Thursday, 28 May 2015

दैहिक और आत्मिक आयु - संभावनाएं / मेल

तीन भागों में  अलग अलग लिखा गया एक ही विषय है  जिसमे इस दुरूह विषय को सहज  और सरल   भाव से  कहने की  चेष्टा  है :-
*  प्रथम; क्या ऊर्जा की भी  परिपक्व अवस्था  संभव है !
*  दूसरा ; क्या   ऊर्जाएं   परिपक्वता के  समान धरातल पे एक दूसरे से आकर्षित होती है ! (  तात्विक दूरी  , संज्ञा-सम्बन्ध कोई भी हो  अथवा न भी हो, कभी कभी  ऊर्जागत-आकर्षण  सभी  सामाजिक आर्थिक   आयु  अथवा अन्य परिस्थति जन्य  बंधनो से ऊपर होते देखे गए है  )
*  तीसरा ; देह  के साथ मिल के  ऊर्जा  किस प्रकार  अपने दोनों धर्मो  को निभाती है ? और ज्ञान / बोध  किस प्रकार  उसकी यात्रा को सरल  और सहज बनाता है ?

वैसे तो ये विषय अकथ  है , विस्तृत है , कई विषय है इसमें , जैसे  मनोविज्ञान , पराविज्ञान , अध्यात्म  , और सबसे ऊपर ध्यान।   ध्यान के सहयोग से  सभी विषय एक  धागे से  एक  माला में गूँथ जाते है , और सारा रहस्य भी  प्रकट होने लगता है।  किन्तु फिर भी  ये भी सत्य है की विज्ञानं के प्रमाण  है  क्यूंकि  तत्व उनको  छू सकते है , इन्द्रियों द्वारा  जाने जा सकते है  विज्ञानं की तरंग की अवस्था भी  तत्व की पकड़ में है , मन का विज्ञानं भी  कुछ दूर तक  चलता है , बाकी अध्यात्म  सहयोगी है , और अंतिम  उपलब्धि  ध्यान की  अपनी है।  निचे लिखे  इस लेख में ऊर्जा के  चक्र  जो गुरुत्व से प्रभावित है  और देह के तत्व को  जो कर्म भोग में लिप्त है , जानने समझने की चेष्टा  की है , संभवतः आपको  सहज समझ आएगी।

चित्र में  एक देह  अनेक आवर्तियों  से घिरा   है  जो  उसकी देह की आयु   और ऊर्जा के विभिन्न  मिश्रण  का प्रतीक मात्र है , एक देह  अनेक आवरण से भरी है। जिस प्रकार देह के आवरण है  वैसे ही ऊर्जा भी गुरुत्व-भार निर्मित आवरण / आवरणों  से घिरी होती है ,  क्या ये  आयु - परिपक्वता के आवरण सम्बन्ध है ?   और इनका  ऊर्जा  की आयु से सम्बन्ध  है ?  देह के सामान ही  क्या ऊर्जा की भी आयु संभव है ?  और यदि ऊर्जा  की  आयु है  तो  क्या इसका आकर्षण  अन्य ऊर्जा से  संभव है ?  क्या कोई   अन्य गुणप्रधान  चुंबकत्व है  जो इनको  सहज आकर्षित  करता है ?  आध्यात्मिक  स्तर  पे  इसे ही जानने की चेष्टा है।
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उम्र  के दैहिक  और आत्मिक स्तर :-
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जो भी  मैं यहाँ कहने जा रही हु , उसका प्रमाण  तो नहीं  पर आभास  जरूर  है , थोड़ी सत्यता  भी  आस पास देखने को मिलती  है , आप भी गौर कीजियेगा  अपने आस पास ...... जब किसी छोटे से बच्चे को मानसिक  रूप से  परिपक्व पाते है  और किसी वृद्ध को तमाम  उम्र गुजरने के बाद भी अपरिपक्व

सामान्यतः मनो + विज्ञान ( चूँकि विज्ञान की भाषा प्रामाणिक जान पड़ती है इसलिए मन और विज्ञानं को विभाजित किया है ताकि पढ़ने वाले प्रमाण सहित समझे ) में छह पैमाने  है परिपक्वता के :
* शैशव
* बाल्य
* युवा
* युवा-परिपक्व
* प्रौढ़
* वृद्ध .

