अति गूढ़ और अति सरल व्यक्तिगत धर्म सार्वभौमिक और सर्वोपरि है यदि इस धर्म को जाने तो इस व्यक्तिगत धर्म को इन दो मुख्य रूप से देखा जा सकता है * देह-धर्म , * आत्म-धर्म , वस्तुतः मुख्य धर्म वैसे ही एक है जैसे प्रेम धर्म शब्द अपने विस्तृत और सूत्र रूप में मौलिक अर्थ में एक ही है। परन्तु इसको जीने के दौरान अनेक मस्तिष्क से संपर्कऔर सम्बन्ध होने के कारन , इनमे विस्तार और अधिक तथा व्याख्यायात्मक अर्थ गहरे होने लगते है, जितना अर्थ समझने में मस्तिष्क उलझता जाता है , जलकुम्भी के फैले जाल समान उसका घने जाल से बाहर निकल सांस लेना असंभव प्रतीत होता जाता है।
मात्र स्वध्यान ही सहयोगी है , पठन पाठन , विवेचना , समझने और समझाने की चेष्टा व्यर्थ होती जाती है।
इस स्वध्यान में जब ह्रदय की गहराई से उतरे तो पहली बार दृष्टि स्वयं की ओर घुमी , वर्ना तो दूसरों के लिए औचित्य और अनुचित ही निर्धारित करने में समय बीता रहे थे। तो जाना धर्म की सबसे बड़ी उपलब्धि है स्वयं को संतुलित करना , स्वयं के संतुलित होते ही संसार संतुलन में आने लगता है , फिर समुद्र के स्वभाव को समझना ज्वार भाटा को देखना सहज और सरल हो जाता है। वर्ना खुद ही असंतुलित से पहले ही ढेर हो जायेंगे। स्वाध्यान के इस प्रयास में योग और ध्यान , मनन और चिंतन , बहुत बड़े लगते है शास्त्रों की नाव बना पार करना तो कागज की नाव पे बैठना है जो पहले अधकचरे ज्ञान के कारन गल जाएगी , और अनुभवहीनता की स्थति में व्यक्ति पानी में गिरा ही हुआ सा होगा।
मात्र केंद्रीकरण एक मात्र उपाय , संसार की और से उलट दृष्टि घुमा संसार को साक्षी भाव से देखना जानना तब मानना ही आगे के दृष्टिकोण को विस्तार देता है। तब एक ही धर्म का उदय होता है , स्वचेतना का विकास , स्वशक्ति का आविर्भाव , और स्व की शक्ति से साक्षात्कार , स्व प्रेम के द्वारा व्यव्हार का दर्शन , अद्भुत है , आश्चर्यपरिणामकारी है। लौकिक- स्वार्थरहित स्वप्रेम वो शक्ति है जो आत्मचेतना का प्रादुर्भाव करती है , प्रकृति से जोड़ती है। सभी और स्व एक ही नजर आते है अपना अपना भोग भोगते हुए , बिना मनुष्य के प्रयास के , वो प्रारब्ध से नियत है। किन्तु मनुष्य मस्तिष्क के जुड़ते ही ये प्रारब्ध कर्म में बदल भाग्यफलदायी होने लगता है। फिर प्रारब्ध का पुनः संचय होने लगता है। और यही मनुष्य मन अपने ही फैलाये जाल में अपने ही जन्म दिए कर्म जाल को ईश्वर को समर्पित करता और पुनः पुनः उलझता जाता है। और अज्ञान एक क्षण ऐसा भी आता है जब एक एक सांस के अंतराल में जो भी कर्म घटते है वो सब उसको उसी प्रभु की इक्षा समझ आते है , जबकि अधिकांश स्वयं की उस शांत झील में फेंके गए कंकड़ से उत्पन्न लहरों के समान ही होते है। पर इसका आभास भी सहज नहीं , मात्र साक्षीभाव से ही संभव है।
यही साक्षित्व सहज सुलभ करता है व्यक्तिगत धर्म , व्यक्तिगत धर्म पुनः दो धाराओं में स्पष्ट विभाजित है पहला धरती से उत्पन्न तत्वों का देह धर्म और दूसरा आत्म उत्तान केंद्र से जुड़ा आत्मधर्म , दोनों ही पालनीय है , अनुसरणीय है , जिस प्रकार देह और ऊर्जा मिल के जीवन बनता है वैसे ही देह धर्म और आत्म धर्म का संतुलित व्यवहार सद्गति का सूचक है। कोई भी एक छोड़नें जैसा नहीं वर्ना दूसरा भी अपूर्ण ही रह जायेगा। दोनों का सुखद मिलन बनता है व्यक्तिगत धर्म।
