Sunday, 22 January 2017

आपो दीपो आपो भव


किसी विषय की सूचना कारन बनी जिज्ञासा / आकर्षण का ,
फिर उसको जानना कारन बना खोज का ,
फिर उस खोज में गहरे उतरना और उतर के बहुमूल्य उपलब्धि (निधि ) को इकठा करना कारन बना सर्वउपयोगिता का
और यही उपयोगिता फिर से जन्म देती है नयी खोज को , नयी सम्भावना को , नयी जिज्ञासा को और उस खोज के लिए नयी सूचनाओं को , गौर से देखिये ! अपनी धुरी पे इस लट्टू से घूमते गोल गोल घेरे को !
संक्षेप में इस उपयोगिता की अवस्था को जब आप जिज्ञासा की लंबी यात्रा के बाद उस को साकार कर पा रहे है तो तत्वगोचर अर्थात सुलभ अर्थात दृष्टिगोचर , तो आप भीड़ में विषय खोजी / वेत्ता के नाम से जाने जाते है। पर ह्रदय से आप भी अब तक जान चुके है की आप ने जो पहले से ( ज्ञात नहीं ) छुपा है उसी को जाना है , पर बड़ी बात है , छुपिछुपवल के खेल में ढूंढने का और फिर धप्पा का आनंद ही अलग है। हाँ ! इस खेल में ताकत के पलड़े असंतुलित है , एक तरफ असार , अपार , अबाध , अदृश्य महा शक्तिशाली और इधर सिमित आयु सिमित शक्ति फिर भी साहस से भरा ह्रदय और बुद्धि और पैनी दृष्टि , इसलिए अपनी कमजोर और सिमित अस्तित्व के साथ उपलब्धि मनुष्य के लिए हमेशा से प्रशसनीय रही है। क्या आपको भी वो गीत याद आ रहा है " निर्बल से लड़ाई बलवान की ये कहानी है दिए की और तूफान की " प्रशंसा और पारितोषिक आदि प्रोत्साहन और उत्साह का कार्य करते है , ये मनोवैज्ञानिक सत्य है। ये उपलब्धि बौद्धिक है तो विज्ञानं विषय को छूती है , और यही उपलब्धि अगर ह्रदय से है तो अध्यात्म की ऊंचाईयां छूती है। बहरहाल कौन कम कौन ज्यादा की चर्चा में शक्तिशाली दो कदम पीछे ही रहते है , क्योंकि ये तर्कशास्त्र में उपलब्धि अनुपलब्धि के आंकड़े और प्रमाण की प्रमाणिकता आदि और इसमें भी हार जीत का आनंद बालक्रीड़ा सा है। संभवतः योगी का खेल जरा अलग है , उसका सामना मनुष्य से नहीं केंद्र से है। इसलिए अन्य मनुष्य तो उसके प्रतिद्वंद्वी भी नहीं ! हाँ .....मित्र हो सकते है , सहचर हो सकते है , पर प्रतिस्पर्धी .... बिलकुल नहीं।
सामूहिक या आंतरिक चर्चा में जब विषयवेत्ता विज्ञानी तर्क सहित आध्यात्मि से उस की सोच का आधार माँगता है तो वास्तविक ज्ञानी आध्यात्मि हास्य से उसे मात्र बालक की दृष्टि से ही देख पाता है , नन्हा बालक जिज्ञासा में है उत्तर से प्रमाण निकालेंगे। किसका प्रमाण ! जो पहले से ही मौजूद है , और जहाँ योगी नितप्रति भेंट करते है, अनुभव करते है।
थोड़ी और विश करें ! जी हाँ ! अब डिश (एंटीना ) की बारी है ,
यहाँ विषय वेत्ता की सीमा है , उसका ज्ञान अदृश्य को उपयोगिता के लिए सुलभ करने तक है , कला सौहार्द का सूचक है , अध्यात्म की पकड़ यहाँ से शुरू होती है जहाँ विज्ञानं (जिज्ञासा नहीं पकड़ ) समाप्त होता है , उसके पहले अध्यात्म विषयों को सहारा बनाता है कभी गीत कभी संगीत कभी चित्र कभी प्रमाण संचय , आदि आदि , पर अब कोई प्रमाण नहीं , कोई विषय भी साथ नहीं। अब ! अब हम उतारते है परतों में प्रमाण रहित रहस्य की परतों में उनको अनावृत करने के लिए , और पाते है धरती की रहस्यमयी