तीन भागों में अलग अलग लिखा गया एक ही विषय है जिसमे इस दुरूह विषय को सहज और सरल भाव से कहने की चेष्टा है :-
* प्रथम; क्या ऊर्जा की भी परिपक्व अवस्था संभव है !
* दूसरा ; क्या ऊर्जाएं परिपक्वता के समान धरातल पे एक दूसरे से आकर्षित होती है ! ( तात्विक दूरी , संज्ञा-सम्बन्ध कोई भी हो अथवा न भी हो, कभी कभी ऊर्जागत-आकर्षण सभी सामाजिक आर्थिक आयु अथवा अन्य परिस्थति जन्य बंधनो से ऊपर होते देखे गए है )
* तीसरा ; देह के साथ मिल के ऊर्जा किस प्रकार अपने दोनों धर्मो को निभाती है ? और ज्ञान / बोध किस प्रकार उसकी यात्रा को सरल और सहज बनाता है ?
वैसे तो ये विषय अकथ है , विस्तृत है , कई विषय है इसमें , जैसे मनोविज्ञान , पराविज्ञान , अध्यात्म , और सबसे ऊपर ध्यान। ध्यान के सहयोग से सभी विषय एक धागे से एक माला में गूँथ जाते है , और सारा रहस्य भी प्रकट होने लगता है। किन्तु फिर भी ये भी सत्य है की विज्ञानं के प्रमाण है क्यूंकि तत्व उनको छू सकते है , इन्द्रियों द्वारा जाने जा सकते है विज्ञानं की तरंग की अवस्था भी तत्व की पकड़ में है , मन का विज्ञानं भी कुछ दूर तक चलता है , बाकी अध्यात्म सहयोगी है , और अंतिम उपलब्धि ध्यान की अपनी है। निचे लिखे इस लेख में ऊर्जा के चक्र जो गुरुत्व से प्रभावित है और देह के तत्व को जो कर्म भोग में लिप्त है , जानने समझने की चेष्टा की है , संभवतः आपको सहज समझ आएगी।
चित्र में एक देह अनेक आवर्तियों से घिरा है जो उसकी देह की आयु और ऊर्जा के विभिन्न मिश्रण का प्रतीक मात्र है , एक देह अनेक आवरण से भरी है। जिस प्रकार देह के आवरण है वैसे ही ऊर्जा भी गुरुत्व-भार निर्मित आवरण / आवरणों से घिरी होती है , क्या ये आयु - परिपक्वता के आवरण सम्बन्ध है ? और इनका ऊर्जा की आयु से सम्बन्ध है ? देह के सामान ही क्या ऊर्जा की भी आयु संभव है ? और यदि ऊर्जा की आयु है तो क्या इसका आकर्षण अन्य ऊर्जा से संभव है ? क्या कोई अन्य गुणप्रधान चुंबकत्व है जो इनको सहज आकर्षित करता है ? आध्यात्मिक स्तर पे इसे ही जानने की चेष्टा है।
1
उम्र के दैहिक और आत्मिक स्तर :-
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जो भी मैं यहाँ कहने जा रही हु , उसका प्रमाण तो नहीं पर आभास जरूर है , थोड़ी सत्यता भी आस पास देखने को मिलती है , आप भी गौर कीजियेगा अपने आस पास ...... जब किसी छोटे से बच्चे को मानसिक रूप से परिपक्व पाते है और किसी वृद्ध को तमाम उम्र गुजरने के बाद भी अपरिपक्व
सामान्यतः मनो + विज्ञान ( चूँकि विज्ञान की भाषा प्रामाणिक जान पड़ती है इसलिए मन और विज्ञानं को विभाजित किया है ताकि पढ़ने वाले प्रमाण सहित समझे ) में छह पैमाने है परिपक्वता के :
* शैशव
* बाल्य
* युवा
* युवा-परिपक्व
* प्रौढ़
* वृद्ध .
इनको आत्मिक स्तर पे आत्मा की आयु से भी जाना जा सकता है , दैहिक है तो देह के स्तर पे इसको सप्रमाण देखा भी जा सकता है , आत्मा का प्रमाण देना कठिन है पर आभास तो किया ही जा सकता है .
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हर इक अवस्था के अंदर भी सात रहस्यात्मक अवस्थाये है , पहली छह जिनका जिक्र ऊपर किया है और सातवीं ! किसी भी अवस्था की सातवीं पायदान का जिक्र संभव नहीं क्यूंकि उसके लिए कोई शब्द ही नहीं . एक ही शब्द है वर्णनातीत , उसका अनुभव ही किया जा सकता है , वो भी अपनी परिपक्वता की अंतिम अवस्था में... जैसे शैशव अवस्था का महत्व शैशव-वृद्ध के पड़ाव को पार करने के बाद ही जान पड़ता है. ऐसे ही सभी अवस्थाएं है , जो अपना महत्त्व बताती है पर गुजर जाने के बाद.
अवस्था-उदाहरण के लिए जैसे किसी आत्मा की आयु शैशव मान लेते है , इस अवस्था में जन्म ली हुई आत्मा अपने अभ्यास के छह स्तर को पार करती है जैसे शैशव - शैशव , शैशव-बल्य , शैशव-युवा , शैशव-परिपक्वयुवा , शैशव-प्रौढ़ शैशव-वृद्ध .... इसी क्रम में अन्य अवस्थाये है , वृद्ध-वृद्ध अंतिम मानवीय उम्र की माप है इसके बाद शब्द गायब हो जाते है.
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इनके अनेकानेक गुणात्मक रंग मिश्रण व्यक्तियों में व्यक्तित्व के रूप में मिलते है थोड़े से अभ्यास से ये समझा भी जा सकता है , जरा भी कोई स्याना होगा वो जान जायेगा की परिपक्वता की उम्र क्या है ! अध्यात्म में इसको आत्मा की उम्र से जानते है तो मनोविज्ञान में इसको मानसिक आयु और शारीरिक आयु से परिभाषित करते है . वैसे मुझे मनोविज्ञान का ज्ञान नहीं बस अध्यात्म को ही साधा है , उसी से मुझे कुछ संकेत मिलते है. अंदाजा न भी लगाये पर ये सब अवस्थाएं और उनसे प्रभावित व्यक्तित्व भी अपनी अपनी जीवन यात्रा में बहते हुए मिल ही जाते है ... !
है न !
