ऐसा कदापि नहीं की ज्ञान पहली बार कहा या सुना जा रहा है , वर्षों से प्रयास इधर से भी जारी है और उधर से भी , ज्ञानियो और संसारियों के बीच की रस्साकसी पुरानी है।
यह भी सच है की न तो कभी सम्पूर्ण संसार एक साथ वैरागी होगा , न ही पूरा संसार संसारी ही होगा , दोनों के बीच बहुत ही प्यारा सा संतुलन बना ही रहता है , वर्ना मायादेवी की शक्ति का पता कैसे चलेगा ? और यदि सब वैरागी हो गए तो प्रकृति क्या करेगी ? संभव ही नहीं , बस अपनी अपनी गति और परिस्थतियों के अनुसार अलग अलग मिश्रण के रूप में व्यक्ति स्वयं को संतुलित करते चलते है , हजारो सालो से यही हो रहा है , कुछ नया नहीं है। इतिहास में वर्णित बुद्ध का समय वैराग्य और सन्यास के लिए सबसे बलवान था लोग परिवार छोड़ने लगे थे , पुरुष वैरागी हो रहे थे , स्त्रियां भी बड़ी मात्रा में सन्यासिनी होने लगी थी। परन्तु उस विपरीत परिस्थिति में भी वहां भी समाज कायम था , थोड़ा असंतुलन हुआ था , परन्तु शीघ्र सब वापिस ठीक हो गया । यदि अध्यात्म बलवान है तो संसार की माया शक्ति उससे भी जयादा बलवान।
संसार छूटता ही तब है जब एक भी डोर पकड़ में नहीं आती , प्रयास के वख्त एक भी डोर उम्मीद की यदि हाथ में हो तो ह्रदय प्रलोभित होता ही रहता है , और मस्तिष्क मन इन्द्रियां सभी विद्रोह करती है। परन्तु प्रयासशीलता के साथ धैर्यपूर्वक चलते रहने से ; प्रयास के रस्ते में ही ऐसा भी होता है , की आपकी इन्द्रियां , चेतना मस्तिष्क और ह्रदय आपके सहयोगी दल बनते है , विपक्षी दल के नेता नहीं।
" ज्ञानी कहता है मैंने सच जान लिया अब तुम भी जानो आ जाओ तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जायंगे , संसारी कहता है जानते तो हम है ही , कुछ नया बताओ ! वो ही पुराना गीत सुन सुन के अभ्यस्त हो चुके है। कोई नया गीत सुनाओ। ज्ञानी कहता है समय है चेत जाओ , संसारी कहता है हम चेत गए तो तुम्हारा क्या होगा ? तुम तो बस हमारी पीड़ा कम करो और हमको अपना काम करने दो। ग्यानी कहता है संसार माया है , संसारी कहता है यही तो जीवन का ढंग है जीने दो हमें , बस जब याद करें तब उपाय कर देना। कोई दवा , कोई योग , कोई ध्यान तब बता देना। कोई विधि कोई चमत्कार दिखा सकते हो क्या ? कैसे भरोसा करे ? तुमको सामान्य से कैसे अलग करे ? यदि विधि और उपाय नहीं दे सकते तो तुम्हारी साधना अभी कमजोर है , पहले अपनी साधना पूरी करो फिर हमे ज्ञान देना ... , बस यूँ ही ; मस्तिष्क और मन अपनी सत्ता पे काबिज रहते है। "
यहाँ तीन तरीके के अस्पताल चलते है ,
एक शरीर के रोग का तो
दूसरा मन मस्तिष्क के रोग का और
तीसरा आत्मा के रोग का। उच्च कोटि के तीनो ही सांसारिक - केंद्र जन सामान्य की जेब से बाहर है।
और सांसारिक अस्पतालों का हाल किस से छिपा है , सब व्यवसाय ही व्यवसाय छाया हुआ है , विधियां ही विधिया हर तरफ , दवाईंयां ही दवाईंयां है यदि कोई दवा कोई विधि सटीक लग गयी , तो आप भाग्यशाली है , वरना सिर्फ अपनी कसक को गा _गा के हल्का करते रहते है , इन व्यावसायिक तरंगो संग चिकित्सा की तरंगे भी बहती है , कोई भाग्यशाली हो तो स्वस्थ भी हो जाता है , बाकी तो लूट पिट के सब बराबर होना है।
