मान्यता , धारणा, कर्म (अच्छे या बुरे )और गुणात्मक ध्यान
एक संकेत
एक संकेत
आएये आपसे कीमती अनुभव बांटती हूँ, शायद आपके काम आये , वैसे अनुभव अपने ही होते है और रंगों के लाखों मिश्रण की तरह ही होते है , कोई एक दूसरे पे काम नहीं करता , पर फिर भी प्रयोग है क्यूंकि इनका भी अपना ताना बाना है , एक अत्यंत सूक्ष्म धागा है और मोती अनेक हो सकते है पर धागा और उसका स्वभाव अनेक नहीं है, इसी आधार पे शायद कोई प्रयोग किसी पे काम कर जाये , जब ध्यान में बैठे तो प्रथम आह्वाहन इस संकल्प यज्ञ में किया वो मुक्ति का , शायद आपको पता ही नहीं जब आप मुक्ति के लिए छटपटा रहे होते है तो आपके अंदर भी कोई आपसे मुक्ति चाहता है , क्यूंकि अब वो आपके शरीर में बेचैन है आप उसको रहने भी नहीं दे रहे और मुक्त भी नहीं कर रहे , यकीं कीजिये जो भी एक पहलु हमें दिखता है / समझ आता है , ठीक- ठीक उसका उल्टा बिल्कुल छाया और देह की तरह उसी विषय का दूसरा पहलु वहीँ उपस्थित होता है , यहाँ भी वो ही है , ( ध्यान दीजियेगा ) एक नहीं अनेक और गिनती से आगे है क्यूंकि संचय ( ज्ञान ) जान के है या अनजाने (अग्यान ), सभी ही एक गठरी में इकठा है और तर्क बुद्धि से एक दूसरे के आदी और आश्रित भी है और चूँकि ये संचय पुराना है, संयम से , कठोर नहीं , हठ नहीं , मधुर संकल्प से आह्वाहन करना है , क्यूंकि वे आपकी इक्छानुसार आपके ही अतिथि रहे है , आपने उनका यथासंभव पोषण भी किया है , ससम्मान देना है पुरे "बुद्धि" के संज्ञान में और भाव की सहमति से ।
....... तो जब आह्वाहन किया तो मान्यताएं ही नहीं धारणाएं भी संकुचित होक भयभीत हो अंदर ही छोटे से कोने में स्वयं को ढक के सिमट जाती है हा हा हा , किसी वख्त बलशाली किन्तु आज भयभीत हो बालक समान समझती है की इस भांति अदृश्य हो गयी , पर जब अपनी मुक्ति का आभास होता है और स्वामी का पवित्र संकल्प देखा समझा जाता है तो एक एक कर के यही मान्यताये स्पष्टता से ईमानदारी से उपस्थ्ति हो , एक एक करके कतार में बद्ध अनुशासन के साथ आती और स्वामी ने भी एक एक जन्म से एकत्रित मान्यताओं को एक एक करके ही मुक्त किया, इसी प्रकार धारणाओं की नीव ज्यादा गहरी होती है , इसलिए संकल्प को भी सघन करना है , पर जैसे ही धारणाएं संतुष्ट होती है की अब वो मुक्त होने जा रही है वे भी एक एक करके वैसे ही अनुशासन से कतार में लग अपनी स्वतंत्रता के लिए बेचैन दिखाई देती है । आह ! पवित्र होम अग्नि प्रज्ज्वलित हुई और एक एक की आहुति पड़ती गयी और वे तरंगित हो व्योम में विलीन होती गयी, और ज्यु ज्यु वो विलीन होती गयी त्यु त्यु अपना भार कम होने लगा। अपना एक स्वतंत्र सांसारिक आधारविहीन वजूद विकसित होने लगा , अब ये स्वामी तमाम सांसारिक मान्यताओं और धारणाओं से मुक्त है और तब जाके जैसे अंधे को नयन मिले वो दिख पाया जिसकी चर्चा ऋषि मुनि करते थे , नहीं-नहीं, धैर्य-धैर्य , इतनी सरलता से नहीं अभी तप बाकी है , साक्षात्कार की नहीं , बल्कि प्रथम पड़ाव से प्रस्थान और द्वित्य पड़ाव से पहले ' मात्र मध्य रास्ते की बात ' कर रही हूँ , दूसरे पड़ाव के रूप में तब आपको अपना अस्तित्व और जन्म का अर्थ जाने का अवसर मात्र मिलता है। चूँकि हमारा तात्विक अस्तित्व