Wednesday, 11 June 2014

धर्म और अध्यात्म / ऋषि और सद्गुरु

               जहाँ  तक  मुझे   समझ  आता  है  , बुद्धकाल  को मध्य  मानते हुए  उससे पूर्वार्ध  तथा उत्तरार्ध  के  समकक्ष   अन्य गुरुजन  तथा  आज कल के भी ज्ञानीजन   का  भी  सभी का मूल उद्देश्य  वही  था  और है  जो हमारे  इतिहास में  वर्णित ऋषि  मुनियों  का  था। ऋषि-मुनि  भी मनो-वैज्ञानिक  थे, और मनोवैज्ञानिक प्रयोग धर्म के माध्यम से समाज को दिशा दिखने वाले  नियमो की  रचना  कर-कर के … प्रयोग करते रहते थे और यही मनोवैज्ञानिक रास्ता  बाद में भी  बुद्ध  तथा समक्ष  अन्य गुरु भी अपनाते रहे है ...बिना जीव के मन के विज्ञानं को समझे कोई  प्रभावी बात कर ही नहीं सकता। यहाँ मेरा अर्थ विषयगत शिक्षा  के विषय मनोविज्ञान से नहीं  अपितु  बृहत् अर्थ में  है, जहाँ  व्यक्ति के  अंतरतम  जगत में  बुद्धिजीवी  प्रवेश करके , समाज को संचालित  करते है  एक दिशा देते है , एक निर्देशित अनुशसित समाज देते है ।

               ध्यान देने वाली बात है की आध्यात्मिक और धार्मिक विपरीत से लगते है , वास्तविकता में है नहीं , सारे  मार्ग एक ही दिशा की तरफ बढ़ रहे है इसलिए   कांट-छांट और  सही-गलत  का  तो  प्रश्न ही  नहीं  ,यहाँ हम सिर्फ  औचित्य  जानेंगे  और वो भी सकारात्मक तरीके से  बिना व्यर्थ की आलोचना में उलझे हुए, सिर्फ वांछित  तत्व की बात करेंगे , हमारे ऋषि  भी  वो  बात  कहते  थे  जो  जनमानस  तक उतरे  , और बुद्ध तथा  समक्ष  अन्य गुरु  भी  वो  ही  कहते  रहे जो जन सामान्य  तक जाए  ... 

              जब  एक  बार  सम्पूर्ण सत्य को निर्विरोध  स्वीकार  कर  लिया तो  फिर  सही और गलत की  खींचतान और वैषयिक  आलोचना   का  कोई  अर्थ  ही नहीं  !! 

            रससल  जिस  वख्त  ये  धार्मिक  देवी देवताओं की कथाये  रची  गयी  थी , स्वयं  उन्ही  ऋषि  मुनियों   द्वारा  कुछ  वास्तविक जीवित आस पास के अनुभव  थे  और  कुछ  ध्यानावस्था  के  अनुभव  ( जैसे  आज  भी  हम  देखते  है  , कुछ गुरु आस  पास  के  अनुभव से  कहते  है  और  कुछ  ध्यान  के  अनुभव  से  ), उस  वख्त  का  समय  और लोगो को समझाने   के  ढंग  अलग  थे  , समय  बदल  गया  , पर  लोग   वो  ही  तरीके (परम्पराएँ ) कंधे  पे  ओढ़े  है  ...

           लोगो  के  मन  से  पुराना  उतारने  का  भी  कोई  और  रास्ता  नहीं  , की  बस  गुण  और  दोष  की चर्चा  की जाये  , और  फिर  जितना  जिसको  समझ  में  आ  जाये  …और  को  भाग्यवान मूल अर्थ तक भी पहुँच जाये !  वस्तुतः  किसी भी समाज की  नीव में  तत्कालीन  भाषा , संस्कृति  और  जीवनजीने के संसाधनो का महत्त्व होता है।  परन्तु समाया और काल के  क्रमिक विकास के साथ इनमे भी विकास होना ही है ! 

क्रमिक  समय  और मानसिकता परिवर्तन का विकास- सिद्धांत भी यही है।
परन्तु मूल  भाव  में कोई भेद नहीं।  न तब ऋषियों में था और न अब गुरुओं में है।
आगे भी  जो गुरु पद  संभालेंगे   वो भी इसी  ज्ञान की  परंपरा को आगे बढ़ाएंगे।

            ज्ञान  के फेरे इतने महीन है  की पल-पल रूप बदलते है , परन्तु मूल नहीं बदलता , सत्य जो तब था वो सत्य आज भी है । इसलिए  कई कई वार्ताओं में गुरु स्वयं अपने ही मत को काटते नजर आते है। या फिर यूँ भी समझ सकते है , की उन्नत  उच्च कोटि की आत्माए  विभिन्न वस्त्रो और देशो में जन्म लेती है , तो वो ही  स्वयं को पुनः पुनः स्थापित करती नजर आती है। बस उनको पहचानना कठिन है , क्यूंकि वस्त्र बदल चुके है  और ऊर्जा से हमारा परिचय नहीं , अभी तो अपनी ही ऊर्जा से परिचय कर रहे है , फिर उनको कैसे पहचानंगे ?

