अगर आप गौर से विचार करे , तो तथाकथित धार्मिक संस्कारो की जड़े गहरी प्रतीत होती है पर है बड़ी उथली , किसी भी समाज में , बाकि सब उद्घोषणाएं है और सूचनाएं है, यही कई कई पीढ़ियों से क्रम चला आ रहा है , आभास होता सा प्रतीत होता है कि हमारी जड़े गहरी हो चली। हर संस्कार दो पीढ़ी पुराना है मात्र हर मान्यता दो पीढ़ी की , उसके बाद यही ज्ञान _दान आगे वाली पीढ़ी को चला जाता है |
विचार करके देखें ; बहुत बड़ा भरम है ये, ज्यादा पीछे नहीं अपने बाल्यावस्था तक चले और एक एक कदम पीछे जाते हुए पूरी ईमानदारी से अपने विश्वासो की नीव पे विचार करे कि ये धार्मिक कथाओं से प्रेरित भाव आपके ह्रदय में कितने पुराने है। यदि आप सहज अवस्था में उस बिंदु तक पहुँच गए जो आपको आपकी ५ वर्ष कि आयु से जोड़ सके , तो आपको पता चलेगा , उस वक्त आप सिर्फ कोरी किताब थे। जिसके एक एक पन्ने पर जो भी लिखा हुआ है वो साल दर साल सिर्फ एक या दो पीढ़ी पुराना संस्कार है। यदि आप और पीछे जाना भी चाहे तो आपकी याददाश्त आपका साथ नहीं देगी।
नीव को और भवन को सही समय पे बचाने या फिर नव जीवन देने के लिए गहरी नीव तक जाना ही पड़ता है , तो जाईये अपने भवन कि नीव तक , सुरक्षित कीजिये अपने भवन को , आप अपनी ही नीव पे नया सुंदर मजबूत भवन खड़ा कर सकते है
आप स्वयं सोचिये और निश्चित कीजिये कि आपकी नीव कहाँ है ? मात्र एक या दो पीढ़ी पुरानी सुनी सुनायी चारित्रिक कथाओ पे , या फिर वैदिक स्वर्णकाल में …… या फिर उस से भी गहरे कही व्योम में !!!!
" पूजा अर्चन ऐसे नहीं वैसे करना चाहिए , किस किस की पूजा का क्या क्या महत्त्व है , किस घडी क्या शुभ है और क्या अशुभ , आदि आदि, छोटे छोटे भाव जो संस्कार बन चुके है ," जरा गहराई देखिये तो सही एक बार। आपके पारिवारिक संस्कारो में में मात्र एक और दो पीढ़ी पहले के व्यक्तियों का कितना बड़ा योगदान है , और ये सिर्फ आपके साथ नहीं स्वयं उनके साथ भी यही हुआ , दो पीढ़ी और ऊपर। किसी भी परंपरा को यदि आप स्वीकार करते है चाहे वो गुरु-शिष्य की हो या फिर मात्र दादी और नानी से चले आ रहे पारिवारिक संस्कारो की तो इसका अर्थ सिर्फ इतना ही है कि , ' आप अपने दिमाग पे और ह्रदय पे जोर नहीं डालना चाहते , आपको सामने बैठा व्यक्ति जो भी समझा देता है , आप वो ही गीत गाना शुरू कर देते है । '
और कहते है कि हमको श्रध्हा है भक्ति है , खुद से कितना बड़ा छुपाव , खुद को ही छिपा लिया ! और उन भ्रमो को सुरक्षित करने के लिए तर्क द्वारा बुद्दी का खेला यानि कि बुध्ही का स्वांग , उफ़ ! आश्चर्य जनक है माया कि चमक और वास्तु स्तिथि के ना होते हुए भी होने का आभास |
जरा सोचिये वही एक गलती हम कितने पहले से दोहराते चले आ रहे है। जो आज हमारे बंधन भी बन चुके है और हम अपने वास्तविक स्वरुप से बहुत दूर भी जा चुके है। एक कठपुतली का सा धार्मिक जीवन , परंपरागत बहती हुई मान्यताये।
सब कुछ गलत है ऐसा नहीं , पर कही कुछ रोपाई या निराई का विचार है ये भी नहीं। .
एक एक पीढ़ी करके ,बस बहते जा रहे है ...
