Friday, 25 September 2015

स्वागतम शुभ स्वागतम्


जहां आकृति है, 
जहां रूप है, 
वहां माया है।

उनके भी पार जो अरूप है, 
वह ब्रह्म है; 
वह सिर्फ विस्तार का नाम है
अनंत विस्तार का… 
!! ओशो उपनिषद !!

यहां रोज कोई मरता है। हमारे यहां रोज़ फूल वृक्ष से गिरता है, कि फल वृक्ष से गिरता है, यहां हम भी ज्यादा देर नहीं हो सकते। लाख अपने मन को समझाएं,  लाख अपने मन को बुझाएं, कैसे तुम धोखा दोगे ? इतने प्रमाणों के विपरीत तुम कैसे अपने को धोखा दोगे ?  सारे मरघट, सारे कब्रिस्तान प्रमाण हैं इस बात के कि यह जगह घर नहीं है। जैसे ही यह जीवन की व्यर्थता के दर्शन स्पष्ट हो जाता है। तब आदमी सुख की तलाश करता है, लेकिन सुख शाश्वत में ही हो सकता है। इस सूत्र पर ध्यान करना। सुख शाश्वत का लक्षण है। क्षणभंगुर में सुख नहीं हो सकता। यह जो पानी के बबूले जैसा जीवन है, इसमें तुम कितने ही भ्रम पैदा करो और कितने ही सपने देखो, सुख नहीं हो सकता।

!! ओशो !!

विद्वान का प्रयोजन इशारे तक है , इस अनुपम कार्य के लिए उसका आभार , व्यक्ति विशेष पे  अपनी आस्था का भावनात्मक बोझ परम आस्थावान हो के  न   डाले  कृपया  , उधार की खूँटी पे न लटके।    विद्वता  के साथ मात्र सत्य को संभालें।    समय की  बनी बनायीं  नदी पे बहते हुए धर्म और दर्शन के  भाषा  बहाव को  ध्यान में रख्हें।   जिस समय  काल में समाज में  संस्कृत ( पाली + प्राकृत की जननी ) अर्थात देववाणी  का चलन था।   विद्वानों द्वारा शास्त्र  की रचना  उसी भाषा में हुई , समस्त व्यव्हार  शास्त्रार्थ  कविता  ग्रन्थ  उसी भाषा में बने। और यही जीवजगत की  प्रकट संवेदनाओ का सच भी है   विचारों को वाणी  और वाणी को  भाषा  चाहिए ही चाहिए।  समय बीता  भाषा  ने अपना रुख बदला , वस्त्र बदले ,  फैशन बदला बोलचाल की भाषा  पाली  और प्राकृत  हुए   और  सिद्धार्थ ने  सर्वप्रथम  सत्य का साक्षात्कार  कर  ज्ञान फ़ैलाने  की उस आवश्यकता की गंभीरता  को जान  दर्शन को नए वस्त्र दिए  प्राकृत भाषा  में। अरसे  के बहाव के बाद  फिर  समय ने करवट लीऔर समय  ने फिर भाषा  व्यवहार में बदलाव किये।  अब  भाषा  देववाणी से देवनागरी में बदल गयी , जिसको आज कल की  खड़ी  बोली भी कहा जाता है ।   सत्य को जनसामान्य तक फिर से   पहुँचाना  था।  हमेशा की तरह एक  बार फिर उसी सत्य को नए  कलेवर  और आभूषण पहनाये गए , ध्यान दीजियेगा !! सत्य ने सिर्फ अपने वस्त्र और आभूषण बदले  । सत्य अटल  एक ही है , फिर  किसी देश काल  स्थान  भाषा और समय में  किसी के भी द्वारा कहा जाए , लिखा जाये  अथवा गीत बना के  गाया जाये । फिर  वो कृष्ण कहे या राम  , नानक कहें बुद्ध कहे,मीरा के भजन बन जाए या सूफी की नज्म  या कोई सद्गुरु उसे अपनी भाषा में कहे , उसी सत्य को वाल्मीकि ने अपनी तुलसी ने अपनी प्रचलित भाषा में कहा ,पर अपनी कथा में राम को किरदार दे दिया , कृष्ण ने स्वयं ही ज्ञान दिया गीता के रूप में अष्टावक्र ने स्वयं वो ज्ञान दिया,राम ने ऐसा कोई ज्ञान ग्रन्थ में नहीं दिया तो तुलसी और वाल्मीकि ने वो कमी अपने ग्रन्थ से पूरी कर दी ..... हाँ , तुलसी .... भक्ति की अजीबो गरीब धारा के जनक बन गए जिसमे  भक्त  बिना सोचे विचार के अपना सर्वस्व अपने प्रिय को  समर्पित करता है , जिस में  चरित्र-भक्ति धारा में सभी आज तक उलझे है और इन चरित्रों  की पूजा और भक्ति में  आकंठ  डूबे है  ;  वो भी अपनी अपनी अधूरी इक्छाओं के साथ , तुलसी जी  की तपस्या से उत्पन्न  गहरे अनुभव निश्चित ही सही है , संशय नहीं , पर लिखने  और विचार अभिव्यक्ति से भी पहले  विचार उपजने  का बिंदु है  और बिंदु से अभिव्यक्ति के बीच का  अंतराल महत्वपूर्ण है  , इस विचार उत्पत्ति  और कागज पे शब्द  के उभार  के बीच , लेखक के अथक प्रयास के बाद भी कुछ मौन बन के  भाव तरंग  छूट जाती  है  जिसको वो स्वयं  भी कहने में सक्षम नहीं ,   जिसमे चरित्र  अपना अपना अभिनय करते है और  समाज की विधान देते है , पर इन सबके पीछे तुलसी का अपनी तपस्या का ज्ञान छुप गया अनलिखा रह गया जिसको सिर्फ अनुभव किया जा सकता है  जो  रूढ़िवादियों तक नहीं संवेदनशील तक पहुँचता है , जिसका मर्म  ही है   " शुद्ध को शुद्ध ही चाहिए , इस भाव को मिलावट  मंजूर नहीं "  ये भी कहने की कोशिश की  .... पर .... ,  पात्रों/चरित्रों के माध्यम से भक्ति का महत्त्व भी  बताये, ...... पर ...... , हर तरीका  हर चरित्र   विधान और पूजा / अनुष्ठानों  के नीचे दब गया, रूढ़िवादी कट्टरपंथी रीतिरिवाजों में बंधे स्वविचार से विपरीत  इंसानो का खून करने में भी नहीं चूकते । कट्टरपंथी तो हर धर्म में पैदा हुए है  ।  जो अपने ढंग से ही धर्म को मानते और मनवाते है । पर सत्य इन सब स्वांग से विपरीत है , उसे इन सब व्यवहार से कोई लेनदेन ही नहीं । 

