इस चित्र को ऊर्जा के जाल के रूप में देखिये समझिए की बिना देह की ऊर्जाएं किस प्रकार अपने ही समान गुण-आकषर्ण से आकर्षित होती है , देह में तो आकर्षण पाती ही है , देह से अलग होक भी अपने ही आकर्षण से बंधी रहती है और अपने गुरुत्व के अनुसार देह के लिए प्रयास भी करती है। यदि आपको स्वस्थ देह और समस्त देह सम्बन्ध मिले है तो पृकृति का आभारी होना ही चाहिए। क्यूंकि बाकि सब वासना तृष्णा और छलावा ही है , जो न कभी पूरे हुए है न ही होंगे , फिर अधूरापन और आधी तृष्णा का जन्म और सूक्ष्म शरीर पे एक और कर्मपत्थर का बंध जाना । व्यर्थ आडंबर तृष्णा-माया में न ही उलझे , और सार सार को ग्रहण करते , आहिस्ता आहिस्ता प्रारब्ध के साथ एक एक कदम चलते हुए अपने जन्म के उद्देश्य को पूरा करें।
सभी का हार्दिक अभिवादन।
आज गोष्ठी में बहुत साधारण सा वार्तालाप था , कुछ कहने की कोशिश , बहुत कुछ रहस्य से लगते पर्दों को उठाने की , ऐसी जो महसूस होती है पर अनुभव अभी तक हुआ नहीं , तो कैसे समझा जाये ! ताना बाना इस चादर का कैसे बिना जाये ! इस सवाल का जवाब , क्या हो सकता है , यदि कोई कहे की सम्बन्ध तो सारे एक जैसे ही होते है , चाहे वो कोई भी हों , खून के या फिर प्रेम के , आखिरकार अंत में सम्बन्ध सम्बन्ध ही है। कर्त्तव्य एक ही जैसे है सभी सम्बन्धो के साथ , तो बात कुछ हजम नहीं हुई , इस विषय को हम सभी को समझना चाहिए , न सिर्फ समाज की निष्ठां परिवार की स्वस्थ परंपरा के लिए , बल्कि ऊर्जाओं के अपने कार्मिक संतुलन के लिए भी इसे समझना आवश्यक है। चूँकि देह एक प्रयोगशाला जैसी है , जो उपहार में मिली है एक निश्चित अवधि के लिए , और देह माध्यम भी है कर्म को संतुलित करने का , शायद अपना ये सबसे बड़ा प्रयोजन हम जन्म के बाद माया का ग्रास बन के भूल जाते है। शायद अक्सर लोगों में थोड़ी भूल है इन सम्बन्धो को समझने में , यदि इनको सामाजिक परिभाषा से समझा तो चूक जायेंगे , यदि इनको अपने जन्म-परिवेश ( परिवार/पड़ोस /सम्बन्ध/ समाज ) के अनुसार समझा तो भी चूक जायेंगे , कुल मिला कर यदि इन सम्बन्धो को समझा ही गलत तो इनके साथ ईमानदार व्यवहार में भी गलती निश्चित है , चूक हो जाएगी ! और परिणाम कुछ का कुछ मिलेगा ही। अपने सभी पढ़ने वालो से मैं ये विनम्रता से कहना चाहूंगी , जरा गहराई से समझे की सम्बन्धो के भी दो तराजू के पलड़े है पहला खून के और दूसरे में प्रेम आकषर्ण और मित्र आदि जो खून से ताल्लुक नहीं रखते पर कभी कभी जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका कर जाते है। इनमे भी तीसरा महत्वपूर्ण कोण बनता है जो तराजू के मध्य के कांटे बनते है जो सभी सम्बंध को संतुलित करने महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है यदि इनको सही से जाना गया हो तो ! वो है माता पिता का बच्चो के साथ / बच्चों का माता पिता के साथ और पति या पत्नी के आपसी सम्बन्ध बहुत मायने रखते है ( ये सम्बन्ध जन्म से है या कर्म से ऊर्जा के लिए महत्त्व गुणात्मक है )। ये तो सामान्य सा मनोविज्ञान है , जिसका असर एक बच्चे के पूरे जीवन पे पड़ता है जो स्वयं एक जिम्मेदार पत्नी या पति भविष्य में होने वाले होते है , किसी मनोवैज्ञानिक ने सच ही कहा है "A child who get loved like a king can treat his wife as queen " . सम्बन्धो का विज्ञानं भी गहरा है।