उदाहरण के लिए  :-
           ** ओशो एक स्थान पे कहते दिखते  है ,' अगर तुम्हारे भीतर शून्य हो; तो उसी शून्य में वह वाणी जाकर गुंजन पैदा कर सकती है, गुन-गुन पैदा कर सकती है। तुम्हारे भीतर शून्य ही न हो, तुम्हारा पात्र ही कूड़ा-कर्कट से भरा हो, तो कुछ नहीं हो सकता है। तुम्हारे पात्र में शून्यता होनी चाहिए। और शून्यता सीखनी हो तो प्रकृति के पास जाओ; जाओ पहाड़ों के पास बैठो वृक्षों के पास। अदभुत थे वे लोग जिन्होंने वृक्षों की पूजा की, प्यारे थे वे लोग जिन्होंने सूरज-चांदत्तारों को नमस्कार किया और इनको देवता कहा, ज्ञानी थे वे लोग जिन्होंने अग्नि की पूजा की, दिए जलाए और दिए की ज्योति पर अपने ध्यान को जमाया। अग्नि उसकी है, चांदत्तारे उसके हैं, वृक्ष उसके हैं, नदी-नद, सागर-सरोवर उसके हैं। बेहतर थे वे लोग, समझदार थे वे लोग, उन्होंने प्रकृति के साथ संबंध जोड़ने की कोशिश की थी। और प्रकृति से जिसका संबंध जुड़ता है, परमात्मा बहुत दूर नहीं है--बस प्रकृति के ही घूंघट में तो छिपा है। प्रकृति उसकी ही ओढ़नी है। जरा प्रकृति को तुम समझने लगो तो परमात्मा से ज्यादा देर दूर न रह सकोगे। और जो परमात्मा से दूर है, वह है ही क्या? एक अंधेरी रात। एक दुखस्वप्न। Dariya Kahai Sabad Nirbana -01

           **   और दूसरी जगह  वो  उनकी ही आलोचना करते है ,' शोपहार ने कहीं कहा है कि हे परमात्‍मा, तू तो मुझे स्‍वीकार है, तेरी सृष्‍टि स्‍वीकार नहीं है। लेकिन इनको परमात्‍मा स्‍वीकार है तो उसकी सृष्‍टि अनिवार्य रूपेण स्‍वीकृति हो जाय। और अगर उसकी सृष्‍टि स्‍वीकार नहीं है, तो बहुत गहरे में हम उसे भी स्‍वीकार नहीं कर सकते। कैसे स्‍वीकार करेंगे। फिर या तो हम परमात्‍मा से ज्‍यादा समझदार हो गए है। उससे ऊपर अपने को रख लिया कि हम उसमें भी चुनाव करते है।

            **  मेरा कोई चुनाव नहीं, मैं तो मानता हूं जो प्रकट है, वह अप्रकट का ही हिस्‍सा है। जो दिखाई पड़ रहा है। उसके पीछे ही अदृश्‍य छिपा हुआ हे। थोड़ी पर्त भीतर प्रवेश करने की जरूरत है। और प्रेम जितना गहरा जाता है। इस जगत में कोई और चीज इतनी गहरी नहीं जाती। मैं छुरा मार सकता हूं। आपकी छाती में,वह इतना गहरा जाएगा जितना मेरी प्रेम आपके भीतर गहरा जाएगा। प्रेम से गहरा तो कुछ भी नहीं जाता इसको भी जो छोड़ देता है वह उथला सतह पर रह जाता है। तो मेरे मन में तो ऐसे शास्‍त्र अनिष्‍ट है। और जितने शीध्र उनसे छुटकारा हो, उतना ही अच्‍छा है। और ऐसे ऋषि मुनियों की चिकित्‍सा..मानसिक रोग है इन्‍हें..! ~ओशो~ 'संभोग से समाधि की ओर'

               हाँ इतने बड़े देश के पुरातन काल से चले आ रहे धर्म  के क्रमिक विकास में ओशो तो मात्र एक छोटा सा उदाहरण है , इस समूचे विचार प्रवाह की श्रृंखला में , तत्कालीन सज समाज और परिस्थितिया को जानना हो समझना  हो तो उस काल का साहित्य  पर्याप्त है !  उस काल का वैज्ञानिक विकास , आत्मिक विकास , और धरम प्रतिष्ठा   सब कुछ साहित्य द्वारा उपलब्ध है।  और सहज ही समझ आ जाता है  की मनुष्य के मनोविज्ञान अनुसार  उसको सुशासित  करने के लिए   सभी  समाज में अलग अलग  ढंग  प्रख्यात रहे है।  

