स्व-केंद्र से जुड़ के बार बार प्रयास पूर्वक जुड़े ही रहना है ,
ये सुनने पे प्रथमदृष्टा बहुत सरल आभासित होता है , किन्तु इसकी दुष्करता एक अभ्यासी ही जान सकता है। मन बार बार हर स्तर पे भटकता है सिर्फ अज्ञानी का ही नहीं ज्ञानी का भी भटकता है , हाँ ज्ञान के प्रभाव से इसका प्रभाव् का आवरण क्षेत्र अज्ञानियों के आवरण क्षेत्र कम घना होता है।
उस पल अंधकार का एक स्तर और बढ़ जाता है की मन को आभास होता है की "मैं" केंद्र से जुड़ा हूँ , अपना मान सम्मान प्रतिष्ठा प्रतिस्पर्धा तर्क वितर्क और कुतर्क तक के स्तर प्रवेश पाते है , निष्कर्ष स्वरुप उसकी आतंरिक उठापटक निरंतर जारी है, विषय बदल सकते है पर युद्ध नहीं , साथ ही जिज्ञासाओं तथा उनके पूर्वनिर्मित या रोज के मेल मिलाप से बने बनाये समाधान भी शामिल है । अभी भी उसका अधिकतम या सूक्ष्तम् कार्य आलोचना समालोचना और घाटे नफे के व्यवहार में लिप्त है भले ये घाटा नफा अब आध्यात्मिक हो चूका हो। सिर्फ मन ने कलेवर बदले है … सावधान ! ज्ञान की राह सही है पर भटकाव भी है जो आगे संकट में डाल सकता है ( यदि सत्य को पाना जारी रहता है ) और यदि भटक गए तो फिसलन भी घनी है ।
चूँकि सत्य अखंड एक ही है अन्य सब सत्य की राह के प्रकाशस्तंभ है , ऐसे सत्य की राह के प्रकाश स्तम्भों के आगे प्राप्ति के अनुभव इस प्रकार है :-
* जब सारे मायाजाल नाम की कुम्भी को काटते हटाते प्रकाश का दीपक लिए घने काले जल के निम्नतम स्तर से आप ऊपर को बढ़ रहे होते है। जहाँ प्रथम बार आपको इस दिव्य प्रकाश के होने का आभास होता है वही किसी अभ्यासी के अभ्यास का पहला शुरूआती कदम भी है , जहाँ से वो अपनी अध्यात्म की यात्रा का आरम्भ करता है और जिसका दैहिक अंत परम के विस्तार में खो जाता है। यही अंतहीन यात्रा का अंत है या यही से नया जीवन भी शुरू होता है , दोनों ही सत्य है ।
पहला सत्य मार्ग प्रकाश स्तम्भ : उस केंद्र से इस केंद्र के जुड़ने का आभास और इसके साथ ही माया देवी नग्न आवरण - कलेवर - श्रिंगार विहीन हो जाती है।
दूसरा सत्य मार्ग प्रकाश स्तम्भ : केंद्र से जुड़ के मन और मस्तिष्क के घोड़े बेलगाम नहीं , आज्ञा के गुलाम है।
तीसरा सत्य मार्ग प्रकाश स्तम्भ : केंद्र से जुड़ के जो दीप प्रज्ज्वलित हो चुके , या जो हो रहे है अथवा होने वाले है दूसरे स्पष्ट अर्थों में जो चल के गुजर चुके या जो चल रहे है अथवा जो चलने वाले है , ये तीनो ही काल ; काल की दृष्टि में विभाजित नहीं है समय की नदी एक है जिसका प्रवाह एक है। जो तिनके समान धारा में बह रहे है वे तो सर्वथा अज्ञानी है ही क्यूंकि बहता तिनका अपने ही अस्तित्व से बेखबर है फिर वो धारा को कैसे जानेगा ! कैसे उद्गम ! और कैसे अंत को जानेगा ! किन्तु एक कदम जो आध्यात्मिक साहस का लेके किनारे पे खड़े हो जाते है उनमे से भी अनेक द्वत्व भाव से बाहर नहीं हो पाये वे ही मिलजुल कर शास्त्र जनित व्याख्या करके इस सत्य को पुनर्स्थापित करते है और इस काल चक्र नाम की नदी की धरा को तीन भागों में बांटते है , १- जहाँ से निकली २- जो सामने है ३- जहाँ आगे जा मिलेगी ! और इस प्रकार तीन काल मनुष्य बुद्धि में आकार लेते है ( ये सही की समय को बाँध के कई व्याख्या सरल लगती है इसी कारन कई विषय अपनी सीढ़ी बना लेते है ) पर इस नदी पे बुद्धि से बांधा गया बाँध मायावी है अपने वास्तविक स्वरुप में काल निरंतर अपनी ही गति से निर्बाध प्रवाहित है। काल की इस नदी को विस्तृत दृष्टि से अनुभव करें यही तीसरा प्रकाशस्तंभ है , इस नदी में न किनारे बंटे है न ही जलधारा न कोई बाँध इसे बाँध सका। स्वभाव से स्वतंत्र है काल की निरंतर प्रवाहित नदी। इस की धारा में न कोई प्रथम न द्वितीय न तृतीय तीनो काल एक है जिनका नाम सिर्फ " काल " है , और इस प्रकाशस्तंभ तक पहुँचने वाले को तीनो काल का प्रवाह एक ही दीखता है ; टुकड़े टुकड़े नहीं। इसके सामने सिर्फ काल उपस्थ्ति है , या ये अपने समूचे अस्तित्व के साथ काल के सामने उपस्थ्ति है , दोनों एक ही बात है । कोई काल न छोटा बड़ा न अच्छा न ख़राब न व्याख्या की अनिवार्यता न बुद्धि का क्षुद्र दुरूपयोग आवश्यक। एक जैसा विस्तार एक जैसा फैलाव जिसमें सब कुछ प्रवाहित है ,युगो युगों में कुछ न रुका न अटका न बदला है , जो बदलने रुकने अटकने का परिचय देते है वे मायावी है।
