ॐ
प्रार्थना :
सर्वे भवन्तु सुखिनः
सर्वे सन्तु निरामया
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु
मा
कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्
जिसके नाम की आड़ में तुमने सैकड़ों सर कलम कर डाले
तमाशबीन हो छुप के बैठा, शहादत में "वो" भी शामिल था
!! ओम !!
प्रार्थना :
सर्वे भवन्तु सुखिनः
सर्वे सन्तु निरामया
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु
मा
कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्
प्रथम उस ओम से विश्व अपने वास्तिविक मौलिक अस्तित्व से जुड़ के ही द्वतिया विश्व कल्याण को समर्पित हो। मौलिक अस्तित्व के जुड़ाव के आभाव में वृत्तियाँ आसानी से घेरती है। और सिर्फ घेरती नहीं कब्ज़ा भी जमा लेती है। नतीजा दुष्ट शक्तियों का तांडव जो वास्तव में किसी एक धर्म या राजनीती की उपज नहीं सिर्फ उनके मात्र शक्तिशाली शरणस्थल है , दुर्ग है , कवच है और हथियार भी , जहाँ से और जिनके माध्यम से वो रक्तपात को शक्ल अपनी अक्ल और पराक्रम से देते है , क्या आपको अभी भी समझ नहीं आया !!!!
जिसके नाम की आड़ में तुमने सैकड़ों सर कलम कर डाले
तमाशबीन हो छुप के बैठा, शहादत में "वो" भी शामिल था
!! ओम !!
नरसंहार और युद्ध मनुष्य के लिए नए नहीं , इतिहास , धर्मशास्त्र कई कई बार स्वयं को दोहरा चुका है चूँकि मैं इतिहासविज्ञ नहीं , दर्शनशास्त्री भी नहीं , विषयों से मेरा कोई परिचय नहीं ,किन्तु सत्य अनावृत हो चूका है , उस परमं ने स्वयं अपना परिचय दिया है , जिसमे मेरा भी बिंदु-अंश समाया हुआ है। मुनियों ने वो सब रहस्य दिए जो वो लिखना और कहना चाहते थे किन्तु स्याही में कुछ और ही दिखा जो दिखा मस्तिष्क तक कुछ और गया , मस्तिष्क ने जो व्याख्या की वो अलग ही हो गयी।
मनुष्यता को कई बार कई कई अर्थों में जानने का अवसर आया , जिनमे आयु , समाज परिस्थतियां और व्यक्ति महत्वपूर्ण थे , और कुछ जीवन की दिशा भी इधर ही ले जा रही है। इसलिए मात्र खटखटाने के लिए जो भी पढ़ना चाहे जानना चाहे मंथन करना चाहे स्वतंत्रता है , जैसे मैंने अपनी स्वतंत्रता को प्रमुख पाया आप सब भी अपने अपने अनुसार सोचे शायद यही जीवन गति भी है ! मनुष्य का युद्ध संहार और वैमनस्य द्वेषा का इतिहास रक्तरंजित है। हथियार के विषय में समझ धीरे धीरे आ रही है , की सिर्फ आज के युग में हम ही नहीं है एकमात्र ज्ञाता और अर्थसंपन्न , विषय के ज्ञाता , शस्त्रों के आधुनिक प्रयोग पहले भी थे , हर युग में थे। वस्तुतः हर युग के अंत में समग्रता के साथ विषय अपने चरम वैज्ञानिक विकसित अर्थों पे थे। चूँकि इतिहास इतिहास है , विज्ञानं नहीं , जैसे जैसे इतिहास पुराना पड़ता है प्रमाण भी धूमिल होते जाते है वैसे तो इतिहास अपने को बहुत कम सप्रमाण प्रस्तुत कर पाता है , अनेक मात्र सामाजिक कथाएं बन के रह जाती है जो अत्यंत सीमित समय को दर्शा पाती है उदाहरण के लिए तत्कालीन सामाजिक कथाकार शेक्सपियर प्रेमचंद टैगोर सरीखे हीरे सदृश साहित्यकार भी समय की चाल के साथ धुंधले पड़ने लगते है , इनमे से भी कुछ जादू नगरी में वासित कुछ अचरज से भरी शक्ति कथाओं के नायक और खलनायक को दर्शाती नायिका के सौंदर्य से भरी होती है, इनमे से भी नगण्य कथाएं भगवन जैसे पद को छू पाती है , आप स्वयं इनके अस्तित्व की गहराई का अंदाजा लगा सकते है ।
किन्तु सर्व स्पष्ट जो आज जान पड़ा कि मनुष्य की मनुष्यता का इतिहास भी उतना ही विषैला है जितना मनुष्य का मन काला है । और उतना ही गहरा धार्मिक भी है और उतना ही आध्यात्मिक भी। कुछ नहीं बदला सिवाय काल चरित्र "संज्ञा" के। कुछ कथाये धर्म कथा में प्रवेश पा चुकी है , लोगो की आस्था अति गहरी है जो बुद्धि से ऊपर है ह्रदय बंद पड़े है सदियों से , सांसारिक कर्त्तव्य पूरित भाव प्रदर्शन को ही प्रेम की संज्ञा मिल जाती है , और स्त्री परुष के दो शरीरों के प्राकृतिक सम्मिलन को अलौकिक प्रेम की उपाधि ।
