अगर ये ज्यादा नहीं है तो ...... मुझे ऐसा लग रहा है ; जैसे जन्म अपने को दोहराता है बार बार , तब तक जब तक सबक ठीक से याद नहीं होता ... पुनर्जन्म का सिद्धांत अलग ही तल पे वास करता है . कुछ ऐसा जो अच्छे और बुरे से अलग , जो जैसा भी है बार बार खुद को , अपनी अतृप्त तृष्णा को , दोबारा .... उसी , खुद की गुणवत्ता के साथ , उन्ही संयोगों को दोहराता है। ( सात देह *अन्नमय *प्राणमय *मनोमय *विज्ञानमय *आनंदमय इसके बाद की ३ देह अध्यात्म साधना के बाद सहज है * तेजोमय देह माने तत्व को छोड़ चुकी पर तरंगिततात्विक गुण साथ में है * खगोलीय देह तत्व से ऊपर आनंद की स्थति है जहाँ तात्विक गुण अपनी पकड़ ढीली करते है और शून्य में प्रवेश ऊर्जा का संभव होता है * अंतिम नैमित्तक अवस्था में ये देह स्थित होती है जहाँ ऊर्जा की देह का धरती से भावनात्मक तात्विक और कर्म योग भोग का सम्बन्ध पूर्णतः समाप्त इसे समस्त भारमुक्त मोक्ष की अवस्था भी कहते है ) यदि आप सात के अस्तित्व को महसूस करते है तो , इसके बाद ही अपनी ही देह में स्थित सात चक्र के प्रभाव से मुक्त होने में , इन्हे समझने में , इन्हे भेदने में सुविधा होगी , रुकिए तनिक ! कुछ याद आया आपको विद्वानों द्वारा रची गयी चक्रव्ह्यु की रचना के सात -कमलदल , और दुर्गम सात द्वार और वो वीर अभिमन्यु जिनको प्रवेश का ज्ञान था पर निकलने का रास्ता नहीं मालूम था , इसको विस्तृतअर्थ में लीजिये बालक के लिए भावुक मत होईयेगा , मनुष्य के साथ सबसे बड़ा संकट असंतुलित बुद्धि और भाव का ही है , और संतुलित सहयोग भी इन्ही का है) .. और जिस पल , जिस जन्म में भी ये सबक मिला , मिलने पर अचानक आपको मुक्ति का परिणाम फ़ल दे के ये गायब हो जाते है , इस भाव के साथ के अब आपका जन्म इस गलीज़ कर्म के लिए तो नहीं अब आपके मकसद ऊँचे हो सकते है आपके जन्म का अर्थ भी उच्त्तम हो सकता है , जैसा आप अपने आस पास प्रतिभाओ को अपने अपने मकसद में लगे हुए देखते ही होंगे।
जन्म ही नहीं आस पास के चरित्र भी अपने आपको दोहराते है , और सिद्धांत गुणात्मक आकर्षण का जो कार्मिक चाशनी भी है तो फिर जरूर घटनाये भी अपने को दोहराती है ! कभी अचानक कुछ धुंधला सा याद आ भी जाता है और अक्सर नहीं भी। अक्सर अनुभवी मनोवैज्ञानिक इस याददास्त लाने को सम्मोहन द्वारा पुनर्स्मरण करने का सहारा लेते है , तब जब मनोग्रंथियां कैंसर जैसी दुखदायी हो जाती है तो इस मनोवैज्ञानिक विधि द्वारा उन अनसुलझी ग्रंथियों को सुलझाया और पीड़ित का उपचार किया जाता है , और स्मरण आते ही वो दुखद परिस्थति और अनजाने दर्द के साथ चक्र तारतम्य घटनाओ का सब स्पष्ट हो जाते है .. इसे मनोवैज्ञानिक -वेत्ता राहत या उपचार प्रयोग विधि भी कहते है या पास्ट लाइफ रेगरेशन्स / पूर्वजन्म मेमोरीज का वापिस आना।
*बहरहाल विज्ञानं को पुनर्जन्म के तात्विक या तरंगित प्रमाण नहीं मिलते , इस विधि को ही जड़ से नकारता है अपने प्रमाणों के जरिये , और मनोविज्ञान इसको अपनाता है अपने संवेदनशीलता और अहसासों के जरिये।
