Wednesday, 21 October 2015

सत्य मार्ग के प्रकाशस्तंभ

स्व-केंद्र  से जुड़ के बार बार प्रयास पूर्वक जुड़े ही रहना है ,


ये सुनने पे  प्रथमदृष्टा बहुत सरल आभासित होता  है , किन्तु इसकी  दुष्करता एक अभ्यासी ही जान सकता है।  मन बार बार  हर स्तर  पे भटकता है  सिर्फ अज्ञानी  का ही नहीं  ज्ञानी का भी  भटकता है , हाँ ज्ञान के प्रभाव से इसका प्रभाव्  का आवरण  क्षेत्र  अज्ञानियों के आवरण  क्षेत्र कम घना होता है।  
उस पल अंधकार का एक स्तर और  बढ़ जाता है की मन को आभास होता है की "मैं" केंद्र से जुड़ा हूँ ,  अपना  मान सम्मान प्रतिष्ठा  प्रतिस्पर्धा तर्क वितर्क और कुतर्क तक  के स्तर प्रवेश पाते है , निष्कर्ष स्वरुप  उसकी आतंरिक  उठापटक निरंतर  जारी है, विषय बदल सकते है  पर युद्ध नहीं , साथ ही  जिज्ञासाओं तथा उनके  पूर्वनिर्मित  या रोज के मेल मिलाप से बने बनाये समाधान भी शामिल है । अभी भी उसका अधिकतम या सूक्ष्तम् कार्य  आलोचना समालोचना और  घाटे नफे के व्यवहार में लिप्त है  भले ये घाटा नफा  अब आध्यात्मिक हो चूका हो। सिर्फ मन ने कलेवर बदले है … सावधान ! ज्ञान की राह सही है  पर भटकाव भी है जो आगे संकट में  डाल सकता है ( यदि सत्य को पाना जारी रहता है ) और यदि भटक गए तो  फिसलन भी  घनी है । 

चूँकि सत्य  अखंड एक ही है अन्य सब सत्य की राह के प्रकाशस्तंभ  है , ऐसे सत्य की राह के प्रकाश स्तम्भों  के आगे प्राप्ति के अनुभव इस प्रकार है :-

* जब सारे मायाजाल नाम की कुम्भी को काटते  हटाते  प्रकाश का दीपक  लिए  घने काले जल के निम्नतम स्तर से  आप ऊपर को बढ़ रहे होते है। जहाँ  प्रथम बार  आपको इस दिव्य प्रकाश के होने का आभास होता है  वही  किसी अभ्यासी के अभ्यास का पहला शुरूआती कदम भी है , जहाँ से वो अपनी अध्यात्म की यात्रा का आरम्भ करता है और जिसका दैहिक अंत परम के विस्तार  में खो जाता है। यही अंतहीन यात्रा का अंत है या   यही से नया जीवन भी शुरू होता है , दोनों ही सत्य है ।  

पहला सत्य मार्ग प्रकाश स्तम्भ : उस केंद्र से इस केंद्र के जुड़ने का आभास और इसके साथ ही माया देवी  नग्न  आवरण - कलेवर - श्रिंगार विहीन  हो जाती है। 

( आप इसको  चक्र से जोड़े तो ये अवस्था "मूल" से सम्बंधित है। जो सांसारिकता को स्पष्ट करती है )

दूसरा सत्य मार्ग प्रकाश स्तम्भ : केंद्र से जुड़ के  मन और मस्तिष्क के घोड़े  बेलगाम नहीं , आज्ञा के गुलाम है।  

( ये अवस्था नीचे से दूसरी  अर्थात "स्वाधिष्ठान"  को इशारा करती है। जो पवित्रतम का उद्भवस्थल भी है जिसमे जनक और जानकी  दोनों संयोग  मिले है  )  