परतें , तरंगो और रंगों के रूप में वायु के जल के रूप में , इनमे छिपी ऊर्जा के रूप में। और गहरे उतरे तो पाया , इनमे भी हलके हजरे प्रभाव वाले स्तर है अर्थात घेरे है आव्रत्तियां है और सामायिक नियम बद्ध पुनरावृत्तियाँ भी है। थोड़ी और विश की , डिश को और सही किया। और गहरे उतरे तो पाया , धरती के ही तत्व अपने तत्व के पोषण का कारन बनते है देह का कारन बनते है जन्म और क्षय का कारन बनते है ,,,,अर्थात हर तत्व जो भी हम ग्रहण करते है , वो ऊर्जा रूप में अपने उसी तत्व को जा मिलता है नवजीवन के साथ। इनमे कोई मेल नहीं होता , भले ही आपकी पाकशास्त्र की कुशल रेसिपी कितनी भी रंगीन और मिलीजुली हो। आपके अंदर प्रवेश पाते ही आपके स्वयं के तंत्र उनको छन्न और अलग करना शुरू करदेते है जिसको आप पाचनतंत्र के नाम से जानते है। और व्यर्थ (जो वास्तव में परिवर्तित है व्यर्थ नहीं पर आपके लिए विष है ) मल द्वार से बाहर निकाल देते है। विषय था धरती के रहस्यमयी अदृश्य तत्व अपने ही तत्वो को जीवन देते है , वे सब पहचानते है , इनमे कोई मिलावट संभव नहीं , और यहाँ मिलावट का अर्थ आपकी अपनी देह समाप्त वो अन्य ऊर्जा पात सहन नहीं कर सकती। यानि आपकी नन्ही से देह में विशाल धरती की देह समाती है , ( ध्यान दीजियेगा ये आपकी नहीं , सिमित अवधि का उपयोग है ) और इस अवधि में धरती का पोषण आपको सुगम है। धरती आपके अंदर रहस्यमयी ऊर्जाओं संग मिल के आपकी देह के निर्माण में सहयोगी है , कैसे ! क्योंकि धरती की अपनी देह है जिसमे वो ही सब तत्व प्रचुर उपलब्ध है। मत भूलियेगा धरती स्वयं में खंड है सूर्य से अलग हुआ खंड। यहाँ याद कीजिये गया पूर्णमिदं का भाव और विज्ञानं का सिद्धान्त जो एक अनु में भी वो सब तत्व पाता है जो ब्रह्माण्ड के हैं ! और ऋषियों ने जाना- यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे
यानि अब तक आप अपनी और धरती की दैहिक अवस्था से परिचित हो चुके है। इसी प्रकार नवग्रह है और आकाशगंगाएं है। जो निरंतर विकसित हो रही है समाप्त हो रही है। ऐसा विषयवेत्ताओं द्वारा जाना जा चुका है। अर्थात यदि अनु का सिद्धान्त और उसकी सर्व व्यापकता को ही आधार बनाये तो माना जा सकता है जो जन्म ले रहा है और जिसका क्षय हो रहा है उसकी अपनी देह है जो बन रही है और मिट रही है। धरती पे वृक्ष वृक्ष की शाखाएं उसकी जीवनदायी वाहनियां जिनमे दौड़ता जलतत्व , पत्ती पत्ती तक ऊर्जा को रक्त के माध्यम से सुलभ करता जल तत्व , सब आपकी देह जैसा ही है। जिन्होंने भी ऊंचाई से देखा उन्होंने इसकी सम-तुलना धरती में फैली धमनियों से की है जिनमे जल प्रवाहित है। योगी का योग ध्यान आपके लिए कल्पना हो सकता है , पर उसे लिए उन्ही वैज्ञानिक सिधान्तो को और विशाल रूप में अनुभव करने जैसा है। जो अपने शरीर में उतर ब्रह्माण्ड में उतर जाता है , पहले वो अपनी धमनियों में रक्त कण बनता है फिर वो धरती की शिराओं में बहता है वो ही आकाशगंगा की शिराओं में दौड़ता है , पर वो ये भी जानता है के मानव बुद्धि पहले फिर विषयवेत्ता और बाद में इसी क्रम में उसके भी बाद विषय की खोज और उसकी पुनर उपयोगिता .....!