मनुष्यता का कोई भी काल राम का काल या कृष्ण का काल कहें अथवा कलियुग ; मनुष्य जीवन ऐसे ही युद्धों से भरा पड़ा है जहाँ राम १४ वर्ष की आयु से युद्ध कौशल में प्रवेश करते है और ताजीवन युद्ध ही करते रहे। अनेक सक्षम हथियारो और कभी अकेले और कभी सेना बल के साथ। कृष्णा का काल भी उनके गर्भ में आने के साथ ही युद्ध विष से भरा था , जहाँ वो तथाकथित दानव और देवों के मध्य युद्ध करके संतुलन ही लाते रहे। . उन्ही के जीवन काल में महाभारत जैसी शर्मनाक यौद्धिक घटना भी घटी , जिसने सारे सामाजिक मापदंडो की धज्जियाँ उड़ा दी।
और फिर आज भी आधुनिक भारत का हर दिन , हर मास , हर वर्ष खून से रंगा ही तो है , नर संहार की घटनाएं आज भी इसी मनुष्यता का अंग है , क्या बदला है ? कुछ नहीं ? धर्म की वास्तविक स्थापना कब हुई ? कभी नहीं। धर्म भी सत्ता का ही खेल बन गया या कहे एक अलग प्रभुत्वसम्पन्न शक्ति धर्म कहलायी , जिसमे सैकड़ो नासमझ मनुष्यों की आस्था की होली खेली जाती है , कुछ गिने चुने प्रभावशाली व्यक्तियों के द्वारा , तो राजनीती भी यही है , मुठी भर लोग निर्णय करते है , युद्ध का और हजारों गर्दन जमीन पे गिरी नजर आती है।
जैसे श्री राम काल में राजा रावण का निर्णय था की समस्त प्रजा अपना संहार युद्ध भूमि में राम के हाथों कराएगी वैसे ही हर काल देश और परिस्थति में यदि राजतंत्र है तो उस देश का राजा अथवा लोकतंत्र है तो प्रधान मंत्री की गद्दी पे बैठा प्रधान सेवक ही निर्णायक होता है अपनी प्रजा के जीवन का कब कहाँ और कैसे सीमा पे या फिर सीमाओं के अंदर उपयोग में लाना है । कृष्णकाल में कृष्ण स्वयं समस्त जीवन यही संतुलन करते रहे जब राजा नहीं थे और जब राजा बने , अंत में उन्ही के वंशज यदुवंशी स्वयं ही जलन और क्रोध में सामूहिक संहार भीषण रक्तपात का कारन बने , ये तो मात्र उतना है जितना इतिहास या धर्म शास्त्रो से पता चल पाया , धार्मिक कथाओं के संकलन से परे वास्तविकता और भी कठिन विशाल दुखद तथा भयावह हो सकती है.
मोहन जोदड़ो की खुदाई में पाया गया , नरकंकाल सड़को में गिरे पड़े थे , कोई तो हाथ भी पकडे थे कोई समूह में थे तो कोई अकेले , अवश्य भयंकर नरसंहार का दृश्य है , प्राकृतिक आपदा का नहीं ये चित्र मोहनजोदड़ो की खुदाई का है , कुछ द्वेष , कुछ शक्ति प्रदर्शन अवश्य हुआ है , जिसने उस समाज को समूल उखड दिया।
ऐसा ही इतिहास साक्षी है आयरलैंड , स्कॉटलैंड फ़्रांस और तुर्की आदि भी युद्ध नरसंहार से जूझ चुके है
वैदिक काल से नरसंहार के इतिहास में जो आज भी मुखर है ( इतिहास संकलन के कारन ) , चाणक्य का काल नंदवंश का समाप्य , ये साधारण नहीं असाधारण रूप से रक्तपात से भरा है जिसमे उल्लेखित नाम गिनती के है शव की संख्या अनगिनत है , ऐसा ही रक्तपात से भरा मुग़ल काल, सिर्फ मुग़ल अपने ही अंदर की पारिवारिक मारकाट में नहीं वरन बाह्य युद्ध कौशल में भी पारंगत थे , युद्ध की विजयगाथा बच्चो का खेल नहीं , मनुष्यों के शवो की समयपर्यन्त यात्रा है। यूँ तो मनुष्य का वास जहाँ भी हुआ ये नरसंहार होते ही रहे किन्तु भाव ग्राह्यता के लिए अपने ही देश की देखें संसार की छोड़ें , नजदीक की समझ आसानी से होती है , मुग़लों का और अंग्रेंजो का काल कहना ही पर्याप्त होता है , उसके दृश्य से वेदना स्पष्ट हो जाती है जिन्होंने जिया होगा उनका भाव चित्रण की गंभीरता शब्दों में संभव नहीं , हाँ ! यदि आप अत्यधिक संवेदनशील है तो उस काल में ध्यान द्वारा जा के अनुभव कर सकते है , देशविभाजन के सामूहिक नरसंहार और रक्तपात आज भी याद करके आज भी जीवन की असहाय पीड़ा लाचारी और जीवन की शवों में परिणीति करुणा बन उभर आती है।