तीसरा सत्य मार्ग प्रकाश स्तम्भ :  केंद्र से जुड़ के जो  दीप प्रज्ज्वलित हो चुके , या जो हो रहे है  अथवा होने वाले है दूसरे स्पष्ट अर्थों में जो चल के  गुजर चुके  या जो चल रहे है  अथवा जो चलने वाले है , ये तीनो ही काल ; काल की दृष्टि में विभाजित नहीं  है समय की नदी एक है जिसका प्रवाह एक है। जो तिनके समान धारा में बह रहे है वे तो सर्वथा अज्ञानी है ही क्यूंकि बहता तिनका  अपने ही अस्तित्व से  बेखबर है  फिर वो धारा को कैसे  जानेगा ! कैसे उद्गम ! और कैसे अंत को जानेगा ! किन्तु एक कदम  जो आध्यात्मिक साहस का लेके   किनारे पे खड़े हो जाते है  उनमे से  भी  अनेक   द्वत्व भाव से बाहर नहीं हो पाये   वे ही मिलजुल कर शास्त्र जनित व्याख्या करके इस सत्य को पुनर्स्थापित करते है और   इस काल चक्र नाम की  नदी की  धरा को  तीन भागों में  बांटते है , १-  जहाँ से निकली  २-  जो सामने है  ३- जहाँ आगे जा मिलेगी !  और इस प्रकार तीन काल मनुष्य बुद्धि में आकार लेते है ( ये सही  की समय को बाँध के  कई व्याख्या सरल लगती है इसी कारन कई विषय अपनी सीढ़ी  बना लेते है ) पर इस नदी पे  बुद्धि से बांधा गया बाँध मायावी है  अपने वास्तविक स्वरुप में  काल निरंतर अपनी ही गति से निर्बाध प्रवाहित है। काल की  इस नदी को  विस्तृत  दृष्टि से अनुभव  करें  यही  तीसरा प्रकाशस्तंभ है , इस नदी में  न किनारे  बंटे  है न ही जलधारा  न कोई बाँध इसे बाँध सका। स्वभाव से स्वतंत्र है काल की निरंतर प्रवाहित  नदी। इस की  धारा  में  न कोई प्रथम  न द्वितीय  न तृतीय तीनो काल  एक है जिनका नाम सिर्फ " काल "  है , और इस प्रकाशस्तंभ तक पहुँचने वाले को तीनो काल का प्रवाह एक ही दीखता है ;  टुकड़े टुकड़े नहीं।  इसके सामने  सिर्फ काल उपस्थ्ति है , या ये अपने समूचे अस्तित्व के साथ काल  के सामने उपस्थ्ति है , दोनों एक ही बात है । कोई काल  न छोटा बड़ा न अच्छा न ख़राब  न व्याख्या की अनिवार्यता  न  बुद्धि का क्षुद्र  दुरूपयोग  आवश्यक।   एक जैसा विस्तार  एक जैसा फैलाव  जिसमें सब कुछ प्रवाहित है  ,युगो युगों में  कुछ न रुका न अटका न  बदला है ,  जो बदलने रुकने अटकने का परिचय देते है  वे मायावी है। 

बहुत स्पष्ट  शब्दों में अगर कहूँ तो  लौकिक धर्म भी नीति की इसी श्रेणी में आते है, राजनीति  तो प्रसिद्द  है ही क्यूंकि ये दोनों ही व्यवहार है जो अपनी अपनी  नीति बनाते  है जो मनुष्यों को  सामाजिक और चलने का मार्ग दिखाती है ।  फिर अन्य विषय है जैसे  विज्ञानं जिज्ञासा को पोषित करता है  ,  मनोविज्ञान  मन के व्यवहार  से जुड़ जाता है और फिर कला है  ये भी विषय  है पर चेतना के आकर्षण से जुड़ जाती  है।  भाषा  तो भाव को  कहने का माध्यम है वस्तुतः विषय  है ही नहीं।  