क्या कहते है आप ! यही क्रम है न !

यदि विज्ञान ये पिंड और ब्रम्हाण्ड की एकता का नियम .....खोज के बाद .....दे रहा है , "मैं" (atma) तो पहले से अनुभव लिया हूँ , क्योंकि सब मुझमे ही तो है , मैं ही मैं तो हूँ ’ इस देह में जन्मे सभी मित्र सहयात्री है , जिस ट्रैन में मैं बैठा उसी में ये बच्चा बैठा मुझसे ट्रैन का स्वरुप और प्रमाण मांगता है , कहता है इस ट्रैन में सीटें है , गलियां है , दरवाजे है , पेंट्री और ऐसे ही कई डब्बे भी है , पर क्या प्रमाण की ये ट्रैन ऐसी ही है जैसी आप कह रहे है ! लगता है अभी जिज्ञासा से भरा बच्चा है। कैसे कहें , हेलीकॉप्टर या पैराशूट से ही पूरी ट्रैक पे भागती इस ट्रैन का दर्शन सुलभ है। ट्रैन के अंदर बैठे-बैठे अंदाज ही लगा पाएंगे और प्रमाण इकठा करना आस पास के पदार्थों से ही संभव है , उसी बालक के पडोसी बालक कहते है - ‘भाई ! हम तो प्रमाण ही मानते है , और मेरे दोस्त को प्रमाण ही स्वीकार है , जो जो ये प्रमाण देता जायेगा हम मानते जायेंगे !’ ठीक है प्रमाण का अपना नजरिया , सत्य की अपनी सत्ता है ..... ऐसा ज्ञान योगी को होता है।
ऐसा अनुभव योगी को होता है
ऐसा ज्ञान साधक को होता है
और ये जानकारी बच्चे बच्चे को है।
जब ये पिंड और ब्रह्माण्ड अनुभव में आया तो जो सबसे महत्वपूर्ण बात स्पष्ट हुई की - धरती नष्ट हो रही है क्योंकि धरती की देह है ऊर्जा युक्त सौर मंडल बढ़ रहे है अर्थात उनका भी क्षय है नष्ट होंगे ही होंगे , अवश्यम्भावी है। अर्थात उनकी भी देह है , और सबको जो धारण कर रहा है उसकी भी देह है जिसमे हम कितने तुक्छ है की खुद को नजर ही नहीं आ रहे , हमारा समय भी छोटा हमारी सीमायें भी छोटी , हमारी गति भी छोटी और हमारी मति भी छोटी अब जब मति ही छोटी तो सोच बड़ी कैसे ! वो भी छोटी।
न न !!!!!
अभी रुकिए !!
अभी दो परिस्थितियों का मेल न करें !
गंध , ध्वनि , रंग और तरंग में अजीब कशिश है , जितने चाहो मेल और सांख्य आंकड़ो में उपलब्ध है हजारो लांखो करोड़ों , और हर एक के अपने सकारण बहाव भी है इसीलिए अर्थ के अनर्थ आसानी से संभव है , गंभीर या मनोरंजक खेलों में भी ऐसा ही है । गंभीर को हम राजनैतिक नाम देते है और मनोरंजक को सामाजिक।
हम्म !