महाभारत काल की घटना है ( कथा शब्द नहीं कहूँगी क्यूंकि वो काल की घटी घटना है ) , कहते है भीष्म बहुत दुखी थे कौरव और पांडव के बीच हुए घटनाक्रमों से और अपनी शोचनीय नगण्य उपस्थ्ति से , इक्छित अवधि में प्राण त्यागने का उन्हें वरदान था , युद्ध समाप्ति के बाद सभी कुछ समाप्त हो गया , मौत का सन्नाट और विलाप करते शेष परिवार के सदस्यों से घिरे ,खून से सनी देह और बाणों की शैया पे लेटे हुए (आप कल्पना कर सकते है उस शक्तिशाली वृद्ध की वेदना की यदि आपको अपने याद्सस्त में कभी सुई चुभने का अनुभव है ) अपने असहनीय संताप को सहन नहीं कर पा रहे थे (इस कर्मफलकाल की अवस्था में जब के काल का बवंडर गुजर चूका मौत के फैले सन्नाटे में जब के सभी शेष अपनी अपनी मृत्यु की कामना कर रहे है , सही और गलत का विश्लेषण व्यर्थ था ) अपने उस विषादकाल में उन्होंने कृष्ण के आगे याचना करी पूर्वजन्म स्मरण कराने की ताकि उन्हें ये बोध हो जाये की किस कारन उनको इतना दारुण दुःख मिला , उस अंतकाल में कृष्ण ने उनकी इक्छा का सम्मान करते हुए उनके मस्तक पे मुस्कराते हुए तीर की नोक रखी और माथे पे तीर छूते ही भीष्म को जन्मजन्मांतर स्मरण हो आये थे , अपने सभी पिछले जन्म के भोग और कर्म और अनूठे स्मरण के साथ मुस्कराहट तो आनी ही थी , और दूसरे ही पल उह्नोने अपने प्राण त्याग दिए।
वैसे कुछ शंकराचार्य भी अपने अनुभव / अहसासों को भजगोविंदम में लिख गए है , इसी जन्म की पुनरुक्ति के सम्बन्ध में " आप भी पढ़िए -
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं , पुनरपि जननीजठरे शयनम् ।
इह संसारे बहुदुस्तारे , कृपयाऽपारे पाहि मुरारे ॥ २१॥
Born again, death again,again to stay in the mother's womb!
It is indeed hard to cross this boundless ocean of samsAra.
Oh Murari ! Redeem me through Thy mercy
** कहने का अर्थ सिर्फ इतना , जिस पल आपको हमको इस काल चक्र में अपने गोल गोल घूमने का स्मरण हो आता है उसी पल हम मुक्ति की तरफ अपने कदम बढ़ा देते है , सारे उपद्रव अज्ञानता के ही है।अब आप कहेंगे की रावण को भी तो स्मरण था। बिलकुल था रावण को ईश्वर आगमन के संकेत मिल गए थे,पर मृत्यु के इतने पास के वो अब पलट नहीं सकता था ये उसका अभिमान था और उसका अद्वितीय ज्ञान भी के अपने साथ वो पुरे राक्षस कुल को मुक्ति दिलाने को कटिबद्ध हो गया , बुद्धिमत्ता और वीरता के साथ उसके अपने गुणतत्व भी दस शीश के रूप में उससे ही जुड़े थे , प्रतीक रूप उसकी नाभि (केंद्र ) में (आत्मा का संचित ) अमृत था जिसे राम ने अपने तीर से मुक्त किया। और इस तरह रावण भी मुक्त हुआ।
, श्रीमद्भगवद महाभारत जैसी ही ये रामायण भी एक ऐसी ही कथा है जिसमे छिपा सत्य हीरे सा दमकता है और जिसके ऊपर है प्रतीकों का आवरण। जिसको समझ आ गया वो सार समझ गया , नहीं तो कथाओ में और तर्कों में उलझ कोई आस्तिक हो गया और कोई नास्तिक ।
