* देव मानव
* दानव मानव
* साधु मानव
* मानव
ध्यान दीजियेगा :-
* दानव-मानव पहला प्रहार करते है शक्ति-विजय के लिए ...
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* देव-मानव पहला प्रहार करते है जाति - समूह धर्म की कर्तव्य की पुनर-स्थापना के लिए
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* और साधु पहला प्रहार करता है स्वयं के बचाव के लिए ..
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पर ये भी सच है प्रहार आदान प्रदान के बाद किसका पहला किसका और आखिरी पता ही नहीं चलता .
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यही मानव का रक्त से सना प्राचीन इतिहास है .. वेदों का गठन मौलिक है , शुरुआती उपाय है मनुष्यों को देवत्व तक ले जाने का धरती को समृद्ध बनाने का .. जितने भी शुरुआती उपाय है वे सब मौलिक है निर्दोष है..... वेदों से अलग यही गुण-धर्म रामायण की पृष्ठभूमि बनी यही महाभारत का और गीता का आधार बनी और यही समस्त मनुष्यों में जिनको लोग गुरु कहते है - जगाने में लिप्त लोगो के गठन का कारण भी बनी ... अन्य धर्मों ( बुद्ध जैन ईसाई मुस्लिम आदि ) के शास्त्र भी कुछ कुछ कम या ज्यादा ( नापतौल से अलग ) यही कहते है ...जन्म से मिले संस्कारो के अनुसार मनुष्यों के प्रतिकर्म के ढंग भी अलग अलग हो जाते है , किन्तु मूल कैसे बदलेगा ? मूल क्या है ? तत्व के गुण क्या है ? सभी परिचित है सामान्य सा मनोविज्ञान है .
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और यही कारन है हर स्तर पे जहाँ भी मनुष्य की पहुँच है ये गुणधर्म मिल ही जाते है , फिर चाहे धार्मिक हो , सामाजिक हो , राजनैतिक हो ,आध्यात्मिक हो अथवा भौगोलिक सन्दर्भ में किसी भी देश के किसी भी कोने में हो ...... मात्र स्वजागरूकता बचाती है ,स्वयं का संज्ञान बचाता है , कोई विधि नहीं बचाती , कोई उपाय काम नहीं आता , मात्र आंतरिक स्थति ही सहायक है.
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यही सच है!
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दानव - देव - और - मानव कहीं अलग किसी एक समुदाय में नहीं मानव-जाति में मिले जुले है गुणधर्म की तरह , ये संज्ञा नहीं सर्वनाम है.... आप स्वयं को कहां पाते है ! स्वयं निर्णय कीजिये . और ये भी सोचियेगा की मानव धर्म देव और दानव के मध्य में क्यों है और मध्य के इस कांटे में क्यों उत्तम है ! आपको स्वयं से ही उत्तर भी मिलेगा .
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अवश्य ही जिस काम को बलपूर्वक किया जायेगा वो मध्य में कैसे होसकता है ? वो अच्छा या बुरा हो सकता है पर संतुलित नहीं वो तो संतुलन का प्रयासमात्र है जबकि मानव मध्य में ही है मात्र कर्म बोध ज्ञान होना चाहिए.
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