धर्म का घर जर्जर है तो ठीक,
आस्था की दीवाले पुरानी है तो ठीक ,
मंदिर तक जाने के आत्मा के शहर के रास्ते टूटे है तो ठीक ,
दो चार बार घायल हो के गिर पड़ेंगे गड्ढे है तो ठीक ,
ह्रदय में प्रकाश धीमा है तो ठीक ............
क्यूंकि दादी नानी और माँ के नुस्खे और कहानियाँ , दिल को दिलासा दे रही है कुछ पुतले हमारे हाथ में दे दिए गए है जब भी हमे डर लगे उनसे कह के, हम अपने डर पे काबू पा सकते है ,ऐसे ही कुछ पुतले उनके हाथ में उनके बड़े लोगो ने थमा दिए थे वो ही पुतले आज हमारे हाथो में है और यही पुतले हम अपनी संतानो को दे जायेंगे ।
दिल पे हाथ रख के सोचियेगा , यही कर रहे है न हम सब !!
यही व्यवहार हम में इतना रच बस गया है , कि प्रश्न उठते ही नहीं , बस मान्यता है ऐसा होता है , ऐसा होना चाहिए , यही एक विचार हावी रहता है , आपको आश्चर्य होगा अपने ऊपर ये जान के कि यही विचार आपमें तब भी हावी होता है , जब आप किसी अध्यात्मिक भाव में भर के किसी अध्यात्मिक गुरु की शरण में जाते है। और इसी कारन आप बिना जिगसा के भक्ति भाव या समर्पण भाव में सब समर्पित करते चले जाते है। और एक दिन आपको गलती का अहसास भी होता है तो इतना हल्का कि वो आपको भी पूर्ण जागृत करने में सक्षम नहीं हो पाता।
और धर्म और अध्यात्म के व्यवसाय की गाड़ी छुक छुक चलती ही जाती है …… निरंतर।
आदर एक अलग बात है ... सम्मान भी अलग भाव है , पर एक ऐसी श्रृंखला का हिसा बन जाना जिसमे सिर्फ भ्रम ही भ्रम से सामना हो , और उसी श्रंखला की कडिओं में एक कड़ी अपनी भी विश्वास और धर्म की लगा करके आगे परंपरा के रूप में आगे की पीढ़ी को सौप देना अलग बात है।
गौर कीजियेगा !
* ये ज्ञान नहीं क्यूंकि बिना चिंतन ज्ञान अधूरा है ,
* ये विश्वास भी नहीं क्यूंकि आपका विश्वास इन ५ तत्वो के बने बनाये खेलो पे टिक गया है ! तो कैसे सच कि जमीं पे आपके पैर टिकेंगे ? यदि आप पृकृति के माया तत्व से परिचित है तो ये भी उसी माया के अंदर है ,
* ये भक्ति भी नहीं क्यूंकि सहज ही आप पाएंगे कि आपकी भक्ति भी ऐसे विश्वासो पे गिर पड़ी है जो खुद ही एक दो पीढ़ी से ज्यादा नहीं चल पाते।
* ये अध्यात्म का रास्ता तो बिलकुल नहीं , क्यूंकि ये आपको सारे मायावी रंगो से नहलाता है , और अध्यात्म तो आपको आपके एक एक मायावी रंग से परिचय करवाता है सिर्फ परिचय ही नहीं एक एक रंग उतरता भी जाता है। परमात्मा रुपी धोबी आपके वस्त्र का एक एक रंग निकल के उसको निर्मल और स्वक्छ बनाता है ।
बाकी सब प्रवाह ज्ञान और अनुभव के हस्तांतरण की प्रक्रिया का है , जिसको आप सौंपी गयी सूचनाओं कि धरोहर भी कह सकते है। यानि कि यदि आप इसके बीज _ सत्य को जान जाये तो फिर ये रूढ़िवादिता और तथाकथित परम्पराए जो जड़ हो चुकी है जिनको स्वीकार सिर्फ इसलिए कर रहे है क्यूंकि ये परम्पराए बन चुकी है , ये सब फिर बंधन रह ही नहीं जायेगा। फिर आप स्वतंत्र हो के अपने ज्ञान द्वारा अर्जित , अपने ध्यान द्वारा अर्जित शुध्ह पवित्र मान्यताये निर्मित कर सकते है।
इस पहेली को सुलझा के ही शायद हम शुध्ह मानवीय धर्म स्थापित करने के बारे में सोच पाएंगे |
ऊँ
ऊँ पूर्णमदः पूर्णमिदम् पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।।
OM
poornamadah poornamidampoornaat poornamudachyate।
poornasya poornamaadaayapoornamevaavashishyate ।।
That (God) is infinite; this (world) is whole;from the infinite the world becomes manifest.
