Monday, 12 January 2015

ज्ञान की आखिरी छलांग

                         बहुत साधारण सा  सिद्धांत है  क्यूंकि बालक भी देख सकता है और एकदम वैज्ञानिक  क्यूंकि  प्रकर्ति का हर चेतन पदार्थ अपने केंद्र की  ऊर्जा की ओर  आकर्षित हो उन्मुख है , हर एक  के  द्वारा अपनी सीमा की परिधि  के अंदर  ही ज्ञान की ऊँची से ऊँची संभव  छलांग भी  भरी जाती  है , यहाँ  हर जीव अपनी अपनी छलांग के लिए  सिमित है , शारीरिक और बौद्धिक रूप से , किन्तु मानव  के पास  अधिक बौद्धिक और संकल्प क्षमता है  जो  मनुष्य के लिए वरदान भी है  और यही प्रकृति का नियम भी है , और इसीलिए  इस छलांग की ऊंचाई का अंदाजा लगाना  नामुमकिन  हो जाता है , मात्र अपना सामर्थ्य  और प्यास ही काम आती है ,  कैसे ! देखो ! मछली को  पानी में ही पानी  को पीती  और अपनी ही चेतना में जीती है, आकाश में उड़ते पक्षी की चेतना उतनी ही है  अपनी अपनी चेतना में सभी संतुष्ट और सुखी है  ( यहाँ मनुष्य  को आध्यात्किक रूप से  यही संतोष और सुख  का प्रयास करना पड़ता है  सहज कारन है  मनुष्य की अतिविकसित क्षमता  और असीमित  ग्राह्यता  जो उसको  पास के केंद्र्  से नहीं वरन मुख्य केंद्र से जोड़ने की क्षमता  रखती है ) धरती  पे खिले  सूरज की और उन्मुख जरा सूरजमुखी को देखो .. नव प्रस्फुटित  बीज से  नव जीवन को देखो !  बेल  , उन्नत सीधे  ऊपर को (सूर्य की ओर )तने  वृक्ष को देखो ,फूलों  को देखो  फूलों पे मंडराते  जीव उनके लिए मानो  सूरज ही ईश्वर है  तथा सूर्य ही उसका अंतिम केंद्र भी  है  , सौर ऊर्जा  ही उनके लिए सर्वस्व जीवन  है ।  चन्द्रमा से प्रभावित सागर के जल तत्व  को देखो    समस्त  चराचर स्वाभाविक रूप से  जान के या अनजान में  अपने-अपने  केंद्र की  ही ओर उर्ध्वगामी है ,  मनुष्य इसीकारण श्रेष्ठ है   ज्यादा जागरूक  प्रतिभावान  और बौद्धिक प्राणी है  जिसकी शक्ति सीधा  परमतत्व से जुड़ती है  उदाहरण के लिए ; एक भक्त के लिए  उसका भगवन केंद्र है  , एक प्रेमी के लिए प्रेम केंद्र है ,कलाकार के लिए कला केंद्र है , कवि के ह्रदय में उत्पन्न भाव बोल  उसका केंद्र है , गायक के लिए गीत और नर्तक के लिए नृत्य उनके केंद्र है  जिसकी उत्तम अभ्व्यक्ति उनकी तपस्या है , इसी प्रकार मानवीय संबंधों में  एक बालक के लिये उसकी  माँ की गोद  ही  उसका केंद्र है  उसके जीवन की महानतम प्रेममय उपलब्धि  है , एक ज्ञानी के यहाँ दो विभाजन  है  पहला जो प्रामाणिक यात्रा पे है  उनके लिए विज्ञानं उनका केंद्र है  और  दूसरे ज्ञानी वो  जो परा विद्या  को बढ़ चले  उनके लिए उनका  श्रद्धेय गुरु  ही उनका केंद्र है ,चन्द्रमा के लिए  पृथ्वी  और पृथ्वी के लिए  सूरज उसका केंद्र है  , सूरज का भी अपना केंद्र है , ऐसे ही केंद्र का दायरा विस्तृत होता चला जाता है और एक दिन विकसित दिव्य चक्षु  के साथ    जीव  उस परम केंद्र से पल में जुड़ जाता है।   और उससे  एक बार जुड़ने के बाद सारे  केंद्र माध्यम मात्र बन जाते है , और यही है  ज्ञान की आखिरी छलांग।   जहाँ  माँ   पिता , सम्बन्धी  गुरु समेत प्रकृति , नक्षत्र , राशि ,  आकाशगंगा मात्र माध्यम बनती और  वांछित  ज्ञान और अनुभव दे के  ऊर्जाएं राह से अलग होती जाती है , जीव की उर्ध्वगामी यात्रा का अंत  उस परम तत्व से जुड़ के ही समाप्त होता है।   बिलकुल तेजी से  गंतव्य की और बढ़ते  रॉकेट  जैसी  यात्रा है। ज्यादा कुछ कहने को नहीं अनुभव करने को बहुत है , अपने प्रेम और अपनी प्यास से जुड़िये  नेति नेति के साथ। बस यूँ  समझना है की विस्तार  तो बहुत है अगाध  और अपार  असीमित  है पार असंभव है  परन्तु संकुचन सिर्फ एक।  संकुचन की इस प्रक्रिया  में ही आप ईश्वरतत्व से जा जुड़ते है।

