Wednesday, 28 January 2015

वास्तविक अहसास


जाके पाँव न फटे बिवाई , वा का जाने पीर परायी :-

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बड़े से बड़े दर्द की चीख पीड़ित के दर्द का वास्तविक अहसास नहीं दे पाती , लोग अंदाजा लगा सकते है , जितने करीब और संवेदनशील सम्बन्ध हैं उतना "गहरा अंदाजा" हो सकता है , पर गहराई की वास्तविकता से अभी भी अनजान है , .. अपनी ही बिवाई उस बड़े दर्द का पता देती है क्यूंकि अंततोगत्वा सभी भाव एक तार से जुड़े है। पहली माया निद्रा जागती ही तब है जब अपनी बिवायीं रिसने लग जाये .

बाहर का रुचिकर खाना भी ऐसा ही उदाहरण है .. घर के गर्म खाने का स्वाद  वो ही जाने जो सुबह शाम धन अर्जित कर  चौके के  सभी सामान ऊर्जा  और अन्न  सब्जी  तेल मसाले  आदि की समुचित  समय पे व्यवस्था कर दो वख्त खुद पका के खाता हो।

ज्ञान भी ऐसा ही है ... खुद से ... खुद के लिए ही करवट बदलता है और चिर निद्रा से जगता है।  दूसरा जो सामने है वो सुन सकता है , जिसे सत्संग भी कहते है , पर दूसरे के सीधे अनुभव का आभास नहीं कर सकता .. उसका अपना दिमाग जीवित है जो सही गलत बताने के लिए परमुत्सुक है .. इसीलिए ऐसे जागृत ज्ञान को लौकिक ज्ञान से परे संज्ञान की श्रेणी में जाना गया।

ये तो सारा उस एक खूंटी से लटके गोल गोल घूमते पिंजरे का खेल है , अंदर से तोता टायं टायं बोलता रहता है , दूसरे पिंजरे के तोते अपनी टायं टायं में मशगूल है और अपने में मगन खेल खेलते रहते है ,पिंजरे के अंदर बैठे उसकी सुन्दर वाणी पे आनंदित होने वाले पिंजरे के बाहर खड़े नए नए पाठ और तत्जनित अभ्यास की हिदायत देते रहते है और उसपे प्रयोग करते रहते है । सच है " जीवन एक प्रयोगशाला ही तो है "

ये जो तोता टायं - टायं बोल रहा है ये भी अद्भुत कहना और सुनना है , सांसारिक और आध्यात्मिक तल से इसके पिंजरे का भी विस्तार और संकुचन देखा गया है .. तभी तो स्वयं पिंजरे में कैद पृथ्वी का एक एक कण बोलता है ,पिंजरे में कैद ब्रह्माण्ड बोल रहा है , और तो और स्वयं स्वमिर्मित पिंजरे में कैद स्वयं परमात्मा भी तोता बन बोले जा रहा है (
उन्मुक्त अट्टहास ) तभी तो गुरु ज्ञानी संज्ञानी कहते है ..." मौन में सुनो उसकी वाणी " " वो बोल रहा है मुखर हो के " पर " बिना मौन नहीं सुन पाओगे " वो निरंतर अबाध रूप से अपनी वार्ता को तरंग रूप में भेज रहा है अपना एंटीना सही करो तो ही सुन पाओगे। मानव निर्मित ईश्वर तत्व अपने पिजंरे में कैद हम तक आने को बैचैन है और हम अपने में कैद उस तक जाने को प्रयासरत ।

सब बोल रहे है उफ़ कितना शोर है हर तरफ . सुनने वाला वो है जो वाणी से ही नहीं विचारों से भी मौन हो गया है

इसीलिए कहा की बिवायें का दर्द उसी को होता है जिसके घाव हुआ है वो भी गंदगी से तथा सही और गलत राह पे चलने से .. वर्ना सामान्यतः तो कथा है मुनि व्यास संत तुलसी की लिखी मुरारी बापू की गायी और बाँची ; रामचरित मानस या फिर श्रीमदभगवद , सिर्फ कथा तक अंत हो जाये तो भी सही । ऐसे कथा सुनने वाले और स्वयं को राजनैतिक खम्बा घोषित करने वालो की कमी नहीं किसी भी धर्म में, अधोगति की सीमा नहीं , ऐसी कथा के पन्नो को पूजते है , लाल कपडे में लपेट , चन्दन फूल चढ़ा घी के दिए आस्था पूर्वक जलाते है और परम भक्त बन जाते है ... पहरा भी पूरी ईमानदारी से देते है , और यही वो लोग है जब जरुरत पड़े तो दूसरे पक्ष से अंदर घुसने वाले सेंध लगाने वाले दूसरे सामान वर्ग राजनैतिक धार्मिक का सर भी कलम कर देते है , यानी जिसको पवित्रता से ग्रहण करना था , चरित्र का भाग बनाना था वो ही भाव ; प्रथा बन भाई बंधू के खून खराबे का कारन बन जाती है … यह खून खराबा वैसा ही है जैसे माता गाँधारी के शाप के कारन स्वयं भगवन कृष्ण के वंशज खरपतवार को शस्त्र बना आपस में स्वयं को मार के समाप्त कर लिए थे , अपनों को अपने ही मार रहे थे , शव गिर रहे थे। पर अजब संवेदनहीनता थी उस काल उस समय उस पल युद्ध के समय लिप्त यदुवंशियों में ..................... !


गौर से देखे तो , मनुष्य जब मनुष्य को मारता है तो मनुष्य ही नहीं मनुष्यता भी मरती है। इसी को और बड़ा करें तो जब पृथ्वी के भाई बंधू एक दूसरे को समाप्त करते है तो मात्र जीव नहीं पृथ्वी भी मरती है।

मानवीय मूर्खताओं का अंत कहाँ है ! पता नहीं ! 

तभी तो अधिकांश लोग कहते है "वो " मरा "वो " मरा, यानी सड़क पे चलते चलते गिर पड़ा तो कोई दुर्घटना ग्रस्त हो गया मर गया , कोई डूब गया ,सोचते है की " मैं संवेदनशील हूँ पर मेरा तो कोई नहीं था" इसलिए रोज सुबह चाय के साथ खबर पढ़ना तो हमारी आदत है , और किसी के लिए "मैं " मरा "मैं " मरा अर्थात तब मैं इतना शोक में डूब जाता हूँ की सोचने के लिए दिमाग ही नहीं बचता। अंत में न तेरा न मेरा , किसी किसी के लिए , सिर्फ " मरा - मरा - मरा " ही मोक्ष मन्त्र बन जाता है , जानते है क्यों ! क्यूंकि ये मरा मन्त्र अपने लिए जीवित अवस्था में मृत्यु को अनुभव करने का साधन बनता है, और तभी अपने खुद के ज्ञानचक्षु खुल पाते है .. अद्भुत है , अद्भुत है संसार ." अपने ही मरे जगन्ननाथ "




दूसरे के आईने में न झाँक
के तू सच देख नहीं पायेगा
अपने आईने की धूल झाड़
दुनिया की शक्ल पयाले में
खुद ब खुद उतर जाएगी !


ॐ  प्रणाम 

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