इसी  मानव व्यवहार में धर्म और धर्म से जुड़े व्यवहार उत्सव देवी देवता स्थापना  आदि है जो धार्मिक अनुष्ठानो द्वारा पोषित है जिनका भाव तो पवित्र है  की स्वभाव से उच्छृंखल मनुष्य , भय से युक्त कृतज्ञ और आभारी बने।   फिर  मनुष्य के जीवन से जुड़े  नैसर्गिक उत्सव माध्यम है जो अन्न और  कला से जुड़े है।  वस्तुतः सभी इस धरती से जुड़े सत्य की श्रेणी  में है मायावी के व्यवहार से प्रेरित स्वयं में मायावी ही  है ।  

( ये अवस्था  मणिपुर पे कार्य को प्रेरित करती है जो भय को काबू में करती है और भाव रूप में  ह्रदय को प्रवाहित होती है )

मध्य का मंथन :-

क्यूंकि अध्यात्म  स्व से शुरू होक स्व पे खतम होता है  ये  कहना  बार बार आवश्यक है , मन के भ्रम को दूर करने के लिए और ये एक महत्वपूर्ण पड़ाव है , यहाँ   स्व पे विचार  अधिक सघन होता है  अधिक आंतरिक  और अधिक  केंद्र से केंद्र का जुड़ाव  महसूस होता है 

 चौथा सत्य मार्ग का प्रकाशस्तंभ : अध्यात्म मार्ग के अभ्यासी  ही इस स्तम्भ के प्रकाश  को महसूस कर पाते है , अन्य  इसकी  दूर  से ही गुणात्मक व्याख्या  अथवा आलोचना  करते रह जाते है , तटस्थता  इस अवस्था के अभ्यासी का स्वभाव है . भटकाव  उलझन  और दूसरे की झोंपड़ी  की नीव कुरेदना इनका स्वभाव नहीं।  
इस स्तम्भ  का विशेष भाव :" मैं तटस्थ  हूँ , स्व में स्थित हूँ प्रकर्ति द्वारा  निरंतर प्रवाहित सन्देश तरंगे मुझमे प्रवेश प् रही है , जन्मदात्री  के संदेशो  को समझ प् रहां हूँ  और परम शक्तिशाली की योजना अनुसार  ही कर्म को जी रहा हु " .. 

( ये  विचार  तटस्थ हुए  भावचक्र पे विजय का साक्षी है )

पांचवां  सत्य मार्ग का प्रकाशस्तंभ : ' माया द्वारा रचित अब मात्र  क्रिया ही नहीं  प्रतिक्रिया भी मेरे अधीन है। मूलतः  यदि आप इस भाव को समझने की चेष्टा करें तो ये  आपके कंठ प्रदेश को प्रभावित  करता है  जिसके अधीन वाणी  है। 

छठा सत्य मार्ग का प्रकाशस्तंभ : यही मेरा प्रथम  और अंतिम आध्यात्मिक कर्तव्य / दायित्व  था  और है और रहेगा :" स्व संतुलन " , यही इस देह की आध्यात्मिक यात्रा का प्रारम्भ था और इसी की उपलब्धि इस देह यात्रा का अंत " अंतिम और  जुड़ा वृहत सत्य।  इसके अतिरिक्त अन्य कोई सत्य नहीं बचा जो इस देह से जुड़ा हो।  अन्य प्रकाशस्तंभ भी है जो इस सत्य मार्ग में भौतिक देह से परे  है।   

( ये प्रकाशस्तम्भ  संकल्प भाव है  और  मस्तक के मध्य भाग से प्रवाहित है , जिसको   भाषा  में समझे तो आग्यां चक्र का स्थान है । )

सातवां सत्य मार्ग का प्रकाशस्तंभ  : नहीं  नहीं ;  ये प्रकाशस्तंभ  मार्ग का नहीं वरन स्वयं में सत्य ही है  शिवोहम  का भाव  सोहम का भाव।  यही अंतिम चरण है अध्यात्म का।   