From the infinite, even if the whole is taken away,what remains again is the infinite.
ये अनुभव का मोती आपके स्वयं के प्रयासो में छिपा है , किसी परंपरा के पालन से धरोहर रूप से आपको नहीं मिल सकता। इस अनुभव के बाद ही आप सहज महसूस कर सकेंगे , बेड़ियाँ और उसकी कड़ियाँ और ये भी कि आपका वास्तविक लक्ष्य क्या है , कहाँ आपके विश्वास को जमीं मिलेगी , और कहाँ आपकी भक्ति को ठहराव ! क्या आपका शुध्ह धर्म है पहले ये महसूस कीजिये , फिर सुनिये शांत ध्यान के सन्नाटे में कि वो धर्म आपसे क्या कह रहा है , क्यूंकि उस तल पल उन तरंगो का हमसे संपर्क लगातार है जैसे वायु हर जगह है , हमारे ही संपर्क साधन दूषित है वो तरंगे हमारे ह्रदय तक दस्तक दे के वापिस लौट जाती है। जब तरंगो की भाषा आप सुनेंगे , तभी आप इस प्रस्तुति का मर्म समझ सकेंगे।
अंत में ,
" आपो गुरु आपो भव "
ठीक वैसे ही जैसे राजनेता अपनी अपनी पार्टी का पक्ष रखते हुए खुद को भी बचाने का प्रयास करते है , ठीक उसी प्रकार धर्म गुरु भी धर्म, भक्ति और श्रध्हा के खेल को बचाने का भरकस प्रयास करते है। संस्थागत गुरु , अपनी संस्था को बचाने के लिए तर्क देते है। पर अंत में ये सब है तो काजल की कोठरीही। एक निजी आत्मा की यात्रा को धब्बा तो लगेगा ही और श्रम भी व्यर्थ होगा।
परम का निवास आपके ह्रदय में है , सीधा संपर्क कीजिये। मध्यस्थों की क्या जरुरत ? वो परम स्वयं आपको प्रेम से सीखाएंगे जो आप मायावश विस्मृत कर चुके है इस से आप बुध्हिमान भी होंगे , भावयुक्त भी , ज्ञानवान भी होंगे ,संसार मुक्त भी , अपना विचार स्वयं बनाये , अपनी जमीन पर अपना भवन खुद बनाये ।
ऊँ पूर्ण वैदिक भाव , पूर्ण स्वर्णकाल , पूर्ण धर्म , पूर्ण अध्यात्म , पूर्ण ज्ञान सिर्फ आपके हमारे अंदर ही है और समाधान भी आपके हमारे ही अंदर है।
Om pranam
नीव को और भवन को सही समय पे बचाने या फिर नव जीवन देने के लिए गहरी नीव तक जाना ही पड़ता है , तो जाईये अपने भवन कि नीव तक , सुरक्षित कीजिये अपने भवन को , आप अपनी ही नीव पे नया सुंदर मजबूत भवन खड़ा कर सकते है
आप स्वयं सोचिये और निश्चित कीजिये कि आपकी नीव कहाँ है ? मात्र एक या दो पीढ़ी पुरानी सुनी सुनायी चारित्रिक कथाओ पे , या फिर वैदिक स्वर्णकाल में …… या फिर उस से भी गहरे कही व्योम में !!!!