यही हादसा  अन्य प्रचलित धर्मों के साथ भी हुआ , अर्थ  होते चले गए , वाणी  की व्याख्या अनवरत  होती गयी नए नए  धार्मिकों  की  खुंटिया  (सम्प्रदाय ) भी बनती गयी और सत्य  कोहरे में  छिपता गया , क्यों ?  क्यूंकि सत्य तक पहुँचने  का वो रास्ता था ही नहीं , सत्य की सीढ़ी  तो सीधा  अंदर को उतरती है , और मौन को साधते  हुए चक्रों से गुजरती सीधा  केंद्र को छूते  ही , परम से मिल जीवंत हो जाती है।   जिसको  सूफी ने और संतों  ने जाना   भक्त  ( भक्त से  अर्थ  पत्थर के भगवन पूजने से नहीं  वरन  जिसकी लौ   जग के  परम को बढ़ती है  ऐसे  भक्त ) गीत द्वारा गाते है।   ये भाव ही अनूठा है   जीकर ही  अनुभव किया जा सकता है।  

सत्य बहुत सरल है सहज है किन्तु कलेवर अत्यंत उलझे हुए.....सत्य को जानिए , समझिए , जो संसार के तल पे सिर्फ प्रतीकात्मक है , और अध्यात्म के तल पे वो अकेला परम केंद्र है जो सभी केन्द्रों से बद्धः है । 

तात्विक-व्यक्ति को आधार बना शुद्ध सत्य पे अपनी शुद्ध आस्था का समर्पण करें। यही ज्ञान का आधार है और कहने वाले  का प्रयोजन भी यही है  ,  शुद्ध  का मेल शुद्ध से ही  उचित है।  कुछ समय बाद सत्य को फिर नए वस्त्र की आवश्यकता  पड़ेगी , क्यूकि   अभिव्यक्ति तो भाषा से ही संभव है , और वो भी बोलचाल की  जनसामान्य की।  जैसे ही बोलचाल का माध्यम बदलता है  सत्य अपने वस्त्र बदलता है।  स्वागत कीजिये  इस बदलते कलेवर का  आभूषण का।  पर सत्य  तो सत्य ही है।  वो चाहता है आप उसे शुद्ध उसी के रूप ने उसे स्वीकार करें।   भाषा के पीछे  बैठे सत्य को जाने।   अपनी श्रद्धा  अपना समर्पण  उस सत्य के लिए रख्हें।  वस्त्र पे अपनी आस्था और विश्वास को मत गिरने दें। बौद्धिक  रूप से तैयार  रहिये  एक बार फिर  स्वागत  कीजिये  उसी सत्य का  उसी अभिव्यक्ति का फिर बदले हुए वस्त्रो  और आभूषण  के साथ, बस इसी तरह  पुराने में से  इत्र  निकालते  हुए  नित नए  सुगन्धित और सुगठित  आकृति  में ढलता जाता है , यूँ  ही वख्त कथा कहानियों और परम्पराओं को समेटे  बहता जाता है ; वृहत-कालचक्र  के मध्य स्थल में  बहती हुई नदी के साथ । काल चक्र की  इस धारा  में सब कुछ परिवर्तित हो रहा  है सब कुछ तात्विक रूप से  बदल के नवीन हो रहा है।  और जो नहीं   बदल रहा वो सत्य   है  जो अकेला है  अपरिवर्तनशील है।  जिसको  समय ने गीता में कृष्ण से कहलवाया , उसी सत्य को  युग युग से  चेतनाएं अलग अलग नाम  से कहती आई है।  कृपया संज्ञा में उलझ इस जन्म की समय और ऊर्जा व्यर्थ न करें।  


वातायन  खुले रखें , करें स्वागत सुवासित बयार का
स्वागत करें इस बदलते कलेवर , इन आभूषणो का !
अनेक टिमटिम जलतेबुझते आस्था के ये रंगीन सच 
सत्य एक 'सत्य' है, निगाहों में से ओझल न होने दें !!