छोटी यात्रा की चर्चा छोटी यात्रा पे करेंगे विषय वो ही रूप रस गंध स्पर्श पर अर्थ होंगे लौकिक रोजमर्रा के धार्मिक , सामाजिक और राजनैतिक ...... पर अभी आप बड़ी यात्रा पे है , उस यात्रा में आपकी याददास्त बड़ी है वो छोटी नहीं। संजोने की और बटोरने की आदत आपकी यहाँ की नहीं , कोई भी आदत / व्यव्हार / गुण / आकर्षण आपके अपने नहीं , यहाँ के भी नहीं , ये अति प्राचीन है और इनकी सत्ता विश्वात्मा ( जिसकी देह में आकाशगंगाएं बहती है ) में स्थिर है अर्थात उसकी भी देह है , जिसमे त्रिशक्ति वास करती है, अर्थात उन त्रिशक्ति-देह उसकी देह में ह्रदय है बुद्धि है, उस देह के ऊपर भी जो है , जो भी है , क्या नाम दें , देह रहित है फिर वो अंतहीन है क्योंकि उसी में उत्पन्न उसी में लय है। कोई भी नाम उसके साथ न्याय नहीं करेगा , समझ लें , इतना ही काफी है। वो ही महाशून्य है वो ही एक है जिसकी तरफ आप हम इक्छा से या अनिक्छा से बंधे हुए भाग रहे है। और इस विकास क्रम में यद्यपि आपकी सत्ता कुछ भी नहीं फिर भी आप उस महांश के अंश है , यानि सागर में बूँद आप है , और शिवोहम क्यों है क्योंकि उसका अंश आप में जीवित है आप में धरती जीवित है धरती के तत्व आपमें जीवित है और आप धरती पे जीवित है। इस गोल घेरे को समझने जैसा है , आप नष्ट एक अवधि में , धरती समाप्त एक अवधि में , सौरमंडल समाप्त एक अवधि में , ब्रह्माण्ड भी समाप्त एक अवधि में , ये अवधि काल का घेरा है गोल पहिया , अगर सागर और उसकी बूँद में जलतत्व एक है , अनु परमाणु या नन्हा अण्ड और वो ब्रह्माण्ड एक है , तो इस काल नामके विशाल समय के भी घडी घंटे पल एक ही है वो ही आवर्त्ती और पुनरावृत्ति के सिद्धान्त के साथ , अपनी धुरी पे गोल गोल घूमते हुए छोटे पहिये बड़े पहिये और बड़े पहिये। आपने डिजिटल नहीं यांत्रिक घडी देखी है , एक बार अनुभव कीजिये , स्विस घड़िया मशहूर रही है , और बिगबेन का भी वो ही सिद्धान्त है , दो लाईने याद आरही है " गाफिल है तू घड़ियाल ये देता है मुनादी गर्दू ने घडी उम्र की एक और घटा दी "
अपने संस्कारगत विश्वासों में जीवन पाते आप जरा इस यात्रा के महान अर्थ को जानिए तो पाएंगे सिर्फ प्रेम ही समस्त आकर्षण और ऊर्जा आपकी चेतना (जीवांश ) का आधार है। इसके अतिरिक्त सभी अनुलोम विलोम में संज्ञा सर्वनाम में विशेषण क्रिया में विभाजित है म फैले है और सर्वत्र टूटे बिखरे है . आप क्या कर रहे है , आप उन्ही टूटे टुकड़ों को जाने में या अंजानी जिज्ञासा में जोड़ रहे है। फिर संदेह में घिरते है तो फिर लगता है मोती इस माला में सही से नहीं गए , कुछ आगे पीछे हो गए फिर वो ही माला उधेड़ते है , फिर पिरोते है। सब यही कर रहे है क्या ज्ञानी जुलाहे का ताना बाना और क्या आध्यात्मि खानसामे का सतरंगी मसाले और लजीज पाकशास्त्र और क्या समग्र विषयों का ज्ञाता तो विशेष विषयवेत्ता , और क्या उत्कृष्ट राजनेता और समृद्ध धर्माचारी। पहले खुद वो इस पज़ल के ब्लाक से खेलते है फिर वो नन्हे टुकड़ो में आपको सौंप देते आप उनको वैसे ही जोड़ने लगते है। बस जन्मजन्मांतर के यही खेल है।
समझे क्या !
आपो दीपो आपो भव
प्रणाम

Tuesday, 17 January 2017

सावधान राजन !

र पल क्षण सतर्क , द्वार पे ३२ कठपुतलियों का पहरा है , यानी ३२ मायावी संसार , इनसे भेंट कर लें !
