जिंदगी का पहिया तेजी से भागते हुए चाक के सामान है , जो अपनी ही परधि पे , अपनी ही कील पे टिका चक्कर लगा रहा है . सही और गलत मात्र दृश्य है जो मस्तिष्क जनित है , ठीक उसी प्रकार जैसे हरे रंगीन और सूखे मरे दृश्य है दृष्टिजनित है, जैसे सुगंध और दुर्गन्ध नसिकपुट जनित है , कठोर और मुलायम स्पर्श जनित . पर सभी अपनी शक्ति से भाग रहे है निर्णय रुपी पहिये के अंतिम छोर पे . यदि चेतना अंतिम छोर पे ठहरी है तो घुमनि का आभास ज्यादा देती है , कई बच्चों को वो घुमनि का अहसास ही छद्म-आनंद (ख़ुशी) देता है फिर परिणाम कुछ भी हो आनंद की स्थति बार बार उन्हें उस चाक की पारधी के अंतिम छोर पे टिके रहने को आकर्षित करती है . जैसे जैसे चेतना विकसित होती है वह सम्यक रूप से कील के नजदीक सिमटने लगती है . चेतना के कील के नजदीक आने की यात्रा का नाम ही " आत्मविकास की यात्रा " है अब इसको कोई भी माध्यम नाम दे सकते है , अध्यात्म या धर्म या फिर स्वचालक । जैसे जैसे कील का सामीप्य आता है वैसे वैसे परिधि सिकुड़ने लगती है बाहरी घेरे की गति और विस्तार की प्रतीति भी कम हो जाती है , सर के चक्कर भी रुक जाते है , और दूसरों को घूमते हुए देख के शांति से सुझाव भी दिया जा सकता है , जो मात्र सुझाव रूप होना है अधिकार रूप नहीं , पकड़ के कील तक लाने की कोशिश नहीं , इस चेष्टा में शक्तिभर प्रयास करना शब्द ही हास्यास्पद है। क्यूंकि सुझाव को बल पूर्वक लागु करने वाला भी जानता की चेतना का आनंद , चाक पे कहाँ है ? किस छोर / तल पे है ? चेतना अक्सर अपना रास्ता स्वयं बनाती है , अपनी धुरी स्वयं पहचानती है , स्वस्थ्य असंतुलन की स्थति में सहयोग रूप में सुझाव कार्य करते है।
अरे भाई ! गोल गोल तेजी से घूमते चक पे चढ़े बालक को कैसा लगेगा अगर साथ का मित्र जबरदस्ती पकड़ के कील पे बैठा दे , गुस्सा आएगी और कहेगा मुझे नहीं बैठना तुम्हे बैठना है तुम बैठो कील पे , मुझे तो गोलगोल घूमने का मज़ा लेना है । ग्राह्यता और पात्रता , देने वाला और लेने वाला के बीच भी सुन्दर " संतुलन " है ये भी अद्भुत भाव है .
आध्यात्मिक मित्र का कील की तरफ बढ़ना ही अध्यात्म है और दूसरे अर्थो में इसके विपरीत खेल का चरम आनंद लेना दूसरे संसारी मित्र का भाव है , ....... एक अर्थ में सभी चाक पे चढ़े है तो मित्र सम्बन्धी हुए ! हैं ना ! किसी का मंदिर बना लेना किसी को सिंहासन थमा देना या किसी को शाही महल के बाहर रहने का आदेश देना तो किसी को लाईन में बिठा देना, किसी को पूजना तो किसी को पत्थर मारना । सब मानवीय व्यवस्थाएं है। सूर्य की तरह प्रकाशमान परम सत्य की किरण यही है कि वे सहयात्री , सहधर्मी , सहयोगी , सहमित्र आदि ही है, ज्यादा फर्क नहीं पड़ता की कोई पहले गया कोई बाद में तो कोई अभी चाक के खेल पे चढ़ा हुआ है , ऐसा नहीं की कोई कील पे बैठा है तो कोई चाक की व्यवस्था से बाहर है मैदान में ही बेंच पे बैठा सुस्ता रहा है या अपना नंबर आने की उचित समय की प्रतीक्षा में है , या कोई चाक के अंतिम सिरे पे खड़ा चक्कर का आनंद ले रहा हैं तो वो गलत है ! सभी सही है। सभी की अपनी ग्राह्यता और आकर्षण है , सही या गलत कुछ नहीं , अस्तित्व ही नहीं , अस्तित्व है तो मात्र आनंद का, सौहार्द का , आपसी मेल मिलाप और निजी स्वतंत्रता का। वास्तविक कार्य ये नहीं की दूसरा कैसे आनंद में डूबे , वास्तविक कार्य ये है मैं अपने आनंद के लिए प्रयासरत हूँ , दूसरे को मेरी इक्छा अनुसार आनंद में डूबा देना ऐसी इक्छा तो समस्या बनेगी ही। क्योँकि हर एक की आनद की कील उसके अपने पास है।
अंततः खेल की अंतिम परिणीति भाव रूप में " आनंदम " सुरक्षित है सभी के लिए। अपनी अपनी निजता के भाव के साथ ।
एक अर्थो में बाग़ में अनेक झूलों पे झूल रहे सब बच्चे ही तो है , आपस में वो कोई भी सम्बन्ध बनाये , कोई भाई कोई दोस्त , कोई छोटा कोई बड़ा पर वस्तुतः बालक ही है , क्यूंकि विकास की ही एक अवस्था कहती है की ये झूले झूलना बच्चों का काम है। पर आनंद की अवस्था कहती है , क्यों नहीं हम भी तो बालक जैसे ही है।
हैं ना !
ओम प्रणाम
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