( ये  योग का अंतिम चरण  सहस्त्रधार है )

आपको ये सम्बन्ध जान के आश्चर्य होगा क्यूंकि मुझे भी हुआ है , इस नोट की शुरुआत  मात्र  सत्य और उसकी राह को समझने के लिए  हुई थी,जिसमे सात  प्रकाशस्तंभ  नजर आये ,  और इस नोट के प्रकाशन के  ठीक दो घंटे  बाद ये प्रकाशस्तंभ  सात चक्रो से खुदबखुद जुड़ गए। जिनको बाद में  क्रमबद्ध  यहाँ शामिल किया है , मुझे तो बहुत आश्चर्य हुआ  जो अभी यही  नयी माला आप सबसे शेयर कर रही हूँ।गुणात्मकता किस प्रकार अंदर ही अंदर एक सूत्र में पिरोई  हुई  है। मौलिकता  में भेद है ही नहीं।  आश्चर्यजनक ईश्वरतत्व सार्वभौमिक दिव्यता ।  

एकात्मकता 

अब आप इस को क्या कहेंगे !  

हैं न ! 

प्रणाम 

Sunday, 4 October 2015

मूल-सहस्त्रधार एक संयुक्त प्रकाशस्तंभ

here is nothing to choose accept self axis and nothing to do more than love

अस्तित्व की अस्तित्वगत स्वीकृति आध्यात्मिकता का प्रथम और अंतिम चरण 

दुनियां में कितना कुछ घट रहा है जो दो अर्थों में  सही  गलत सुख दुखः  लेन देन अर्थात सांसारिक व्यापार  स्वस्थ्य  रोग , और सब कुछ मिश्रित होके  सही और गलत नामके  के तराजू पे ही गिर रहा है  जिसकी डोरियाँ  लकड़ी की छड़ अर्थात आपसे जुडी है  जिसके मध्य पे  तुला नामक  खूंटी  है  , जब भी सही या गलत  किसी भी पलड़े पे गिरता है  मध्य भाग आंदोलित हो उठता है  और शुरू हो जाता है संतुलित  करने। . जो अज्ञानी के अनुसार असंभव ही है।   समुद्र की लहरें दोबारा समुद्र में फेंकने  जैसा कार्य है।  ज्ञान की  छाया में यही कार्य बाह्य आलम्बन  वैसे ही है  कुछ नहीं बदला  किन्तु आंतरिक  सौष्ठव से ये सहज संतुलित हो जाता है , इसमें कोई दुविधा नहीं।  किन्तु भ्रामक ज्ञान अधिक दुखदायी  और  सांसारिक द्वित्वता  से भरा होता है , अब अज्ञानी   अन्धकार से नहीं  बल्कि  अज्ञान के प्रकाश  से जूझ रहा होता है , ये अवस्था  विलक्षण है  जिसमे रहने वाले को ही अपनी वास्तविक स्थति का आभास नहीं होता। अज्ञानी  प्रयास कर सकता है  अन्धकार कम करने का किन्तु अज्ञानी  प्रकाश को  काम करने की सोच भी नहीं सकता  विपरीत  इसके वो सारे  प्रयास करेगा अपने इस लौकिक प्रकाश को बचा सके , जलाये रख सके।  

पहले इन्ही सही और गलत , सुख दुखः , लेन देन अर्थात सांसारिक व्यापार , स्वस्थ्य  रोग पे मन व्याख्या करता था, तुलना करता था , उलझता था , सुखी और दुखी होता था , और सामान्य रूप से व्यथित  भी होता था  ये प्रश्न भी अज्ञानता से भरा आज लगता है  किन्तु उस समय सहज और विद्वता भरा लगता था कि 'आखिर मेरे साथ ही ऐसा क्यों '