पृथ्वी के आकर्षण से गुरुत्व ( भार ) ग्रहण करता है अर्थात बंध स्वीकार करता है , तो ही हम पृथ्वी के गुणों को भी आत्मसात करते है , प्रकृति की इस देयता में उपहार है ; हमारी स्वीकृति / ग्राह्यता की सहमति अथवा असहमति इस प्राकतिक " गुणों " को स्वीकार नहीं , और वैसे भी हम मूर्च्छाकाल में चयन करने योग्य भी नहीं होते क्यूंकि ये सब अर्ध सुसुप्तावस्था में कार्य होता है, हम को यह "एक" बण्डल रूप में जन्म से मदहोशी की अवस्था में मिलता है , जब ज्ञान होता है तब हम असाध / शारीरिक रूप से शक्तिहीन होते है , और जब शक्ति आती है तो हम स-देह सातो चक्रो सहित अज्ञानता के साथ मस्तिष्क तक लिप्त हो चुके होते है , फिर तो कृपा ही हमारी नींद तोड़ती है और ये कृपा प्रकर्ति का नैसर्गिक स्वभाव है , सत्य के रूप में वो प्रकट होती ही रहती है , किन्तु माया का नाम हमने जिस भाव को दिया है वो सघन है विस्मृति में सहयोगी है , अद्भुत है जो संसार में सुखद और मित्र है वो ही मित्रता असंसार की अवस्था में रोड़ा बन जाती है। पर इसका माप भी यही है जो माया स्वयं अपना परिचय देती , और जब उसकी परोसी कोई भी अवस्था आपके अंदर सुख महसूस नहीं करती तो अंदर जो माया का तत्व वास है वो ही स्वतंत्र होने के लिए छटपटाता है , जिसकी बेचैनी आपको यानी तपस्वी को आभासित होती है ,( इसको तकनिकी की भाषा में यदि कहूँ तो आज के वैज्ञानिक सन्दर्भ में समझना आसान है जैसे कम्प्यूटर पे एप्प्स का डाऊनलोड सूत्र जब तक कम्प्यूटर में पहले से नहीं होगा या फ़ाइल रूप में नहीं डाला जायेगा, सिस्टम उस तरंग को नहीं ले पायेगा स्टेशन जिसको लगातार वायु में घोल रहा है आपका शरीर भी ऐसा ही है , माया का सॉफ्टवेयर गुण रूप आपके शरीर में पहले से है बस माया तरंग फैलाती है आपके सिस्टम की सही ट्यूनिंग उसे कैच करती है , बस माया का काम खत्म और कम्प्यूटर का नर्तन शुरू / दिव्यता का कार्य भी तरंगो से ही संभव है बस गुण परिवर्तित है , आवश्यकता स्वयं को जानने की है कर्म भोग योग को जड़ से समझने की है ) जब भी कोई परेशानी या बेचैनी महसूस हो , ध्यान में आप पाएंगे वो अवस्था अब बेचैन और असहज है आपकी देह में उसे सुख नहीं अब वो सहज निवास नहीं कर पा रही। आप यकीं कर सकते है द्वित्व में बनती इस दुनिया में मात्र देह ही नहीं खंडित भाव भी खंडित है एक वो जो हमें दिखता है और दूसरा वो जो उसके साथ है , तात्विक हो या तरंगित हर अवस्था के दो पहलु है , एक वो जो हमारे पास है और एक वो जो उससे जुडी है जो छाया रूप है क्यूंकि तरंगित है , जो हमसे जुडी है वो प्रकट है उपयोग में है जो छाया है वो तरंग उपयोग में नहीं पर उसी तरंग का दूसरा टुकड़ा है जो उससे अलग भी नहीं। जब दृष्टि का विकास द्वित्व से ऊपर उठता है तो दोनों अवस्थाएं सहज हो अपना परिचय देती है। पर ये भी यकीं मानिये , द्वित्व में विभाजित करता हुआ मान्यताओं और धारणाओं के अनुसार सहज कर्म में लिप्त आपका शातिर दिमाग संसार को छल सकता , स्वयं को छल सकता है , किन्तु असंसारी तत्वों को छलना उसके बस / शक्ति के बाहर है यहीं वो निष्क्रिय हो जाता है। ( मस्तिष्क की इस चतुराई से भरे भाव को समझने के लिए साक्षी तत्व को साधना ही है )