शुभकामनायें 

ओम प्रणाम

Monday, 21 September 2015

चक्र ( एक व्यंग )


21 September 2015 at 09:33
आईये  आईये  श्रीमन ,

आप भी आईये ; विश्वरूप का मुह खुला है , कृपया पंक्तिबद्ध कतार  में लगे लगे अपनी अपनी कला  का प्रदर्शन  जारी रखें ( कला बोले तो हंसना हँसाना ,  गाना , खेलना , चित्र , नृत्य ,  चतुराई  पोंगा है तो पोंगा गिरी , पंडित है तो पण्डितगिरी  , उछलना कूदना  जो भी आता है करते रहिये ; न न ,  बढ़ते रहिये ,  रुकना नहीं है , रुक सकते भी नहीं , अरे अरे , कतार तोड़ने का प्रयास और चतुराई  वयर्थ है यहां , इस दरबार में आपका स्थान  आपकी गति काल अर्थात आने जाने और कालांतर तक सुनियोजित है   तो छोटे प्रभु जी  अपने सांसारिक मस्तिष्क और तर्क और  दैहिक श्रम संकल्प को तनिक  शांत ही रखे और इसी  लाईन  में लगे-लगे  एक के पीछे एक  लगे हुए एक-एक कदम बढ़ते रहिये , ( स्मित रेख के साथ ) आपको क्या लगता है ! वहाँ ( मुख्य दरबार में  उसके समक्ष ) जा के चैन मिलेगा ! रुक पाएंगे ! दो क्षण  के लिए भी हाँफते ढाँपते सांस ले पाएंगे !  उसके सामने तो  आप  सर भी ठीक से झुका नहीं पाएंगे , और आगे बढ़ने का इशारा करते हुए  धक्का  दे दिया जायेगा और आप ढपकढपक  के वहीं  फिर वहीँ टपक जायेंगे दोबारा दर्शनदीर्घा  की पंक्ति में लग जाएंगे  दोबारा दर्शन के इक्छुक  बनके, क्युंकि ये गोल गोल घूमता  पहिया है काल का  जहाँ  आप खड़े है और वो गतिमान है  इसके ऊपर निरंतर चल के भी  ना तो आप आगे ही निकल सकते है  और  ना ही आप इससे बाहर  जा सकते , ये  आपकी सामर्थ्य से भी बाहर  है  हाँ  गतिमान होने का भाव ले सकते है , वो तो आप  आप कुछ न भी करें प्रयास तो भी आपका रोम रोम गतिमान है आप उसे रोक नहीं सकते।

अच्छा  अच्छा  , तो आप कहते है ,' प्रयास  तो किया ही जा सकता है '  जरूर किया जा सकता है , यही तो अद्भुत मानव स्वाभाव और शक्ति है !  कालातीत होने का प्रयास उत्तम है  । पर आप ही  इस तीव्र गति से  गोल गोल  घूमते काल चक्र के  जैसे ही किनारे जाएंगे   स्वयं ही घबरा के फिर मध्य में  आ जायेंगे।  क्यू की  फिर तो अनादि और अनंत में छलांग हो जाती  है और उस छलांग के लिए  अत्यधिक साहस चाहिए , अनूठी छलांग है , जन्मो जन्मो  इसी छलांग  के लिए कठोर तपस्या के बाद भी   ऊर्जाएं  साहस नहीं कर पाती ,  और इसी काल चक्र में घूमना  स्वीकार करती है।  फिर भी प्रयास में  कोई परहेज नहीं।  किन्तु श्रीमान प्रयास के लिए भी अपने सामर्थ्य का घेरा  परख लेना उत्तम है।  उस घेरे के अंदर ही कर्म और प्रयास संभव है।  वैसे  बृहत् काल चक्र के अंदर का  ये बड़ा घेरा - जिसके कारण ही आपको ये स्थान  मिला है और जो सिर्फ आपका  ही अर्जित किये प्रकाश  से प्रकाशित है  , ये ही आपके  कर्म मति  और गति का संचालक भी है।  पहले इससे तो भेंट कीजिये , फिर काल चक्र से बाहर  छलांग की सोचियेगा !

आप पंक्ति में लगे रहे मित्र  , और आपसे चर्चा  जारी  रहेगी , ये  जो चक्र  शब्द है इसको समझते है इसका  अर्थ ही  गोल घेरा  है , इस  शब्द  का अर्थ समझे तो मिली उम्र भी कम पड़ जाएगी , ये तरंगित घेरे  कर्म के और  भाव के है , शरीर के अपने घेरे  जो  सूक्ष्म्तम  कोशिका से लेकर मुख्यदेह में स्थित   ऊर्जा चक्रो  को पनाह देती है मनुष्य के शरीर  घेरे  में ऊर्जा चक्रो का स्वस्थ्य और कर्म की दृष्टि से बड़ा महत्त्व है , अद्भुत नाम है ऊर्जा चक्र , इस चक्र पे बार बार  गौर फरमाइयेगा , इस नन्हे शब्द के  गहन प्रभाव से बार बार आपका सामना होगा , ये  छोटे छोटे असंख्य घेरे यानि चक्र और ये असंख्य घेरे  अपना स्वयं का चक्र बनाते है  तरंगित भी और स्थूल भी  तथा  ये सभी किसी एक घेरे  अंदर रहते है फिर ये एक एक घेरे  मिलके  एक बड़े घेरे  में  विश्राम करते  है  और फिर ये एक बड़ा घेरा जैसे अनेक घेरे  किसी  एक घेरे  के अंदर निवासित है। इन्ही घेरो को समझते और तपस्या द्वारा पार करते करते आपका अपना कर्मघेरा  इस बृहत्  कालचक्र घेरे के ऊपर  इसी की गति से घूम रहा है। जैसे  तारामंडल  का गहन गहरा विस्तृत  समाज है   जो  कई आकाशगंगाओं  का निर्माण करती है ठीक वैसे ही तरंगित ऊर्जाओं का भी गहन और गहरा समाज घेरा  है  जो स्वयं के एक कण में भी पूर्ण है  तथा गुणात्मक चुंबकीय  घेरों में गोल गोल घूमते हुए अपने ही  गुरुत्वाकर्षण से बंधी है।  और आपको जान के महान आश्चर्य भी होगा की मुख्य रूप से  दो शब्दों  को लीजिये  समस्त   स्थूल  मिलके अपना चक्र बनाते है और समस्त तरंगित तरंगे  अपना चक्र बनाती है , और गुणातमक तल पे एक दूसरे से  जुड़े भी है आकर्षित भी है  और सहयोगी भी  है।  इनको कुछ निर्देश नहीं देना पड़ता ,  काल चक्र के ऊपर ये आपस में एक दूसरे से निरंतर संपर्क में है।  फिर भी  स्थूल के साथ मिल के  ये तरंगे निश्चित अवधि के लिए  कर्म करने  के लिए प्रकट होती है  ये कर्म  का पहिया  भी एक चक्र ही है  जिसमे ये तरंगे डोलती रहती है  और विभिन्न संबंधों में बंधी  निरंतर डोलना भी चाहती है।  और सभी मुक्ति का मार्ग जानते हुए भी   बंधन मुक्त नहीं होना चाहती  , ये ही इनका कर्म घेरा है। यानी हर ऊर्जा का अपना अपना चक्र।