आपकी  श्रद्धा और सबुरी  अर्थात संयम  भी आपकी  गति मति  के साथ विकसित होती है , जैसे जैसे आत्मतत्व  चेतना से युक्त  शक्तिशाली होता  जाता  है  वैसे वैसे  श्रद्धा  तपस्या  और  सबुरी  तथा  इनके आधार  केंद्र  भी स्पष्ट होते जाते है , जिनकी संरचना  व्यक्ति  के प्रारब्ध के द्वारा  पहले ही की जा चुकी है।  इसी लिए  आध्यात्मिक  हो या वैज्ञानिक अथवा कलाकार  हर किसी का एक स्वाभाविक रुझान  ही उसको उसके गंतव्य की ओर आगे बढ़ता है।  और धीर गंभीर  संज्ञानी  सलाह देते है  की नदी की उलटी धार में  तैरने का प्रयास छोड़  दो  और सहज स्वीकृति भाव जाग्रत करना ही जीव यात्रा के लिए उत्तम है।  अपनी प्रकृति ही  इक्षाशक्ति में बदलती है और फिर वो प्यास का रूप ले लेती है , प्रकर्ति इस प्यास के लिए  उचित साधन और मार्ग सुलभ करा के पूर्ण सहयोग भी करती है।  पर यदि प्रारब्ध से  उलटी दिशा में तैरना शुरू कर दिया  तो अंतहीन थकान  और निष्फल प्रयास ही हाथ आएंगे।

जब प्रारब्धिक दिशा  में चलना जीव शुरू करता है  और  भाव की  उठान उस केंद्र की ऊंचाई का / गहराई का स्पर्श करती है  तो  उस ऊंचाई से अथवा गहराई से  अंततः धरती पे तैरते , घर्षण से  बोलते , शब्द  भाषा  बहुत छोटे नजर आते है , मौन के शब्दों  का  भाव तथा शक्ति  गहराने लगती  है  क्यूंकि  जो अनुभव किया है परम सत्ता का " उसको " कहने को कोई शब्द ही नहीं  , न सिर्फ भाषा गौण है  वरन ऐसे आध्यात्मिक के लिए  समस्त प्रकृति  से एक रिश्ता बनता है सा दीखता है , जहाँ सभी एक सूत्र से  जुड़े है , पृथ्वी पे उत्पन्न कोई अलग नहीं सबमे एक ही ऊर्जा एक ही तत्व   का सम्मिलन है  और उसी परमात्मा का प्रकटीकरण है।   यहाँ मानव बुद्धि से उत्पन्न राजनैतिक   धार्मिक प्रसंग भी स्पष्ट प्रपंच से दिखाई देते है।  मानव बुद्धि की एक एक संरचना स्पष्ट हो उठती है।

हाँ इस  भाव ऊंचाई पे आ के  स्पष्ट होता है  उसका मान अपमान जैसा कुछ संभव ही नहीं , ये सब अत्यंत निचले स्तर  के   दिमागी  दौड़ है  जिसमे अधिकांश आत्माए  शरीर से बंधी  इन्द्रियों के प्रवाह में मात्र  निर्बाध बह रही है। . स्व योग  और स्व ध्यान  पहली  सीढ़ी  है  जो चेतना में साक्षी भाव जागृत करती है  और यही  ध्यान और साक्षी भाव  आगे की आध्यात्मिक यात्रा में सहायक है।  अंतिम छलांग के बाद ध्यान  और योग भी  अलग हो जाते है।  और इसका पता उनके शक्तिहीन और प्रभावहीन होने से चलता है , जैसे  एक कल पुर्जा अपना कार्य कर चूका इसका पता कैसे चलता है ! आभास  से और  ऊर्जा समाप्ति से !  वैसे ही समस्त  घटनाएं भी है  अपनी अपनी ऊर्जा के अनुसरा आती है और जाती है  जीव यात्रा में सहयोग कर के  अलग हो जाती है।   बस जीव को सहज स्वीकार और सहज त्याग का भाव  समझ में आना चाहिए , फिर  चाहे वो गुरु हो सम्बन्ध हो  या  ज्ञान विज्ञानं ही क्यों न हो।

धरती के समस्त शास्त्र  समस्त धर्म का अंतिम उद्देश्य  आत्मा को परमात्मा से जोड़ना मात्र है।  अन्य सब कारण  बौद्धिक  राजनैतिक  और  माया प्रेरित  है

प्रकर्ति मुखर है मौन में  सब कहती है , एक एक कण  एक एक पदार्थ उसी एक सत्य से जुड़ता है।  इसमें कोई संदेह नहीं  की मनुष्य  बौद्धिक क्षमता में सर्वोत्तम प्राणी है  किन्तु समस्या भी यही है  की सर्वोत्तम का अंश  शारीरिक इन्द्रिय जाल की सीमाओं में कैद है ,

(  जिस के मायाजाल  को  योग भाव से  काटना  संभवतः  परम द्वारा निर्देशित  जीव -कर्म भी है  

और यही वो कारन है जो मनुष्य को  देवता भाव तो छोड़ दें  स्व-मनुष्यता  का  भी स्मरण नहीं रहने देता। क्षणिक  इक्षाएं महत्वाकांक्षाओं में जकड़ी  हुई, अज्ञानता के अँधेरे में  पता नहीं क्या क्या अपराध करा देती है , और मनुष्य को अन्धकार का ज्ञान भी नहीं होता ! किन्तु इसी के आत्मा में प्रकाशित  संज्ञान का उजाला भी  परमात्मा से मिलता है 

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