देह-धर्म के अंतर्गत अलिप्त अवस्था में समस्त सम्बन्धो के पालन का दायित्व है। जो अति दुष्कर भी लगता है , अलिप्त भी और प्रेम युक्त संलग्न भी। पर संभव है और अत्यंत सुखद परिणाम दाई है , क्यूंकि ये धर्म महत्वाकांशी नहीं , सहज है। ये निर्णयात्मक नहीं , स्वीकार से भरा है। और प्राकर्तिक तादात्म्य के कारण ही दोनों ही तरफ ( बाह्य और आंतरिक ) को उन्मुख किन्तु मध्य में स्थति करुणायुक्त है।
चूँकि साक्षी को ज्ञात है , की उसका वास्तविक धर्म आत्म-उन्मुख है अतः देह धर्म उसे (जीव ) बांधता नहीं। वो स्वतंत्र भाव से अपने आत्म धर्म के प्रति सजग रह सकता है। क्या आपको पता है , इसके लिए तीन ही शब्द है जो मूल मंत्र है , "सहजता , सरलता और सतर्कता " ।
पर ये भी मध्य की स्थति है जब जीव दोनों धर्म का पालना सरलता पूर्वक कर लेता है। मन की और बुद्धि की लहरो को काटने के बाद , शरीर के संस्कारगत , जन्मगत , शिक्षागत और समाजगत विषपान के प्रभाव को निष्काम करने के बाद , समस्त बाह्योन्मुख उम्मीदों से भरे धर्म विषयुक्त है इनका आभास भी तभी हो पाता है जब उसका विष और बाह्य से प्राप्त विष अपना प्रभाव दिखाने लगते है।
तभी समझ आता है आत्मस्वस्थ्य आत्मप्रेम का महत्त्व अधिक है , विष और अमृत के संतुलन का प्रश्न जन्म लेता है। जो साधा भी जाता है , अपने ही सातों चक्रों के संतुलन के द्वारा , स्वयं को संतुलित करते ही करते दृष्टि भी आंतरिक होती है , साक्षी भी जगता है। और अपना ही जन्म का उद्देश्य भी स्पष्ट होता है।
(चक्रों के बारे में अधिक पढ़ने के लिए इसी ब्लॉग में विवेचना है )
व्यक्तिगत धर्म से जागरूक हुआ जीव संसार धर्म का भी पालन उतनी सुंदरता से कर पाता है ( वस्तुतः माया के प्रभाव का कहना कठिन है किसी भी समय भ्रम उपज सकता है परन्तु यहाँ जो भी कहा गया है वो सहज और संतुलित जागृत के लिए , संभवतः माया के लिए छाया डालना जरा कठिन है ) ऐसा व्यक्ति सामाजिक धर्म से ऊपर होता है , संभवतः प्रेम धर्म के महत्त्व को समझता है। जीव के जन्म का प्रयोजन समझता है। संहार के लिए वो नहीं ये भी समझता है क्यूंकि वो जन्मदाता नहीं माध्यम है जीवन को आगे बढाने का , वो आत्मबल युक्त शक्तिशाली तो है किन्तु दमनकारी नहीं हो सकता।
व्यक्तिगत धर्म से उत्पन्न हुआ बौद्धिक विकास समस्त जीव जगत के लिए कल्याणकारी ही है। वो ही ऋषि है , वो ही गुरु है स्वयं का और फिर सभी का ( जो भी चाहे ) पर ये व्यक्तिगत धर्म साधने की आवश्यकता समस्त मनष्यों को है। क्यूंकि ये धर्म बहुत निजी है। बिलकुल वैसे ही जैसे क्षुधा लगने पे स्वयं ही ग्रहण किया भोजन।
दूसरे की क्षुधा और मेरे दवरा उसकी भूख के अनुसार आवश्यकता से अधिक ग्रहण किया भोजन अपच करता है , ठीक वैसे ही मेरी क्षुधा गहरी हो और दूसरे का आवश्यकता से अधिक ग्रहण भोजन मुझे कमजोर ही करता है ।
वैसे तो विषय इतना गहरा है की जितना भी लिखो कम है किन्तु यहाँ लिखने से भी ज्यादा महत्त्व स्वानुभूति का है। स्वानुभूति के समक्ष शब्द और व्याख्या के विस्तार का महत्त्व है ही नहीं , यदि कम से कम शब्दों का उपयोग किया भी गया तो मात्र सांकल खटखटाने के लिए।
सबका कल्याण सबके जीवन यात्रा के लिये मंगलकामना के साथ
प्रणाम
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