क्या कहा !

जरा जोर से स्पष्ट बोलिए , यहाँ फ़ुसफ़ुसाना ठीक नहीं , अर्थ का अनर्थ हो जायेगा  कहना  कुछ  चाहते  थे , इन खड़े गणो की समझ में  कुछ आएगा , क्यूंकि  प्रथम तो आप संसार से आएं  है आपका मस्तिष्क और ह्रदय  अभी भी  गुरुत्वाकर्षण से  प्रभावित है  फिर जो भी आपने अपने प्रयास से सीखी  है  ये बेचारे आपकी उस  भाषा  और आपकी उस  कार्यप्रणाली  भी नहीं समझते  न ही  आप इनकी  तरंगित  कार्यशैली  और भाषा  से दोचार हुए है ,  और दूसरे इस तल  पे ऊर्जाओं की  भीड़ भारी है , असहनशीलता अधैर्य और शोर भी बहुत है    .......

अच्छा , अच्छा !  आजीवन योग  और तपस्या करी है , अच्छा कर्म से आप साधु है और  और बाल्यावस्था में ही आपने सन्यास भी धारण किया है तरंगो को  जानने का  आजीवन प्रयास किया है ,  आप जान चुके है  तरंगे  चक्रों में वास करती है  और आपके तात्विक शरीर का सञ्चालन करती है , आप बहुत बड़े और  पहुंचे हुए प्रसिद्द ज्ञानी है  !  हम्म्म ,  तो ठीक इस वी-आई-पी  वाली लाईन  में लग जाइए , दर्शन जल्दी मिलेगा,यहाँ धक्का तो नहीं पर  रुकने को भी नहीं मिलेगा   ……

क्या  कहा     ओहो  अच्छा  अच्छा

आपको  ऐसा वैसा  समझने का कार्य न किया जाये  आप तो बड़े वाले  वी-वी-आई-पी  है , ओहो ! तो आपने तपस्या  और योग के साथ व्यापार भी किया है  और देश में ही नहीं संसार में  नाम भी कमाया  है ! हम्म्म,गंभीर मसला है , अब तो आपके लिए  ये वाली एकदम विशिष्ट वर्ग की यही लाईन सही है ,  ये व्यापारियों की लाईन है , इसमें खड़े होने के लिए और अपना स्थान सुनिश्चित करने के लिए  अधिक  दान  देना पड़ता है और  भीड़ का धक्का भी नहीं लगेगा,  किन्तु ; सावधान !!  यहाँ इस पंक्ति में  सभी चतुर सूजान है ,खेले हुए मंझे खिलाडी है  पता नहीं कौन आपसे अधिक  मस्तिष्क वाला हो  या प्रभाशाली हो तो आपको आउट  कर ,  नहीं तो सर पे चढ़ कर , आपसे आगे निकल जाने की फ़िराक में हो  , यहाँ पहले से ही दानी ध्यानी ज्ञानी  सभी  प्रभावशाली  धार्मिक आध्यात्मिक  और राजनीति पारंगत  नेता  लगे हुए है।   कृपया इसी लाईन में लगे रहे और धीरे धीरे आगे अवश्य  बढ़ते रहे।

महानुभाव   फिर कुछ शायद कहा  आपने , क्या कहा  , जरा दोहराइये !

सदियों से तेज आंधी जैसी  धुल भरी हवाएँ यहाँ  चल रही है , और आप यही धुल चाटते  चाटते  थक चुके है  , और इस लाईन से भी बाहर  आना चाहते है , अच्छा अच्छा , अब तो  सभी लाईनो से ही बाहर आना है , ये लीजिये ; कहते कहते  स्वयं ही बाहर आ गए , क्यूंकि आप अब तक  सब समझ चुके है। ओहो, अच्छा अच्छा   न लाईन  और न भीड़ , सब छोड़ छाड़ दिया और फैसला लिया है की अब तो दर्शन ही नहीं करना ,  ! चलिए ये अवस्था भी अच्छी है , ( एक ओर इशारा करके )  वो देखिए गिनती के  लोग वही खड़े है आप जैसे ही सोचते है , आप भी वहीँ खड़े हो जाएँ , वे भी समस्त कर्म की व्यर्थता जान चुके है , अब  दो चार की लाईन नहीं लगती , इसलिए आप  स्वयं बनाये।  पर झुण्ड में ही रहिएगा वर्ना , हजारो की भीड़ में  खो सकते है ,  नहीं तो खुद ही भटक सकते है।  अपने धरती वाले रेडीमेड- सांसारिक-धनसंपदा से ख़रीदे संघ को नहीं स्व- अर्थात  आत्म-संघ को कस के  पकड़ के रखियेगा।

क्या कहा !!!