ये सब कहने का संक्षेप में यही तात्पर्य है , आप जहाँ है जिस अवस्था में भी है आप आगे ही बढ़ रहे है धीरे धीरे , आप जाने या न जाने आप अपने भोगना और कर्म भूमि की धरती पे आप अपनी तपस्या में ही है.
2
अनुभव या पड़ाव :
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कल स्तर की बात की थी जिसमे दैहिक और आत्मिक अवस्था के भिन्न भिन्न स्तर थे , इन्ही विभिन्न अवस्थाओं में चलते हुए या कहे बहते हुए कहीं कुछ ऐसा मिलता है जो खटखटाता है , धक्का देता है , परिपक्व बनाता है , आप इसको अनुभव भी कह सकते है या पड़ाव कह सकते है या बदलाव की दशा ... . जो किसी भी शारीरिक और मानसिक आयु के अनेकानेक अवस्थाओं के मिश्रण में या तो क्रमशः अथवा अचानक आई छलांग के रूप में प्रकट होती है , छलांग से अर्थ ह्रदय जमीं की तैयारी से है . वरना क्रमशः ही चलते जाना है,...प्रकृति स्वयं सभी को धक्का दे रही है .
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इस अनुभव में उतरने का कुछ स्वयं साहस करते है ,तो कुछ को इस साहस का भान परिस्थतिगत सहायता से होता है तो कुछ स्वयं की शक्तिहीनता अथवा सहायता के आभाव में धैर्य खो देते है . इसमें भी भावुक होने की आवश्यकता नहीं , सब कर्म और भोग के अंदर ही है सहायता का मिलना भी ईश्वरीय आभार है पुरस्कार है अनुकम्पा है . स्वयं की शक्ति का जागना , अथवा सहायता का मिलना , धक्का खटखटाहट अनुभव सब इसी यात्रा का भाग है जो हमको अगले स्तर स्टेशन या प्रोजेक्ट या भोग या कर्म के फल पे ले जा के खड़ा कर देता है , ये भी मैट्रिक्स जैसा है अजूबा , हमे भान भी नहीं होता और हम स्वयं अगली जमीं पे खड़ा पाते है अगला कार्य अगले फल अगले पड़ाव के लिए.... संभवतः कुछ अभी ...कुछ बाद के लिए .... और कुछ और भी बाद के लिए अपने गुरुत्व के अनुसार स्वयं ही आते है स्वाभाविक प्राकतिक , इसीलिए ये भी अनुभव किया गया है की संभवतः कर्म+भोग का सम्बन्ध पुराना है एक गठरी है जो जीव के साथ साथ चलती है , और ज्ञान की अवस्था इसी गठरी को हल्का करती है.
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दिव्य का आभार तो जागरण की पहली घटना है , दूसरी घटना है अपने ही समान अन्य को समझना , अपने जरिये दूसरे की यात्रा का भान होना उसका आदर होना , किन्तु ये तभी हो सकता है जब जीव जीवन यात्रा का बृहत् स्तर पे भान करलेता है अनुभव करलेता है , संवेदनशीलता का जागरण होता है... यानी सीधा सम्बन्ध इसका स्वयं के जागरण से है , स्वयं का जागरण ही सबसे जोड़ता है और स्वयं का अज्ञान सबसे तोड़ता है . इसीलिए अध्यात्म की पहली और आखिरी शर्त है स्वयं से जुड़ना , स्वयं से जुड़ के ही दिव्यता का आभास हो सकता है. ज्ञान हो या विज्ञानं सभी प्रकार की चिकित्सा की शुरुआत स्वयं से ही है , फिर वो मानसिक हो या शारीरिक. जहाँ बीमारी का जन्म हो रहा है कहीं न कहीं उसका निदान भी वहीँ है , जहाँ जड़ है पोषण भी वहीँ है. और यही आधार अध्यात्म में बनता है जिसको हम बाहर खोज रहे होते है वो शक्ति तो हमारे पास है.
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आगे इसीमे आत्मिक परिपक्वता , आत्मा की आयु और मिलती जुलती तरंगो को जानेंगे जो स्वाभाविक बहाव से अचानक मिलती है, और अपना शक्ति समय दे के विलुप्त भी होती जाती है , तरंगो की गति ऐसी ही है " अचानक " इसलिए क्यूंकि हम बौद्धिक जीव है मंथन करते है समझना चाहते है प्रकर्ति की चाल ( गति ) को वरना प्रकृति के साम्राज्य में सब स्वाभाविक ही है.
3
ऊर्जा आकर्षण का विज्ञानं :
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चर्चा के इस तीसरे भाग में हम जानेंगे की इन अवस्थाओं को और स्तरों को अनुभव कैसे करें ? और कैसे कृष्ण और अर्जुन सरीखे व्यक्तित्व का मेल देह रूप में संभव होता है , कैसे ये मात्र उदाहरण बनते है और कैसे ये ऊर्जाएं संज्ञा से अलग , शरीर के नाम और दैहिक गुणों से अलग , एक गुणातमकता का दर्पण है और योग है , पूरक है .......!
