Friday, 25 September 2015

स्वागतम शुभ स्वागतम्


जहां आकृति है, 
जहां रूप है, 
वहां माया है।

उनके भी पार जो अरूप है, 
वह ब्रह्म है; 
वह सिर्फ विस्तार का नाम है
अनंत विस्तार का… 
!! ओशो उपनिषद !!

यहां रोज कोई मरता है। हमारे यहां रोज़ फूल वृक्ष से गिरता है, कि फल वृक्ष से गिरता है, यहां हम भी ज्यादा देर नहीं हो सकते। लाख अपने मन को समझाएं,  लाख अपने मन को बुझाएं, कैसे तुम धोखा दोगे ? इतने प्रमाणों के विपरीत तुम कैसे अपने को धोखा दोगे ?  सारे मरघट, सारे कब्रिस्तान प्रमाण हैं इस बात के कि यह जगह घर नहीं है। जैसे ही यह जीवन की व्यर्थता के दर्शन स्पष्ट हो जाता है। तब आदमी सुख की तलाश करता है, लेकिन सुख शाश्वत में ही हो सकता है। इस सूत्र पर ध्यान करना। सुख शाश्वत का लक्षण है। क्षणभंगुर में सुख नहीं हो सकता। यह जो पानी के बबूले जैसा जीवन है, इसमें तुम कितने ही भ्रम पैदा करो और कितने ही सपने देखो, सुख नहीं हो सकता।

!! ओशो !!

विद्वान का प्रयोजन इशारे तक है , इस अनुपम कार्य के लिए उसका आभार , व्यक्ति विशेष पे  अपनी आस्था का भावनात्मक बोझ परम आस्थावान हो के  न   डाले  कृपया  , उधार की खूँटी पे न लटके।    विद्वता  के साथ मात्र सत्य को संभालें।    समय की  बनी बनायीं  नदी पे बहते हुए धर्म और दर्शन के  भाषा  बहाव को  ध्यान में रख्हें।   जिस समय  काल में समाज में  संस्कृत ( पाली + प्राकृत की जननी ) अर्थात देववाणी  का चलन था।   विद्वानों द्वारा शास्त्र  की रचना  उसी भाषा में हुई , समस्त व्यव्हार  शास्त्रार्थ  कविता  ग्रन्थ  उसी भाषा में बने। और यही जीवजगत की  प्रकट संवेदनाओ का सच भी है   विचारों को वाणी  और वाणी को  भाषा  चाहिए ही चाहिए।  समय बीता  भाषा  ने अपना रुख बदला , वस्त्र बदले ,  फैशन बदला बोलचाल की भाषा  पाली  और प्राकृत  हुए   और  सिद्धार्थ ने  सर्वप्रथम  सत्य का साक्षात्कार  कर  ज्ञान फ़ैलाने  की उस आवश्यकता की गंभीरता  को जान  दर्शन को नए वस्त्र दिए  प्राकृत भाषा  में। अरसे  के बहाव के बाद  फिर  समय ने करवट लीऔर समय  ने फिर भाषा  व्यवहार में बदलाव किये।  अब  भाषा  देववाणी से देवनागरी में बदल गयी , जिसको आज कल की  खड़ी  बोली भी कहा जाता है ।   सत्य को जनसामान्य तक फिर से   पहुँचाना  था।  हमेशा की तरह एक  बार फिर उसी सत्य को नए  कलेवर  और आभूषण पहनाये गए , ध्यान दीजियेगा !! सत्य ने सिर्फ अपने वस्त्र और आभूषण बदले  । सत्य अटल  एक ही है , फिर  किसी देश काल  स्थान  भाषा और समय में  किसी के भी द्वारा कहा जाए , लिखा जाये  अथवा गीत बना के  गाया जाये । फिर  वो कृष्ण कहे या राम  , नानक कहें बुद्ध कहे,मीरा के भजन बन जाए या सूफी की नज्म  या कोई सद्गुरु उसे अपनी भाषा में कहे , उसी सत्य को वाल्मीकि ने अपनी तुलसी ने अपनी प्रचलित भाषा में कहा ,पर अपनी कथा में राम को किरदार दे दिया , कृष्ण ने स्वयं ही ज्ञान दिया गीता के रूप में अष्टावक्र ने स्वयं वो ज्ञान दिया,राम ने ऐसा कोई ज्ञान ग्रन्थ में नहीं दिया तो तुलसी और वाल्मीकि ने वो कमी अपने ग्रन्थ से पूरी कर दी ..... हाँ , तुलसी .... भक्ति की अजीबो गरीब धारा के जनक बन गए जिसमे  भक्त  बिना सोचे विचार के अपना सर्वस्व अपने प्रिय को  समर्पित करता है , जिस में  चरित्र-भक्ति धारा में सभी आज तक उलझे है और इन चरित्रों  की पूजा और भक्ति में  आकंठ  डूबे है  ;  वो भी अपनी अपनी अधूरी इक्छाओं के साथ , तुलसी जी  की तपस्या से उत्पन्न  गहरे अनुभव निश्चित ही सही है , संशय नहीं , पर लिखने  और विचार अभिव्यक्ति से भी पहले  विचार उपजने  का बिंदु है  और बिंदु से अभिव्यक्ति के बीच का  अंतराल महत्वपूर्ण है  , इस विचार उत्पत्ति  और कागज पे शब्द  के उभार  के बीच , लेखक के अथक प्रयास के बाद भी कुछ मौन बन के  भाव तरंग  छूट जाती  है  जिसको वो स्वयं  भी कहने में सक्षम नहीं ,   जिसमे चरित्र  अपना अपना अभिनय करते है और  समाज की विधान देते है , पर इन सबके पीछे तुलसी का अपनी तपस्या का ज्ञान छुप गया अनलिखा रह गया जिसको सिर्फ अनुभव किया जा सकता है  जो  रूढ़िवादियों तक नहीं संवेदनशील तक पहुँचता है , जिसका मर्म  ही है   " शुद्ध को शुद्ध ही चाहिए , इस भाव को मिलावट  मंजूर नहीं "  ये भी कहने की कोशिश की  .... पर .... ,  पात्रों/चरित्रों के माध्यम से भक्ति का महत्त्व भी  बताये, ...... पर ...... , हर तरीका  हर चरित्र   विधान और पूजा / अनुष्ठानों  के नीचे दब गया, रूढ़िवादी कट्टरपंथी रीतिरिवाजों में बंधे स्वविचार से विपरीत  इंसानो का खून करने में भी नहीं चूकते । कट्टरपंथी तो हर धर्म में पैदा हुए है  ।  जो अपने ढंग से ही धर्म को मानते और मनवाते है । पर सत्य इन सब स्वांग से विपरीत है , उसे इन सब व्यवहार से कोई लेनदेन ही नहीं । 