ये भी कहा जाता है की सम्बन्ध उस जहाँ से बन के आते है , इनको हम नहीं बनाते , मात्र माध्यम बनते है। तो ये सम्बन्ध बनते कैसे है ? और ये उस जहाँ का क्या मतलब है ? कोई है क्या वहां उस जहाँ में जो बैठ के सम्बन्धो की बुनावट को बुनता चलता है ? सम्बन्धो को बुनावट का काफी विस्तृत वर्णन इस लिंक के तीसरे खंड में मिलेगा ,
दैहिक और आत्मिक आयु - संभावनाएं / मेल
जिसका आशय गहरा है ऊर्जा के गुणात्मक आकर्षण से सम्बंधित है। ( तीन खंड में बंटे लेख के पहले भाग में ऊर्जा की आयु को जाना गया दूसरे खंड में आध्यात्मिक उपलब्धियां अनुभव और पड़ाव को जाना गया। जो किसी भी ऊर्जा की आध्यात्मिक यात्रा का भाग हो सकती है और तीसरे में सम्बन्ध की व्याख्या ) दो तरीके से उर्जाये अपना आकषर्ण खोजती है , पहला माता के गर्भ के रस्ते , परिवार और गर्भ का चयन करके। ये चयन क्रिया खून के सम्बन्ध बनाती है। तो प्रश्न उठता है की क्या ऊर्जा इस योग्य होती है की अपना गर्भ चयन करें ! इसके उत्तर के लिए थोड़ा पीछे लौटना पड़ेगा जहाँ जीव अपना जन्म से मृत्यु तक का एक जीवन पूरा करता है और दूसरे के लिए प्रयत्न कर रहा होता है , क्यों ? क्यूंकि इस जिए हुए जीवन की अधूरी इक्छायें और कर्म सूक्ष्म चेतना के साथ ही बंधे होते है , जो जीव को प्रेरित ही नहीं बाध्य करते है गर्भ में पुनः जाने के लिए , यहाँ चूँकि ऊर्जा की अपनी गुणवत्ता और तपस्या का बहुत बडा हाथ है , वास्तव में ये भी प्राकतिक-यांत्रिक व्यवस्था ही है , जो फिर फिर ऊर्जाएं जन्म लेती है , जिनको हम परमात्मा कहते है उनका इस कार्य संपादन में कोई योगदान नहीं , आशचर्य है न आपको , जी हाँ ऊर्जा स्वयं सक्षम है जन्म लेने के लिए । अपने अपने गुृरुत्व के अनुसार जन्म लेती है , और अपने ही फल का उपभोग भी करती है अपने ही सयानेपन से और अपनी ही मूर्खताओं से बंधी है और जितनी सयानी ऊर्जा उतना ही सयना उसका चयन , किंतु गर्भ चयन भी आसान नहीं , क्यूंकि अन्धकार काल में मन का गर्भ मिले ये आवश्यक नहीं , और अतृप्त वासनाएं जल्दी से आने को बाध्य करती है। नतीजा उस काल में उपलब्ध गर्भ में ऊर्जा प्रवेश कर जाती है। खून के सम्बन्धो का अपना आकर्षण इतिहास है जो एक ही गुण धर्म के परिवार में जन्म लेती है। अक्सर गुरुत्व और आकर्षण के भार से ऊर्जाएं एक ही परिवार से बंधना चाहती है पर गर्भ न मिल पाये तो अन्यत्र भी जन्म लेना ही पड़ता है स्वयं की तृष्णा से बंधी होती है , इतना तो अनुभव किया होगा सभी ने जन्म के रिश्ते से भी ज्यादा गहरे ऊर्जाओं के अपने होते है , जो कहीं न कहीं आपस में कर्म से भी बंधे होते है। कभी कभी हिसाब बड़ा और कहीं कुछ थोड़ा बहुत हिसाब किताब अगर कही रह गया हो।दूसरे रिश्ते वो है जो खून के नहीं पर गुणवत्ता के आधार पे इनके आकषर्ण है इनको मित्र कहते है , प्रेम सम्बन्ध कहते है , या फिर मुँहबोले सम्बन्ध भी इन्ही में है। इनका कार्मिक सम्बन्ध नहीं है पर सहयोग है।
तीसरे प्रकार के सम्बन्ध है जिनका कार्मिक गठबंधन है , ( आत्मिक / दैहिक आकर्षण हो न हो ) ये समाज में पति पत्नी के रूप में जाने गए है। इनका खून का सम्बन्ध नहीं , प्रेम हो सकता है पर आवश्यक नहीं , हाँ कर्तव्यों में सहयोग होता है। और कुंडली में इसको खास स्थान मिला है। भाई बहनो का एक खाना और पति पत्नी का एक , माता पिता का एक। कर्म का एक और भाग्य का एक। शत्रु गृह और मित्र गृह भी है। फिलहाल जो धुरी का कार्य करते है वे है माता पिता और पति पत्नी , इनसे ही आगे की पीढ़ी को संतुलन मिलता है। या फिर आजीवन असंतुलन भी मिल सकता है। इन ऊर्जाओं के कार्मिक गठबंधन ही इनको बाध्य करते है पुनः गठबंधन के लिए। कब तक ! जब तक ये स्वयं को पहचान नहीं लेते। जब तक इनके कर्मो की श्रृंखला कटती नहीं। हो सकता है कई कई जन्म मूर्खताओं में निकले ! या फिर आखिरी।
