एक योग और एक धर्म इसके अंदर बहुत सारी क्रियाओं का महत्त्व है उनके निमित्त भावों का प्रभाव है और इस तरह एक बड़े स्तर पे गुणों की गुणवत्ता घटती और बढ़ती जाती है।
चूँकि आप स्वयं प्राकर्तिक कल-कारखाने की उत्पत्ति हैं और खपत की गुणवत्ता के स्वयं शिकार हैं,फ़िलहाल स्वयं को समझना मनुष्य के लिए कठिनतम स्थिति है, इसलिए अपने को समझने की आसानी के लिए किसी कल कारखाने और उत्पाद के खपत चक्र से समझ सकते हैं।
सोचिये ! किसी कारखाने में यदि अपने माल की गुणवत्ता बढ़ानी हो तो मैनेजमेंट से लेकर मजदूर तक को किस जडस्तर पे जा के माल का करेक्शन करना पड़ता है। हैं न !
बिलकुल ठीक यहाँ भी है ! सामान्यतः मनुष्य के चरित की गुणवत्ता में ह्रास है , देव के साथ दानवीय वृत्तियाँ शामिल ही नहीं वरन हावी भी हैं। और इसमें आपका अपना रोल कितना बड़ा है आप अंदाजा नहीं लगा सकते ठीक जैसे संसार में प्रदुषण में आपका योगदान है उतना ही स्वयं की गुणवत्ता के ह्रास में भी आपका हाथ कितना बड़ा है , काल के ह्रदय पे फैले आपके लंबे गुणात्मक जीवन में ये हुआ है , जिसका आपको अंदाजा भी नहीं .....
योग और एक धर्म के अंदर भी बहुत सारी सुधार क्रियाओं का महत्त्व है उनके निमित्त किये गए भावों का प्रभाव है और इस तरह एक बड़े स्तर पे मानव समाज में गुणों की गुणवत्ता घटती और बढ़ती है।
तो ; वैसे तो ये घना-चक्र है जिसमे मानव सृष्टि का सबसे बड़ा चक्र है , त्रिपुटी सा * जन्म , *पालन और *मृत्यु का चक्र। ये किसी एक जीव के लिए , या किसी ग्रह के लिए या फिर हमारे इर्दगिर्द परिक्रमा करते सौर-मंडल के लिए। इसमें भी जन्म के समय किसी एक में गुणों की मात्रा एक जन्म से प्राप्त है और एक तत्व से प्राप्त है। गृह नक्षत्रो की बात इसलिए नहीं क्यूंकि उनकी शक्ति और आयु हमसे कहीं ज्यादा है , कई मानव सभ्यताएं उसमे शामिल हैं यहाँ तक पृथ्वी की चाल और परिणाम भी इसी में है तो हम किस मुँह से इन ग्रहों की चाल और गृहों की गुणवत्ता को कहेंगे। सवाल ही नहीं , इनके प्रभाव में हम सिर्फ जीवित हैं। खैर ; हमारे अधिकार में क्या है ! इतना ही समझते हैं , हमारे अधिकार में है .... कर्म और कर्मजाल को काटने की दो चार तरकीबें , जो कर पाते हैं उन्हें हम धर्म योद्धा या योगी कहते हैं। और जाल के इस चाल को जो समझ पाते है उन्हें हम आध्यात्मिक कहते हैं , और सुनिए इस जाल के चाल को जो काट कर समाज को व्यवस्था दे पाते हैं उन्हें ही हम अवतार कहते हैं। तो इस नाते हमारा भी कर्त्तव्य हो जाता है की हम भी जाने की आखिर हम कर क्या सकते हैं , भटकने की बजाय अपना ही चयन करें। इस नाते जब भी आपको चेत आएगा ये भी समझ आएगा की एक बड़े चक्र के दुष्चक्र को आप रोक पाने में समर्थ हुए। उसमे ही मानव में जन्म दुष्प्रवृत्ती भी है। और इसका नन्हा सा उपाय चार आश्रम में छिपा है। विवाह के योग में है , और सम्भोग काल के वख्त मानसिक स्थिति का है। इतना सब सहज नहीं , संस्कार वासनाये इक्छाएं रूकावट बनती है , यहाँ उच्च कर्म भाव ही प्रेरित करते है। यदि ये संभव हुआ तो नौ माह के गर्भकाल में बालक की माता की मानसिक स्थति , उसकी आत्मिक स्थति बालक के जन्म से प्राप्त स्वभाव पे असर डालेगी। फिर जन्म के बाद लालन पालन वो ही होगा जो मातापिता की अपनी