यही से ध्यान आपका मित्र बन जाता है , और उनका भी मित्र जो इसके परिणाम से असहज है , दोनों की स्वतंत्रता को निर्भार करने का दायित्व " ध्यान-मित्र " करता है। मैंने आज अपने ही हाथ में साबुन लगा जब जल के नीचे हाथ दिया तो गिरते जल के साथ अजब सा अहसास जगा जो संभवतः मुझे कुछ कह रहा था , मैंने सुना स्पष्ट वो अपनी कहानी कह रहा था ," मेरा (जल) उपयोग किसी वैज्ञानिक खोज या उपलब्धि के तहत नहीं वरन मनुष्य अपनी भाौतिक (तात्विक ) आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उपयोग करता है अपने इस स्वार्थी भाव से वो स्वयं मुझे नहीं समझ पता और मेरे गुणात्मक पक्ष को बिसरा देता है ,उपयोग से जो पूर्ति हुई उससे वो क्षणिक सुख महसूस करता है ,(मानव का मूल स्वभाव भी यही है " आवश्यकता अविष्कार की जननी है ") किन्तु ये समझना अति आवश्यक है की मैं मौलिक-शक्ति हूँ , मेरा अपना एक प्राकतिक गुण है बिलकुल वैसा जैसा अन्य चार तत्वों का है , मुझे पूरा यकीं है इस मदहोश इंसान ने उन अन्य तात्विक गुणों को भी उपयोग तक ही सिमित रखा होगा , क्यूंकि मनुष्य का अपना मायारचित स्वभाव है , उपयोग शब्द (ध्यान दीजियेगा) इस शब्द का विच्छेद करते है उप + योग , अर्थात शब्द की संरचना का ही अर्थ योग से जुड़ा है जो प्रचलित शब्द में मात्र स्वयं पे खर्च करने से जुड़ गया है , मूल भाव विलुप्त हो गया है , इस अर्थ में मेरा उपयोग मात्र दिनचर्या और आवश्यकता पूर्ति में है और बस सभी अर्थ यहाँ पे आ के खत्म हो जाते है , किन्तु योगी (संवेदनशील ) से मैं ( जल ) कहता हूँ कि मेरा गुण समझो , मेरी शक्ति समझो तो प्रकति के पांच तत्व में से कम से कम मुझ एक का अनावरण हो सकता है , और यदि एक का हुआ तो अन्य का अनावरण स्वयं ही हो जायेगा , क्यूंकि ज्ञान अपना रास्ता पा ही लेता है , तो मेरा गुण में पहला है १- परिवर्तन २- बहाव ३- अपने बहाव और परिवर्तन के इस गुण के साथ जो मेरे साथ बहता है उसका भी रूप और गुण परिवर्तित होता है , और इसी कारण मैं मल ( गन्दगी ) प्रक्षालन ( धोने ) में उपयोगी पाया गया , न अग्नि , न वायु , और न ही मिटटी , ये कार्य प्रधान-व्योम के तो बस का ही नहीं , यक़ीनन सिर्फ मैं इस कार्य के लिए उप + योगी हुआ। यह तो देह की बात किन्तु , सत्य और मूल गुण अटल है , इसी प्रकार मेरा मूल धर्म भी अटल है की मैं देह स्वक्छ करता हूँ और आपको पता ही होगा की भाव में भी मेरी ही प्रधानता है तो निश्चित है की भाव भी मैं ही स्वक्छ करता हूँ , ( अब मुझे भी उसकी चर्चा में रूचि आई और जरा ध्यान से उसकी बात सुनने लगी ) ध्यान देना जो मैं कह रहा हूँ , क्यूंकि आज तुमको मैं सुनाई दिया हूँ , मैं कहना चाहता हूँ की जो भाव मुझे धुल के निर्मल हो रहे है वे भी तत्व के अंदर ही है , और यही इन तत्वों और तरंगों का माप भी है ( कि वे धरती के है या वातावरण का कवच तोड़ के ऊपर उठ सकते है ), आप मौलिक तत्वों की शक्ति को पहचान के उनके गुणों के अनुसार भौतिक और अभौतिक को अलग कर सकते है स्वयं ही , और ये कार्य करते वख्त आपको अपने अंदर एक बालक के खेल का आभास होगा। क्यूंकि आप निर्भार है , भाव निर्भर नहीं ,( ओहो ! क्या आपने देखा , निर्भार और निर्भर में मात्र एक छोटी अ की मात्र का अंतर