जहां आकृति है,
जहां रूप है,
वहां माया है।
उनके भी पार जो अरूप है,
वह ब्रह्म है;
वह सिर्फ विस्तार का नाम है
अनंत विस्तार का…
!! ओशो उपनिषद !!
यहां रोज कोई मरता है। हमारे यहां रोज़ फूल वृक्ष से गिरता है, कि फल वृक्ष से गिरता है, यहां हम भी ज्यादा देर नहीं हो सकते। लाख अपने मन को समझाएं, लाख अपने मन को बुझाएं, कैसे तुम धोखा दोगे ? इतने प्रमाणों के विपरीत तुम कैसे अपने को धोखा दोगे ? सारे मरघट, सारे कब्रिस्तान प्रमाण हैं इस बात के कि यह जगह घर नहीं है। जैसे ही यह जीवन की व्यर्थता के दर्शन स्पष्ट हो जाता है। तब आदमी सुख की तलाश करता है, लेकिन सुख शाश्वत में ही हो सकता है। इस सूत्र पर ध्यान करना। सुख शाश्वत का लक्षण है। क्षणभंगुर में सुख नहीं हो सकता। यह जो पानी के बबूले जैसा जीवन है, इसमें तुम कितने ही भ्रम पैदा करो और कितने ही सपने देखो, सुख नहीं हो सकता।
!! ओशो !!
यही हादसा अन्य प्रचलित धर्मों के साथ भी हुआ , अर्थ होते चले गए , वाणी की व्याख्या अनवरत होती गयी नए नए धार्मिकों की खुंटिया (सम्प्रदाय ) भी बनती गयी और सत्य कोहरे में छिपता गया , क्यों ? क्यूंकि सत्य तक पहुँचने का वो रास्ता था ही नहीं , सत्य की सीढ़ी तो सीधा अंदर को उतरती है , और मौन को साधते हुए चक्रों से गुजरती सीधा केंद्र को छूते ही , परम से मिल जीवंत हो जाती है। जिसको सूफी ने और संतों ने जाना भक्त ( भक्त से अर्थ पत्थर के भगवन पूजने से नहीं वरन जिसकी लौ जग के परम को बढ़ती है ऐसे भक्त ) गीत द्वारा गाते है। ये भाव ही अनूठा है जीकर ही अनुभव किया जा सकता है।
सत्य बहुत सरल है सहज है किन्तु कलेवर अत्यंत उलझे हुए.....सत्य को जानिए , समझिए , जो संसार के तल पे सिर्फ प्रतीकात्मक है , और अध्यात्म के तल पे वो अकेला परम केंद्र है जो सभी केन्द्रों से बद्धः है ।
तात्विक-व्यक्ति को आधार बना शुद्ध सत्य पे अपनी शुद्ध आस्था का समर्पण करें। यही ज्ञान का आधार है और कहने वाले का प्रयोजन भी यही है , शुद्ध का मेल शुद्ध से ही उचित है। कुछ समय बाद सत्य को फिर नए वस्त्र की आवश्यकता पड़ेगी , क्यूकि अभिव्यक्ति तो भाषा से ही संभव है , और वो भी बोलचाल की जनसामान्य की। जैसे ही बोलचाल का माध्यम बदलता है सत्य अपने वस्त्र बदलता है। स्वागत कीजिये इस बदलते कलेवर का आभूषण का। पर सत्य तो सत्य ही है। वो चाहता है आप उसे शुद्ध उसी के रूप ने उसे स्वीकार करें। भाषा के पीछे बैठे सत्य को जाने। अपनी श्रद्धा अपना समर्पण उस सत्य के लिए रख्हें। वस्त्र पे अपनी आस्था और विश्वास को मत गिरने दें। बौद्धिक रूप से तैयार रहिये एक बार फिर स्वागत कीजिये उसी सत्य का उसी अभिव्यक्ति का फिर बदले हुए वस्त्रो और आभूषण के साथ, बस इसी तरह पुराने में से इत्र निकालते हुए नित नए सुगन्धित और सुगठित आकृति में ढलता जाता है , यूँ ही वख्त कथा कहानियों और परम्पराओं को समेटे बहता जाता है ; वृहत-कालचक्र के मध्य स्थल में बहती हुई नदी के साथ । काल चक्र की इस धारा में सब कुछ परिवर्तित हो रहा है सब कुछ तात्विक रूप से बदल के नवीन हो रहा है। और जो नहीं बदल रहा वो सत्य है जो अकेला है अपरिवर्तनशील है। जिसको समय ने गीता में कृष्ण से कहलवाया , उसी सत्य को युग युग से चेतनाएं अलग अलग नाम से कहती आई है। कृपया संज्ञा में उलझ इस जन्म की समय और ऊर्जा व्यर्थ न करें।
वातायन खुले रखें , करें स्वागत सुवासित बयार का
स्वागत करें इस बदलते कलेवर , इन आभूषणो का !
अनेक टिमटिम जलतेबुझते आस्था के ये रंगीन सच
सत्य एक 'सत्य' है, निगाहों में से ओझल न होने दें !!
स्वागत करें इस बदलते कलेवर , इन आभूषणो का !
अनेक टिमटिम जलतेबुझते आस्था के ये रंगीन सच
सत्य एक 'सत्य' है, निगाहों में से ओझल न होने दें !!
शुभकामनायें
ओम प्रणाम
सभी पाठकों का हार्दिक आभार शुक्रिया , प्रणाम _()_
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