वापिस जा  रहे है !

कहाँ जायेंगे  लौट के ?

इस  राह के  आखिरी में  वो जो  जहाँ शुरुआत  है वो  अंतिम नुक्कड़  है,  वही ; पहली वाली  कतार  , वो सामान्य भीड़ वाली शुरू होती है ,  वो ही मिलेगी आपको !  पूर्व में ही कहा था न की आप काल चक्र   के ऊपर ही  अपने कर्म अर्जित प्रकाश घेरे के चक्र के अंदर  है  जो आपके ही अंदरुनी चक्रो को सहायता देते   है   और ये सभी चक्र स्वयं ही निरंतर  संपर्क में है इनको आपके मस्तिष्क की आवश्यकता भी नहीं  . तो यहाँ खड़े होने के लिए  अपने मस्तिष्क और हृयदाय की व्यर्थता को मान लीजिये।  जिसके दम पे आप संसार में फुदकते थे  यहाँ   भाव की  और तर्क की समस्त चालाकियां  व्यर्थ है।

फिलहाल  ; आगे की सुचना / दिशानिर्देश / उद्घोषणा का  इन्तजार कीजिये , तपस्या की  है  तो अर्जित  गुणों  का उपयोग स्वयं के ही संतुलन पे स्वयं की आंतरिक व्यवस्था के संतुलन पे कीजिये।

तनिक  धैर्य  धरिये ,
जरा चुप रहिये
चुप के साथ शांति भी आवश्यक है

शांति  और मौन का  अद्भुत सम्बन्ध है , जीवन यात्रा में बड़ा महत्त्व है , इसके अलावा आप कुछ कर भी नहीं सकते , अरे  नहीं नहीं  आपने ही तो कहा था ,' प्रयास' वाली बात।

अच्छा !

आप  बलशाली व्यक्तित्व के मालिक भी है संसार में  आपका कद हुआ करता था  लोग आपकी  कृपा पाने के लिए आपके आगे पीछे घूमते थे और तो और  जैसे आप यहाँ लाईन में लगे है  वहां लोग घंटो कतार में लगे रहते थे , ओहो  आपको सदगुरु  या  बुद्ध कहते थे  , फिर तो  आप अपनी असाधारण संकल्प शक्ति से  जरूर कुछ प्रयास कर भी सकते होंगे , ठीक है  तो पहले अपना पौरुष  और कर्ता  भाव भी पूर्ण  जी लीजिये , और जब  कुछ न कर सकने का लाचारी  नहीं वरन पराविद्वान-भाव गहरा जाये  फिर  सोचियेगा " जो जैसा है वैसा है उत्तम है और योग्य है  " सुख के साथ , पूर्ण स्वीकृति  के सहयोग से अंतरात्मा तक प्रसन्न  प्रसन्न रहिये  और खुश रहिये , और अपनी कर्म कतार  में लगे लगे काल चक्र में चलते रहिये , यही आशीर्वाद है  इस परम केंद्र के तीर्थस्थल का।  इसी आशीर्वाद के लिए ही आप  आये थे न  अनुष्ठान और संकल्प ले के !

क्या कहा !!

अब आप खुद को तमाशे का  हिस्सा  नहीं मान रहे है , हम्म्म  अच्छा है !  ठीक है सुंदर भाव है।  तमाशे में रहते हुए  आप तमाशे से ऊपर है , ऊपर के  चार चक्र केंद्र   ऊपर को उठ रहे है  अर्थात  ह्रदय  ( भाव ) वाणी  (अज्न )  संकल्प (अग्यान ) और सहस्त्रधार अर्थात  अंतिम ज्ञान  के अनुसार  आप तमाशे से बाहर  है , और मणिपुर (क्षुधा )  स्वाधिष्ठान ( भय ) और  मूल ( नैसर्गिक आवश्यकताओ की जड़ें ) से आप  धरती  से जुड़े है , यानी  जिसके पैर  जमीं पे  और हाथ  छूते  हो तभी  तो  आप बन गए  है  जोरबा  द  बुद्धा / सद्गुरु 

क्या कहा !!!