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इस भाग में उतरने के लिए पाठक बंधू से निवेदन है उचित अनुभव के लिए ध्यान द्वारा एक उचित मानसिक अवस्था तक अपने को लाएं , जिसमे आप स्वयं के साक्षी को देह से कुछ समय के लिए स्वतंत्र करें , और तमाम संरचना जो प्रकर्ति की है संभवतः उसे तनिक ऊपर से विचारें , इतने ऊपर से की धरती के तत्व धरती पे ही रह जाएँ , आपकी ऊर्जा ऊपर को जाये , आपकी समझ आपके साथ जाये , और उस जगह से आप तत्वों के परिवर्तन और ऊर्जा के गुरुत्व को देख सके , उस जगह से आप देख सकें की ऊर्जा की आयु देह से मेल खा पा रही है की नहीं , यदि नहीं तो इस ऊर्जा की आयु किस अवस्था से मेल खा रही है , वहां से आप जान पाएंगे की ऊर्जा का वास्तविक स्तर / आयु क्या है ! जब आप ऊर्जा की आयु को अनुभव कर पाएंगे , तब आप जानेंगे की ऊर्जाएं कैसे समान स्तर की ऊर्जा की और आकर्षित होती है , वास्तव में इनके आकर्षण का देह की आयु से कोई सम्बन्ध ही नहीं , वास्तव में इनके आकर्षण का आधार अत्यंत गुणात्मक है। जो इनकी अपनी आयु से मेल खाता है।
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सिर्फ कृष्ण और अर्जुन ही नहीं , किसी भी जीव का संपर्क, उसका आकर्षण , उसकी अपनी यात्रा को दर्शाता है , इसका योनि (प्रजाति ) से सम्बन्ध नहीं ना ही लिंग योनि से सम्बन्ध है , किसी भी स्तर पे किसी भी जीव के साथ ये आकषर्ण अनुभव किया जा सकता है तो कभी विशेष स्थान से भी ये खिंचाव महसूस होता है , अंदाज लगाना कठिन है । वास्तव में ९९ प्रतिशत दैहिक स्तर की घटना में मनुष्य द्वारा बनाया समाज नामका तत्व शामिल है , जन्म परिवार धर्मं , सब शरीर से जुड़े है , और ये अपने अनुसार देह को बांधते है। पर ऊर्जा तत्व देह से परे है , ऊर्जा की यात्रा उसकी आयु , उसके आकर्षण बिलकुल अलग है। तो जो कृष्ण और अर्जुन का मेल है वो देह के माध्यम से ऊर्जा के धरातल पे है , इसी प्रकार राम रावण सीता या अन्य पात्र दैहिक स्तर पे सामाजिक जीवन जीते हुए उर्जात्मक रूप से अन्य तल पे मेल बनाते हुए विचरण कर रहे होते है। और उनके गुणात्मक आयु से मेल खातेआकर्षण उनको इस देह के साथ बांधते है और अन्य से कर्मबद्ध हो सम्बन्ध भी बनाते है, और इस प्रकार इस जीवन की कथा का निर्माण हो जाता है , जो संभवतः सही और गलत के औचित्य से परे है , हमारी बुद्धि कितना सही और गलत समझ सकती है ? मात्र कुछ वर्ष के संयोग को इकठा कर सही गलत का बौद्धिक तुलनात्मक भेद कर डालते है । ऊर्जा तो केंद्र से जुडी है किन्तु कर्म और भोग के चक्र में उलझी ऊर्जाएं भी शैशव से लेकर वृद्धकाल तक कई सौहजार वर्ष या उससे भी अधिक प्रकाश वर्ष की भी हो सकती है , ज्यु ज्यूँ ऊर्जा की सत्ता कर्म + भोग के गुरुत्व से भारविहीन होती जाती है त्यु त्यु उसका जन्म का काल और चयन भी बढ़ने लगता है परिपक्व होता जाता है। इसी कारन उच्च कोटि की आत्माओ को सुविधा है की वो काल स्थान और माता के गर्भ का चयन परिवार समेत कर पाती है। ( ये अनुभव करना भी अधिक कठिन नहीं बस थोड़ी साधना और स्वयं आभास होता है ) संभवतः अपरिपक्व नजर से पढने पर ये परिकथा जैसा लग सकता है और बौद्धिक आधार न होने पे तर्कशास्त्री असहमत भी हो सकते है। किन्तु ये विषय तर्क से नहीं भाव से ग्राह्य है। मध्य से कोई भी अपने अनुसार निर्णय कर सकता है , पर अनुभव की एक कड़ी बनती है जिसको पूरा कह पाना संभव नहीं , थोड़ा ही बीच से कहने का प्रयास होता है ( जिस कार्य को ऋषि आदि नहीं कर पाये दिव्य ग्रन्थ नहीं कर पाये , अपने को मैं बहुत छोटा पाती हूँ फिर भी प्रयास है ) , जहाँ तक गर्भ चयन का प्रश्न है थोड़ी परिपक्वता से ये ऊर्जा हासिल कर लेती है , क्यूंकि अपरिपक्व के जन्म का आधार भी उतने ही कर्म के गुरुत्व बोझ से भरा होता है ,जो बस देह चाहती है अपनी इक्छाओं को पूरा करने के लिए , परिपक्व देह थोड़ा सोच के गर्भ का चयन करती है , इतना जान लीजिये उचित गर्भ का चयन भी ऊर्जा के लिए सहज नहीं , कभी कोई किराये का मकान खोज है आपने ! कितना कुछ देखने के बाद भी संतुष्टि नहीं मिलती फिर ये तो पूरा जन्म है , फिर भी ज्यादा कुछ जैसे ही निर्धारित होता है ये ऊर्जाएं जन्म लेती है और चूँकि ये परिपक्व होती है तो जन्म के उद्देश्य हमारी आपकी तरह भूलती भी नहीं अपना उद्देश्य पूरा करती है,संतुलन का प्रयास करती है और वापिस चली जाती है। हमारे और आप जैसे कुछ बुद्धिशाली लोग बाद में व्याख्या करते है बाल की खाल निकालते है , कोई बिना अनुभव अन्धविश्वास करते है , तो इन्ही को लेके कोई कारोबार भी करते है। उफ़ !! मनुष्य बुद्धि और माया जाल ।
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प्रसिद्द ग्रंथों के पात्रों के बारे में व्यक्तियों का अलग अलग पालनपोषण और धार्मिक भाव के कारन जरा अलग दृष्टिकोण होता है , जो आध्यात्मिक समझ से परे है , कभी धार्मिक भावना अंध श्रद्धा बनती है तो कभी उन्ही पात्रो के प्रति सामाजिक कारणों से कई लोगों में अविश्वास की भावना भी आती है , फिर भी कथा है तो अस्तित्व भी है , कथानक है तो पात्र भी है , और पात्र है तो देह में है देह है तो निश्चित मनुष्य ही है , इसमें कोई संदेह नहीं है ! यहाँ जरा अलग इन इतिहास के विख्यात / कुख्यात पात्रों की संवेदनशील / संवेदनहीन कथा से अलग हो के , अपने बारे में सोचते है ! तो भी आप यही पाएंगे। क्यूंकि उनकी प्रख्यातता सिर्फ ये बताती है की की वो असाधारण थे , पर मनुष्य थे तो मनुष्य देह के अपने नियम भी है , उनके भी देह और ऊर्जा के आयु के सम्बन्ध है , तो हमारे भी सम्बन्ध वैसे ही है , एक रत्ती भी अलग नहीं।