बहुत स्पष्ट शब्दों में अगर कहूँ तो लौकिक धर्म भी नीति की इसी श्रेणी में आते है, राजनीति तो प्रसिद्द है ही क्यूंकि ये दोनों ही व्यवहार है जो अपनी अपनी नीति बनाते है जो मनुष्यों को सामाजिक और चलने का मार्ग दिखाती है । फिर अन्य विषय है जैसे विज्ञानं जिज्ञासा को पोषित करता है , मनोविज्ञान मन के व्यवहार से जुड़ जाता है और फिर कला है ये भी विषय है पर चेतना के आकर्षण से जुड़ जाती है। भाषा तो भाव को कहने का माध्यम है वस्तुतः विषय है ही नहीं।
इसी मानव व्यवहार में धर्म और धर्म से जुड़े व्यवहार उत्सव देवी देवता स्थापना आदि है जो धार्मिक अनुष्ठानो द्वारा पोषित है जिनका भाव तो पवित्र है की स्वभाव से उच्छृंखल मनुष्य , भय से युक्त कृतज्ञ और आभारी बने। फिर मनुष्य के जीवन से जुड़े नैसर्गिक उत्सव माध्यम है जो अन्न और कला से जुड़े है। वस्तुतः सभी इस धरती से जुड़े सत्य की श्रेणी में है मायावी के व्यवहार से प्रेरित स्वयं में मायावी ही है ।
मध्य का मंथन :-
क्यूंकि अध्यात्म स्व से शुरू होक स्व पे खतम होता है ये कहना बार बार आवश्यक है , मन के भ्रम को दूर करने के लिए और ये एक महत्वपूर्ण पड़ाव है , यहाँ स्व पे विचार अधिक सघन होता है अधिक आंतरिक और अधिक केंद्र से केंद्र का जुड़ाव महसूस होता है
चौथा सत्य मार्ग का प्रकाशस्तंभ : अध्यात्म मार्ग के अभ्यासी ही इस स्तम्भ के प्रकाश को महसूस कर पाते है , अन्य इसकी दूर से ही गुणात्मक व्याख्या अथवा आलोचना करते रह जाते है , तटस्थता इस अवस्था के अभ्यासी का स्वभाव है . भटकाव उलझन और दूसरे की झोंपड़ी की नीव कुरेदना इनका स्वभाव नहीं।
इस स्तम्भ का विशेष भाव :" मैं तटस्थ हूँ , स्व में स्थित हूँ प्रकर्ति द्वारा निरंतर प्रवाहित सन्देश तरंगे मुझमे प्रवेश प् रही है , जन्मदात्री के संदेशो को समझ प् रहां हूँ और परम शक्तिशाली की योजना अनुसार ही कर्म को जी रहा हु " ..
पांचवां सत्य मार्ग का प्रकाशस्तंभ : ' माया द्वारा रचित अब मात्र क्रिया ही नहीं प्रतिक्रिया भी मेरे अधीन है। मूलतः यदि आप इस भाव को समझने की चेष्टा करें तो ये आपके कंठ प्रदेश को प्रभावित करता है जिसके अधीन वाणी है।
छठा सत्य मार्ग का प्रकाशस्तंभ : यही मेरा प्रथम और अंतिम आध्यात्मिक कर्तव्य / दायित्व था और है और रहेगा :" स्व संतुलन " , यही इस देह की आध्यात्मिक यात्रा का प्रारम्भ था और इसी की उपलब्धि इस देह यात्रा का अंत " अंतिम और जुड़ा वृहत सत्य। इसके अतिरिक्त अन्य कोई सत्य नहीं बचा जो इस देह से जुड़ा हो। अन्य प्रकाशस्तंभ भी है जो इस सत्य मार्ग में भौतिक देह से परे है।
सातवां सत्य मार्ग का प्रकाशस्तंभ : नहीं नहीं ; ये प्रकाशस्तंभ मार्ग का नहीं वरन स्वयं में सत्य ही है शिवोहम का भाव सोहम का भाव। यही अंतिम चरण है अध्यात्म का।
आपको ये सम्बन्ध जान के आश्चर्य होगा क्यूंकि मुझे भी हुआ है , इस नोट की शुरुआत मात्र सत्य और उसकी राह को समझने के लिए हुई थी,जिसमे सात प्रकाशस्तंभ नजर आये , और इस नोट के प्रकाशन के ठीक दो घंटे बाद ये प्रकाशस्तंभ सात चक्रो से खुदबखुद जुड़ गए। जिनको बाद में क्रमबद्ध यहाँ शामिल किया है , मुझे तो बहुत आश्चर्य हुआ जो अभी यही नयी माला आप सबसे शेयर कर रही हूँ।गुणात्मकता किस प्रकार अंदर ही अंदर एक सूत्र में पिरोई हुई है। मौलिकता में भेद है ही नहीं। आश्चर्यजनक ईश्वरतत्व सार्वभौमिक दिव्यता ।
एकात्मकता
अब आप इस को क्या कहेंगे !
हैं न !
प्रणाम
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