Thursday, 22 August 2019

चेतना का सहयोग-संदेस और गहरा

हयोग !

मैंने ये शब्द लिया , आप मंथन के लिए अन्य  शब्द कोई भी ले लीजिये , भाषा कोई भी,  जो भी आपको गहराई से समझ में आ जाये।


अंत में ; शून्यसागर सा अर्थ अपने अन्त में अथाह और गहरा ही है।

अपने समाज से उठाया सहयोग-शब्द है , जो इंसानो को सामाजिक और पारिवारिक  के साथ आध्यात्मिक भी बनाता है, ऐसे गुणों से संपन्न जीवों का समाज में शुभ नाम होता है उनका आचरण दर्शनीय और गमनीय होता है , जंगल में  या मनुष्य के मित्र जानवरो में ये ही इन जानवरों का कुटुंब बनाता है और नक्षत्रों में उत्तर यही शक्ति-पुंज समूह , और जब शक्तिशाली हो बढ़ता है तो हम इसे सौर मंडल भी कहते हैं  या फिर अगला पड़ाव ब्रह्माण्ड , आकाशगंगा।  

आकाशगंगा से उतरते जब मनव समाज में आये तो इनमे विस्फोट होते होते ये भी बंट गए , सिर्फ धरती की बात नहीं उसमे भी जन्मे तितरबितर मनुष्य की बात है , अब इतना नीचे जब आते जायेंगे तो समाज है तो अनुलोम विलोम जैसे गुण भी मौजूद होंगे  ही होंगे । पॉज़िटिव-नेगेटिव ;  चुम्बक के दो छोर जैसे एक दूसरे के आकर्षण से खींचे जुड़े पर अलग नहीं। ये तरीका विज्ञान प्रमाणित है और चुम्बक के गुण छोटे बच्चो को भी खेल खेल में पता हो जाते है। पर वास्तव में इसका प्रभाव और भी गहरा है जो आपकी हमारी जानकारी में नहीं पर नियम तो नियम है , किसी को पता हो या न पाता हो इससे नियम को फर्क नहीं पड़ता।


ऊर्जाओं का गठबंधन अनौपचारिक या औपचारिक कुछ भी कह ले क्यूंकि उस तल पे अभी ऐसा भेद नहीं , दोनों ही लागू हैं, अनकहे भाव से आपस में जुड़े हैं और ये सब इतना आश्चर्यजनक है की आप कोई संकेत उठा ले , उस अनकही भाषा का अर्थ नहीं बदलता। इसीलिए हाथ - पैर की रेखाओं से लेकर तरंगे उर्जाये नक्षत्र आपका हमारा मन काल चक्र मन्त्र भविष्य वाणी अटकल या संवेदनशीलता , सब एक ही बात कहते हैं। आप अनजाने में सहयोग कर रहे हैं और पा भी रहे हैं , और इसके प्रमाण स्वरुप नाते रिश्ते मित्र सम्बन्धी आदि आदि या फिर राह में मिले सहयोग करते सब उसी का भाग हैं।


कोई भेद नहीं सिवाय परिवारवाद या मित्रवाद के नासमझ असंतुलन के जो निहायत ही दिमागी फितूर है।


असंतुलन इसलिए क्यूंकि नासमझी में, उत्तेजना में या वैर से निभाया जा रहा है , अब यहाँ कोई नैतिक हो के कहे हम समझदार हैं और जिम्मेदार भी है पर समझदारी भी उधारी की है जो संस्कारो से या परिस्थति से मिली है पर बौद्धिक ही है।

अपरा शक्तियां जब सक्रीय होती है तो हमसे बौद्धिक या भावपूर्ण विमर्श नहीं करती , उनके अपने नियम है  जिसे हमें समझना है,  यहाँ चेतना का सहयोग-संदेस और गहरा है, जो भी जानकार हुए है  उन्होंने अदृश्य अपरा  शक्तियों से ही अपने जीवित व्यवहार के नियम बनाये जिससे सभी मनुष्यों को लाभ हुआ, यहाँ भी लाभार्थी वो ही हुए जिन्होंने अपनी समझ को खुला रखा ,  जो समझ को बंधन में रक्खे वो  संस्कारजन्य ज्ञान से या सूचना से अथवा वैषयिक प्रमाण से निर्देश लेते रहे, और इस तरीके ऐसे सूचनाओं से संस्कारों से भरे  बौद्धिक भाव-युक्त जन कहीं भी उड़ते मंडराते रेंगते मिल जाएंगे ,  इन्हे ढूँढना नहीं पड़ता।

और इसीलिए  इस सार्वभौमिक सहयोग भाव के तहत हिन्दू धर्म  में  ऋषिमुनियों की सोच प्रामाणिक और अधिक गहरी होती जाती है।


सहयोग सच में गहरा है , हम सब तो उस गहरे मानसरोवर से एक चुल्लू जल ही लेने की सलाह ले पाते है , या फिर वो भी बौद्धिकता के चलते स्वीकार नहीं करते । 

नमन !