आपने सुना होगा आत्मिक -मित्र -ऊर्जाएं ( सोल मेट/ ट्विन सोल एनर्जी ) , ये जब भी मिलती है तो ऐसे जैसे सदियों से पहचान है, ये अजनबी नहीं होती , कल्पना लगती है न ! या फिर किसी परिकथा की तरह असंभव ! किन्तु सम्भावना से इंकार नहीं , की ऐसी भेंट भी संयोग से संभव है , जिस प्रकार हर ऊर्जा का अपना परिपक्व स्तर है उसी प्रकार उर्जाओ की आपसी पहचान के भी स्तर होते है , इनके भी समान छह पैमाने है परिपक्वता के वो भी उसी मिश्रण और विकासक्रम में , वैसे तो ये सिर्फ बताने के लिए है शायद किसी को लाभ मिल जाये , वर्ना ऊर्जाएं स्वयं ही अपनी जीवन यात्रा के उत्थान क्रम में है , हर ऊर्जा का स्वाभाविक सा प्रयास रहता ही है स्वयं की स्थति को उन्नत करना , बेहतर करना , आखिर माया को सहन करना आसान नहीं , माया में बड़ी पीड़ा है , बौद्धिक और भावनात्मक अंधकार ,अहंकार रूप होके बहुत दर्द देते है । एक प्यास सी एक जिज्ञासा सी सतत उनको प्रेरणा देती रहती है , आईये फिर से जाने ये क्रम और इनके मिश्रण :-
* शैशव (शैशव - शैशव , शैशव-युवा शैशव- वृद्ध इसी प्रकार अन्य अवस्थाएं है )
* बाल्य ( बाल्य - शैशव , बाल्य -युवा , बाल्यवृध्ह )
* युवा (युवा-शैशव , युवा-बल्य , युवा-वृद्ध )
* युवा-परिपक्व ( युवा और प्रौढ़ के मध्य की अवस्था है )
* प्रौढ़ ( प्रौढ़ अवस्था भी अपनी यात्रा वैसे ही करती है प्रौढ़-शैशव , प्रौढ -बल्य , प्रौढ़ -युवा , प्रौढ़-वृद्ध )
* वृद्ध . ( अंतिम अवस्था पुनः पायदानों से गुजरती है वृद्ध शैशव , वृद्ध बालक , वृद्ध युवा , वृद्ध प्रौढ़ और वृद्ध वृद्ध )
अवस्था शब्द पे गौर कीजियेगा , एक एक अवस्था पूरा एक सम्पूर्ण अनुभव का खंड है , समय का टुकड़ा है , जो अपनी ही समय सीमा से बाधित नहीं , कभी कभी जन्म भी कम पड़ जाते है , किसी एक अवस्था को पूरा करने में , और जीवन विकास क्रम है तो विकास में ऊर्ध्वगमन तो है ही इक्षा हो या नहीं , गति धीमी हो या तेज सब अपनी ही तपस्या के परिणाम ( आकर्षण स्वभाव और प्रयास ) है, और तपस्या शब्द भी सिर्फ साधु सन्यासी के लिए नहीं सभी के लिए है , जाने अनजाने सभी अपनी अपनी तपस्या में लीन है ।
तो जो सोलमेट ऊर्जाएं है वो अपनी परिपक्वता में युवा - युवा , युवा-प्रौढ़ से ऊपर की ओर ही अग्रसर होती है और इनमे गुणात्मक / तरंगात्मक समानताएं भी होती है । इनमे जो अपने अंतिम पड़ाव पे चल रही होती है वे ही प्राचीनतम एशिएंट एनर्जीस कही जाती है , कही क्या जाती है , वे अलग ही दिखती है , उनकी परिपक्वता उनकी चेतना उनका सहयोग अतुलनीय देखा गया है , ऊर्जाओं का आपसी सम्बन्ध देह से ज्यादा आत्मिक होता है , देह तो मात्र माध्यम है। ये सम्बन्ध खून के नहीं कार्मिक गठबंधन के है इसलिए मित्र भी नहीं फिर भी जन्मो जन्मो संग रहती है। कहीं भी जन्म ले इनको फर्क नहीं इनके अपने आकर्षण इनको जादुई तरीके से खेंचते है , कभी कभी तो सांसारिक धर्म कुनबा ( गोत्र ) सरहद भी मायने नहीं रखती । इनके अपने अलग ही आकर्षण है। मात्र ये एक ऐसा बंधन है , जो माता पिता के बाद उस जैसा ही दृढ है , । समझदारी तो हर सम्बन्ध के लिए