संसार में जब भी व्यक्ति इन आध्यात्मिक चिकित्सालयों में चिकित्सक के पास जाता है तो उसका भी सिर्फ छोटा सा ध्येय होता है उपचार के लिए , कोई बिरला ही शायद माया का तत्व ज्ञान वास्तव में लेना चाहता हो। बहुत अधिक मन किया तो दर्शन पढ़ लिया। ज्यादा धार्मिक हुए हुए तो दो वख्त की आरती से ज्यादा धार्मिक ग्रन्थ पढ़ लिए , तो सामान्य समाज में ऐसे व्यक्ति प्रतिष्ठा पाते है। पर सब है सांसारिक कर्म के अंतर्गत। इस अर्थ में विशुद्ध धार्मिक की डोर भी संसार से ही जुडी रहती है , क्यूंकि वो स्वयं को पुल मान लेता है। परमात्मा और अन्य आत्माओं के बीच में , समाज के धार्मिक अनुशासन का दायित्व एक धार्मिक के कंधो पे ही रखा होता है। जबकि आध्यात्मिक इस दायित्व से मुक्त स्वक्छंद होता है। सीधा उसका कहना है , इतना जो भी मुझे मालूम मैं सुखी हूँ , तुम जानोगे तो तुम भी सुखी होगे। यहाँ शासन नहीं आग्रह भाव होता है। यही भाव आध्यात्मिक को माया से अलग करता है। वस्तुतः यहाँ भी महीन बंध है , जो आध्यात्मिक को भी संसार से जोड़ सकते है।
कौन है जिनको जागरण रुचिकर होता है ?
*** वास्तव में जो इस भव सागर की ऊँची ऊँची लहरो को सहन नहीं कर प् रहे है , मात्र वे ही जागरण के इक्षुक हो पाते , और जागरण भी स्वयं ही हो जाता है , वो तो पीड़ा के निवारण के रस्ते पे चलते है। यही से उनको असारता का पाठ मिलता है , माया रहित ज्ञान का साथ।
*** अथवा वे जो सिर्फ रहस्य को जानने आते है और इसमें डूब जाते है।
*** अथवा वे जो प्रारब्ध से ईश्वरीय योजना का निमित्त बनते है।
इसके आलावा कोई और प्रकार है ही नहीं ……अन्य सब अलग अलग पैकेट में एक ही प्रकार की गुणवत्ता में आते है , वो है सांसारिकता का , इनका ध्यान , अध्यात्म , धर्म , यहाँ तक की इनकी चेष्टाएँ सब एक ही चाशनी में लिपटी हुई मिठाई की दुकान है। कोई भी ले लो , महक सांसारिकता की ही आएगी। क्यों ? क्यूंकि एक भी डोर उम्मीद की जब तक संसार से जुडी है , संसार छूटना कठिन होता है।
वो पल जिसको फ्री फाल कहते है वो वो ही है , जब इधर से सारे बंधन सारी आसक्ति छूट गयी , और उधर सत्ता पहले से आपको सहारा देने के लिए तैयार होती है , वो तो है ही , उसकी तैयारी पूरी है , कमी तो इधर से ही है। जब ये कमी भी पूरी हो गई तो , ज्ञान का दिया प्रज्वलित हो जाता है।
फिर अपने सांसारिक की पैदाइश मानसिक और आत्मिक ग्रन्थियां सीधा परम सत्ता को सौंप दी जाती है , कोई बीच में नहीं। कोई अन्य एजेंट नहीं , बस वो परम और इधर आत्मा। और सारे रहस्य जो बनावटी थे वो समाप्त हो जाते है , उसी क्षण , उसी पल।
परन्तु एक भी इक्षा या महत्वाकांक्षा या वासना की डोर कहीं भी अंदर या बाहर की दुनिया से अगर जुडी रह गयी , तो जब तक वो डोर कट नहीं जाती तब तक ये साक्षात्कार संभव नहीं हो पाता , कारन ये नहीं की परमात्मा राजी नहीं , कारन सिर्फ इतना है की हमारा मन तैयार नहीं , हम राजी नहीं। इसीलिए अध्यात्म सिर्फ और सिर्फ अन्तर्जागरण , अंतरावलोकन , अंतरध्यान और मौन द्वारा ही संभव है।
यह भी सच है की न तो कभी सम्पूर्ण संसार एक साथ वैरागी होगा , न ही पूरा संसार संसारी ही होगा , दोनों के बीच बहुत ही प्यारा सा संतुलन बना ही रहता है , वर्ना मायादेवी की शक्ति का पता कैसे चलेगा ? और यदि सब वैरागी हो गए तो प्रकृति क्या करेगी ? संभव ही नहीं , बस अपनी अपनी गति और परिस्थतियों के अनुसार अलग अलग मिश्रण के रूप में व्यक्ति स्वयं को संतुलित करते चलते है , हजारो सालो से यही हो रहा है , कुछ नया नहीं है। इतिहास में वर्णित बुद्ध का समय वैराग्य और सन्यास के लिए सबसे बलवान था लोग परिवार छोड़ने लगे थे , पुरुष वैरागी हो रहे थे , स्त्रियां भी बड़ी मात्रा में सन्यासिनी होने लगी थी। परन्तु उस विपरीत परिस्थिति में भी वहां भी समाज कायम था , थोड़ा असंतुलन हुआ था , परन्तु शीघ्र सब वापिस ठीक हो गया । यदि अध्यात्म बलवान है तो संसार की माया शक्ति उससे भी जयादा बलवान।
