जो भी हम जानते हैं, जिन दीयों से
भी हमारा परिचय है, वे सभी तेल से जलते हैं; उन
सभी में बाती की जरूरत है। अकारण
हमारी जानकारी में कुछ भी नहीं है। आग
जलेगी तो ईंधन होगा। आदमी चलेगा तो भोजन
जरूरी है। भोजन ईंधन है।
जो भी हम जानते हैं, जो भी हमारा ज्ञान है, वह
सभी कारण से बंधा है।
यह सूत्र ऐसे तो सरल है, कि उस अगम-अगोचर
का जो दीया है, परमात्मा की जो ज्योति है,
वह बिना तेल, बिना बाती के जल रही है। पर
कठिन बहुत है; क्योंकि हमारी कोई पहचान ऐसे
किसी स्रोत से नहीं।
हमारी जानकारी तो उन्हीं वृक्षों से है,
जो बीज से पैदा होते हैं। निर्बीज, अबीज वृक्ष से
हमारा कोई परिचय नहीं। इसलिये कठिन है, लेकिन
थोड़ा समझने की कोशिश करें। कुछ उपाय अलग-अलग
आयाम से समझने में सहयोगी होंगे।
बुद्धि से समझने से यह बात कभी भी न
आयेगी क्योंकि बुद्धि कारण को समझती है, अकारण
को नहीं। लेकिन बुद्धि से गहरे में छिपा हुआ एक और
स्रोत भी है। हृदय अकारण को ही समझता है, कारण
को नहीं।
जिन्होंने यह कहा है: ‘दीया बले अगम का बिन
बाती बिन तेल’, उन्होंने कोई सिद्धांत
प्रतिपादित नहीं किया है। वे किसी विचार
की सरणी को उपस्थित नहीं कर रहे हैं। ऐसा उन्होंने
देखा। वे उस दीये के आमने-सामने पड़ गये, जहां न
बाती थी, न तेल था। ऐसा उन्होंने अनुभव किया,
ऐसा उन्होंने जाना।
और यह दीया अगर अलग होता जानने वाले से,
तो शायद भूल-चूक भी हो जाती। शायद तेल
छिपा हो, शायद बाती इस ढंग से
बनी हो कि दिखाई नहीं पड़ती, लेकिन जिन्होंने
जाना उन्होंने जाना कि वे स्वयं ही वह दीया हैं;
उन्होंने अपने भीतर ही उस ज्योति को जलते देखा।
भूल-चूक की कोई गुंजाइश न थी। उन्होंने स्वयं
को ही पाया कि अकारण हैं।
जीवन का न कोई उदगम है, न कोई अंत।
न जीवन का कोई स्रोत है, न कोई समाप्ति।
न तो जीवन का कोई प्रारंभ है, और न कोई
पूर्णाहुति।
बस, जीवन चलता ही चला जाता है।
ऐसी जिनकी प्रतीति हुई, उन्होंने यह सूत्र
दिया है। यह सूत्र सार है बाइबिल, कुरान,
उपनिषद–सभी का; क्योंकि वे सभी इसी दीये
की बात कर रहे हैं।
पहली बात: जिस जगत को हम जानते हैं, विज्ञान
जिस जगत को पहचानता है, तर्क और
बुद्धि जिसकी खोज करती है, उस जगत में
भी थोड़ा गहरे उतरने पर पता चलता है
कि वहां भी दीया बिना बाती और बिना तेल
का ही जल रहा है।
वैज्ञानिक कहते हैं, कैसे हुआ कारण इस जगत का, कुछ
कहा नहीं जा सकता। और कैसे इसका अंत होगा, यह
सोचना भी असंभव है। क्योंकि जो है, वह कैसे
मिटेगा? एक रेत का छोटा-सा कण भी नष्ट
नहीं किया जा सकता। हम पीट सकते हैं, हम
जला सकते हैं, लेकिन राख बचेगी। बिलकुल समाप्त
करना असंभव है। रेत के छोटे से कण को भी शून्य में प्रवेश
करवा देना असंभव है–रहेगा; रूप बदलेगा, ढंग बदलेगा,
मिटेगा नहीं।
जब एक रेत का अणु भी मिटता नहीं, यह
पूरा विराट कैसे शून्य हो जायेगा?
इसकी समाप्ति कैसे हो सकती है? अकल्पनीय है!
इसका अंत सोचा नहीं जा सकता;
हो भी नहीं सकता।
इसलिये विज्ञान एक सिद्धांत को स्वीकार कर
लिया है, कि शक्ति अविनाशी है। पर
यही तो धर्म कहते हैं कि परमात्मा अविनाशी है।
नाम का ही फर्क है। विज्ञान कहता है,
प्रकृति अविनाशी है। पदार्थ का विनाश
नहीं हो सकता। हम रूप बदल सकते हैं, हम आकृति बदल
सकते हैं, लेकिन वह जो आकृति में छिपा है निराकार,
वह जो रूप में छिपा है अरूप, वह जो ऊर्जा है जीवन
की, वह रहेगी।
और अगर अंत नहीं है, तो प्रारंभ नहीं हो सकता।
जिस डंडे का एक छोर न हो, उसका दूसरा छोर
भी नहीं हो सकता। क्योंकि अगर हम
यही नहीं सोच सकते कि जगत कैसे समाप्त होगा,
तो हम यह कैसे सोच सकते हैं कि कैसे शुरू हुआ? अगर रेत
का एक कण शून्य में नहीं जा सकता, तो शून्य से रेत
का कण कैसे आ सकता है?