               हले  ऋषि और मुनि थे , भाषा संस्कृत ( पाली  और प्राकृत)  हुआ करती थी  तो समस्त  साहित्य भाव रूप में उसी भाषा में  मिलता है।    विकास क्रम में   उसी  मूल भाव को  और उसी सत्य को  अलग अलग प्रचलित भाषाओँ ने रखा। आज कल  हिंदी भाषा   आम भाषा और क्षेत्रीय भाषा भी है  भारत बहुभाषी देश है, इसलिए धार्मिक साहित्य भी अलग अलग भाषाओँ में  मिलता है  , परन्तु बदलते समय के साथ  फिर  से हर  भाषा अपना रूप बदल रही है , अतः  हिंदी में  भी   अंग्रेजी का मिला शुरू हो गया , अब इस परिवर्तन को  यदि  कट्टरवादी न स्वीकार करे तो परिवर्तन नहीं रुक जाता , परिवर्तन तो  अवश्यम्भावी है।  

               धर्म ने भी अपना चोला  बदला है , ध्यान दीजियेगा !!  सत्य अपना चोला बदल ही नहीं सकता , धर्म ही सत्य का चोला है।  जो अब आध्यात्मिकता की ओर  सरक रहा है , यहाँ  वाद विवाद ये नहीं होना चाहिए की  कौन सही और कौन गलत , क्यूंकि ये विवाद  ही  मानव के अहंकार की जड़ है।   वार्ता  सकारात्मक होनी चाहिए की  सत्य ने अब ये वस्त्र बदले है और ये  समाज को स्वीकार है।

              दलते  समय के  प्रवाह में  रूप  चोला सब बदलता चलता है , जैसे इंसान का , वैसे ही समाज का और देश का भी।  तभी तो देश और समाज भी जीवित इकाई के रूप में  गिने जाते है ,  अगर परिवर्तन न हो तो मृत हो जायेंगे।  

              धार्मिक विश्वासो में परिवर्तन हो रहा है ,  सामान्य वयक्ति की शिक्षा दीक्षा  में परिवर्तन है , विज्ञानं और तकनीकी  में विकास है , और इसी का प्रभाव  श्रद्धा और धर्म पे भी साफ़ दीखता है।   परिवर्तन को नहीं स्वीकार करता  उसमे टकराव होने लगता है , परन्तु ये भी विकास का ही रूप है। भारतीय समाज में भी विकास की इस गति के साथ धार्मिक और आध्यात्मिक  विधियां प्रचलिति हो रही है एक साथ , और स्पष्ट दिखाई देता है की धार्मिक अंधविश्वासों को हटाने का काम  अध्यात्म कर रहा है , परन्तु सत्य को नहीं।  


             गुरु भी  अब अपनी बात को वैसे ही स्थापित कर रहे है जैसे पहे ऋषि और मुनि किया करते थे , यहाँ समझ में को भेद नहीं , इसी कारन  अपनी ही बात को स्थापित करने के लिए  उनको   ऋषियों की सत्यतता जानते हुए भी  अन्धविशव  हटाने के लिए  ,  कहने का मकसद  और अर्थ के अनुसार  व्याख्या में बदलाब  करना पड़ता है  परन्तु  ये  भी संकल्प कि सत्यता  में भेद नहीं आना चाहिए  अंततोगत्वा  चाहे धर्म मार्ग हो या अध्यात्म मार्ग  सारे मार्ग  उसी एक बिंदु के पास जा रहे है , परन्तु एक ही नियम हर जगह एक सा फल नहीं देता। एक दवा हर मर्ज में काम नहीं कर सकती  , लक्षण के हिसाब से औषधि का समय और  मात्र में बदलाव होता रहता है , वस्तुस्थिति को  संज्ञान पूर्वक  समझना  ही पड़ता है। बात ये नहीं की  क्या कहा और क्या काटा , बात मूल को समझने विषय की है ,  संभवतः  भले ही वो स्वयं के ही  विपरीत सी लगती हो  पर गहरे में सब एक ही दिशा में बह  रहे है  , वो है ज्ञान का बहाव ,  इसका सार  जब तक शब्दों में  पड़े रहेंगे नहीं समझ आएगा ,  ध्यान में उतारना ही पड़ेगा।  

            ज का  अध्यात्म  प्रेरित करता है  स्व  के लिए ,स्व  पे जोर है  यदि स्व को जान लिया तो  ब्राह्मण और ब्रह्माण्ड  जाना हुआ ही है , शिव  स्वयं में वास करते है।  प्रकृति  के एक कण में समूची प्रकृति का  वास है। इसको जानने के लिए  सिर्फ ध्यान ही सहायक होता है , अंदर की यात्रा ही जब  बहिर्मुखी न होकर उलट अंदर को चलती है , तो सब स्पष्ट होेने लगता है।  सिद्धांत सिर्फ इतना सा की  बाहर  की यात्रा का अंत नहीं , मृगमरीचिका है  भटकन है इसीलिए  इसको जन्मो जनमो की भटकन से भी जोड़ा गया है , जबकि  अध्यात्म  और ध्यान योग द्वारा  आंतरिक यात्रा  की मंजिल अभी है और यही है ……   न कहीं जाना है  और न कहीं  भटकना  है।   विचरण स्थल  भी आत्मा और मंथन भी आत्मा में ही है । 


ॐ ॐ  ॐ 

No comments:

Post a Comment