यही हादसा  अन्य प्रचलित धर्मों के साथ भी हुआ , अर्थ  होते चले गए , वाणी  की व्याख्या अनवरत  होती गयी नए नए  धार्मिकों  की  खुंटिया  (सम्प्रदाय ) भी बनती गयी और सत्य  कोहरे में  छिपता गया , क्यों ?  क्यूंकि सत्य तक पहुँचने  का वो रास्ता था ही नहीं , सत्य की सीढ़ी  तो सीधा  अंदर को उतरती है , और मौन को साधते  हुए चक्रों से गुजरती सीधा  केंद्र को छूते  ही , परम से मिल जीवंत हो जाती है।   जिसको  सूफी ने और संतों  ने जाना   भक्त  ( भक्त से  अर्थ  पत्थर के भगवन पूजने से नहीं  वरन  जिसकी लौ   जग के  परम को बढ़ती है  ऐसे  भक्त ) गीत द्वारा गाते है।   ये भाव ही अनूठा है   जीकर ही  अनुभव किया जा सकता है।  

सत्य बहुत सरल है सहज है किन्तु कलेवर अत्यंत उलझे हुए.....सत्य को जानिए , समझिए , जो संसार के तल पे सिर्फ प्रतीकात्मक है , और अध्यात्म के तल पे वो अकेला परम केंद्र है जो सभी केन्द्रों से बद्धः है । 

तात्विक-व्यक्ति को आधार बना शुद्ध सत्य पे अपनी शुद्ध आस्था का समर्पण करें। यही ज्ञान का आधार है और कहने वाले  का प्रयोजन भी यही है  ,  शुद्ध  का मेल शुद्ध से ही  उचित है।  कुछ समय बाद सत्य को फिर नए वस्त्र की आवश्यकता  पड़ेगी , क्यूकि   अभिव्यक्ति तो भाषा से ही संभव है , और वो भी बोलचाल की  जनसामान्य की।  जैसे ही बोलचाल का माध्यम बदलता है  सत्य अपने वस्त्र बदलता है।  स्वागत कीजिये  इस बदलते कलेवर का  आभूषण का।  पर सत्य  तो सत्य ही है।  वो चाहता है आप उसे शुद्ध उसी के रूप ने उसे स्वीकार करें।   भाषा के पीछे  बैठे सत्य को जाने।   अपनी श्रद्धा  अपना समर्पण  उस सत्य के लिए रख्हें।  वस्त्र पे अपनी आस्था और विश्वास को मत गिरने दें। बौद्धिक  रूप से तैयार  रहिये  एक बार फिर  स्वागत  कीजिये  उसी सत्य का  उसी अभिव्यक्ति का फिर बदले हुए वस्त्रो  और आभूषण  के साथ, बस इसी तरह  पुराने में से  इत्र  निकालते  हुए  नित नए  सुगन्धित और सुगठित  आकृति  में ढलता जाता है , यूँ  ही वख्त कथा कहानियों और परम्पराओं को समेटे  बहता जाता है ; वृहत-कालचक्र  के मध्य स्थल में  बहती हुई नदी के साथ । काल चक्र की  इस धारा  में सब कुछ परिवर्तित हो रहा  है सब कुछ तात्विक रूप से  बदल के नवीन हो रहा है।  और जो नहीं   बदल रहा वो सत्य   है  जो अकेला है  अपरिवर्तनशील है।  जिसको  समय ने गीता में कृष्ण से कहलवाया , उसी सत्य को  युग युग से  चेतनाएं अलग अलग नाम  से कहती आई है।  कृपया संज्ञा में उलझ इस जन्म की समय और ऊर्जा व्यर्थ न करें।  


वातायन  खुले रखें , करें स्वागत सुवासित बयार का
स्वागत करें इस बदलते कलेवर , इन आभूषणो का !
अनेक टिमटिम जलतेबुझते आस्था के ये रंगीन सच 
सत्य एक 'सत्य' है, निगाहों में से ओझल न होने दें !!

शुभकामनायें 

ओम प्रणाम

1 comment:

  1. सभी पाठकों का हार्दिक आभार शुक्रिया , प्रणाम _()_

    ReplyDelete