुष्ट हो गए तो ठीक , आप वापिस अपने संसार में लौट जाते है। यदि नहीं , आपकी प्यास अधिक है आपको कुछ और जानना है , तो ध्यान की गाड़ी में फिर से बैठना पड़ता है , मंजिल का टिकिट इस बार अलग ही है , की पता ही नहीं कहाँ और कितनी दूर जाना है , पर विश्वास से बैठे रहते है।
यदि आपका मन सध गया तथा मन और बुद्धि जनित खेल साफ़ साफ़ दिखने लगे , तो आहिस्ता से अंतर्दृष्टि के विकास से वो सब दिखने लगेगा जिनसे माया अपना खेल खेलती है।
ये सही है की आप जो भी देख रहे है समझ रहे है अपने माध्यम से ही। परन्तु अब ये सब माध्यम है , आपका अपना नहीं , आप सेवक है इस संस्थान के।
जब ये भाव स्पष्ट हो गया , तो क्या बचा ? जब आपका कुछ भी नहीं न ये न वो , तो सारी खोने की वेदना और पाने की प्रसन्नता उड़नछू हो गयी। अब आपका कुछ नहीं। आप सहयात्री है। और सहयात्री से जैसे सम्बन्ध होने चाहिए अब वो ही सम्बन्ध उभरने लगते है आपके आस पास।
इसी भाव के साथ प्रथम एक लयता का दर्शन प्रकति के साथ होता है। और आदि और अनादि से आपका परिचय करते है स्वयं शक्ति और शिवा।
यहाँ तक आके आप अब जान चुके है , यद्यपि मैं मन और बुद्धि से कार्य ले रहा हूँ , परन्तु ये मेरे अधीन है , मेरे कहने अनुसार ये मुझे अनुभव करने में सहायक है , इसलिए मैं इनका आभारी हूँ।
इस भाव के साथ आप में स्वाभाविक आभार का भाव जाग्रत हो जाता है।
और मनः स्थति आपकी ऐसी है की आप स्वयं देख सकते है। अब आपके अंदर से मन बुद्धि शोर नहीं मचा रहे। अपितु मौन से आपकी सीधी वार्ता हो रही है। और आपको अनुभव भी हो रहा है। उस परम की अनुभूति का दिव्यता का , सानिध्य का , सहयोग का। यहाँ तक आके अब आपका एकांत अकेलापन न रह के परम के साथ अद्वैत में एकलय होने लागता है।
एक साधु एक संत और एक सन्यासी इसी एकलयता को अनुभव करते है।
ये अनुभव विलक्षण है अद्वितीय है , शब्दों से पर है , परन्तु अनुभवातीत नहीं। अनुभवातीत होने केलिए अभी भी आप यात्रा पे है। धैर्य से इसी राह पे चलते जाना है।
नीचे अब जो परम अवस्था का भाव बाँट रही हु वो अति उच्च स्तर पे स्थित है उसका और लौकिक भाव का कोई सामंजस्य ही नहीं।
चलते चलते , मन छूटा , बुद्धि छूटी , वासनाएं छूटी , इन्द्रियों का लोभ छूटा ( ध्यान दीजियेगा , प्रकति से आप अभी भी जुड़े है क्यूंकि शरीर ही तो माध्यम है किन्तु भाव से विलगाव आ रहा है , यहाँ महीन बात जो विचार करने की है वो ये की , अब जो भी कर्म आपके शरीर द्वारा किया जा रहा है उसमे आपकी देह ही मात्र लिप्त है , आत्मा उस परम में समायी है , इस अर्थ में प्रतीक आवश्यकताओं के प्रतिपादन के साथ ही अलौकिक अनुभव भी होते जाते है ) आपका हर कदम हर अनुभव और अधिक उसके पास लाता है।
आपका सोना जागना , खाना पीना शारीरिक पीड़ाएँ , आत्मिक दुःख कष्ट , रोग , जो भी इस शरीर की भोगना में सम्मलित है वो सब आपके अनुभव बन चुके है। कही मन की गहराई में आप
विधि के विधान को और माया के चक्र को जान चुके है।
प्राकृतिक फूल जैसी सरलता और सहजता आपमें प्रवेश पहले ही पा चुकी है। सुगंध आपके चारों तरफ बिखर रही है।
यहाँ फिर जागरूकता की आवश्यकता है , पर ये जागरूकता पहले जैसी नहीं , समीकरण और अर्थ बदल चुके है , इसलिए यहाँ सिर्फ लौकिक व्यवसाय भाव से बचना है। यह वो पड़ाव है जब व्यक्ति सांसारिकता और अलौकिकता के बीच पुल की तरह बन चुका है। दुखी दग्ध , संतप्त आत्माए खोज रही है ऐसे मरहम को , और ये स्थति बड़ी भयानक हो सकती है , इसको एक उदाहरण से समझा सकती हु , जैसे " गहरी वेगवान नदी में डूब रहे व्यक्ति को कुशल गोताखोर ही सावधानी से बचा सकता है , कारन की जैसे ही बचने वाले को व्यक्ति अपने करीब पता है , उसको हड़बड़ाहट में दबोचने का प्रयास करता है, थोड़ी सी लापरवाही और दोनों के प्राण गए। सावधानी से और उचित भाव से मरने वाले को बचा लिया जाता है। " आत्मिक रूप से उन्नत व्यक्ति भी इसीप्रकार होते है , संसार की दग्ध आत्माएं , जैसे ही ऐसे व्यक्ति का संसर्ग पाती है , अलग अलग भाव से घेरती है। परन्तु धीर और गंभीर व्यक्ति सहजता के साथ उनके कष्ट प्रयास से नहीं अपने स्वाभाव से दूर करते है। और माया में न लिप्त होते हुए। अक्सर यही धोखा हो जाता है जो फिर उन्ही गहराईयो की तरफ फिसलन शुरू हो जाती है।
कारण सिर्फ छोटा सा ; माया से निकले और माया में गिरे।
शुभकामनाये आप सभी को।
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