गुरु संदेस साधक के नाम


प्रिय राजा विक्रमदित्य तुल्य साधक , 

शुभाशीष , सुखी रहो , उन्नति करो। 

       अब तक हुए सभी इम्तहान में खरे उतरे आज शिक्षा समाप्ति का दिन पास आता लग रहा है।  विश्वास है  के  तुम्हारा ये अभ्यास भी पूरा हुआ , क्यूंकि सांकेतिक रूप में  तुम्हारे लिए  छायासदृश मुझे दो दरवाजे भासित होना  शुरू हो चुके हैं।  चलो ! अब हमारे साथ के कुछ आखिरी पल या घंटे , तुम्हारे लिए अगले कार्यक्रम की बारी।   

        ठीक ; विजेता राजा विक्रमादित्य की तरह इस बार भी तुम ही निर्णय के द्वार पे  हो और तुम ही  निर्णय करोगे , चाबी हाथ में लिए  सजी हुई  कठपुतलियां दोनो दरवाजों पे खड़ी आकर्षित करेंगी , पुकारेंगी और आश्वस्थ करेंगी के तुम ही इन चाभियों के मालिक हो, असली हकदार हो।  

        स्पष्ट  दिखता है ;  तुम्हारे आगे दो दरवाजे है , किन्तु तुम्हे प्रवेश किस द्वार में करना है तुम्हारा निर्णय है , प्रथम द्वार में प्रवेश निर्णय लेते ही तुम्हारा हुलिया बदल जायेगा और प्रवेश पाते ही संभवतः तुम अनन्य संपत्ति के मालिक हो सकते हो राजसी सम्मान के पात्र भी या ये सब कुछ नहीं मात्र धोखा या छद्म भी हो सकता है ,  दूसरा द्वार प्रवेश तुमको और घिसेगा  , हो सकता है  कभी कभार भूखे रहना पड़े और कपडे भी जो हैं वो साथ दें  लेकिन उन्नति तुम्हारी जरूर होगी यहाँ घिसाई है पर धोखा नहीं !! 

        हमेशा की तरह दो दरवाजे,  सिर्फ  तुम्हारे लिए , क्यूंकि पिछले भी तुमने ही पार किये , आगे भी तुम ही पात्र हो ,   एक को खोलना  सरल चमकदार और अनेक प्रलोभन , दूसरा घिसा पुराना  आगे अगले स्तर में प्रवेश। राजन ! निर्णय और जिम्मेवारी तुम्हारी ही। 

जाओ .... आगे बढ़ो प्रियवर , चयनित द्वार में प्रवेश करो !!

शुभकामनायें। 

Saturday, 17 August 2019

Priyam Bharatam, a poem by Shri Chandrabhanu Tripathi


Priyam Bharatam, a poem by Shri Chandrabhanu Tripathi
Lyrics in Sanskrit/ Phonetic / हिंदी :
प्रकृत्या सुरम्यं विशालं प्रकामम् 
मनोहर विशाल फैली हई प्रकृति 
सरित्तारहारैः ललालं निकामम्
उफनती नदियों के हार लुभावने श्रृंगार है 