यहाँ ये लेख लिखने का आशय आपका ह्रदय द्वार खटखटाना है मात्र , इतना कहना है की , धर्म या राजनीती तो मात्र दैत्यों के शरणस्थल है जहाँ से प्रभुतासम्पन्न होके ये अत्यधिक बलशाली धनसम्पन्न होके नरसंहार कुशलता से कर पाते है , वस्तुतः चूँकि सफल नरसंहार अथवा शासन को युद्ध बल छल धन और मारकाट सभी की आवश्यकता है , जो मात्र राजनैतिक और धार्मिक आधार पा के ये अधिक क्रियाशील होते है। इसमें शुद्ध धर्म दोषी नहीं इसमें शुद्ध राजनीती दोशी नहीं , इनमे लिप्त मानसिक् लिप्सा अतृप्त इक्षाए ही दोषी है और जिनसे बचना असंभव है। इसको काजल की कोठरी भी कहा गया है , कितना भी उन्नत आध्यात्मिक शक्तिसम्पन्न संत पुरुष इनमे ( धर्म और राजनीती ) प्रवेश करे यदि स्वयं को रक्तपात से और छल से अलग भी रख्हे पर समूह युद्ध में रक्त के छींटे पड़ते ही है कभी खुद के अस्तित्व की रक्षा के लिए तो कभी , युद्ध, नरसंहार , धर्म अधर्म तथा राजनीती से परे हर जीव साम्राज्य और बल के विस्तार के लिए की योजना की सहमति के लिए ,. ( क्यूंकि सभी एक जैसे एक समान आध्यात्मिक अथवा निश्चित एक ही विषय के प्रेमी नहीं हो सकते , कारण , व्यक्तिगत कार्मिक आध्यात्मिक यात्रा अलग अलग और अत्यंत निजी है , समाज और देश निर्माण हर गति और मति संयोग से हो पाता है , भी सच है , सब यूँ ही चलेगा इन्द्रधनुष जैसे सातों रंग समेटे फिर भी प्रार्थना है दुआ है की अधिकतर मानव जाति के विकास में शामिल हो , आध्यात्मिक हो , ताकि मनुष्य समेत समस्त जीव जगत कल्याण हो )
किन्तु इन सबसे अलग हर जन्मित जीव की अपनी एक अध्यात्म की निजी यात्रा भी है और एक जन्म का महत्वपूर्ण उद्देश्य है जिसका पता अक्सर अंतिम आखिरी श्वांस के बहुमूल्य क्षण में ही जान पड़ता है , वर्ना , मनुष्य मनुष्यता राजनीती समाज रिश्ते नाते संघर्ष सोचने का अवसर ही नहीं देते , और जब अवसर जान पड़ता है तो देर हो चुकी होती है , मनुष्य अपने भरम के कारन ही बहुत कुछ खो चूका है , खोता ही जा रहा है। . धर्म का स्वरुप भ्रामक है , राजनीती में दबदबा है , अध्यात्म स्वचेतना सेजोड़ता है।आप स्वयं निश्चय कीजिये। अपने दीपक स्वयं बनिए , सिद्धार्थ को मात्र चार आर्य सत्यों ने बुद्ध बना दिया। । ये सत्य ही तो है जो स्वयं से जोड़ते है। माया तो परदे डालती है , न मिलने वाली मृगतृष्णा भी जागाती है , मृग सदृश जीव कुछ ऐसा पाने के लिए भटकता हुआ प्राण त्याग देता है जो मिल ही नहीं सकता ।
एक दो विकसित चेतना के आध्यात्मिक व्यक्ति गुरु का पद ही संभल सकते है , किन्तु जागृत विकसित आध्यात्मिक जन समुदाय , समाज में नवचेतना का संचार कर सकते है। ये भी कल्पना ही है कि यदि समस्त संसार आध्यात्मिक राह को बढ़ चले तो सुन्दर संसार की कल्पना भी मात्र कल्पना नहीं रह जाएगी यहीं की यहीं साकार हो सुन्दर जीवन होगी । फिलहाल ; मूर्खतापूर्ण धार्मिक राजनैतिक विवादों में उलझी चेतना , बैलों के सामान है , जिसको गाडी से बाँध गाडी को मनचाही दिशा में कुछ मुठी भर चालक हांके लिए जा रहे है। और शक्तिशाली बैल की मूक आँखो से अश्रु भी बह रहे है , पर निरर्थक। क्यूंकि वो अपने तथाकथित आकाओ से वचनबद्ध है और सेवायुक्त है । और उसके आका उसको दो वख्त के खाने का भरोसा और सुरक्षा का वचन देते है।
सोचिये !
विचारिये !
ध्यान कीजिये !
अध्यात्म से जुड़िये !
अपनी स्वचेतना से जुड़िये !
फिर अपने स्वकेंद्र से जुड़िये !
इसके बाद ही अपने कर्त्तव्य और स्वधर्म की चर्चा कीजिये , पहले नहीं !
ओम
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