आपने सभी चक्रों  को कुशलता से साधा है , अब चक्रो से उत्पन्न विष आपको  सताते  नहीं और अमृत आपको सुख पहुंचते है , अर्थात आप ने प्रकृति  और   प्राकृतिक शक्तियों पे विजय  / फ़तेह  हासिल की है , शरीर  में रहते हुए  अब आप साक्षी भाव से  अपने चक्रो के बीच सामंजस्य और उनके द्वारा उत्पन्न  विष और अमृत का अवलोकन मात्र  करते है , पर ये अवलोकन भी तो बहाव ही है , नीचे  के चक्रो का ऊर्जा-बहाव नीचे जड़ों को और ऊपर के चक्रों का ऊर्जा- बहाव  ऊपर आस्मां को  ., यही है आपकी पूंजी  आपका चक्रीय बहाव त्रिशंकु सा  बुद्धत्व  को बह रहा है और आप जोरबा द बुद्धा  / त्रिशंकु  ,  पर प्रकति का एक नियम और भी है  वो है गति का , प्रवाह का और परिवर्तन का , तत्व तो इसमें है ही विशुद्ध  ऊर्जा इसमें विशेष सक्रिय है , किसी भी एक तल  पे आप रुक नहीं पाएंगे  , अपितु  हर तल पर तपस्या के साथ  आपके अनुष्ठान और  आपके संकल्प  में  गरुता आती जाएगी इसको आप गरिमा भी कह सकते है  ,  आपके द्वारा  उपलब्ध शक्तियों के अनुसार आपको  कार्य संकल्प  और जिम्मेदारी  दोनों का  वहन करना ही होगा , शक्तियों से  लालच को प्रवेश मत होने दीजिये , ये शक्तियां आपकी अपनी है  निजी है, और संसार की सम्पदा से इनका परिचय भी नहीं , इनको संसार के आचरण से मिलाने की भूल कभी मत कीजियेगा ,  ध्यान रखियेगा !  आपकी इक्षा शक्ति  और तपस्या शक्ति के अनुसार  ही आदि देव  और आदि देवी  आपके घूमते कालचक्र की गति का निर्धारण कर रहे है। उसी अनुसार  आपको जन्म और कर्म की प्रेरणा तथा  नैसर्गिक सहयोग  मिलता  रहेगा।  जिनपे आपको गर्व नहीं करना  मात्र  कृतार्थ होना है।

अब  आप सोचेंगे की  आदिदेव  और अदिदेवी दो क्यों है !  भई , आपने ही तो उनको  एक से दो किया है , बिलकुल अपने  जैसा आँख नाक मुह हाथ  पैर वाला  हंसने  रोने वाला परिवार वाला और एक नहीं  ऐसे अनेकानेक  अराध्य निर्मित कर दिए स्वयं  आपने अपने अराध्य को भी अपनी  श्रद्धा  और कमाया सांसारिक धन देने  के लिए  अपने  जैसा ही बना डाला  जैसा अपना घर बनाया  वैसा अराध्य  का भी  कीमती आलीशान घर बना दिया । क्षमा कीजियेगा , ये सब तो आपने ही किया है अपनी सुविधा के लिए , और भूल देखिये की भाव और कौड़ी  का संयोग भी  आपने ही करा दिया , आपका अराध्य तो आपसे जो चाहता था  आपने आज तक उसे दिया ही नहीं  आपका आराध्य तो अभी भूखा है नग्न है और अतृप्त  है  जबकि आप कहते है की आजीवन   उसके घर में  मौसम के अनुसार  उसे खाना और  कपडे और धन ; भावपूर्वक  देते ही रहे ।   निर्मित उनका देव और अदेव समाज, परिवार बच्चे कथा कहानिया  समस्याएं  समाधान, अच्छे सच्चे बच्चे, बुरे और अनैतिक मानव  समाज सब आपकी ही  तो सूक्ष्म बौद्धिक कारीगरी है , आप जितना देखते है  उसको कथा रूप में वर्णित कर पाते है  फिर उसी को सत्य मान लेते है ।  पूजा उपाय  आदि सब आपके ही तो है , आप भावों के अलावा और दे भी क्या सकते है  कुछ भी नहीं , फिर भी देने का स्वांग इत्ता बड़ा।  और तो और उसपे घमंड उससे भी बड़ा। वर्ना वो परम तो अभी भी एक ही शक्ति है।  

उफ़ !  अब ज्यादा मत सोचिये , आप जहाँ जैसे भी है , चलते रहिये ! कतार में लगे रहिये।  और कतार में लगे लगे नकारात्मक नहीं सकारात्मक इक्छा शक्ति  से जीवन व्यतीत कीजिये , हाँ ! अपने अंदर के प्रदुषण को अवश्य साफ़ करते रहिये  ताकि  साँसों के आवागमन के लिए  स्थान बना रहे वर्ना हृदयाघात का संक्रमण हो सकता है।

लेखक का  नोट :-

आपकी  ताजा जानकारी के लिए : अभी तो हम   सब  सफाई कर ही नहीं रहे , कचरा  फैला के  नन्हे बालक सदृश  इधर उधर देख रहे है और भरपूर  प्रयास कर रहे है  की कोई यथोचित पैसे लेके हमारे अंदर और  बाहर  की जमी  गन्दगी को साफ़ करने  की जिम्मेदारी ले ले।

हैं न  ! यही  सच है न !

