Recommended to read wisely not biased for who says for what ? , biased in two ways either swung away or stay in believe without think / churn self . when wise say anything it comes under certain experiences . just read as experience of wise , though world is full of combinations , so no one is absolute .. only Indications ... as deeper as clear according to austerity , before believing on any concept make it own experience gradually :-
शिष्यों की चार कोटियां है। पहली कोटि—विद्यार्थी की है, जो कुतूहल वश आ जाता है। जिसके आने में न तो साधना की कोई दृष्टि है न कोई मुमुक्षा है, न परमात्मा को पाने की कोई प्यास है। चलें देखें, इतने लोग जाते है, शायद कुछ हो। तुम भी रास्ते पर भीड़ खड़ी देखो तो रूक जाते हो, पूछने लगते हो क्या मामला है? भीतर प्रवेश करना चाहते हो, भीड़ में। देखना चाहते हो कुछ हुआ होगा…..। नहीं कि तुम्हें कोई प्रयोजन है, अपने काम से जाते थे। आकस्मिक कुछ लोग आ जाते है। कोई आ रहा है। तुमने उसे आते देखा;उसने कहा: क्या करते हो बैठे-बैठ, आओ मेरे साथ चलो, सत्संग में ही बैठेंगे। खाली थे कुछ काम भी न था, चले आये। पत्नी आयी, पति साथ चला आया; पति आया, पत्नी साथ चली आई। बाप आया बेटा साथ चला आया।
ऐसे बहुत से लोग आकस्मिक रूप से आ जाते है। उनकी स्थिति विद्यार्थी की है। वे कुछ सूचनाएं इकट्ठी कर लेंगे, सुनेंगे तो कुछ सूचनाएं इकट्ठी हो जायेगी। उनका ज्ञान थोड़ा बढ़ जायेगा। उनकी स्मृति थोड़ी सधन होगी। ऐसे आने वालों में से, सौ में से दस ही रूकेंगे; नब्बे तो छिटक जायेंगे। दस रूक जाते है यह भी चमत्कार है। क्योंकि वे आये न थे किसी सजग-सचेत प्रेरण के कारण—ऐसे ही मूर्छित -मूर्छित किसी के धक्के में चलें आये थे पानी में बहती हुई लकड़ी की तरह किनारे लग गये थे। किनारे की कोई तलाश नहीं थी। कितनी देर लगा रहेगा लकड़ी का टुकड़ा किनारे से? हवा की कोई लहर आयेगी, फिर वह जायेगा; उसका रूकना बराबर है। लेकिन ऐसे लोगों में से भी दस प्रतिशत लोग रूक जाते है। जो दस प्रतिशत रूक जाते है वे ही दूसरी सीढ़ी में प्रवेश करते है।
दूसरी सीढ़ी साधक की है। पहली सीढ़ी में सिर्फ बौद्धिक कुतूहल होता है—एक तरह की खुजलाहट,जैसे खाज खुजाने में अच्छा लगता है। हालांकि लाभ नहीं होता, नुकसान होता है—ऐसे ही बौद्धिक-खुजलाहट से भी लाभ नहीं होता है। नुकसान होता है पर अच्छा लगता है। मीठा लगता है। यह पूँछें, वह पूँछें, यह भी जाने लें; अहंकार की तृप्ति होती है कि मैं कोई अज्ञानी नहीं हूं, बिना ज्ञान के ज्ञानी होने की भ्रांति पैदा हो जाती है। इसमें से दस प्रतिशत लोग रूक जायेंगे। ये दस प्रतिशत साधक हो जायेंगे।
साधक का अर्थ है: जो अब सिर्फ सुनना नहीं चाहता,समझना नहीं चाहता, बल्कि प्रयोग भी करना चाहता हे। प्रयोग साधक का आधार है। अब वह कुछ करके देखना चाहते है। अब उसकी उत्सुकता एक नया रूप लेती है। कृत्य बनती है। अब वह ध्यान के संबंध में बात ही नहीं करता, ध्यान करना शुरू करता है। क्योंकि बात से क्या होगा, बात में से तो बात निकलती रहती है बात तो बात ही है, पानी का बबूला है, कोरी गर्म हवा है—कुछ करें जीवन रूपांतरित हो कुछ,कुछ अनुभव में आये।