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हम भी देह के अंदर है , हमारी भी ऊर्जा की आयु है , हमारे भी गुरुत्व है , हम भी अपनी यात्रा में है और हमारी भी कथा है , सभी पात्र हमारे साथ भी है , सभी प्रकार के सम्बन्ध-यज्ञ , कर्म-यज्ञ , भोग-यज्ञ हम भी कर रहे है , उस रामायण से या इस महाभारत से हम अलग नहीं। ऊर्जाएं आज भी अपनी गुणता के साथ जन्म ले रही है। आज भी आकर्षण का भार उनको विवश कर रहा है। आज भी ऊर्जा अपनी समान उम्र या गुण ऊर्जा से आकर्षित है , देह के सम्बन्ध कोई भी हो सकते है , अनजान भी हो सकते है। उसी परिवार में यदि जन्म मिला तो दादा पोता होसकता है , या बेटा नाना या नानी भी , पुरुष स्त्री हो सकता है स्त्री पुरुष , ये सब ऊर्जा की उन्नत अवस्था और इक्षाशक्ति पे निर्भर है। आपको और हमको ही नहीं जीवन को अलग अलग प्रकार से जीना और समझना पड़ता है , ये तो आधा पक्ष है , इसी का दूसरा पक्ष है , ऊर्जाओं को भी बहुत कुछ भार वहन करना पड़ता है जो देह से जुड़े कर्मो के कारण इकठा होते है। जो ऊर्जा के गुरुत्व ( गठरी ) का कारण बनते है , जो ऊर्जा को देश काल और परिस्थति अनुसार जन्म लेने के लिए प्रेरित करते है। देह से जन्म लेते ही समाज का ताना बाना जकड लेता है , उनका एक अलग ही जाल अपना कार्य करने लगता है। तत्व से बंधे अंग दिमाग और इन्द्रियां अपना कार्य करने लगती है किन्तु ऊर्जा जिसे हम चेतना भी कहते है , आत्मा भी कहते है वो अपनी उम्र भूलती नहीं , उसकी अपनी यात्रा और अपने आकर्षण अभी भी है।
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अध्यात्म आपको यही याद दिलाता है की आपके जन्म का उद्देश्य आपकी आत्मा की आयु से जुड़ा है उसको समाज और इन्द्रियों में उलझ के भूलिए नहीं। अपनी गठरी को हल्का रखिये। क्यूंकि पिछला भी तो काटना है। इन्ही सब उपद्रव के बीच आत्मा स्वयं से अपने आकर्षण खोज लेती है , उसकी अपनी यात्रा ( देह की नहीं ) से सम्बंधित है , कभी समाज मानता है कभी नहीं मानता , ये दो कथाये बिलकुल अलग है , एक देह की दूसरी ऊर्जा की। ऊर्जा तत्व के साथ मेल कर जन्म लेती है सम्भावनाओ के कारन , इक्छाओं के कारण , और भोग के कारण। अंततोगत्वा उलझ जाती है अपने ही जाल में किसी मकड़ी की तरह , क्यूंकि एक जाल और भी है वो है अज्ञानता का माया का , माया और कुछ नहीं आत्मा की अज्ञान स्थति है। पर ये जाल कर्म नए कर्म , प्रेरित कर्म , लिप्सा कर्म , अहंकार कर्म , वासना कर्म यहाँ तक पवित्र प्रेम भी वासनाओं और दैहिकआकर्षण में उलझ अलग ही प्रकार का कर्म और फल का योगकारक बन जाता है … आदि आदि नए नए रूप में कर्म के नए फेरे बनाते जाते है।
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अपनी ऊर्जा की आयु को आपको स्वयं ही समझना है , स्वयं की यात्रा स्वयं ही करनी है , राह में मिलने वाली हर छोटी बड़ी सहायता का आभार , जन्म से मिले सम्बन्ध , कर्म भोग से फलित सम्बन्ध , सभी मिलने वाली उर्जात्मक प्रेरणा जिन्हे मित्र कहते है , सभी का आभार देते हुए अपनी यात्रा साहस से जारी रखनी है।
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ऊर्जा अपना रास्ता खोज ही लेगी। क्यूंकि देह तो इनकी यात्रा का आवश्यक आधार भी है वर्ना ऊर्जा अप्रकट हो यात्रा कैसे करेगी ? परिपक्वता का आधार भी तो योनि जन्म ही है।
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सारांश रूप में आपने जाना , देह धर्म अलग है और ऊर्जा धर्म अलग है , देह समाज लौकिक धर्म से बद्ध है तो ऊर्जा अपने भोग और अपनी परिपक्वता से यात्रा करती है। संभवतः देह और ऊर्जा दोनों समान रूप से इस यात्रा में सहायक है। जन्म का अपना महत्त्व है। कभी कभी परिवार सहायक होते है जब उर्जात्मक सूत्र गुणरूप में मिल जाते है। और कभी कभी विपरीत भी हो जाते है , जब ऊर्जा अपरिपक्व होती है , तो उनके चयन भी परिपक्व नहीं होते। उनके सहयोगी भी सहयोगी नहीं होते। अज्ञानता के ही दृश्य दीखते है। अंधकार ही अंधकार में यात्रा होती जाती है। किन्तु ये भी उनकी यात्रा का ही एक भाग है। इसी में उर्जाये गुण एवं आयु में मेल खाती मिल जाती है , तो मानव समाज के लिए अजूबा बन जाती है। कृष्ण और अर्जुन का जन्म संभव हो जाता है। राम सीता रावण आदि एक साथ मिल जाते है। दौपदी का जन्म हो जाता है। या यूँ कहे हो ही रहा है। लगातार ऊर्जाएं जन्म ले रही है अपनी अपनी गुणात्मकता के साथ।
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है न !
ओम प्रणाम
सारांश -
तीन भागो में बंटा हुआ है हमारा जन्म , ऊर्जा - देह - संयोग और जन्म से जुड़े कर्त्तव्य तथा उन कर्तव्यों का बोध , जन्म का बोध , जो देह धर्म और आत्म धर्म और उनके अलग अलग आकर्षण को कहने की चेष्टा भी है , यद्यपि दोनों ही बिलकुल अलग है पर पूरक है देह >आत्मा के बिना निष्क्रिय और आत्मा > देह के बिना निष्क्रिय , एक दूसरे से वैसे ही जुड़े है जैसे खून के रिश्ते सम्बन्ध कर्त्तव्य युक्त । स्वयं से भी हमारा सम्बन्ध ऐसा ही कर्तव्ययुक्त है। जिसको निभाना हमारे जन्म के उद्देश्य को पूर्ण करता है।
* प्रथम; क्या ऊर्जा की भी परिपक्व अवस्था संभव है !