है , यानि निर्भार और निर्भर एक ही गुणतत्व के दो पक्ष है , और इनका संतुलन मध्य में है यानि आप इन दोनों भाव को तब जान पाएंगे जब आप इन दोनों से ही बाहर होंगे , साक्षी रूप में। ) तो मूल पे चलते है , मेरा मूल गुण स्वक्छ्ता में है , जो मेरे बहाव में और परिवर्तन में है यदि मैं रुक गया तो मैं भी दुर्गन्ध से भर गया , फिर मुझे रूप बदलना ही पड़ता है। जब मैं स्वयं को जीवन देता पाता हूँ तो ही मैं इस धरा को जीवन देता पाता हूँ और धरा में आप ( जीवरूप ) भी एक अस्तित्वगत कण है। यदि मैं और मुझ जैसे और चार, इस प्रकर्ति को गति दे रहे है तो एक छोटा सा कण इस गति से कैसे दूर रह सकता है , कण कण का नर्तन इसी में है , परिवर्तन मूल में है।
निम्न तत्वों के मूल (गुण) पे गौर कीजियेगा, आगे समझेंगे की मूल के भीतर अति गहरे में अंदर ही मौलिकगुण कैसे छिपा बैठा है और उस मौलिक तात्विक गुण के अंदर ही अत्तव की अभेद सत्ता कैसी है :ध्यान दीजियेगा कैसे मूल तत्व संसार से भी जुड़ा है और व्योम से भी वैसे ही जुड़ा है , सभी की एक ही गुणात्मक अवस्था है प्रकट हो या अप्रकट। जो भी संसार से जुड़ा है उसमे आकर्षण का भार है , अच्छे और बुरे कर्म और परिणाम से परे मात्र ये गुणात्मक भार है :-
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अग्नि मूल स्वभाव राख बनाती है शरीर को भी और भाव को भी । ( जो भी देह और जो भी भाव जड़ता के साथ परिवर्तित अथवा राख हो रहे है वो सब इसी धरती के है और गरूत्वाकर्षण के भीतर है चूँकि अग्नि का स्वरुप कोई भी हो गुण एक ही है राख बना परिवर्तन करना )
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जल यानि मैं शरीर को और भाव को दोनों को परिवर्तन भी करता ही हूँ और मौलिक गति से स्व्क्छ भी करता हुँ। ( जल भी परिवर्तन करता है अपने अनुसार , भावों में भी हलचल और शक्ति का कारन आपके जाने या अनजाने जलतत्व ही बनता है , देह को धो धो कर स्वक्छ रखता है निरंतर परिवर्तन में सक्रीय )
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वायु मूल में स्थिर नहीं , गुणात्मक अनुभव बहाव है , शुध्हता है और निरंतरता में है अर्थात किसीकारणवश यदि दुर्गन्ध है तो वायु उसे अपने साथ बहा ले जाती है , सांसारिक अवस्था में भी वायु निर्भार से भी हलकी है और इस तरह भावनात्मक / देह गुरुत्वाकर्षण भार से मुक्त है। किन्तु यहाँ भी ध्यान दीजियेगा वो वायु गुरुत्वाकर्षण से बाहर नहीं जो खगोलीय ग्रह के वातावरण की जेल में है , अवश्य ही इससे भी सूक्ष्म वायु का एक अस्तित्व है जो वातावरण से मुक्त है , जो बौद्धिक संसार की पकड़ में नहीं और असंसार-भाव स्वभाव से जिसको भासित ( महसूस ) किया जा सकता है।
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मिटटी भी स्वयं को शुद्ध करती रहती है , निरंतर , परिवर्तन से।
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और व्योम का परिवर्तन वृहत है और हम सब उसी में है इसीलिए उसके परिवर्तन भी गुणरूप में महसूस होते है , बिलकुल ठीक वैसे ही जैसे बंद कमरे के भीतर बैठे को बाहरी दीवालों के परिवर्तन दीखते नहीं , जब तक उनको बाहर से न देखा जाये।