ये सभी ह्रदय से मुस्करा के स्वागत करती हैं , मनमोहनी हैं , वाक्चातुर्य और नृत्य संगीत और चित्र कला की स्वामिनी हैं , विज्ञानादि विषयों में विद्वान है। फिर भी सावधान राजन ! ये वे मायावी कठपुतियां है जिनका उद्देश्य आपको सिंहासन तक न पहुँचने देने का है , क्योंकि ये नियुक्त है अपने कर्त्तव्य पे निष्ठ है जो माया देवी के आदेश से उसी को आगे जाने देंगी जो वीर है साहसी है और बुद्धिमान है।
अब मजा देखिये !
भी के लिए ऐसी ही सोती हुई सी जागृत व्यवस्था है , जिसमे सभी आत्मन राजन है , और सारा बाहरी संसार मायावी ......
सलिए एकमात्र आप ही राजन नहीं सभी राजा है और सभी सिंहासन की ओर बढ़ रहे है , उनके लिए आप उन ३२ में से एक कठपुतली और आपके लिए वे। ये भी माया ही है।
सागर में पानी ही पानी फिर भी गहरे सागर से एक विशाल लहर उठ के अलग हुई , लहर से बूँद छिटक अलग हुई ग्लानि हुई उसे जो अकारण ही अपने जन्मस्थल से दूर पड़ी जा के , बूँद ने अपने इस कृत्य के लिए तप किया, तो उत्पन्न अग्नि के ताप से भाप बन गयी , भाप बन आसमान को उठ चली , आसमान से ऊपर नहीं उठ पाई , वैसे उठती तो भी महाशून्य में नन्ही त्रिशंकु ही बनती , तो वो धरती-त्रिशंकु बन गयी , धरती पे ही थोड़ा ऊपर उठी और उठ के लटक गयी , धरती की मेहरबानी से वातावरण से अलग कैसे होती ! तो ग्रेविटी के अंदर होने के कारन वातावरण के परिवर्तन से प्रभावित हुई और जल बन बरस गयी , अब बताईये ! जो लहर सागर से उठी और वो बूँद जो छिटक के अलग हुई लहर से भाप बन बदल बन के फिर से बरस गयी , आपने पहचाना क्या ! आपने उस बूँद की कोई पहचान , कोई संकेत , कोई चिन्ह , नहीं बनाये , क्यों आश्चर्य है ! आपको पुरानी यादाश्त सँभालने की उसमे घूम घूम के जीने की सदियों पुरानी बीमारी है। और आपको अपनी इस गहरी बीमारी का आभास तक नहीं।
ब आप ही कहेंगे, पागल हो क्या ! जब पानी की ही पहचान नहीं , कल भाप , परसो बर्फ , और फिर पता नहीं कहाँ गिरा ! कहाँ बरसा ! फिर बूंद की पहचान अलग से कैसे हो ! मुझे पता है हम-आप तो जल को पहचानते है , उसके गुण को पहचानते है , उसकी उपयोगिता को भी जानते है और उसके परिवर्तनशील स्वभाव को भी जानते है। . पर वो....... उस नन्ही बूँद की....... पहचान है क्या ! नहीं न ! तो इन छोटी छोटी फुलझड़ी सी चेतनाओं को क्यों उनके गुणधर्म से अलग करना चाहते है ! कैसे कर पाएंगे महासूर्य से उसकी ऊर्जा को अलग !
प तो विद्युत् की उपयोगिता को पहचानते है , अग्नि की किसी एक लपट को उसके नाम से पहचानेंगे क्या ! और वायु ! आह ! कैसे पहचानेंगे! तो बेचारे धरती तत्व ने ऐसा क्या किया की आप संज्ञा और सर्वनाम , क्रिया और विशेषण में उलझ गए ! तत्व की , तरंग की , भाव की , और जो भी धरती पे आपसे सम्बंधित है उसकी परिवर्तनशीलता और उपयोगिता ही उसकी सही पहचान है।
सोचने वाली बात तो है पर अब इसका चिंतन मत शुरू कीजियेगा ! तब तक जल पता नहीं क्या रूप बदल लेगा ! आज जल का जो भी स्वरुप है वो ही आपके लिए सच है , क्योंकि आपका जीवन भी तो बदल ही रहा है। प्रकर्ति में पुनरावर्तन पाया जाता है , सच है ! पर अवधि और अंतराल माने रखते है ! जिस पल में जो साथ है वो सच है , जो सम्बन्ध है वो सच है। प्यार के लिए चार पल कम नहीं थे , कभी तुम नहीं थे कभी हम नहीं थे।
कौन से ध्यान-जादू या तंत्र मन्त्र सिद्धि से आप ऊर्जाओं को अलग करेंगे और फिर उन्हें सहेज लेंगे या आपके परम शक्तिशाली गुरु की कृपा से आप वो शक्ति से त्रिशंकु बनने की चेष्टा करेंगे , बिना अर्थ और मर्म समझे , आप अपने बनाये मंदिर में पत्थर की प्रतिमा बना के उस फुलझड़ी को जीवित रखने की चेष्टा करेंगे और कहेंगे भी के जादू होता है , कब नींद से जागेंगे !!