* दूसरा ; क्या ऊर्जाएं परिपक्वता के समान धरातल पे एक दूसरे से आकर्षित होती है ! ( तात्विक दूरी , संज्ञा-सम्बन्ध कोई भी हो अथवा न भी हो, कभी कभी ऊर्जागत-आकर्षण सभी सामाजिक आर्थिक आयु अथवा अन्य परिस्थति जन्य बंधनो से ऊपर होते देखे गए है )
* तीसरा ; देह के साथ मिल के ऊर्जा किस प्रकार अपने दोनों धर्मो को निभाती है ? और ज्ञान / बोध किस प्रकार उसकी यात्रा को सरल और सहज बनाता है ?
वैसे तो ये विषय अकथ है , विस्तृत है , कई विषय है इसमें , जैसे मनोविज्ञान , पराविज्ञान , अध्यात्म , और सबसे ऊपर ध्यान। ध्यान के सहयोग से सभी विषय एक धागे से एक माला में गूँथ जाते है , और सारा रहस्य भी प्रकट होने लगता है। किन्तु फिर भी ये भी सत्य है की विज्ञानं के प्रमाण है क्यूंकि तत्व उनको छू सकते है , इन्द्रियों द्वारा जाने जा सकते है विज्ञानं की तरंग की अवस्था भी तत्व की पकड़ में है , मन का विज्ञानं भी कुछ दूर तक चलता है , बाकी अध्यात्म सहयोगी है , और अंतिम उपलब्धि ध्यान की अपनी है। निचे लिखे इस लेख में ऊर्जा के चक्र जो गुरुत्व से प्रभावित है और देह के तत्व को जो कर्म भोग में लिप्त है , जानने समझने की चेष्टा की है , संभवतः आपको सहज समझ आएगी।
चित्र में एक देह अनेक आवर्तियों से घिरा है जो उसकी देह की आयु और ऊर्जा के विभिन्न मिश्रण का प्रतीक मात्र है , एक देह अनेक आवरण से भरी है। जिस प्रकार देह के आवरण है वैसे ही ऊर्जा भी गुरुत्व-भार निर्मित आवरण / आवरणों से घिरी होती है , क्या ये आयु - परिपक्वता के आवरण सम्बन्ध है ? और इनका ऊर्जा की आयु से सम्बन्ध है ? देह के सामान ही क्या ऊर्जा की भी आयु संभव है ? और यदि ऊर्जा की आयु है तो क्या इसका आकर्षण अन्य ऊर्जा से संभव है ? क्या कोई अन्य गुणप्रधान चुंबकत्व है जो इनको सहज आकर्षित करता है ? आध्यात्मिक स्तर पे इसे ही जानने की चेष्टा है।
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उम्र के दैहिक और आत्मिक स्तर :-
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जो भी मैं यहाँ कहने जा रही हु , उसका प्रमाण तो नहीं पर आभास जरूर है , थोड़ी सत्यता भी आस पास देखने को मिलती है , आप भी गौर कीजियेगा अपने आस पास ...... जब किसी छोटे से बच्चे को मानसिक रूप से परिपक्व पाते है और किसी वृद्ध को तमाम उम्र गुजरने के बाद भी अपरिपक्व
सामान्यतः मनो + विज्ञान ( चूँकि विज्ञान की भाषा प्रामाणिक जान पड़ती है इसलिए मन और विज्ञानं को विभाजित किया है ताकि पढ़ने वाले प्रमाण सहित समझे ) में छह पैमाने है परिपक्वता के :
* शैशव
* बाल्य
* युवा
* युवा-परिपक्व
* प्रौढ़
* वृद्ध .
इनको आत्मिक स्तर पे आत्मा की आयु से भी जाना जा सकता है , दैहिक है तो देह के स्तर पे इसको सप्रमाण देखा भी जा सकता है , आत्मा का प्रमाण देना कठिन है पर आभास तो किया ही जा सकता है .
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हर इक अवस्था के अंदर भी सात रहस्यात्मक अवस्थाये है , पहली छह जिनका जिक्र ऊपर किया है और सातवीं ! किसी भी अवस्था की सातवीं पायदान का जिक्र संभव नहीं क्यूंकि उसके लिए कोई शब्द ही नहीं . एक ही शब्द है वर्णनातीत , उसका अनुभव ही किया जा सकता है , वो भी अपनी परिपक्वता की अंतिम अवस्था में... जैसे शैशव अवस्था का महत्व शैशव-वृद्ध के पड़ाव को पार करने के बाद ही जान पड़ता है. ऐसे ही सभी अवस्थाएं है , जो अपना महत्त्व बताती है पर गुजर जाने के बाद.
अवस्था-उदाहरण के लिए जैसे किसी आत्मा की आयु शैशव मान लेते है , इस अवस्था में जन्म ली हुई आत्मा अपने अभ्यास के छह स्तर को पार करती है जैसे शैशव - शैशव , शैशव-बल्य , शैशव-युवा , शैशव-परिपक्वयुवा , शैशव-प्रौढ़ शैशव-वृद्ध .... इसी क्रम में अन्य अवस्थाये है , वृद्ध-वृद्ध अंतिम मानवीय उम्र की माप है इसके बाद शब्द गायब हो जाते है.
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इनके अनेकानेक गुणात्मक रंग मिश्रण व्यक्तियों में व्यक्तित्व के रूप में मिलते है थोड़े से अभ्यास से ये समझा भी जा सकता है , जरा भी कोई स्याना होगा वो जान जायेगा की परिपक्वता की उम्र क्या है ! अध्यात्म में इसको आत्मा की उम्र से जानते है तो मनोविज्ञान में इसको मानसिक आयु और शारीरिक आयु से परिभाषित करते है . वैसे मुझे मनोविज्ञान का ज्ञान नहीं बस अध्यात्म को ही साधा है , उसी से मुझे कुछ संकेत मिलते है. अंदाजा न भी लगाये पर ये सब अवस्थाएं और उनसे प्रभावित व्यक्तित्व भी अपनी अपनी जीवन यात्रा में बहते हुए मिल ही जाते है ... !
है न !