सहज दृष्टि के विकास के साथ ये भी समझ आता है की हर मूल तत्व के भी द्वित्व में दो पहलु है दोनों ही स्वभावतः मूल ही है अंतर सिर्फ इतना की पहला जो संसार के लिए है दूसरा उसी में छिपा है जो उसे असंसारी बनाता है , मूलतः गुण के अंदर गुण छिपा है जो उन गुणों को उन तत्वों से मुक्त करता है जब वो पर्यावरण के आवरण को भेद पाते है। और इस दृष्टि से हम पाते है की हम बहुत सूक्ष्म है इस बृहत् के अंदर अस्तित्वहीन है , एक कण से ज्यादा अस्तित्व नहीं है , एक उस विचार को पा के जीव ने अपना नाम ही कणादि रख लिया था .... कितना कुछ जल कह गया मौन में मुझसे , यहाँ विषय जल के सांसारिक कर्म गुण से थोड़ा और असंसारी सूक्ष्म से भी सूक्ष्म अभी हम अति सूक्ष्म की अवस्था ( या कहें इसकी अवस्था है ही नहीं ये अवस्था व्याख्या से परे है मौन में ही आभासित है ) पे है , यानी गुणातीत अवस्था की चर्चा पे है। प्रयास है चर्चा करते करते उस अवस्था को पाना / छूना , ताकि उसके गुणों को आभास कर सके , इस दृष्टि से देख तो नहीं सकेंगे , पर परिचय ले सकते है। संक्षेप में , यहाँ यदि आत्मतत्व को हवा के रूप में जाने जो हलके से भी हल्का है तो यहाँ स्पष्ट पाएंगे की जो आत्मतत्व इस धरती से पर्यावरण को भेद के व्योम में जा पाता है , वो वायु का सूक्ष्मतम स्वरुप है। ये भी स्पष्ट है की जो धरती पे वायु है वो गुरुत्वाकर्षण से युक्त है मुक्त नहीं , गुरुत्वाकर्षण से अर्थ भौतिक , संसार तत्व और तरंग दोनों रूप में है , अर्थात वायु का एक गुण भाग संसार को छूता है और उसी वायु का दूसरा गुणभाग व्योम को भेदता है। जो संसार को छूता है वो यही चक्कर काटता है , जो निर्भार होता है वो व्योम में प्रवेश पाता है। अब ये साधारण बुद्धि से भी जाना जा सकता है , तत्वों को गुणसमेत जानने के लिए थोड़ा आभास और थोड़ी बुद्धि का मिश्रण करना है। विज्ञानं की चाल भौतिक है और तरंगित है किन्तु अवस्था सांसारिक है क्यूंकि उपयोग से जुडी है , उपयोग से जुडी हर संरचना की खोज संसार की ही है, तो इनके आभास और ज्ञान भी संसार के ही है । ये सहयोगी है , इनका सहयोग लेना उचित है एक सीमा तक उसके आगे ये नहीं जा सकते। उसके आगे अत्तव की यात्रा संभव है , किन्तु ध्यान रहे की विषय अंदर से जुड़े है एक है , सिर्फ गहराई बढ़ती/ ऊंचाई बढ़ती जाती है। जो ज्ञान विज्ञानं दे सकता है वो तात्विक है , और इसी के अंदर दूसरा गुणात्मक पहलु छिपा हुआ जो सूक्ष्म से सूक्ष्तम् होता जाता है। अपनी पकड़ बनाये रखिये , ध्यान से स्वयं अनुभव कीजिये। गुण के अंदर गुण छिपा है और उसके भी अंदर गुणातीत, यही शायद बहुत पहले ऋषि मुनियों ने कहने का प्रयास किया - एक कण भी उसी से जुड़ा है , केंद्र युक्त है और केंद्र से जुड़ा भी है। एक कण बृहत्तम का ही परिचय है और बृहत्तम को एक कण से देखा जा सकता है।