हिमाद्रिः ललाटे पदे चैव सिन्धुः
बर्फ के पहाड़ जिसके मस्तक पे और चरणों में सागर 
प्रियं भारतं तत् सर्वथा दर्शनीयम्
ऐसा  प्रिय भारत और उसका दर्शन सदैव योग्य है 
prakṛtyā suramyaṃ viśālaṃ prakāmam
sarittārahāraiḥ lalālaṃ nikāmam
himādriḥ lalāṭe pade caiva sindhuḥ
priyaṃ bhārataṃ sarvathā darśanīyam
धनानां निधानं धरायां प्रधानम्
सार्वभौमिकता में धनवान धरती में प्रधान 
इदं भारतं देवलोकेन तुल्यम्
ये भारत देवलोक के समकक्ष है 
यशो यस्य शुभ्रं विदेशेषु गीतम्
जिसकी ख्याति उज्जवल है विदेश में भी गायन है 
प्रियं भारतं तत् सदा पूजनीयम्
ऐसा प्रिय भारत की सदा पुज्य्नीय है 
dhanānāṃ nidhānaṃ dharāyāṃ pradhānam
idaṃ bhārataṃ devalokena tulyam
yaśo yasya śubhraṃ videśeṣu gītam
priyaṃ bhārataṃ tat sadā pūjanīyam
अनेके प्रदेशा अनेके च वेषाः
जहाँ अनेक प्रदेश  अनेक वेशभूषा 
अनेकानि रूपाणि भाषा अनेकाः
अनेक रूप और अनेक भाषा हैं 
परं यत्र सर्वे वयं भारतीयाः
पर जहाँ सभी हम भारतीय है 
प्रियं भारतं तत् सदा रक्षणीयम्
ऐसे प्रिय भारत की सदा रक्षा करेंगे 
aneke pradeśā aneke ca veṣāḥ
anekāni rūpāṇi bhāṣā anekāḥ
paraṃ yatra sarve vayaṃ bhāratīyāḥ
priyaṃ bhārataṃ tat sadā rakṣaṇīyam
सुधीरा जना यत्र युद्धेषु वीराः
धैर्यवान व्यक्ति हैं जहाँ और युद्ध में वीर हैं 
शरीरार्पणेनापि रक्षन्ति देशम्
शरीर का दान देके भी देश की रक्षा में तत्पर 
स्वधर्मानुरक्ताः सुशीलाश्च नार्यः
स्वधर्म में श्रेष्ठ अनुरक्त (डूबी) और सुशील स्त्रियां 
प्रियं भारतं तत् सदा श्लाघनीयम्
ऐसा प्रिय भारत सदा प्रशंसनीय है 
sudhīrā janā yatra yuddheṣu vīrāḥ
śarīrārpaṇenāpi rakṣanti deśam
svadharmānuraktāḥ suśīlāśca nāryaḥ
priyaṃ bhārataṃ tat sadā ślāghanīyam
वयं भारतीयाः स्वभूमिं नमामः
हम भारतीय अपनी भूमि को नमन करते है  
परं धर्ममेकं सदा मानयामः
सदा एक परमधर्म को मानेंगे 
यदर्थं धनं जीवनं चार्पयामः
जिसके लिए धन जीवन का अर्पण करेंगे 
प्रियं भारतं तत् सदा वन्दनीयम् 
ऐसे प्रिय भारत की सदा वंदना करेंगे 
bhāratīyāḥ svabhūmiṃ namāmaḥ
paraṃ dharmamekaṃ sadā mānayāmaḥ
yadarthaṃ dhanaṃ jīvanaṃ cārpayāmaḥ
priyaṃ bhārataṃ tat sadā vandanīyam

हिंदी अनुवादिका - लता तिवारी 

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English Translation:
Naturally lovely Very delightful Carrying to our rivers and stars Charming and beautiful On her forehead, the Himalaya mountain At her feet, the sea Beloved India, always beautiful A receptacle of wealth, ever-flowing This India, equal with paradise Whose fame, shining, a song among foreign lands Beloved India, always to be worshiped Many regions Many apparels Many forms Many languages Where we all are Indians Beloved India, always to be protected Where the people are wise, heroes in battles Offering their bodies, They protect the country, Where the People are of good conduct, fond of their own duty (dharma) Beloved India, always to be praised We bow to the land, to India, The one supreme dharma, we always esteem, For which we offer our wealth, our life, Beloved India, always to be respected

निम्न लिंक पे अपने किसी कठिन शब्द के अनुवाद के लिए अतिरिक्त सहायता ले सकते है

Saturday, 3 August 2019

madalasa updesha to her son in hindu mythology (markandey puran)

मदालसा विश्वावसु गन्धर्वराज की पुत्री तथा ऋतुध्वज की पटरानी थी। इनका ब्रह्मज्ञान जगद्विख्यात है। पुत्रों को पालने में झुलाते-झुलाते इन्होंने ब्रह्मज्ञान का उपदेश दिया था।वे अनासक्त होकर अपने कर्तव्य का पालन करती जिसके फल स्वरुप उनके पुत्र बचपन से ही ब्रह्मज्ञानी हुए। आज भी वे एक आदर्श माँ हैं क्योंकि वैष्णव शास्त्रों में वर्णन आता हैं की पुत्र जनना उसीका सफल हुआ जिसने अपने पुत्र की मुक्ति के लिय उसे भक्ति और ज्ञान दिया।

मदालसा को हर (चुरा) ले जाने पर पातालकेतु तथा इनके पति ऋतुध्वज से घोर संग्राम हुआ। अंत में पातालकेतु परास्त होकर मारा गया और ऋतुध्वज ने इन्हें उसके बंधन से मुक्त किया।
In Markandeya Purana there is this lullaby called Madalasa Upadesha.