जी हाँ ! हम सफाई का प्रथम पाठ अभी सीख रहे है ट्यूशन  ले के  भरपूर श्री युक्त श्रद्धा के साथ ; क्यूंकि  " बाहर  की सफाई का भी  वो ही विधान है  जो अंदर की सफाई है  वो ही नियम है " अनुशासन " , सफाई से रहना भी एक कला है , Art of Living  है जो  एक  ध्यान जैसा ही गहरा भाव  है। और  ये कला हमें  शरीर आयु से प्रौढ़  हो के भी बालक समान ही सीखनी है  उसी  के लिए  हम जगह जगह खूब पैसा दे रहे है , पर सफाई फिर भी  न बाहर है ना ही अंदर।  क्यों !  क्यूंकि ये भी चक्र हो गया है , आप दे रहे है वो ले रहे है , आप अपनी जिम्मेदारी दूसरों पे डाल  रहे है  और दूसरे संस्था  का खर्च और व्यवस्था  का बोझ आपके लिए आपके  ही पैसों  से  उठा रहे है , और आप वहीँ के वहींं  बिलकुल  कोल्हू के बैल की तरह गोल गोल  एक ही धुरी के चक्कर काट रहे है  जन्मों से , जन्मो से कैसे  वो ऐसे की  वर्ना ज्ञान की एक लहर तो आती , अगर एक भी लहर नहीं आ रही मतलब की  ऊर्जा के द्वार खुलना बाकी है ।   अब देखिये ; सुव्यवस्थति और  संतुलित  साफ़ जीवन सीखने  आप आश्रम जाते है  वह दान देते है  संस्था  के जीवन के लिए  , संस्था  के सञ्चालन  के लिए भी  संचालन करता  होंगे  जो आपके लिए काम कर रहे है दिन रात , दूरी तरफ उनके सारे प्रयास की  आप जैसे ही बेचैन लोग अधिक से अधिक आये दान दें और संस्था   चलत्ती रहे। ये सम्बन्ध भी  अस्पताल डॉक्टर और मरीज जैसा ही है।  बन गया न गोल गोल घूमता चक्र।   और जैसे ही गोल घेरा पूरा हुआ जान लो माया  देवी का नृत्य  चल रहा है , दानी धार्मिक  आध्यात्मिक राजनैतिक सभी माया के प्रभाव में है , कितने भी बड़े अनुभवी , तपस्वी हो  , योगी हो  पर  गोल घेरा पूरा होते ही माया चक्र के अंदर लट्टू की तरह घूम रहे   है , चक्र से बाहर  नहीं।  अभी  तो  वैचारिक स्तर पे ही हम ज्ञान और अज्ञान  के चक्र में डोल  रहे है  …यहाँ तक की भावनाओ को समझ उनसे  भी पार हो जाना है तो और उच्च स्थति  है ,   किसी भी चक्र को पूर्ण होने से पहले तोड़ देना ही माया के पार हो जाना है , फिर द्वित्व का अर्थ ही समाप्त हो जाता है , स्वयं से ,स्वयं को ही सीखना  और सिखाना भी  स्वतः  सहज और सरल है ।

 महाज्ञानी  महापराक्रमी  राजा  विक्रम  और बेताल   से सभी परिचित है ,  आईये दोहराते है बेताल विक्रम से क्या कहता था ,'  इस कथा (जन्म समाज  व्यापर परिवार )  की समस्या  का हल  यदि जान बुझ के नहीं बताओगे  , तो तुम्हारे सर के टुकड़े   हो जायेंगे  और यदि  तुम बोले  तो मैं चला "  यही है  सभी ज्ञानियों की स्थति है।  हा हा हा !

और फिर अभी तो इन माया चक्र में फंसे दुष्कर गंभीर  हालातों में  गुरु और शिष्य  दोनों को चक्र तोड़ बाहर  आना है , जरा सोचिये उस साक्षित्व का स्तर  क्या होगा , क्या आप अंदाजा लगा सकते है !   कितना सहज और कितना सुवासित /

कल्पना कर पा  रहे  है न ! जिसकी  कल्पना  ही इतनी सुन्दर  हो  उसका  आचरण , नहीं नहीं सदाचरण  और  व्यवहार  , नहीं नहीं सद्व्यवहार सुन्दर होना ही है , और इस आचरण को उपलब्ध जैसे आप है  वैसा ही संसार का कण कण  हो जाये तो अध्यात्म का कार्य   पूरा हो जाये।

मित्र प्रणाम 

Saturday, 19 September 2015

Awakening / colorenergy play (chakra)




  Before start practice of  awakening / or work for chakra  
things to work during meditation  to  Mana :-

* This is must to understand that what created  by mind and what is
nature gives us  ! during  filtration many aspect get clear . mostly illusive
rooms created by mind and  very basics created by nature .

* In practice  gradually as  moving up with chakras  practitioner  able to see
Maaya is The only mental product , isn't it !  and  In show of Maaya-
dance  ; Maaya itself production house of  Illusive conditions (conditions
are  only conditioning ) appears as real , isn't it !

* From tatva eyes  all going in front look real and  stubborn mind  change
not accepts ,  though whatever appears through
Illusive eyes ; is changeable , and this is the pain of grabber-mind
here  mind is  forceful captive of heart (emotions) .

Just opposite of Ignorant-Mind  when we connect  wisely with basics  of root (cause ) or with nature ; slowly the  immense pain cause of changeability get reduced cos wise knows-well basics never ever get change .

* Testing-scale : Mind can only fight with self-created conditioned conditions but
never ever eliminate basics from tatva , . they weaved strongly, merged and
rooted , effort to fight with nature get major cos of the defeat of self-ego.


Awakened know about all senselessness of all fights with nature the way he starts only to manage-well and lives-well forever. 


SPIRITUAL AWAKENING is a  TRUE MIRROR of  TRUE-SELF 

Wise Work hard Only for self-enhancement,  Nailed only with self-centred / axis .. other than none of the coupling exist, wise always find self as Non-judgmental, Loving, Compassionate and filled with gratitude.  anyone can define this aspect as Spiritual selfishness.

http://myspiritualitydiscourses.blogspot.in/2015/09/the-7-chakras-and-endocrine-glands.html

The 7 Chakras and Endocrine Glands Relation


before  watching the video, suggested reading the any of one above  Link






Thursday, 17 September 2015

The 7 Chakras and Endocrine Glands Relation

Chakras and Glands


Glands and Chakras
Chakras and Endocrine Glands
Commonly, each of the body’s basic seven chakras is associated with specific locations on the body, such as the heart, the throat, or the crown of the head. But when you look at a chakra chart, you don’t see the underlying network of glands (and their nearby organs) governed and influenced by the chakra system.
The function the chakras is very intricate in that it is an energy system that communicates with the body via biological systems, such as the endocrine glands and nervous system, to keep it balanced and healthy.
For the purposes of this article, let’s take a closer look at the association between the chakras and endocrine systems.