रामायण काल में जैसे रावण को बर्बादी का ज्ञान हुआ था वैसे ही आधुनिक काल का उदाहरण लूँ तो आज :-
२५ -०५ -१९५७ , ६०वी सालाना याद का दिन है हिरोशिमा पर बम का गिरना , सिर्फ कर्तव्य और देश की सेना में तैनात फर्ज को अंजाम देना उद्देश्य , कहते है की बम गिराने वाले को प्रभाव का पता नहीं था, आगे का न भी समझ पाए पर उसकी ली हुई उड़ान के दौरान उसके हाथ बम गिर रहा है ये तो पता ही होगा ! उस वख्त अधुनिक तकनिकी से लेस आज जैसा कोई नामी आतंकवादी समूह सक्रीय नहीं था। फिर भी मनुष्य का इतिहास गवाह है के युद्ध भी था और लोग मर भी रहे थे। हिरोशिमा पे वो बम गिराने वाला भी अपने कृत्य के लिए क्षमाप्रार्थी हुआ , पर बर्बादी का तूफान तो आ चुका था उसी पल जिस पल उसके हाथ से बम धरती के उस भाग के लिए गिरा। अब अगर उसे आज अपने पुनर्जन्म स्मरण हो जाये तो क्या वो वही दोहरा पायेगा ? कितनी बार वो इसी महाविनाश में शरीक हो सकेगा ! सोचिये सिर्फ एक उदाहरण से कल्पना कीजिये , पर ये बोध-परिवर्तन के साथ ही संभव है , यदि बोध नहीं तो कृत्य कैसा भी हो कारन और कारन की स_तर्क श्रृंखला अपने लिए तर्क जूटा ही लेती है। इसी तरह अनेक कृत्य - अपराध है जिनका पूर्वस्मरण हो जाये तो शायद बोध में इंसान वो ही दोबारा नहीं कर पायेगा। हाँ अज्ञानता का पर्दा , मायावी कर्त्तव्य बोध के नाम पे कुछ भी करवा सकता है , किसी का जीवन ले भी सकता है और अपना दे भी सकता है। और अपने समाज में सामूहिक पुरस्कार का हक़दार भी हो सकता है। पर अनंत की शृंखला जरा सांसारिक रीति और माया से अलग है।
पुनर्जन्म का स्मरण और समय चक्र में अपने किये हुए बार बार वो ही कर्म और उनके कारन फल और भोग के अनंत जाल का स्मरण काफी है , मुक्ति के मार्ग के लिए।
यहीं पे रहस्य खोलती है मृत्यु , आपने मृत्यु सीख ली तो आपने जीवन भी सीख लिया , एक मृत्यु का संज्ञान मात्र , बोध की राह में सत्य के हजार सूर्य जलाता है , मृत्यु बताती है के जीवन कैसे जीना चाहिए , मृत्यु बोध दिखाता है इस उजले पक्ष और उस कृष्णपक्ष में छिपे जीवन के असली राज। जहाँ रावण और राम अलग नहीं एक ही है।देवता और दैत्य अलग नहीं हमारे अपने अंदर जीवन पाते है हमारी अपनी अज्ञानता के कारन और सांसारिक जीवन का संज्ञान कर्मबधित हो माया लोभ मोह और क्रोधवश , तर्क सहित कर्म जाल में घेरता है और रीतियों/कुरीतियों के घेरे में अंदर तक धंसे हुए नाम छलित नाम कर्त्तव्य का। कभी धर्म के नाम पे कभी देश के नाम पे कभी परिवार के नाम पे ऐसा नजारा आम है जहाँ इंसान सही गलत सोच ही नहीं पाता , सही और गलत से दूर बस भीड़ और भीड़ का उन्माद , इंसानी कमजोरी है। ये किसी एक दो तीन कौमों की बात नहीं , मनुष्य मात्र की कमजोरी है। एक दो संज्ञानि हुए भी तो भी भीड़ का अपना वजूद है।
, श्रीमद्भगवद महाभारत जैसी ही ये रामायण भी एक ऐसी ही कथा है जिसमे छिपा सत्य हीरे सा दमकता है और जिसके ऊपर है प्रतीकों का आवरण। जिसको समझ आ गया वो सार समझ गया , नहीं तो कथाओ में और तर्कों में उलझ कोई आस्तिक हो गया और कोई नास्तिक ।