मुझे आभास है मूल से थोड़ा ज्यादा गहरा विषय हो गया वस्तुतः हमारा मौलिक विषय मान्यताओं और धारणाओं के जाल को समझना और समझ के तोडना था साथ ही कर्म को फिर वो अच्छे हो या बुरे परिणाम से नहीं उत्पत्ति स्त्रोत से समझना है , किन्तु भरोसा है की यदि इस लेख का तरंग भाव आपको छू पायेगा तो इस पांच तत्व के मूल के परिचय से आपको लाभ इतना ही होगा की आप अपनी बनी / मिली / या पैदा हुई समस्त मान्यताओं और धारणाओं को निरर्थक जान स्वतंत्र कर सकेंगे , जिस पल इनकी जन्म योजना का ज्ञान होता है निरर्थकता का भाव भी स्वामी को ही महसूस हो जाता है और उसी पल एक और घटना घटती है की ये उर्जाये भी आपको निरर्थक मान लेती है , फिर ये स्वयं आपके अंदर सहज वास नहीं कर पाती और छटपटाती है , इनकी छटपटाहट का अनुभव आपको अपनी बेचैनी के रूप में होता है। यही एक माप है जो कहता है की अब स्वतंत्रता दोनों तरफ से अवश्यम्भावी है।
इस स्वतंत्रता के पश्चात , यक़ीनन आप वो ही नहीं रह सकते , अब आप निर्भार है ; निर्भर नहीं है ,और इस अवस्था में बस एक कदम और ,' इस निर्भार और निर्भर के मध्य साक्षित्व के साथ ही आपको ठहरना है। ' फिर आप कर्म करेंगे ये जान के आपका कुछ नहीं , अब आप आभार युक्त , सहजता और प्रेम आपके व्यक्तिव का हिस्सा है। समस्त कृतिमता अनावृत है अब और छिप नहीं सकती।
ध्यान दजिएगा की इस धर्म कर्म विवेचना में मनुष्य ही क्यों अन्य जीव क्यों नहीं ! क्यूंकि मनुष्य के पास वो है और अन्य जीवन के पास नहीं अपनी इस शक्ति के साथ ही वो अन्य जीव संरचनाओ से अलग हो पाया है , बुद्धि और द्वित्व से बनी देह निरर्थक नहीं , जबकि प्रकर्ति में कुछ भी निरर्थक नहीं , औचित्य का ज्ञान यही भेंट को आभासित करना दिव्य जिम्मेदारी की और पहला कदम है ; ध्यान दीजियेगा मात्र पहला कदम। मनुष्य मात्र ऐसा जीव है जो संज्ञान में कर्म और अकर्म में भेद कर सकता है , पोषण और विध्वंस कर सकता है , यहाँ अपने इस भाव से ब्रह्मा विष्णु और शिवतत्व को स्पर्श करता है उसकी प्रवत्ति गुणात्मक है देवत्व को छूती है तो राक्षत्व को भी छूती है और वो भी संज्ञान में इसे आप महसूस कर सकते है , जो प्रबलता के साथ वेग के साथ चरम स्पष्ट गुणों को पाते है वे संज्ञान में है की वे क्या कर रहे है , ( मध्य गुण मिश्रण में अज्ञानता हो सकती है ) वे अज्ञान में नहीं , मनुष्यों में एक साधु भी अपने कार्य परम को समर्पित करता है और एक राक्षस भी अपने कार्य उसी को समर्पित करता है , क्या और कोई दूसरा जीव है पृथ्वी पे जो इतने बौद्धिक ज्ञान के साथ फलयुक्त कर्म कर सकता हो ? नहीं न ! सब नैसर्गिक गुणों के संपर्क में है , पर मनुष्य अपने ही ज्ञान में मस्त हो गुणवत्ता में अंतर कर बैठता है। इसीलिए मनुष्य जन्म के साथ ये जिम्मेदारी गहरी हो जाती है की वो एकत्व के सूत्र को मूल से जाने , और अपने मूल का ज्ञान होते ही फिर राक्षस राक्षस नहीं और देव देव नहीं रह जायेंगे । ये भेद भी सांसारिक बौद्धिक और अज्ञानता के कारन गुणात्मक ही है। वस्तुतः मूल के समक्ष ये अस्तित्वविहीन है। आपने सुना होगा ' ईश्वर के तेज-प्रकाश के सामने न देव टिकते है और न दानव , दोनों ही ही गायब हो जाते है, देव (शुभ ) तो फिर भी गुणगान (समर्पण श्रद्धा और भक्ति ) करते है दानव (अशुभ )अपनी अंतिम अवस्था को पाते है ' अपने उस ज्ञान को इस सन्दर्भ में दोबारा विचारियेगा, पर विचार की अवस्था में निराकार के ध्यान का अंत आपके भावों में किसी भी प्रकार के आकार में नहीं हो , ध्यान रहे ! मन बुद्धि रचित आकारों का अपना गुरुत्वाकर्षण का भार होता है।
ओम प्रणाम
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