संसार छूटता ही तब है जब एक भी डोर पकड़ में नहीं आती , प्रयास के वख्त एक भी डोर उम्मीद की यदि हाथ में हो तो ह्रदय प्रलोभित होता ही रहता है , और मस्तिष्क मन इन्द्रियां सभी विद्रोह करती है। परन्तु प्रयासशीलता के साथ धैर्यपूर्वक चलते रहने से ; प्रयास के रस्ते में ही ऐसा भी होता है , की आपकी इन्द्रियां , चेतना मस्तिष्क और ह्रदय आपके सहयोगी दल बनते है , विपक्षी दल के नेता नहीं।
" ज्ञानी कहता है मैंने सच जान लिया अब तुम भी जानो आ जाओ तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जायंगे , संसारी कहता है जानते तो हम है ही , कुछ नया बताओ ! वो ही पुराना गीत सुन सुन के अभ्यस्त हो चुके है। कोई नया गीत सुनाओ। ज्ञानी कहता है समय है चेत जाओ , संसारी कहता है हम चेत गए तो तुम्हारा क्या होगा ? तुम तो बस हमारी पीड़ा कम करो और हमको अपना काम करने दो। ग्यानी कहता है संसार माया है , संसारी कहता है यही तो जीवन का ढंग है जीने दो हमें , बस जब याद करें तब उपाय कर देना। कोई दवा , कोई योग , कोई ध्यान तब बता देना। कोई विधि कोई चमत्कार दिखा सकते हो क्या ? कैसे भरोसा करे ? तुमको सामान्य से कैसे अलग करे ? यदि विधि और उपाय नहीं दे सकते तो तुम्हारी साधना अभी कमजोर है , पहले अपनी साधना पूरी करो फिर हमे ज्ञान देना ... , बस यूँ ही ; मस्तिष्क और मन अपनी सत्ता पे काबिज रहते है। "
यहाँ तीन तरीके के अस्पताल चलते है ,
एक शरीर के रोग का तो
दूसरा मन मस्तिष्क के रोग का और
तीसरा आत्मा के रोग का। उच्च कोटि के तीनो ही सांसारिक - केंद्र जन सामान्य की जेब से बाहर है।
और सांसारिक अस्पतालों का हाल किस से छिपा है , सब व्यवसाय ही व्यवसाय छाया हुआ है , विधियां ही विधिया हर तरफ , दवाईंयां ही दवाईंयां है यदि कोई दवा कोई विधि सटीक लग गयी , तो आप भाग्यशाली है , वरना सिर्फ अपनी कसक को गा _गा के हल्का करते रहते है , इन व्यावसायिक तरंगो संग चिकित्सा की तरंगे भी बहती है , कोई भाग्यशाली हो तो स्वस्थ भी हो जाता है , बाकी तो लूट पिट के सब बराबर होना है।
संसार में जब भी व्यक्ति इन आध्यात्मिक चिकित्सालयों में चिकित्सक के पास जाता है तो उसका भी सिर्फ छोटा सा ध्येय होता है उपचार के लिए , कोई बिरला ही शायद माया का तत्व ज्ञान वास्तव में लेना चाहता हो। बहुत अधिक मन किया तो दर्शन पढ़ लिया। ज्यादा धार्मिक हुए हुए तो दो वख्त की आरती से ज्यादा धार्मिक ग्रन्थ पढ़ लिए , तो सामान्य समाज में ऐसे व्यक्ति प्रतिष्ठा पाते है। पर सब है सांसारिक कर्म के अंतर्गत। इस अर्थ में विशुद्ध धार्मिक की डोर भी संसार से ही जुडी रहती है , क्यूंकि वो स्वयं को पुल मान लेता है। परमात्मा और अन्य आत्माओं के बीच में , समाज के धार्मिक अनुशासन का दायित्व एक धार्मिक के कंधो पे ही रखा होता है। जबकि आध्यात्मिक इस दायित्व से मुक्त स्वक्छंद होता है। सीधा उसका कहना है , इतना जो भी मुझे मालूम मैं सुखी हूँ , तुम जानोगे तो तुम भी सुखी होगे। यहाँ शासन नहीं आग्रह भाव होता है। यही भाव आध्यात्मिक को माया से अलग करता है। वस्तुतः यहाँ भी महीन बंध है , जो आध्यात्मिक को भी संसार से जोड़ सकते है।
कौन है जिनको जागरण रुचिकर होता है ?
