मोटा मोटा सभी जानते है रीढ़ सीढ़ी रखना , श्वांस गहरी और गंभीर लेना , अनेक बिमारियों और मानसिक उत्तेजना को संतुलित करती है । नहीं तो थोड़े से विज्ञान के माध्यम से शरीर दर्शन सूत्र लेके जान सकते हैं। की देह में रीढ़ का महत्त्व क्या है। अलावा की आपके बैठक को सीधा रखती है , रीढ़ की गुरियां बहुत कुछ अनकहा अपने में समेटे हैं।
इसमें रीढ़ के भीतर एक जीवन - प्रवाह है मांस मज्जा से अलग ऊर्जा प्रवाह है। जिसका एक छोर रीढ़ के निचले हिस्से से सांप के फैन की शक्ल का और दूसरा गर्दन के पास पूँछ की तरह हड्डी की शक्ल में सर की हड्डी में जा फंसता है , प्राण ऊर्जा जो वायु का रूप है वो दाएं और बाएं नासिका छिद्रों से अंदर को और बाहर को बहती है, जिसे प्राण वायु का अबाध बहना कहते हैं।
ये प्राण वायु को थोड़ी साधना से नाक के दोनों पोरों में बहती सांस के माध्यम से जाना जा सकता है ये बायीं और की नासिका से आती जाती सांस ठंडी यानि चन्द्रमा और स्त्री ऊर्जा को संकेत करती है जबकि दायीं और की गर्म , सूर्य और कार्मिक उत्तेजना को इशारा करती है , यहाँ संतुलन के लिए निश्चित नाड़ी में निश्चित प्राण प्रवाह देने की विधि जिसे अनुलोम-विलोम विधि कहते हैं।
मध्य में सुषम्ना संतुलन को इशारा करती है , जब मन स्थिर सांस गहरी और मध्य में स्वतः चलने लगे वो संतुलन की और इशारा करती है।
इन साँसों के चलने के तरीके में पंचतत्व का गुणात्मक वास है धरती तत्व की मौजूदगी में सांस शांत और गंभीर। जलतत्व में कम गहरी और अग्नितत्व सक्रीय है तो सांस उत्तेजित हो के चलती है।
कहते है जब आपकी साँसे किसी भी कारन विकार से ... तेज तेज चलती हो तो उन्हें गंभीर बनाना आपके स्वस्थ्य के लिए लाभदायक है।
श्वांस गंभीर होते ही सुष्मन में जीवन प्रवाह होने लगता है। इड़ा और पिंगला मूल या मुक्ति युक्ति से उठ योग युक्तियों को छूती हुई आज्ञा तक जा के नासिका से बाहर निकलती है और पुनः प्राणवायु रस्ते अंदर आती हैं। जबकि सुष्मना का ऊर्जा प्रवाह सहस्त्र को बढ़ चलता है।
ये जो मुक्ति योग है यहाँ से दोनों इड़ा और पिंगला सर्पनी की तरह ऊपर को उठती है और हर चक्र पे युति योग बनाती संतुलन साधती ऊपर को बढ़ती बाहर को और ऐसी ही अंदर को फिर मूल तक जाती है।
और हर चक्र मानव के नाना प्रकार के गुणदोष , ज्ञान , भाव, और भय से जुड़ा है।
योग में निर्देश है इड़ा और पिंगला के अनेक संतुलन हैं और पांच तत्वों की गहराई के साथ मिल कर इनके मध्य में रहते हुए साँसों के माध्यम से ऊर्जा प्रवाह में संतुलन करना श्रेयसकर है। और इस संतुलन के साथ लोक कार्य में संलग्नता सर्वोत्तम है। किन्तु एक बार यदि मध्य में ऊर्जा का प्रवाह संतुलन से होने लगे तो वो स्थति हर साधक के लिए सर्वोत्तम है उस शक्ति को भौतिक कार्यों में खर्च न करें।
और इस संतुलन का पता भी हमारी साँसे ही देती हैं यानी दोनों नासिका पट में साँसों का प्रवाह एक सामन। और एक एक आती जाती सांस गहरी गंभीर।
शुभकामनाये।
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