वैसे क्या करेंगे जाग के !
दुनिया में सोते रहना अच्छा है और सोते सोते चले जाना और भी अच्छा फिर समस्या क्या है ?
भाई ! समस्या ही समस्या , आप कहते की हम सोये है...... फिर क्यों दुःख है पीड़ा है जलन है , लग रहा है कोई घोड़े पे बिठा दिया है उसकी पीठ पे चाबुक मार के उसे दौड़ा दिया है , एक तो उसकी बेलगाम रफ़्तार से डर रास्ता भी अँधेरे में ऊबड़खाबड़ , कुछ सूझता ही नहीं और घोडा सरपट दौड़े जा रहा है , और हम ! पूछिये नहीं , अब गिरे की तब गिरे , संतुलन करते करते पीठ अकड़ गयी देह ने जवाब दे दिया। पर लगता है वो भी घबराया है पता नहीं क्यों चाबुक मार के दौड़ा दिया किसी ने और पता नहीं क्यों सर पे पीछे से चाबुक पड़ रहे है इन्ही सबसे पीछा छुड़ाना है , इसीलिए आये है , हम यहाँ यूँ नहीं कहीं जाते , बहुत पैसा खर्च करके यहाँ तक आये है। काम धंधा करते है !
ठीक है ! काम धंधा कीजिये , गुरु का स्मरण कीजिये , गुरुनाम की माला जपिये , और स्वर्ग में स्थान पक्का ! क्योंकि आप तो शृद्धालु है , भक्त है , भगवन की पूजा भी करते है और ध्यान - पूजन - भजन भी !
ही है ! पर क्या आपने गौर किया की जब घोड़ा यहाँ रुका तो चाबुक पड़ने भी बंद हो गए , वो बोला हाँ योगेश्वर की बड़ी कृपा है , चेतना ने कहा - योगेश्वर महान है सही है ! पर थोड़ा डर को रोक के घोड़े को पुचकार के सहला के रोकते तो वो रुक जाता और उसके रुकते ही फिर आप देखते की चाबुक आपको कोई और नहीं उसकी पूंछ में अटकी लकड़ी से लग रहे थे। सारा आपका काम आपके धैर्य से और प्रेम से संभव होता। पर चलिए ये भी सही , आपको इसी रस्ते से गुजरना था। सत्य की सत्ता तो सभी जगह कहीं से भी ले लीजिये। सत्य तो सर्वस्व है , फिर कुछ झूठ और कुछ सच कैसे हो सकता है , सम्पूर्ण सत्य ही है बस अज्ञानता अपनी है और भटकन अपनी है ।
हैं न

Tuesday, 3 January 2017

क्यों है इतनी उथलपुथल , क्यों है इतनी भटकन / विचलन , कारन अभी और स्पष्ट हुआ , की हमारा जन्म स्रोत ही एक्टिविटी के कारन है , हम खुद में जीते जागते एक्टिविटी है , हमारा एक एक सेल जीवित है यानि एक्टिव है और जब तक एक्टिव है तब तक जीवित है। हमारा ब्रह्माण्ड एक्टिविटी का भण्डार है , जहाँ निरंतर ऊर्जा का नृत्य चल रहा है। जहाँ ठहराव का या शिथिलता का अर्थ समाप्ति की ओर इशारा है। ऐसे ब्रह्माण्ड हमारी धरती सतत क्रियाशील और उसके अणु लगातार चक्कर काट रहे है और हमारी उत्पत्ति के कारण भी यही है और क्रिया द्वारा परिवर्तनशीलता हमारे रोम रोम में है। वो ही व्यग्रता वो ही बेचैनी , कुछ करना है , कुछ करते ही रहना है , ठहरे तो म्रत्यु का आह्वाहन इसलिए मस्तिष्क भागो ! भावनाये भागो ! देह भागो ! कोई कहीं ठहरता ही नहीं। ठहरने की गुंजाइश भी नहीं।
तो जो ठहराव का गुण / देह का योगधर्म / चेतना का मौन अवलोकन , सिखाया जाता है वो गति को रोक नहीं सकता . हाँ ! क्षण भर को आराम जरूर दे सकता है , और इसी से पुनः शक्ति इकठा होती है , इस जीवन यात्रा को पूरा करने के लिए .