आवश्यक है , खाद पानी तो सम्बन्धो को देना ही पड़ता है। किंतु ये सम्बन्ध इतना दिव्य है की इस के स्वास्थ्य पे ही पुरे भवन की नींव टिकी है। वैसे तो सभी माता पिता अच्छा ही करते है अपनी संतानो के लिए पर जिस प्रकार कुशल माता पिता बालक को मानसिक शारीरिक स्वास्थय संतुलन में देते है जिसकी संरचना गर्भ से शुरू हो जाती है , वैसे ही पतिपत्नी के सम्बन्ध है जो आगे की पीढ़ी की बुनियाद है । और ये कपोल कल्पित नहीं मनोविज्ञान में स्पष्ट लिखी है।
सभी सम्बन्ध खून के है अथवा जन्म के है अथवा आकर्षण के है सभी की सीमा है अवधि है , जुड़ने के काल से लेकर मृत्यु तक चलने वाला मात्र एक सम्बन्ध है जिसके महत्त्व को स्वीकार करने में कोई असहजता नहीं होनी चाहिए। और न ही इसे किसी अन्य से तौलना ही चाहिए। क्यूंकि बराबरी भी समान स्तर पे होती है , इन दिव्य सम्बन्धो की बराबरी भी संभव नहीं , यदि कोई असमानता स्थापित करने का प्रयास भी करे तो मूर्खता है। जिस प्रकार सद्गुण संपन्न माता पिता आदरणीय होते है , उसी प्रकार पतिपत्नी सम्बन्ध भी सम्माननीय है। जो नहीं समझते सम्बन्धो के इस रहस्य को उन्हें अवश्य समझना चाहिए , की वे स्वयं अपनी और साथी की यात्रा में किस तरह सहायक हो सकते है। और जो इतना समझते है वे ही अपने बच्चो की जीवन यात्रा में भी सहयोगी होते है न सिर्फ साथी वरन आगे आने वाली पीढ़ियां तक ऐसी ऊर्जा की परिपक्वता से प्रभावित होती है। अज्ञानता में उलझी गांठें और उलझती है। सबसे पहले इस अज्ञानं के अन्धकार को ही दूर करना चाहिए। अध्यात्म से जीवन स्वर्ग बनता है , ये लोक और परलोक भी संवरता है बस एक दिया अध्यात्म का / ज्ञान का जले और अन्धकार सदियों का एक पल में हट जाता है।
अच्छे सम्बन्धो का असर भी अच्छा होता है , सभी जानते है। किन्तु संचित कार्मिक प्रभाव से बचना जरा कठिन है। इनको तो ज्ञान ही काट सकता है। वैसे तो वास्तविक ज्ञान है की स्वयं के प्रति ही जागरण हो जाए तो उस ज्ञान की लौ में ये सभी दोष नगण्य हो जाते है। यही अध्यात्म कहता है। स्वयं के ही भार को हल्का करो। एक एक संजोया पत्थर से कर्म की गठरी भारी हो चली। कर्म कटते ही ऊर्जा स्वयं ही भारहीन होने लगती है। जिसका असर शांति प्रेम और सुगंध के रूप में इसी जीवन में ही दिखने लगता है।
मनुष्य बुद्धिजीवी है , अपने से ही जब समझ आती है तो ही समझता है किन्तु ये बुद्धि ही विनाशकारी भी है क्यूंकि कर्म की मूल प्रेरक है। संतुलित बुद्धि , संयमित ज्ञान , अधिक ज्ञान भी उचित नहीं आवश्यकता से अधिक ज्ञान सांसारिक अहंकार को पोषित करता है और आवश्यकता उतनी ही है जितनी परिस्थति प्रेरित करे वो प्रकर्ति प्रदत्त प्रेरणा स्वरुप आती है और अपने बनाये जाल का काट भी अपने साथ ही लाती है अर्थात आपको आपकी सामग्री सही समय पे उपलब्ध हो जाएगी , इसी प्रवाह में स्व ऊर्जा का सम्बन्ध महसूस करना अथवा विस्मृत को पुनः स्मरण करना स्वयं की जीवन यात्रा में सहायक है। जन्मो जन्मो की यात्रा को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता इस जीवन में क्षणिक उपलब्धि के क्षणिक से अहंकार तृप्ति के लिए , ध्यान शक्ति से इसी स्मरण में तो जन्म-रहस्य कैप्सूल रूप में मिलेगा ।
जागृत रहिये।
जागरूक रहिये।
सावधान रहिये।
संवेदनाशील रहिये।
यही सच्चे मित्र आपको बोध भी कराएँगे और राह भी दिखाएंगे।
ओम प्रणाम
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