किन्तु जब केंद्र से केंद्र जुड़ा तो जाना यही जुड़ाव एक सच है जैसे जन्म के अर्थ ही बदल गए बाकी सब भ्रम है ये विचार कितना स्पष्ट हो गया  । अपार ज्ञान के साथ कुछ बदल देने का भाव ही गलत साबित होता है क्यूंकि कुछ बदलता है ही नहीं , " प्रकृति की स्वीकृति "  जो जैसी  है वैसी है , प्रवृत्तियाँ तो सात रंगो जैसी है ऐसे ही चलेंगी और सभी प्रवृत्तियाँ अपने अस्तित्व के साथ जिन्दा भी रहेंगी जब तक मानव का अस्तित्व है , अपरा ज्ञान खुद से खुद को जोड़ने की अंतिम बात करता है और बस इस जुड़ाव के साथ ही सब मन और मस्तिष्क की दौड़ खत्म। फिर नदी का बहाव है और रास्ता जिसपर जलधार बहती है , ऎसे जल का रास्ता ही खुद मंजिल है । 

इस राह में जो महत्वपूर्ण है  वो  मानसरोवर के हंस  की तरह  मोती-मोती अलग करते जाना और कंकड़-पंक अर्थात  कीचड और रेत  को  छोड़ते  जाना। और स्पष्ट बोलू तो  मस्तिष्क  के अर्जन और विस्तार को क्रमबद्ध समझते हुए  प्रकर्ति के विस्तार को स्वीकार करना। और यहीं सांसारिकता से अलग आपका अपना स्वस्थ ध्यान सहायक होता है , यही  मस्तिष्क  से  तर्क और भाव को अलग करता है , वाणी को  सुदृढ़  और संकल्प को तेजवान। लेकिन ध्यान देने वाली बात है की  संसार से संसार ही मिलेगा , किसी और की उम्मीद भी गलत है , तत्व  से तत्व ही मिलेगा। क्यूंकि  ये सांसारिक  सुनार  की दूकान नहीं  जहाँ  कौड़ी दे के  बहुमूल्य  सोना और हीरा खरीदते है  यहाँ  तो कौड़ी दी तो बेमोल कौड़ी मिलेगी  अनमोल  भाव दिए तो बेशकीमती  भाव मिलेंगे  अत्तव की राह में  अत्तव को साधना है। इस  केंद्र  से  उस केंद्र  को साधेंगे तो "केंद्र" से मिलन होगा ।  गलती  हमारी नहीं हमारी समाज  व्यवस्था  ही ऐसी है  की पैसे से सब कुछ मिलता है , पर  भाव कैसे मिलेगा ?  यही मिथ का टूटना आरम्भ होता है  की माया से माया  और परम से परम  का  मिलान  ही संभव है। 

और इस भाव का साक्षी कभी खुद से कोई गलत भाव में लिप्त नहीं हो सकता। गलत से मेरा तात्पर्य जो मानवीय संवेदना के अनुकूल न हो। गलत से तात्पर्य सामाजिक प्रपंच नहीं जिनका मस्तिष्क जनक है । मूलभूत संवेदना से है जिसका केंद्र मनुष्य का मध्यस्थान है।  

विचारिये ! मनुष्य का मध्यस्थल क्या है ? जो स्वयं में उसका अपना केंद्र भी है।

धार्मिक-साहित्यिक सन्दर्भ में मध्य स्थल आप नाभि का नाम पाएंगे। पर आध्यात्मिक स्तर पे तात्विक शरीर मात्र सात चक्रो के मध्य ही है , जिसमे हाथ और पैर मात्र शरीर को लम्बाई देने का कार्य करते है। हलांकि सात शरीरों की भी अनुभूति की गयी है उनके आधार अलग है उनके सन्दर्भ अलग है पर ये सभी शरीर इन सातों चक्रों में ही समग्रता के साथ अनुशासित रूप से वास करते है । इन सभी को जानते हुए अनुभव करते हुए अंत में उर्जापुंज के रूप में अंतिम सूक्ष्तम् शरीर को जाना गया।