रामायण काल में जैसे रावण को बर्बादी का ज्ञान हुआ था वैसे ही आधुनिक काल का उदाहरण लूँ तो आज :-
२५ -०५ -१९५७ , ६०वी सालाना याद का दिन है हिरोशिमा पर बम का गिरना , सिर्फ कर्तव्य और देश की सेना में तैनात फर्ज को अंजाम देना उद्देश्य , कहते है की बम गिराने वाले को प्रभाव का पता नहीं था, आगे का न भी समझ पाए पर उसकी ली हुई उड़ान के दौरान उसके हाथ बम गिर रहा है ये तो पता ही होगा ! उस वख्त अधुनिक तकनिकी से लेस आज जैसा कोई नामी आतंकवादी समूह सक्रीय नहीं था। फिर भी मनुष्य का इतिहास गवाह है के युद्ध भी था और लोग मर भी रहे थे। हिरोशिमा पे वो बम गिराने वाला भी अपने कृत्य के लिए क्षमाप्रार्थी हुआ , पर बर्बादी का तूफान तो आ चुका था उसी पल जिस पल उसके हाथ से बम धरती के उस भाग के लिए गिरा। अब अगर उसे आज अपने पुनर्जन्म स्मरण हो जाये तो क्या वो वही दोहरा पायेगा ? कितनी बार वो इसी महाविनाश में शरीक हो सकेगा ! सोचिये सिर्फ एक उदाहरण से कल्पना कीजिये , पर ये बोध-परिवर्तन के साथ ही संभव है , यदि बोध नहीं तो कृत्य कैसा भी हो कारन और कारन की स_तर्क श्रृंखला अपने लिए तर्क जूटा ही लेती है। इसी तरह अनेक कृत्य - अपराध है जिनका पूर्वस्मरण हो जाये तो शायद बोध में इंसान वो ही दोबारा नहीं कर पायेगा। हाँ अज्ञानता का पर्दा , मायावी कर्त्तव्य बोध के नाम पे कुछ भी करवा सकता है , किसी का जीवन ले भी सकता है और अपना दे भी सकता है। और अपने समाज में सामूहिक पुरस्कार का हक़दार भी हो सकता है। पर अनंत की शृंखला जरा सांसारिक रीति और माया से अलग है।
पुनर्जन्म का स्मरण और समय चक्र में अपने किये हुए बार बार वो ही कर्म और उनके कारन फल और भोग के अनंत जाल का स्मरण काफी है , मुक्ति के मार्ग के लिए।
यहीं पे रहस्य खोलती है मृत्यु , आपने मृत्यु सीख ली तो आपने जीवन भी सीख लिया , एक मृत्यु का संज्ञान मात्र , बोध की राह में सत्य के हजार सूर्य जलाता है , मृत्यु बताती है के जीवन कैसे जीना चाहिए , मृत्यु बोध दिखाता है इस उजले पक्ष और उस कृष्णपक्ष में छिपे जीवन के असली राज। जहाँ रावण और राम अलग नहीं एक ही है।देवता और दैत्य अलग नहीं हमारे अपने अंदर जीवन पाते है हमारी अपनी अज्ञानता के कारन और सांसारिक जीवन का संज्ञान कर्मबधित हो माया लोभ मोह और क्रोधवश , तर्क सहित कर्म जाल में घेरता है और रीतियों/कुरीतियों के घेरे में अंदर तक धंसे हुए नाम छलित नाम कर्त्तव्य का। कभी धर्म के नाम पे कभी देश के नाम पे कभी परिवार के नाम पे ऐसा नजारा आम है जहाँ इंसान सही गलत सोच ही नहीं पाता , सही और गलत से दूर बस भीड़ और भीड़ का उन्माद , इंसानी कमजोरी है। ये किसी एक दो तीन कौमों की बात नहीं , मनुष्य मात्र की कमजोरी है। एक दो संज्ञानि हुए भी तो भी भीड़ का अपना वजूद है।
शुभकामनाये
Oh really an eye opener
ReplyDelete:) find apriciated , thanks for read and comment
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