यह जो दूसरा वर्ग है। इसमें जितने लो रह जायेंगे, इसमें से पचास प्रतिशत रूकेंगे पचास प्रतिशत खो जायेंगे। क्योंकि करना कोई आसान बात नहीं है। सुनना तो बहुत आसान है। तुम्हें कुछ करना नहीं है। मैं बोला,तुमने सुना,बात खत्म हुई। करने में तुम्हें कुछ करना होगा, सफलता सुनिश्चित नहीं है, जब तक कि त्वरा न हो तीव्रता न हो दांव पर लगाने की हिम्मत न हो साहस न हो—सफलता आसान नहीं है। कुनकुने -कुनकुने करने से तो सफलता नहीं मिलेगी, सौ डिग्री पर उबलना होगा। उतना साहस कम ही लोग जुटा पाते है जो नहीं जुटा उतना साहस, वे सोचने लगते है कि कुछ है नहीं, करने में भी कुछ रखा नहीं है। यह अपने मन को समझाना है कि करने में कुछ रखा नहीं है। किया है ही नहीं, करने में ठीक से उतरे ही नहीं, उतरे भी तो किनारे-किनारे रहे, कभी गहरे गये नहीं, जहां डुबकी लगती। भोजन पकाया ही नहीं, ऐसे ही चूल्हा जलाते रहे, वह भी इतने आलस्य से जलाया कि कभी जला नहीं। धुआं इत्यादि तो उठा,लेकिन आग कभी बनी नहीं। तो धुएँ में कोई कितनी देर रहेगा। जल्दी ही आँख आंसुओं से भर जाएगी। मन कहेगा चलो भी यहां क्या रखा है। धुआं ही धुआं है।
जहां धुआं है वहां आग हो सकती थी, क्योंकि धुआं जहां है वहां आग होगी ही। लेकिन थोड़ा और गहन प्रयास होना चाहिए था। थोड़ा और तपश्चर्या होनी थी। थोड़ा और श्रम, थोड़ा और प्रयास। जो नहीं इतना प्रयास कर पाते, पचास प्रतिशत लोग विदा हो जायेंगे; जो पचास प्रतिशत रह जायेंगे, वे तीसरी सीढ़ी में प्रवेश करते है।
तीसरी सीढ़ी शिष्य की सीढी है। शिष्य का अर्थ होता है: अब अनुभव में रस आया, अब सद्गुरू की पहचान हुई। अनुभव से ही होती है, सुनने से नहीं होगी। सुनने से तो इतना ही पता चलेगा—कौन जाने,बात तो ठीक लगती है, लेकिन इस व्यक्ति का अपना अनुभव हो कि न हो, कि केवल शास्त्रों की पुन रूक्ति हो, कौन जाने सद्गुरू है भी या नहीं, या केवल पांडित्य है। यह तो तुम्हें स्वाद लगेगा तभी स्पष्ट होगा कि जिसके पास तुम आये हो वह पंडित नहीं हे, या कि पंडित ही है? स्वाद में निर्णय हो जायेगा, तुम्हारा स्वाद ही तुम्हें कह देगा। अगर सद्गुरू है तो तीसरी घड़ी आ गयी, तीसरी सीढ़ी आ गयी; तुम शिष्य बनोंगे।
शिष्य का अर्थ है: समर्पित। अब शंकाएं न रहीं। अब पुराना ऊहापोह न रहा। अब भटकाव न रहा। अब एक टिकाव आया जीवन में अब नाव पर सवार हुए।