" पूजा अर्चन ऐसे नहीं वैसे करना चाहिए , किस किस की पूजा का क्या क्या महत्त्व है , किस घडी क्या शुभ है और क्या अशुभ , आदि आदि, छोटे छोटे भाव जो संस्कार बन चुके है ," जरा गहराई देखिये तो सही एक बार। आपके पारिवारिक संस्कारो में में मात्र एक और दो पीढ़ी पहले के व्यक्तियों का कितना बड़ा योगदान है , और ये सिर्फ आपके साथ नहीं स्वयं उनके साथ भी यही हुआ , दो पीढ़ी और ऊपर। किसी भी परंपरा को यदि आप स्वीकार करते है चाहे वो गुरु-शिष्य की हो या फिर मात्र दादी और नानी से चले आ रहे पारिवारिक संस्कारो की तो इसका अर्थ सिर्फ इतना ही है कि , ' आप अपने दिमाग पे और ह्रदय पे जोर नहीं डालना चाहते , आपको सामने बैठा व्यक्ति जो भी समझा देता है , आप वो ही गीत गाना शुरू कर देते है । '
और कहते है कि हमको श्रध्हा है भक्ति है , खुद से कितना बड़ा छुपाव , खुद को ही छिपा लिया ! और उन भ्रमो को सुरक्षित करने के लिए तर्क द्वारा बुद्दी का खेला यानि कि बुध्ही का स्वांग , उफ़ ! आश्चर्य जनक है माया कि चमक और वास्तु स्तिथि के ना होते हुए भी होने का आभास |
जरा सोचिये वही एक गलती हम कितने पहले से दोहराते चले आ रहे है। जो आज हमारे बंधन भी बन चुके है और हम अपने वास्तविक स्वरुप से बहुत दूर भी जा चुके है। एक कठपुतली का सा धार्मिक जीवन , परंपरागत बहती हुई मान्यताये।
सब कुछ गलत है ऐसा नहीं , पर कही कुछ रोपाई या निराई का विचार है ये भी नहीं। .
एक एक पीढ़ी करके ,बस बहते जा रहे है ...
धर्म का घर जर्जर है तो ठीक,
आस्था की दीवाले पुरानी है तो ठीक ,
मंदिर तक जाने के आत्मा के शहर के रास्ते टूटे है तो ठीक ,
दो चार बार घायल हो के गिर पड़ेंगे गड्ढे है तो ठीक ,
ह्रदय में प्रकाश धीमा है तो ठीक ............
क्यूंकि दादी नानी और माँ के नुस्खे और कहानियाँ , दिल को दिलासा दे रही है कुछ पुतले हमारे हाथ में दे दिए गए है जब भी हमे डर लगे उनसे कह के, हम अपने डर पे काबू पा सकते है ,ऐसे ही कुछ पुतले उनके हाथ में उनके बड़े लोगो ने थमा दिए थे वो ही पुतले आज हमारे हाथो में है और यही पुतले हम अपनी संतानो को दे जायेंगे ।
दिल पे हाथ रख के सोचियेगा , यही कर रहे है न हम सब !!
यही व्यवहार हम में इतना रच बस गया है , कि प्रश्न उठते ही नहीं , बस मान्यता है ऐसा होता है , ऐसा होना चाहिए , यही एक विचार हावी रहता है , आपको आश्चर्य होगा अपने ऊपर ये जान के कि यही विचार आपमें तब भी हावी होता है , जब आप किसी अध्यात्मिक भाव में भर के किसी अध्यात्मिक गुरु की शरण में जाते है। और इसी कारन आप बिना जिगसा के भक्ति भाव या समर्पण भाव में सब समर्पित करते चले जाते है। और एक दिन आपको गलती का अहसास भी होता है तो इतना हल्का कि वो आपको भी पूर्ण जागृत करने में सक्षम नहीं हो पाता।
और धर्म और अध्यात्म के व्यवसाय की गाड़ी छुक छुक चलती ही जाती है …… निरंतर।
आदर एक अलग बात है ... सम्मान भी अलग भाव है , पर एक ऐसी श्रृंखला का हिसा बन जाना जिसमे सिर्फ भ्रम ही भ्रम से सामना हो , और उसी श्रंखला की कडिओं में एक कड़ी अपनी भी विश्वास और धर्म की लगा करके आगे परंपरा के रूप में आगे की पीढ़ी को सौप देना अलग बात है।
गौर कीजियेगा !