स्थति है , वो बालक के व्यक्तित्व का निर्माण करेगी। और इसके साथ चूँकि अब उसका भी सामाजिक दायरा दस्तक दे रहा है , तो अपने इन सभी गुणों के साथ वो मित्रता बनाएगा और समाज में अपना स्थान भी। और जीवन पर्यन्त वो अपने कर्म करेगा और इस श्रृंखला को आगे बढ़ाएगा। ये छोटा सा फार्मूला बड़े सामाजिक बदलाव का है। अभी तक जहाँ तक मैंने लिखा है , जाती-धर्म नाम के राजनैतिक कीड़े का प्रवेश नहीं है , जन्म से प्राप्त योग्यता और कर्म की स्थति का ही प्रवेश है। ये बालक चारो जातियों में कहीं भी जन्म ले सकता है। जाति मात्र एक गुणों की सामाजिक व्यवस्था है। पर फ़िलहाल मानव बुद्धि को समझाना कठिन है की जन्म से ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं और शूद्र शूद्र नहीं , दूसरे धर्म में जन्म भी ऐसे ही है जहाँ जबरदस्ती धर्म परिवर्तन न हो , स्वभाव से यदि जाती और धर्म की व्यवस्था बन सके तो ही संसार में बृहत बदलाव देखा जा सकता है। पर धार्मिक कथाये प्रतीक मात्र है जो कहती है , देवों की कतार में असुर छिप जाते हैं और अमृत (लाभ ) ले लेते है। पर मानसिकता असुर की तो कर्म भी वैसे ही। शास्त्र कहते हैं इन गुणों से बचने का मात्र एक उपाय स्वजागरण। इसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं। और यदि ऐसा नहीं तो तो अधर्म की काई धीरे धीरे फैलती जाएगी धार्मिक लोग बलि चढ़ते जायेंगे। ठीक वैसे ही जैसे सतयुग में पूजन-भजन में लीन ऋषियों को राक्षस मार देते थे। ये किसी भी समाज की निम्नतम स्थति है। पर इसमें धर्म से ज्यादा जीव दोषी है , कम से कम सनातन धर्म में जन्मा है तो निश्चित ; हाँ ! आप क्यों नहीं आश्रम का पालन करते क्यों नहीं सगुण उच्च अवस्था में सम्भोग कर उच्च आत्मा का आह्वाहन नहीं करते और क्यों एक अच्छे मातापिता बन बालक को अच्छे संस्कार नहीं देते।
ध्यान दीजियेगा -इस चक्र का काट तो एक गृहस्थ के ही पास है की वो राम सरीखे बालक को जन्म दे जो धर्म की संस्थापना में मर्यादा - पुरुषोत्तम कहलाये। घर घर जब दशरथ हो तो घर घर राम हों , ये घोर कलियुग का परिवर्तन काल है,ये प्रबल सम्भावना है उच्चात्माओं के अवतरण की, ये सनातनी उच्चात्माओं का आह्वाहन-काल है.... जो कलियुगी और राजनैतिक न हो , शुद्ध सात्विक आत्माएं ही जब सयुक्त गुहार लगाएंगी तो श्री राम का जन्म संभव है। एक मिनट ! रुकिए ; श्री राम के आह्वाहन करने का अर्थ समझते है ना ? इसका सिर्फ ये अर्थ है की आप सात्विक सनातनी जो हैं और जितने हैं जिस भी मनुष्य योनि की जाती प्रजाति में जन्मे हैं, अपने विवाह की, और सम्भोग की सात्विक-गुणवत्ता को बढ़ाएं, अपनी प्रार्थनाओं में उच्च आत्मा का आह्वाहन करें, जिससे हर घर में श्री राम सरीखी चिंगारियों का जन्म हो और जो संयुक्त होकर, आपको इस आपद काल की पीड़ा से आजाद करे , दुरशाक्तियाँ क्षीर्ण हों, सतयुग-काल की पुनः स्थापना हो। बस यही एक सम्भावना है वरना दुरशाक्ति के अनर्थ का जाल तो चहुँ ओर मनुष्यात को लीलता फैलता ही जाता है।
* आप अचरज से भर इस अनहोनी को सोच सकते हैं की ये कैसे होगा , पर आश्चर्य अपने इस जीवन काल में आपने संसार को बदलते देखा वो भी चुटकी में। ये तो सिर्फ पहले से मौजूद सनातनी आत्माओं का एकजुट होकर सनातनी शक्ति का आह्वाहन है।