जो लोग शिष्य हो जाते है। इनमें से नब्बे प्रतिशत रूक जायेंगे, दस प्रतिशत इनमें से भी छिटक जायेंगे। क्योंकि जैसे-जैसे गहराई बढ़ती है साधना की वैसे-वैसे कठिनाई भी बढ़ती है। शिष्य को अग्नि-परीक्षाए देनी होंगी। जो कि साधक से नहीं मांगी जाती। और विद्यार्थी से तो मांगने का सवाल ही नहीं है। अग्नि परीक्षा तो सिर्फ शिष्य की होती है। जो इतने दूर चला आया है, उसी पर गुरु अब कठोर होता है। कठोर होना पड़ेगा। चोट गहरी करना होगी, अगर किसी पत्थर की मूर्ति बनानी हो तो छैनी उठाकर पत्थर को तोड़ना ही होगा। बहुत पीडा होगी, क्योंकि तुम्हारे ऊपर जो आवरण जो धुल मिट्टी जमी है, सदियों पुरानी, तुम्हारे ऊपर जो अज्ञान की पर्तें है, वे कपड़ों जैसी नहीं है निकालकर फेंक दीं और नग्न हो गये,वे चमड़ी जैसी हो गयी हैं। उन्हें उधेड़ना है, सर्जरी है।
तो दस प्रतिशत लोग तीसरी सीढ़ी से भी भाग जायेंगे। जो नब्बे प्रतिशत तीसरी सीढ़ी पर टिक जायेंगे, जो अग्नि परीक्षा से गुजरेंगे, वे चौथी सीढ़ी पर प्रवेश करते है। जो कि अंतिम सीढ़ी है। वे भक्त की है। शिष्य और गुरु में थोड़ा सा भेद रहता है। समर्पण तो होता है शिष्य की तरफ से, लेकिन समर्पण शिष्य की ही तरफ से होता है। अभी समर्पण में थोड़ा-सा अहंकार जीवित होता हे। कि मैंने समर्पण किया, मेरा समर्पण। चौथी सीढ़ी पर मैं भाव बिलकुल शून्य हो जाता है। अब भक्ति जगी,अब प्रेम जगा। अब गुरु और शिष्य अलग-अलग नहीं है। इस सीढ़ी से फिर कोई भी जा नहीं सकता। जो यहां तक पहुंच गया, उसका वापिस लौटना नहीं होता।
इसलिए बहुत आयेंगे, बहुत जायेंगे। जितने लोग आयेंगे उतनी ही अधिक संख्या में जाएंगे। इस समय मेरे कोई पचहत्तर हजार(1978) संन्यासी है, सारी पुरी दुनियां में। अब इनमें से दस-पाँच छिटकेंगे, भागेगे तो कुछ आश्चर्य की तो बात नहीं है। कोई चिंता की बात भी नहीं है। ये पचहत्तर हजार कल पचहत्तर लाख हो जायेंगे तो और भी ज्यादा हटेंगे और भी ज्यादा छिटकेंगे। यह काम जितना बड़ा होगा,उतने ही बड़े काम के साथ उतने ही लोग छिटकेंगे। स्वाभाविक है यह अनुपात रहेगा।
विद्यार्थियों में से नब्बे प्रतिशत भाग जायेंगे। साधकों में से पचास प्रतिशत भाग जायेंगे। शिष्यों में से दस प्रतिशत भाग जायेंगे। सिर्फ भक्तों में से जाना नहीं होता। Osho
I read to wise-man cos of his experience are noble , but i also find my journey is mine absolutely and many thing i find as light on my walk path , they give mt sign that i am going in right direction ...... In gist : whatever Guru try to say is to satisfied to mind hunger of sitter in front of him / her .....actually in front of knower bigger scene is as clear as many ants you can see slither on ground all together , i know only one thing differences / discrimination are for mind and on very superficial stage , later all becomes part of journey ... not to think , how far i have to travel ! its not my choice ! and fruits are according to my appointments prior . In walks ; my surrender , my acceptance , my gratitude , with awareness and with all alert mode is only till than awakening happens . after that only Floating and laughing on biggest nature joke .
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