The Endocrine System

On its surface, the endocrine system seems quite complex. But when you break it down into its individual parts, it isn’t so bad.
Overall, this network of glands is in charge of producing, regulating and distributing hormones throughout the body. Released into the bloodstream, hormones play a pivotal role in the body’s ability to mature, metabolize nutrients, and function.

Historical Perspective on Chakras and Glands

It seems that no direct correlation was made by Indian traditional chakra systems between glands and the chakras. However, modern literature from both the Western and Eastern cultures highlights the connection between each the primary chakras and the endocrine and nervous systems, as well as organs.
According to Patricia Mercier in “The Chakra Bible”, two Western figures started to imply that the position of the 7 primary chakras coincides with the locations of nerve plexi, endocrine glands and organs. Leadbeater, one of the first to shed light on the chakra system in the West, and Alice Bailey, theosophist and teacher of esoteric knowledge at the beginning of the 20th century, both started outlining the connections between the chakras and the biology of the human body.

Each of the chakras in the body is paired with an endocrine gland and governs its function. So before we go any further, here are each of the chakras, their corresponding gland, and their function:
  • Root chakra (1st) — Reproductive glands (testes in men; ovaries in women); controls sexual development and secretes sex hormones.
  • Sacral chakra (2nd) — Adrenal glands; regulates the immune system and metabolism.
  • Solar Plexus chakra (3rd) — Pancreas; regulates metabolism.
  • Heart chakra (4th) — Thymus gland; regulates the immune system.
  • Throat chakra (5th) — Thyroid gland; regulates body temperature and metabolism.
  • Third Eye chakra (6th) — Pituitary gland; produces hormones and governs the function of the previous five glands; sometimes, the pineal gland is linked to the third eye chakra as well as to the crown chakra.
  • Crown chakra (7th) — Pineal gland; regulates biological cycles, including sleep.

How Chakras and Glands Work Together

Disturbances in the subtle energy of the chakras translate into physical manifestation and symptoms who are likely associated with the corresponding glands and organs. It is not to say that chakras are physical or physiological in nature. They are considered as energy centers that influence our being at many levels, including the physical and biological levels.
Whenever one of our energy centers is thrown off balance by a blockage, physical maladies can happen. It is important to remember that chakras function on the same principle as a pendulum. If one of them is underactive or overactive, signs will start to manifest that it’s “out of rhythm”. Chakra balancing is in order.
The disturbance is felt either at the level of that specific or the level of another chakra or set of chakras connected to it. For instance, when the throat chakra is blocked you may experience sore throat, neck pain, or laryngitis. Similarly, when the heart chakra is out-of-sorts, high blood pressure and heart-related problems can arise.

Examples of Connection Between the Chakra and Glandular Systems

Pituitary Gland Chakra
There are two chakra glands that serve to regulate overall glandular and biological function: the pituitary gland chakra and pineal gland chakra.
The pituitary’s main function is to regulate body chemistry. Located between the eyes, this pea-sized gland regulates emotion and intellect and works in partnership with the pineal gland to achieve overall balance.
Pineal Gland Chakra
Essentially, the cone-shaped pineal gland governs and (when necessary) inhibits pituitary gland function. It is the balancing of these two glands that helps facilitate the opening of the Third Eye.
Thymus Gland and the Heart Chakra
The chakra associated with the thymus gland is the Heart chakra or Anahata. It is located at the center of the chest, at the level of the collar bones. In chakra healing, it’s a useful area to regulate as it influences the state of the nervous system and helps calm agitation.
A simple technique to use to interact with the thymus gland, it to tap lightly with the tip of your fingers, either at the center of the chest at the collar bones level, or on each side about 3 to 4 inches away. The first technique calms the nervous system, the second one tends to brings the level of energy up.

Chakras and Organs

In addition to each chakra governing one of the seven glands, keep in mind there are major organs that are also affected. Here is a list of each chakra and the organs it influences:
  • Root — Testes, kidneys, spine
  • Sacral– Bladder, prostate, ovaries, kidneys, gall bladder, bowel, spleen
  • Solar Plexus — Intestines, pancreas, liver, bladder, stomach, upper spine
  • Heart — Heart, lungs
  • Throat — Bronchial tubes, vocal cords, respiratory system, all areas of the mouth, including tongue and esophagus.
  • Third Eye — Eyes, pituitary and pineal glands, brain
  • Crown — Spinal cord and brain stem

Chakra Healing and Glands

If you want to lead your chakra healing work at the physical level, endocrine glands are useful reference points. They represent a connection between the energetic nature of the chakras and the physical and physiological functions of the body.
Note that another useful entry point in balancing the energy body is the nervous system and its multiple nexi, most of them associated with glands and organs. To prepare a healing session, it can be useful to relax and balance the nervous system and then target a gland or a specific region of the body.
We can regulate the function of the chakras through breathing exercises, meditation, relaxation techniques, but also diet and exercise. By acting at the physical level, we support chakra functions are multiple levels, not only physically, but also psychologically, emotionally, and spiritually. By working on one chakra, we also affect the entire chakra system’s balance.