The story is that Madalasa was an enlightened Queen who gave birth to a child. When the child cried, instead of diverting the child's attention with various objects she chose to introduce him to the Truth. And that truth is sung in the form of a sweet lullaby which is called madalasa upadesha or madalasa putra upadesha.

शुद्धोसि बुद्धोसि निरँजनोऽसि सँसारमाया परिवर्जितोऽसि सँसारस्वप्नँ त्यज मोहनिद्राँ मँदालसोल्लपमुवाच पुत्रम्। Suddhosi bubbhosi niranjanosi samsara maya parivarjitosi samsara svapnam tyaja moha nidra mandalasollapamuvacha putram Madalasa says to her crying son: "You are pure, Enlightened, and spotless. Leave the illusion of the world and wake up from this deep slumber of delusion."

Verse 2: शुद्धोऽसि रे तात न तेऽस्ति नाम कृतँ हि तत्कल्पनयाधुनैव। पच्चात्मकँ देहँ इदँ न तेऽस्ति नैवास्य त्वँ रोदिषि कस्य हेतो॥ My Child, you are Ever Pure! You do not have a name. A name is only an imaginary superimposition on you. This body made of five elements is not you nor do you belong to it. This being so, what can be a reason for your crying ?

हे तात! तू तो शुद्ध आत्मा है, तेरा कोई नाम नहीं है। यह कल्पित नाम तो तुझे अभी मिला है। वह शरीर भी पाँच भूतों का बना हुआ है। न यह तेरा है, न तू इसका है। फिर किसलिये रो रहा है? Verse 3: न वै भवान् रोदिति विक्ष्वजन्मा शब्दोयमायाध्य महीश सूनूम्। विकल्पयमानो विविधैर्गुणैस्ते गुणाश्च भौताः सकलेन्दियेषु॥ The essence of the universe does not cry in reality. All is a maya of words, oh Prince! Please understand this. The various qualities you seem to have are are just your imaginations, they belong to the elements that make the senses (and have nothing to do with you).
अथवा तू नहीं रोता है, यह शब्द तो राजकुमार के पास पहुँचकर अपने आप ही प्रकट होता है। तेरी संपूर्ण इन्द्रियों में जो भाँति भाँति के गुण-अवगुणों की कल्पना होती है, वे भी पाञ्चभौतिक ही है?
Verse 4: भूतनि भूतैः परिदुर्बलानि वृद्धिँ समायाति यथेह पुँसः। अन्नाम्बुपानादिभिरेव तस्मात् न तेस्ति वृद्धिर् न च तेस्ति हानिः॥ The Elements [that make this body] grow with an accumulation of more elements or reduce in size if some elements are taken away. This is what is seen in a body's growing in size or becoming lean depending upon the consumption of food, water, etc. You do not have growth or decay.
जैसे इस जगत में अत्यंत दुर्बल भूत अन्य भूतों के सहयोग से वृद्धि को प्राप्त होते है, उसी प्रकार अन्न और जल आदि भौतिक पदार्थों को देने से पुरुष के पाञ्चभौतिक शरीर की ही पुष्टि होती है । इससे तुझ शुद्ध आत्मा को न तो वृद्धि होती है और न हानि ही होती है।
Verse 5: त्वम् कँचुके शीर्यमाणे निजोस्मिन् तस्मिन् देहे मूढताँ मा व्रजेथाः। शुभाशुभौः कर्मभिर्देहमेतत् मृदादिभिः कँचुकस्ते पिनद्धः॥ You are in the body which is like a jacket that gets worn out day by day. Do not have the wrong notion that you are the body. This body is like a jacket that you are tied to, for the fructification of the good and bad karmas.

तू अपने उस चोले तथा इस देहरुपि चोले के जीर्ण शीर्ण होने पर मोह न करना। शुभाशुभ कर्मो के अनुसार यह देह प्राप्त हुआ है। तेरा यह चोला मद आदि से बंधा हुआ है (तू तो सर्वथा इससे मुक्त है) । Verse 6: तातेति किँचित् तनयेति किँचित् अँबेति किँचिद्धयितेति किँचित्। ममेति किँचित् न ममेति किँचित् त्वम् भूतसँघँ बहु म नयेथाः॥ Some may refer to you are Father and some others may refer to you a Son or some may refer to you as a mother and someone else may refer to you as a wife. some say "you are mine" and some others say "you are not mine" These are all references to this "Combination of Physical Elements", Do not identify with them.