इसके आगे ' न तुम जानो न हम '।
कुछ समझे क्या ! मुझे तो इतनी सुंदर उपलब्धि हुई इसको अनुभव करके की अवर्णनीय है , आप भी इस सत्य को अनुभव कीजिये

स्वयं को जानना जरुरी है , स्वयं से जुड़ना जरुरी है ! कहा गया है " स्वयं " का ज्ञान उच्चतम ज्ञान , पर ये स्वयं क्या है ! According to Deepak Chopra -" The self is the awareness in which all element of knowing-experince happanes " अपने बारे में जान गए तो समस्त ब्रह्माण्ड के रहस्य उसी क्षण अनावृत हो गए। रहस्य के स्पष्ट होते ही न तो दुःख ना ही सुख , सिर्फ एक भाव बचता है वो है आनंद का। पर क्यूँ स्वयं को जानने की इतनी प्रबल आकांक्षा , क्यों दुःख का सैलाब और सुख का सागर हिचकोले ले रहा है और हमारी नईया लहरों के ऊपर डग्गमग डग्गमग चल रही है , क्यों योगी का दृढ व्यक्तिव सभी आदर्श मान के अनुसरण करना चाहते है , विरले हैं जो पाना ही नहीं , स्वयं होना चाहते है।

ये शरीर (शब्द ) अपने आप में अनुभव है जो अनुभव से जन्मित है और इसके द्वारा अनुभव ही किया जा सकता है। ये अपने आप में क्रिया से उत्पन्न है और क्रिया ही इसके जड़ में है। ये जगत सांकेतिक है और संकेत ही प्रामाणिक भी वैज्ञानिक भी , पर फिर भी है संकेत-परिवार से ही , ऐसी ही भाषा समूह है , जिनमे वैचारिक अभिव्यक्ति के लिए शब्द बनाये है। ये ही जो “संकेत” शब्द है सूक्ष्म-ग्राहिता से उनको पहचान के विचार और भावनाओ में बदलता है जो एक धारणा के समूह का जनक भी है जो निश्चित आकार और प्रकार को न सिर्फ जन्म देता है बल्कि व्याख्या भी देता है। इसको ज्ञान की देह कह सकते है। इस ज्ञान की देह के आधार पे हम स्वयं को खोजते है , और उससे उत्पन्न अनुभव को हम सत्य से जोड़ने की कोशिश करते है। और जैसे ही शब्दो और अनुभवो को मेल मिलता है एक चमक सी पैदा होती है। जो दिमाग - देह - और अंतरिक्ष में संबध देती है , ये सब बनाये गए है निर्मित है। कह सकते है सच्चाई / वास्तविकता निजी अनुभव से निर्मित धारणा है जो निजी अनुभव पे टिकी है , शब्दो और अनुभवों पे टिकी "वास्तविकता" वास्तव में स्वयं गहन बातचीत के , गहन स्पंदन के , गहन भावनाओं के धारणागत परिणाम है , ध्यान से इकठे अनुभव समूह भी देह - मस्तिष्क - और अंतरिक्ष का सम्बन्ध है , जो निश्चित शब्द के आते ही ज्ञान से जुड़ के अपना नया अनुभव बना लेता है जैसे चंद्रमा जैसे सूरज , जैसे और गृह और उनसे सम्बन्ध । इन्हें खवालिया के नाम से भी जाना जाता है , वास्तव में जितने भी शब्द भषा में है उतने ही आपके कॉन्सेप्ट्स है इनमे चिड़िया बिल्ली आदि शामिल है। यहाँ तक की समय भी कांसेप्ट है। स्पेस , स्पेस के अनुभव उनकी व्याख्या ये सब कांसेप्ट के ही भाग है जो शब्दो या भाषा से उत्पन्न है जिनको वैचारिक आदान प्रदान के लिए उपयोग किया जाता