दोनों ही बातें एक ही हैं, एक जैसी हैं। अगर जगत शून्य
से पैदा हो तो जगत शून्य में खो सकता है। अगर जगत
शून्य में नहीं खो सकता तो शून्य से पैदा भी नहीं हुआ।
इसका अर्थ हुआ कि जगत सदा था। अस्तित्व सदा-
सदा था और सदा-सदा रहेगा। इसका कोई उदगम
नहीं है।
जिस ऊर्जा का कोई उदगम न हो, वह अकारण है।
जिस ऊर्जा का कोई अंत न हो, वह अकारण है।
क्योंकि जब भी कारण हो तो अंत हो सकता है।
अगर आप भोजन के कारण जी रहे हैं–भोजन बंद,
आपकी मृत्यु हो जायेगी। अगर श्वास के कारण जी रहे
हैं–श्वास टूटी, आप समाप्त हुए। अगर सूरज
की रोशनी के कारण जी रहे हैं–सूरज बुझा, आप बुझे।
अगर कारण है तो कारण हटाया जा सकता है।
सिर्फ उसका ही अंत नहीं होगा, जिसका कोई
कारण न हो। तर्क भी, विचार भी, इतना तो समझ
ही पा सकता है कि इस जीवन
की लीला का कोई प्रारंभ नहीं।
लेकिन बुद्धि चकराती है। क्योंकि तब और उलझनें उठ
आती हैं। अगर इसका कोई प्रारंभ न हो, अगर
इसका कोई अंत न हो, अगर यह अंतहीन शृंखला है,
तो फिर इसका प्रयोजन क्या होगा? फिर
इसका अर्थ क्या है? फिर सारी बात अर्थहीन
हो जाती है; फिर इसका कोई प्रयोजन नहीं रह
जाता।
और बुद्धि को यह मानना कठिन होता है कि कुछ है
और उसका प्रयोजन नहीं। क्योंकि बुद्धि व्यवसाय है।
प्रयोजन हो तो बुद्धि फैलती है। कुछ पाने
को हो तो बुद्धि कुछ करती है, कुछ कर सकती है। अगर
कुछ पाने को नहीं, कोई अंत नहीं, यह अंतहीन
शृंखला चलती ही रहेगी। तुम क्या करते हो, इससे
कोई फर्क न पड़ेगा। तुम्हारा कृत्य कोई अंतर न
लायेगा। तुम्हारा कृत्य स्वप्न जैसा है।
एक सूफी फकीर जुन्नैद ने कहा है, कि बुद्धि के सारे
कृत्य ऐसे हैं, जैसा एक मच्छर लोहे के हाथी को काटने
की कोशिश कर रहा हो। लोहे का हाथी! और
मच्छर उसमें से खून पीने की कोशिश कर रहा हो।
बुद्धि के सारे उपाय, बुद्धि के सारे कृत्य ऐसे हैं।
अगर जगत अंतहीन शृंखला है, तो तुम्हारे किये
क्या होगा? बुद्धि इससे डरती है क्योंकि फिर
अहंकार निर्मित नहीं होता।
मेरे करने से कुछ भी न
होगा; मेरे होने के पहले था, मेरे होने के बाद
होगा। जब मैं हूं तब भी मैं एक स्वप्न से ज्यादा नहीं;
यथार्थ वैसा का वैसा बना रहेगा। मेरे होने, न
होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। अहंकार
को निर्मित होना कठिन हो जाता है। और
बुद्धि का सारा खेल अहंकार को निर्मित करने
का है–‘मैं हूं।’ लेकिन मेरे होने में वजन तभी आता है, जब
मैं कुछ कर सकूं; कृत्य मेरे बस में हो।
तो जितना ज्यादा मैं कर सकूं, उतना वजनी मैं
हो जाता हूं। अगर कुछ भी न कर सकूं, उतना ही मैं
नष्ट हो जाता हूं, उतना ही मैं खो जाता हूं।
अस्तित्व प्रयोजन-शून्य है तो अहंकार को बनने
की कोई जगह न रही। और अगर इसका कोई प्रारंभ,
अंत नहीं तो बुद्धि को खोजने को कुछ न बचा।
बुद्धि की जिज्ञासा है जानना: कैसे हुआ प्रारंभ?
किसने बनाया? क्यों बनाया? कब होगा अंत? कब
आयेगी प्रलय? कैसे होगा अंत? बुद्धि को खोजने के
लिये जगह मिलती है। बुद्धि और अहंकार इस प्रयोजन-
शून्य, अंतहीन विस्तार में कहीं भी नहीं टिकते;
खो जाते हैं।
No comments:
Post a Comment