ये सब कहने का संक्षेप में यही तात्पर्य है , आप जहाँ है जिस अवस्था में भी है आप आगे ही बढ़ रहे है धीरे धीरे , आप जाने या न जाने आप अपने भोगना और कर्म भूमि की धरती पे आप अपनी तपस्या में ही है.
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अनुभव या पड़ाव :
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कल स्तर की बात की थी जिसमे दैहिक और आत्मिक अवस्था के भिन्न भिन्न स्तर थे , इन्ही विभिन्न अवस्थाओं में चलते हुए या कहे बहते हुए कहीं कुछ ऐसा मिलता है जो खटखटाता है , धक्का देता है , परिपक्व बनाता है , आप इसको अनुभव भी कह सकते है या पड़ाव कह सकते है या बदलाव की दशा ... . जो किसी भी शारीरिक और मानसिक आयु के अनेकानेक अवस्थाओं के मिश्रण में या तो क्रमशः अथवा अचानक आई छलांग के रूप में प्रकट होती है , छलांग से अर्थ ह्रदय जमीं की तैयारी से है . वरना क्रमशः ही चलते जाना है,...प्रकृति स्वयं सभी को धक्का दे रही है .
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इस अनुभव में उतरने का कुछ स्वयं साहस करते है ,तो कुछ को इस साहस का भान परिस्थतिगत सहायता से होता है तो कुछ स्वयं की शक्तिहीनता अथवा सहायता के आभाव में धैर्य खो देते है . इसमें भी भावुक होने की आवश्यकता नहीं , सब कर्म और भोग के अंदर ही है सहायता का मिलना भी ईश्वरीय आभार है पुरस्कार है अनुकम्पा है . स्वयं की शक्ति का जागना , अथवा सहायता का मिलना , धक्का खटखटाहट अनुभव सब इसी यात्रा का भाग है जो हमको अगले स्तर स्टेशन या प्रोजेक्ट या भोग या कर्म के फल पे ले जा के खड़ा कर देता है , ये भी मैट्रिक्स जैसा है अजूबा , हमे भान भी नहीं होता और हम स्वयं अगली जमीं पे खड़ा पाते है अगला कार्य अगले फल अगले पड़ाव के लिए.... संभवतः कुछ अभी ...कुछ बाद के लिए .... और कुछ और भी बाद के लिए अपने गुरुत्व के अनुसार स्वयं ही आते है स्वाभाविक प्राकतिक , इसीलिए ये भी अनुभव किया गया है की संभवतः कर्म+भोग का सम्बन्ध पुराना है एक गठरी है जो जीव के साथ साथ चलती है , और ज्ञान की अवस्था इसी गठरी को हल्का करती है.
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दिव्य का आभार तो जागरण की पहली घटना है , दूसरी घटना है अपने ही समान अन्य को समझना , अपने जरिये दूसरे की यात्रा का भान होना उसका आदर होना , किन्तु ये तभी हो सकता है जब जीव जीवन यात्रा का बृहत् स्तर पे भान करलेता है अनुभव करलेता है , संवेदनशीलता का जागरण होता है... यानी सीधा सम्बन्ध इसका स्वयं के जागरण से है , स्वयं का जागरण ही सबसे जोड़ता है और स्वयं का अज्ञान सबसे तोड़ता है . इसीलिए अध्यात्म की पहली और आखिरी शर्त है स्वयं से जुड़ना , स्वयं से जुड़ के ही दिव्यता का आभास हो सकता है. ज्ञान हो या विज्ञानं सभी प्रकार की चिकित्सा की शुरुआत स्वयं से ही है , फिर वो मानसिक हो या शारीरिक. जहाँ बीमारी का जन्म हो रहा है कहीं न कहीं उसका निदान भी वहीँ है , जहाँ जड़ है पोषण भी वहीँ है. और यही आधार अध्यात्म में बनता है जिसको हम बाहर खोज रहे होते है वो शक्ति तो हमारे पास है.
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आगे इसीमे आत्मिक परिपक्वता , आत्मा की आयु और मिलती जुलती तरंगो को जानेंगे जो स्वाभाविक बहाव से अचानक मिलती है, और अपना शक्ति समय दे के विलुप्त भी होती जाती है , तरंगो की गति ऐसी ही है " अचानक " इसलिए क्यूंकि हम बौद्धिक जीव है मंथन करते है समझना चाहते है प्रकर्ति की चाल ( गति ) को वरना प्रकृति के साम्राज्य में सब स्वाभाविक ही है.
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ऊर्जा आकर्षण का विज्ञानं :
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चर्चा के इस तीसरे भाग में हम जानेंगे की इन अवस्थाओं को और स्तरों को अनुभव कैसे करें ? और कैसे कृष्ण और अर्जुन सरीखे व्यक्तित्व का मेल देह रूप में संभव होता है , कैसे ये मात्र उदाहरण बनते है और कैसे ये ऊर्जाएं संज्ञा से अलग , शरीर के नाम और दैहिक गुणों से अलग , एक गुणातमकता का दर्पण है और योग है , पूरक है .......!