*** वास्तव में जो इस भव सागर की ऊँची ऊँची लहरो को सहन नहीं कर प् रहे है , मात्र वे ही जागरण के इक्षुक हो पाते , और जागरण भी स्वयं ही हो जाता है , वो तो पीड़ा के निवारण के रस्ते पे चलते है। यही से उनको असारता का पाठ मिलता है , माया रहित ज्ञान का साथ।
*** अथवा वे जो सिर्फ रहस्य को जानने आते है और इसमें डूब जाते है।
*** अथवा वे जो प्रारब्ध से ईश्वरीय योजना का निमित्त बनते है।
इसके आलावा कोई और प्रकार है ही नहीं ……अन्य सब अलग अलग पैकेट में एक ही प्रकार की गुणवत्ता में आते है , वो है सांसारिकता का , इनका ध्यान , अध्यात्म , धर्म , यहाँ तक की इनकी चेष्टाएँ सब एक ही चाशनी में लिपटी हुई मिठाई की दुकान है। कोई भी ले लो , महक सांसारिकता की ही आएगी। क्यों ? क्यूंकि एक भी डोर उम्मीद की जब तक संसार से जुडी है , संसार छूटना कठिन होता है।
वो पल जिसको फ्री फाल कहते है वो वो ही है , जब इधर से सारे बंधन सारी आसक्ति छूट गयी , और उधर सत्ता पहले से आपको सहारा देने के लिए तैयार होती है , वो तो है ही , उसकी तैयारी पूरी है , कमी तो इधर से ही है। जब ये कमी भी पूरी हो गई तो , ज्ञान का दिया प्रज्वलित हो जाता है।
फिर अपने सांसारिक की पैदाइश मानसिक और आत्मिक ग्रन्थियां सीधा परम सत्ता को सौंप दी जाती है , कोई बीच में नहीं। कोई अन्य एजेंट नहीं , बस वो परम और इधर आत्मा। और सारे रहस्य जो बनावटी थे वो समाप्त हो जाते है , उसी क्षण , उसी पल।
परन्तु एक भी इक्षा या महत्वाकांक्षा या वासना की डोर कहीं भी अंदर या बाहर की दुनिया से अगर जुडी रह गयी , तो जब तक वो डोर कट नहीं जाती तब तक ये साक्षात्कार संभव नहीं हो पाता , कारन ये नहीं की परमात्मा राजी नहीं , कारन सिर्फ इतना है की हमारा मन तैयार नहीं , हम राजी नहीं। इसीलिए अध्यात्म सिर्फ और सिर्फ अन्तर्जागरण , अंतरावलोकन , अंतरध्यान और मौन द्वारा ही संभव है।
कोई दिखावट यहाँ काम नहीं आती , सारी कामनाये वासनाएं जब प्याज के छिलके सामान उतरने लग जाये बिना प्रयास के , तभी जानिए की उस परम से साक्षात्कार का समय भी आगे और मार्ग भी मिल गया।
पेड़ो से पत्तियां झरने लग जाये , तोड़नी न पड़े , तो जानिए उसकी कृपा का समय आ गया , और इस समय ईश्वर स्वयं आपके लिए अपने दर्शन के उपाय सहज करेगा। वो स्वयं आपका मार्ग निर्देशित करेगा। आप भरोसा कर सकते है।
शुभकामनाये !
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