इन सात चक्रो का मध्य हृदयस्थान ही है। जिसपे सर्वाधिक भावनाओं का प्रभाव देखा गया है। और नाभि भय का स्थल है। जहाँ सर्वाधिक प्रभाव अपने भय का पड़ता है। वाणी जो भय और भाव से जुडी है संकल्प की ओर बढ़ती है और संकल्प पवित्रता की ओर। 





यही मूल-सहस्त्रधार-प्रकाशस्तंभ सही राह का प्रतीक और ज्ञानी की अपरा स्वतंत्रता स्थिती का उद्घोषक भी है।

Saturday, 3 October 2015

मानवीय कारागृह से मुक्त

तुम कान्हा , तुम राधा 

मीरा सूर कबीरा तुम्हीं 

अल्लाह की अजान तुम

परमात्मा के पुत्र तुम्हीं 

मंदिरों  की पुकार तुम्हीं

बुद्ध  नानक समेटे तुम

      समाये तुममे सारे जादू ......

ये कान्हा का निर्णय था की उन्हें कारागृह में जन्म लेना है , कारागृह से कब मुक्त होना है ये भी उनका ही निर्णय था। बड़ा प्रतीक है , बड़ी गहराई है , कुछ ऐसा कहने की कोशिश है विद्वानो की जो हमसबको अज्ञानता के अन्धकार से मुक्त कर सके। हमारी दृष्टि और विचार साफ़ हो , ताकि हम परम आत्मा से सहज हो मिल सके। 

आप किसी भी धर्म सम्प्रदाय से जुड़े हो या जन्मे हो फर्क नहीं पड़ता , सब उथले और हलके हो जायेंगे , बस एक बार अपने दिमाग को कारागृह से मुक्त करा ले । दिमाग के मुक्त होते ही सारी बेड़ियां अपने आप खुल जाएँगी , कारागृह के सभी द्वार स्वयं खुल जायेंगे , भीषण उफान से बहती नदी आपको स्वयं रास्ता दे देगी। और इस मुक्त ह्रदय और मस्तिष्क से आप जहाँ भी जायेंगे फिर कोई मंदिर मस्जिद चर्च का कारागृह आपको बंदी नहीं बना सकेगा। मानवीय कारागृह से आप स्वतंत्र है आप मुक्त है अभी और यहीं।

यदि समझ का सरोकार प्रेम से , सम्बन्धो से , रिश्तो नातों से अथवा सन्यास साध के सिर्फ घर से दूर जाने के लिए हो तो भ्रम है.....समझ का सम्बन्ध सामाजिक बगावत से नहीं... धार्मिक और राजनैतिक युद्ध से भी नहीं , दंगा फसाद तो बिलकुल नहीं ...... ज्ञान से है बुद्धि से है , इतना जान लेना की सामने खड्डा है काफी है की आप अब उसमे नहीं गिरेंगे। समझ का ये अर्थ नहीं की की आप चोर को पहचान के उसके पीछे हाथ धो के पड़ जाएँ। समझ का अर्थ ये भी है की अब ऊर्जा का समुचित सदुपोग ज्ञान की छाया में करेंगे अज्ञान के प्रकाश में नहीं। अब चोर और देव स्पष्ट हो गए है , अब आप छले नहीं जा सकेंगे। विद्वता का अर्थ ये भी है की अब आप अपने केंद्र से उस केंद्र से सीधा जुड़े है अब आपको मध्यस्थ की आवश्यकता नहीं। मंदिर के घंटे मस्जिद की अजान और चर्च की बेल ह्रदय में है वहीँ से आप अपनी समस्त आराधना को अंजाम दे देते है , अब आप मानवीय कारागृह से मुक्त है । 

ओम प्रणाम