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इस भाग में उतरने के लिए पाठक बंधू से निवेदन है उचित अनुभव के लिए ध्यान द्वारा एक उचित मानसिक अवस्था तक अपने को लाएं , जिसमे आप स्वयं के साक्षी को देह से कुछ समय के लिए स्वतंत्र करें , और तमाम संरचना जो प्रकर्ति की है संभवतः उसे तनिक ऊपर से विचारें , इतने ऊपर से की धरती के तत्व धरती पे ही रह जाएँ , आपकी ऊर्जा ऊपर को जाये , आपकी समझ आपके साथ जाये , और उस जगह से आप तत्वों के परिवर्तन और ऊर्जा के गुरुत्व को देख सके , उस जगह से आप देख सकें की ऊर्जा की आयु देह से मेल खा पा रही है की नहीं , यदि नहीं तो इस ऊर्जा की आयु किस अवस्था से मेल खा रही है , वहां से आप जान पाएंगे की ऊर्जा का वास्तविक स्तर / आयु क्या है ! जब आप ऊर्जा की आयु को अनुभव कर पाएंगे , तब आप जानेंगे की ऊर्जाएं कैसे समान स्तर की ऊर्जा की और आकर्षित होती है , वास्तव में इनके आकर्षण का देह की आयु से कोई सम्बन्ध ही नहीं , वास्तव में इनके आकर्षण का आधार अत्यंत गुणात्मक है। जो इनकी अपनी आयु से मेल खाता है।
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सिर्फ कृष्ण और अर्जुन ही नहीं , किसी भी जीव का संपर्क, उसका आकर्षण , उसकी अपनी यात्रा को दर्शाता है , इसका योनि (प्रजाति ) से सम्बन्ध नहीं ना ही लिंग योनि से सम्बन्ध है , किसी भी स्तर पे किसी भी जीव के साथ ये आकषर्ण अनुभव किया जा सकता है तो कभी विशेष स्थान से भी ये खिंचाव महसूस होता है , अंदाज लगाना कठिन है । वास्तव में ९९ प्रतिशत दैहिक स्तर की घटना में मनुष्य द्वारा बनाया समाज नामका तत्व शामिल है , जन्म परिवार धर्मं , सब शरीर से जुड़े है , और ये अपने अनुसार देह को बांधते है। पर ऊर्जा तत्व देह से परे है , ऊर्जा की यात्रा उसकी आयु , उसके आकर्षण बिलकुल अलग है। तो जो कृष्ण और अर्जुन का मेल है वो देह के माध्यम से ऊर्जा के धरातल पे है , इसी प्रकार राम रावण सीता या अन्य पात्र दैहिक स्तर पे सामाजिक जीवन जीते हुए उर्जात्मक रूप से अन्य तल पे मेल बनाते हुए विचरण कर रहे होते है। और उनके गुणात्मक आयु से मेल खातेआकर्षण उनको इस देह के साथ बांधते है और अन्य से कर्मबद्ध हो सम्बन्ध भी बनाते है, और इस प्रकार इस जीवन की कथा का निर्माण हो जाता है , जो संभवतः सही और गलत के औचित्य से परे है , हमारी बुद्धि कितना सही और गलत समझ सकती है ? मात्र कुछ वर्ष के संयोग को इकठा कर सही गलत का बौद्धिक तुलनात्मक भेद कर डालते है । ऊर्जा तो केंद्र से जुडी है किन्तु कर्म और भोग के चक्र में उलझी ऊर्जाएं भी शैशव से लेकर वृद्धकाल तक कई सौहजार वर्ष या उससे भी अधिक प्रकाश वर्ष की भी हो सकती है , ज्यु ज्यूँ ऊर्जा की सत्ता कर्म + भोग के गुरुत्व से भारविहीन होती जाती है त्यु त्यु उसका जन्म का काल और चयन भी बढ़ने लगता है परिपक्व होता जाता है। इसी कारन उच्च कोटि की आत्माओ को सुविधा है की वो काल स्थान और माता के गर्भ का चयन परिवार समेत कर पाती है। ( ये अनुभव करना भी अधिक कठिन नहीं बस थोड़ी साधना और स्वयं आभास होता है ) संभवतः अपरिपक्व नजर से पढने पर ये परिकथा जैसा लग सकता है और बौद्धिक आधार न होने पे तर्कशास्त्री असहमत भी हो सकते है। किन्तु ये विषय तर्क से नहीं भाव से ग्राह्य है। मध्य से कोई भी अपने अनुसार निर्णय कर सकता है , पर अनुभव की एक कड़ी बनती है जिसको पूरा कह पाना संभव नहीं , थोड़ा ही बीच से कहने का प्रयास होता है ( जिस कार्य को ऋषि आदि नहीं कर पाये दिव्य ग्रन्थ नहीं कर पाये , अपने को मैं बहुत छोटा पाती हूँ फिर भी प्रयास है ) , जहाँ तक गर्भ चयन का प्रश्न है थोड़ी परिपक्वता से ये ऊर्जा हासिल कर लेती है , क्यूंकि अपरिपक्व के जन्म का आधार भी उतने ही कर्म के गुरुत्व बोझ से भरा होता है ,जो बस देह चाहती है अपनी इक्छाओं को पूरा करने के लिए , परिपक्व देह थोड़ा सोच के गर्भ का चयन करती है , इतना जान लीजिये उचित गर्भ का चयन भी ऊर्जा के लिए सहज नहीं , कभी कोई किराये का मकान खोज है आपने ! कितना कुछ देखने के बाद भी संतुष्टि नहीं मिलती फिर ये तो पूरा जन्म है , फिर भी ज्यादा कुछ जैसे ही निर्धारित होता है ये ऊर्जाएं जन्म लेती है और चूँकि ये परिपक्व होती है तो जन्म के उद्देश्य हमारी आपकी तरह भूलती भी नहीं अपना उद्देश्य पूरा करती है,संतुलन का प्रयास करती है और वापिस चली जाती है। हमारे और आप जैसे कुछ बुद्धिशाली लोग बाद में व्याख्या करते है बाल की खाल निकालते है , कोई बिना अनुभव अन्धविश्वास करते है , तो इन्ही को लेके कोई कारोबार भी करते है। उफ़ !! मनुष्य बुद्धि और माया जाल ।
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प्रसिद्द ग्रंथों के पात्रों के बारे में व्यक्तियों का अलग अलग पालनपोषण और धार्मिक भाव के कारन जरा अलग दृष्टिकोण होता है , जो आध्यात्मिक समझ से परे है , कभी धार्मिक भावना अंध श्रद्धा बनती है तो कभी उन्ही पात्रो के प्रति सामाजिक कारणों से कई लोगों में अविश्वास की भावना भी आती है , फिर भी कथा है तो अस्तित्व भी है , कथानक है तो पात्र भी है , और पात्र है तो देह में है देह है तो निश्चित मनुष्य ही है , इसमें कोई संदेह नहीं है ! यहाँ जरा अलग इन इतिहास के विख्यात / कुख्यात पात्रों की संवेदनशील / संवेदनहीन कथा से अलग हो के , अपने बारे में सोचते है ! तो भी आप यही पाएंगे। क्यूंकि उनकी प्रख्यातता सिर्फ ये बताती है की की वो असाधारण थे , पर मनुष्य थे तो मनुष्य देह के अपने नियम भी है , उनके भी देह और ऊर्जा के आयु के सम्बन्ध है , तो हमारे भी सम्बन्ध वैसे ही है , एक रत्ती भी अलग नहीं।