है। और जैसा की स्पेस और स्पेस से जुड़े अनुभव भी कांसेप्ट में ही है, जब हम रियलिटी की बात करते है तो कहते है की आकार-रहित गंध-रहित , शब्द-रहित , स्थान-रहित , अंतरिक्ष में या समय के आधार पे रहता समयातीत , वास्तव में यही मौलिक और मूल-वास्तविक्ता है। और ये वास्तविकता का दर्शन पिछले सारे सोचे , इकठे किये , अनुभव को समाप्त करता है। और जैसे ही अनुभव का ये भाग शुरू होता आप उस प्रकाश के मूल से जुड़ने लगते है।
अनुभवरहित, ज्ञानरहित, स्थानरहित, समयातीत, ये अवस्था निर्दोष भ्रूण की अवस्था से भी पूर्व की। और इस सत्य की आप धारणा नहीं बना सकते , देख नहीं सकते , छू नहीं सकते , सोच भी नहीं सकते , पर ये सब क्रिया से संभव है , इसीलिए अंतरिक्ष वस्तु नहीं क्रिया है, और वो ही क्रिया आपके अन्तस्तमः तक है , आप स्वयं क्रिया के जनक क्रिया से जन्मे है ,आपका शरीर भी , वस्तु नहीं क्रिया है क्रिया का परिणाम , जैसे जन्म एक कांसेप्ट है वैसे ही म्रत्यु भी एक कांसेप्ट है और जिसका विश्लेषण अनुभव बनता है , अनुभव लेना इन्द्रयिक संवेदनशीलता से जुड़ा है , वास्तव में जो वास्तविक है वो तो जन्मा ही नहीं , जिसे जाना ही नहीं जा सकता , हाँ , क्रियाओं में अनुभव किया जा सकता है उस अनुभव की विअख्या विश्लेषण भी किया जा सकता है तो वास्तव में रियल जो आप है वो आप अपना और अपने करीबी और विस्तृत आस-पास के अनुभव का समूह है , वास्तव में रियल आप / अंतस्तम .... डायमेंशन रहित है , पर आप अपने को राइज / उच्चावस्था दे सकते है अनुभव की क्रिया से , क्रिया जो आप में है , जो यत्र तत्र सर्वत्र है ,शृद्धा और आस्था भी इस सत्य को स्वीकार नहीं , यदि आप इनमे से कुछ भी ले या दे रहे है ये आपका सङ्केत भाव ही है , आप अपने को समझ सकते है , जान सकते है, जब आप ध्यान से अनुभव से निश्चित धारणा बनाते है , आप गहन चिंतन करते है, विचार करते है , कल्पना करते है , फिर आप कृति बनाते है यहाँ तक की निराकृति की भी। और फिर ये मस्तिष्क का उभरा हुआ सत्य बनता है वो मौलिक सत्य नहीं जिसे आप खोज रहे है। ये भी की जो भी धारणा बनती है और ध्यान का उपयोग किया जाता है , वास्तव में तब तक सच तक पहुंचना तो दूर , सोच भी नहीं सकते।
क्यों ! क्योंकि कल्पनाये आकार बनाती है या निराकार का भी आकार बना देती है , और सच का कोई आकार कोई प्रकार कोई निशानी कहीं कुछ नहीं , जो है वो कुछ विशेष है , कुछ विशेष पाना है की , दौड़ ही दौड़ है।
कुछ समझे क्या आप ! इस सत्य का रूप ....... स्वरुप रहित क्यों है ....! और क्यों जान के भी नहीं जाना जा सकता , पा के भी दूर हो जाता है। और अचानक उस एक पल में आप उस सत्य का हिस्सा बन जाते है जब आप हर धारणा और शब्दकोष व्याख्या आलोचना , आकार- प्रकार और जानकारियों से खाली हो जाते है
प्रणाम ॐ