कोई जीव पिता के रूप में प्रसिद्ध है, कोई पुत्र कहलाता है, किसी को माता और किसी को प्यारी स्त्री कहते है, कोई यह मेरा है कहकर अपनाया जाता है और कोई मेरा नहीं है इस भाव से पराया माना जाता है। इस प्रकार ये भूतसमुदाय के ही नाना रूप है, ऐसा तुझे मानना चाहिये । Verse 7: सुखानि दुःखोपशमाय भोगान् सुखाय जानाति विमूढचेताः। तान्येव दुःखानि पुनः सुखानि जानाति विद्धनविमूढचेताः॥ The deluded look at objects of enjoyments as giving happiness by removing the unhappiness. The wise clearly see that the same object which gives happiness now will become a source of unhappiness.
यद्यपि समस्त भोग दु:खरूप है तथापि मूढ़चित्तमानव उन्हे दु:ख दूर करने वाला तथा सुख की प्राप्ति करानेवाला समझता है, किन्तु जो विद्वान है, जिनका चित्त मोह से आच्छन्न नहीं हुआ है, वे उन भोगजनित सुखों को भी दु:ख ही मानते है।

Verse 8:

हासोsस्थिर्सदर्शनमक्षि युग्म-
मत्युज्ज्वलं यत्कलुषम वसाया: ।
कुचादि पीनं पिशितं पनं तत्
स्थानं रते: किं नरकं न योषित् ॥

स्त्रियों की हँसी क्या है, हड्डियों का प्रदर्शन । जिसे हम अत्यंत सुंदर नेत्र कहते है, वह मज्जा की कलुषता है और मोटे मोटे कुच आदि घने मांस की ग्रंथियाँ है, अतः पुरुष जिस पर अनुराग करता है, वह युवती स्त्री क्या नरक की जीती जागती मूर्ति नहीं है?

Verse 9:

यानं क्षितौ यानगतश्च देहो
देहेsपि चान्य: पुरुषो निविष्ट: ।
ममत्वमुर्व्यां न तथा यथा स्वे
देहेsतिमात्रं च विमूढ़तैषा ॥
The vehicle that moves on the ground is different from the person in it similarly this body is also different from the person who is inside! The owner of the body is different from the body! Ah how foolish it is to think I am the body!
पृथ्वी पर सवारी चलती है, सवारी पर यह शरीर रहता है और इस शरीर में भी एक दूसरा पुरुष बैठा रहता है, किन्तु पृथ्वी और सवारी में वैसी अधिक ममता नहीं देखी जाती, जैसी कि अपने देह में दृष्टिगोचर होती है। यही मूर्खता है ।


Verse 10:
धन्योसि रे यो वसुधामशत्रु-
रेकश्चिरम पालयितासि पुत्र ।
तत्पालनादस्तु सुखोपभोगों
धर्मात फलं प्राप्स्यसि चामरत्वम ॥
Verse 11:
धरामरान पर्वसु तर्पयेथा:
समीहितम बंधुषु पूरयेथा: ।
हितं परस्मै हृदि चिन्तयेथा
मनः परस्त्रीषु निवर्तयेथा: ॥
Verse 12:
सदा मुरारिम हृदि चिन्तयेथा-
स्तद्धयानतोन्त:षडरीञ्जयेथा: ॥
मायां प्रबोधेन निवारयेथा
ह्यनित्यतामेव विचिंतयेथा: ॥
Verse 13:
अर्थागमाय क्षितिपाञ्जयेथा
यशोsर्जनायार्थमपि व्ययेथा:।
परापवादश्रवणाद्विभीथा
विपत्समुद्राज्जनमुध्दरेथाः॥

बेटा ! तू धन्य है, जो शत्रुरहित होकर अकेला ही चिरकाल तक इस पृथ्वी का पालन करता रहेगा। पृथ्वी के पालन से तुझे सुखभोगकी प्राप्ति हो और धर्म के फलस्वरूप तुझे अमरत्व मिले। पर्वों के दिन ब्राह्मणों को भोजन द्वारा तृप्त करना, बंधु-बांधवों की इच्छा पूर्ण करना, अपने हृदय में दूसरों की भलाई का ध्यान रखना और परायी स्त्रियों की ओर कभी मन को न जाने देना । अपने मन में सदा श्रीविष्णुभगवान का चिंतन करना, उनके ध्यान से अंतःकरण के काम-क्रोध आदि छहों शत्रुओं को जीतना, ज्ञान के द्वारा माया का निवारण करना और जगत की अनित्यता का विचार करते रहना । धन की आय के लिए राजाओं पर विजय प्राप्त करना, यश के लिए धन का सद्व्यय करना, परायी निंदा सुनने से डरते रहना तथा विपत्ति के समुद्र में पड़े हुए लोगों का उद्धार करना ।