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हम भी देह के अंदर है , हमारी भी ऊर्जा की आयु है , हमारे भी गुरुत्व है , हम भी अपनी यात्रा में है और हमारी भी कथा है , सभी पात्र हमारे साथ भी है , सभी प्रकार के सम्बन्ध-यज्ञ , कर्म-यज्ञ , भोग-यज्ञ हम भी कर रहे है , उस रामायण से या इस महाभारत से हम अलग नहीं। ऊर्जाएं आज भी अपनी गुणता के साथ जन्म ले रही है। आज भी आकर्षण का भार उनको विवश कर रहा है। आज भी ऊर्जा अपनी समान उम्र या गुण ऊर्जा से आकर्षित है , देह के सम्बन्ध कोई भी हो सकते है , अनजान भी हो सकते है। उसी परिवार में यदि जन्म मिला तो दादा पोता होसकता है , या बेटा नाना या नानी भी , पुरुष स्त्री हो सकता है स्त्री पुरुष , ये सब ऊर्जा की उन्नत अवस्था और इक्षाशक्ति पे निर्भर है। आपको और हमको ही नहीं जीवन को अलग अलग प्रकार से जीना और समझना पड़ता है , ये तो आधा पक्ष है , इसी का दूसरा पक्ष है , ऊर्जाओं को भी बहुत कुछ भार वहन करना पड़ता है जो देह से जुड़े कर्मो के कारण इकठा होते है। जो ऊर्जा के गुरुत्व ( गठरी ) का कारण बनते है , जो ऊर्जा को देश काल और परिस्थति अनुसार जन्म लेने के लिए प्रेरित करते है। देह से जन्म लेते ही समाज का ताना बाना जकड लेता है , उनका एक अलग ही जाल अपना कार्य करने लगता है। तत्व से बंधे अंग दिमाग और इन्द्रियां अपना कार्य करने लगती है किन्तु ऊर्जा जिसे हम चेतना भी कहते है , आत्मा भी कहते है वो अपनी उम्र भूलती नहीं , उसकी अपनी यात्रा और अपने आकर्षण अभी भी है।
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अध्यात्म आपको यही याद दिलाता है की आपके जन्म का उद्देश्य आपकी आत्मा की आयु से जुड़ा है उसको समाज और इन्द्रियों में उलझ के भूलिए नहीं। अपनी गठरी को हल्का रखिये। क्यूंकि पिछला भी तो काटना है। इन्ही सब उपद्रव के बीच आत्मा स्वयं से अपने आकर्षण खोज लेती है , उसकी अपनी यात्रा ( देह की नहीं ) से सम्बंधित है , कभी समाज मानता है कभी नहीं मानता , ये दो कथाये बिलकुल अलग है , एक देह की दूसरी ऊर्जा की। ऊर्जा तत्व के साथ मेल कर जन्म लेती है सम्भावनाओ के कारन , इक्छाओं के कारण , और भोग के कारण। अंततोगत्वा उलझ जाती है अपने ही जाल में किसी मकड़ी की तरह , क्यूंकि एक जाल और भी है वो है अज्ञानता का माया का , माया और कुछ नहीं आत्मा की अज्ञान स्थति है। पर ये जाल कर्म नए कर्म , प्रेरित कर्म , लिप्सा कर्म , अहंकार कर्म , वासना कर्म यहाँ तक पवित्र प्रेम भी वासनाओं और दैहिकआकर्षण में उलझ अलग ही प्रकार का कर्म और फल का योगकारक बन जाता है … आदि आदि नए नए रूप में कर्म के नए फेरे बनाते जाते है।
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अपनी ऊर्जा की आयु को आपको स्वयं ही समझना है , स्वयं की यात्रा स्वयं ही करनी है , राह में मिलने वाली हर छोटी बड़ी सहायता का आभार , जन्म से मिले सम्बन्ध , कर्म भोग से फलित सम्बन्ध , सभी मिलने वाली उर्जात्मक प्रेरणा जिन्हे मित्र कहते है , सभी का आभार देते हुए अपनी यात्रा साहस से जारी रखनी है।
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ऊर्जा अपना रास्ता खोज ही लेगी। क्यूंकि देह तो इनकी यात्रा का आवश्यक आधार भी है वर्ना ऊर्जा अप्रकट हो यात्रा कैसे करेगी ? परिपक्वता का आधार भी तो योनि जन्म ही है।
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सारांश रूप में आपने जाना , देह धर्म अलग है और ऊर्जा धर्म अलग है , देह समाज लौकिक धर्म से बद्ध है तो ऊर्जा अपने भोग और अपनी परिपक्वता से यात्रा करती है। संभवतः देह और ऊर्जा दोनों समान रूप से इस यात्रा में सहायक है। जन्म का अपना महत्त्व है। कभी कभी परिवार सहायक होते है जब उर्जात्मक सूत्र गुणरूप में मिल जाते है। और कभी कभी विपरीत भी हो जाते है , जब ऊर्जा अपरिपक्व होती है , तो उनके चयन भी परिपक्व नहीं होते। उनके सहयोगी भी सहयोगी नहीं होते। अज्ञानता के ही दृश्य दीखते है। अंधकार ही अंधकार में यात्रा होती जाती है। किन्तु ये भी उनकी यात्रा का ही एक भाग है। इसी में उर्जाये गुण एवं आयु में मेल खाती मिल जाती है , तो मानव समाज के लिए अजूबा बन जाती है। कृष्ण और अर्जुन का जन्म संभव हो जाता है। राम सीता रावण आदि एक साथ मिल जाते है। दौपदी का जन्म हो जाता है। या यूँ कहे हो ही रहा है। लगातार ऊर्जाएं जन्म ले रही है अपनी अपनी गुणात्मकता के साथ।
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है न !
ओम प्रणाम
सारांश -
तीन भागो में बंटा हुआ है हमारा जन्म , ऊर्जा - देह - संयोग और जन्म से जुड़े कर्त्तव्य तथा उन कर्तव्यों का बोध , जन्म का बोध , जो देह धर्म और आत्म धर्म और उनके अलग अलग आकर्षण को कहने की चेष्टा भी है , यद्यपि दोनों ही बिलकुल अलग है पर पूरक है देह >आत्मा के बिना निष्क्रिय और आत्मा > देह के बिना निष्क्रिय , एक दूसरे से वैसे ही जुड़े है जैसे खून के रिश्ते सम्बन्ध कर्त्तव्य युक्त । स्वयं से भी हमारा सम्बन्ध ऐसा ही कर्तव्ययुक्त है। जिसको निभाना हमारे जन्म के उद्देश्य को पूर्ण करता है।