* ये ज्ञान नहीं क्यूंकि बिना चिंतन ज्ञान अधूरा है ,
* ये विश्वास भी नहीं क्यूंकि आपका विश्वास इन ५ तत्वो के बने बनाये खेलो पे टिक गया है ! तो कैसे सच कि जमीं पे आपके पैर टिकेंगे ? यदि आप पृकृति के माया तत्व से परिचित है तो ये भी उसी माया के अंदर है ,
* ये भक्ति भी नहीं क्यूंकि सहज ही आप पाएंगे कि आपकी भक्ति भी ऐसे विश्वासो पे गिर पड़ी है जो खुद ही एक दो पीढ़ी से ज्यादा नहीं चल पाते।
* ये अध्यात्म का रास्ता तो बिलकुल नहीं , क्यूंकि ये आपको सारे मायावी रंगो से नहलाता है , और अध्यात्म तो आपको आपके एक एक मायावी रंग से परिचय करवाता है सिर्फ परिचय ही नहीं एक एक रंग उतरता भी जाता है। परमात्मा रुपी धोबी आपके वस्त्र का एक एक रंग निकल के उसको निर्मल और स्वक्छ बनाता है ।
बाकी सब प्रवाह ज्ञान और अनुभव के हस्तांतरण की प्रक्रिया का है , जिसको आप सौंपी गयी सूचनाओं कि धरोहर भी कह सकते है। यानि कि यदि आप इसके बीज _ सत्य को जान जाये तो फिर ये रूढ़िवादिता और तथाकथित परम्पराए जो जड़ हो चुकी है जिनको स्वीकार सिर्फ इसलिए कर रहे है क्यूंकि ये परम्पराए बन चुकी है , ये सब फिर बंधन रह ही नहीं जायेगा। फिर आप स्वतंत्र हो के अपने ज्ञान द्वारा अर्जित , अपने ध्यान द्वारा अर्जित शुध्ह पवित्र मान्यताये निर्मित कर सकते है।
इस पहेली को सुलझा के ही शायद हम शुध्ह मानवीय धर्म स्थापित करने के बारे में सोच पाएंगे |
ऊँ
ऊँ पूर्णमदः पूर्णमिदम् पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।।
OM
poornamadah poornamidampoornaat poornamudachyate।
poornasya poornamaadaayapoornamevaavashishyate ।।
That (God) is infinite; this (world) is whole;from the infinite the world becomes manifest.
From the infinite, even if the whole is taken away,what remains again is the infinite.
ये अनुभव का मोती आपके स्वयं के प्रयासो में छिपा है , किसी परंपरा के पालन से धरोहर रूप से आपको नहीं मिल सकता। इस अनुभव के बाद ही आप सहज महसूस कर सकेंगे , बेड़ियाँ और उसकी कड़ियाँ और ये भी कि आपका वास्तविक लक्ष्य क्या है , कहाँ आपके विश्वास को जमीं मिलेगी , और कहाँ आपकी भक्ति को ठहराव ! क्या आपका शुध्ह धर्म है पहले ये महसूस कीजिये , फिर सुनिये शांत ध्यान के सन्नाटे में कि वो धर्म आपसे क्या कह रहा है , क्यूंकि उस तल पल उन तरंगो का हमसे संपर्क लगातार है जैसे वायु हर जगह है , हमारे ही संपर्क साधन दूषित है वो तरंगे हमारे ह्रदय तक दस्तक दे के वापिस लौट जाती है। जब तरंगो की भाषा आप सुनेंगे , तभी आप इस प्रस्तुति का मर्म समझ सकेंगे।
अंत में ,
" आपो गुरु आपो भव "
ठीक वैसे ही जैसे राजनेता अपनी अपनी पार्टी का पक्ष रखते हुए खुद को भी बचाने का प्रयास करते है , ठीक उसी प्रकार धर्म गुरु भी धर्म, भक्ति और श्रध्हा के खेल को बचाने का भरकस प्रयास करते है। संस्थागत गुरु , अपनी संस्था को बचाने के लिए तर्क देते है। पर अंत में ये सब है तो काजल की कोठरीही। एक निजी आत्मा की यात्रा को धब्बा तो लगेगा ही और श्रम भी व्यर्थ होगा।
परम का निवास आपके ह्रदय में है , सीधा संपर्क कीजिये। मध्यस्थों की क्या जरुरत ? वो परम स्वयं आपको प्रेम से सीखाएंगे जो आप मायावश विस्मृत कर चुके है इस से आप बुध्हिमान भी होंगे , भावयुक्त भी , ज्ञानवान भी होंगे ,संसार मुक्त भी , अपना विचार स्वयं बनाये , अपनी जमीन पर अपना भवन खुद बनाये ।
ऊँ पूर्ण वैदिक भाव , पूर्ण स्वर्णकाल , पूर्ण धर्म , पूर्ण अध्यात्म , पूर्ण ज्ञान सिर्फ आपके हमारे अंदर ही है और समाधान भी आपके हमारे ही अंदर है।
Om pranam
Very nice........... back to roots....... to be child like....... and play with all emotions........and enjoy play beyond time ...A timeless interval.........
ReplyDeletethank you so much for inspiring ..
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