इनको  आत्मिक स्तर  पे  आत्मा की आयु से भी जाना जा सकता है , दैहिक है तो देह के स्तर पे  इसको सप्रमाण देखा भी जा सकता है , आत्मा का प्रमाण देना कठिन है पर आभास तो किया ही जा सकता है .
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हर इक अवस्था  के  अंदर भी  सात  रहस्यात्मक अवस्थाये है ,  पहली छह  जिनका जिक्र ऊपर किया है  और सातवीं ! किसी भी अवस्था की सातवीं पायदान का जिक्र संभव नहीं  क्यूंकि उसके लिए कोई शब्द ही नहीं . एक ही शब्द है वर्णनातीत , उसका अनुभव ही किया जा सकता है , वो भी अपनी परिपक्वता की अंतिम अवस्था में... जैसे शैशव अवस्था का महत्व शैशव-वृद्ध के पड़ाव को पार करने के बाद ही जान पड़ता है. ऐसे ही सभी अवस्थाएं है , जो अपना महत्त्व बताती है  पर गुजर जाने के बाद.

अवस्था-उदाहरण  के लिए जैसे  किसी आत्मा की आयु  शैशव  मान लेते है , इस अवस्था में जन्म ली हुई  आत्मा  अपने  अभ्यास  के   छह स्तर को पार करती है जैसे शैशव - शैशव , शैशव-बल्य , शैशव-युवा , शैशव-परिपक्वयुवा , शैशव-प्रौढ़  शैशव-वृद्ध .... इसी क्रम में अन्य अवस्थाये है ,   वृद्ध-वृद्ध अंतिम  मानवीय  उम्र की माप है  इसके बाद  शब्द  गायब हो जाते है.
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इनके अनेकानेक गुणात्मक रंग मिश्रण व्यक्तियों में व्यक्तित्व के रूप में मिलते है थोड़े से अभ्यास से ये समझा भी जा सकता है , जरा भी कोई स्याना होगा वो जान जायेगा की  परिपक्वता  की उम्र क्या है !  अध्यात्म में इसको आत्मा की उम्र से जानते है  तो मनोविज्ञान में इसको मानसिक आयु और शारीरिक आयु  से  परिभाषित करते है . वैसे मुझे मनोविज्ञान का ज्ञान  नहीं बस  अध्यात्म  को ही साधा है , उसी से मुझे कुछ संकेत मिलते है. अंदाजा न भी लगाये पर ये सब अवस्थाएं और उनसे प्रभावित व्यक्तित्व भी अपनी अपनी जीवन यात्रा में बहते हुए मिल ही जाते है ... !

है न !

ये सब कहने का संक्षेप में यही तात्पर्य है , आप जहाँ है  जिस अवस्था में भी है  आप आगे ही बढ़ रहे है  धीरे धीरे , आप  जाने या न जाने  आप अपने  भोगना  और कर्म भूमि की धरती  पे  आप अपनी  तपस्या  में ही है.

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अनुभव या पड़ाव :
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कल  स्तर की बात  की थी  जिसमे दैहिक  और आत्मिक अवस्था के  भिन्न भिन्न स्तर थे , इन्ही  विभिन्न अवस्थाओं में  चलते हुए या कहे बहते हुए   कहीं कुछ   ऐसा मिलता है  जो  खटखटाता है , धक्का देता है , परिपक्व बनाता है , आप इसको अनुभव भी कह सकते है या पड़ाव कह सकते है  या बदलाव की दशा ... . जो किसी भी शारीरिक और मानसिक आयु के अनेकानेक  अवस्थाओं  के मिश्रण  में  या तो क्रमशः  अथवा अचानक आई छलांग के रूप में  प्रकट होती है , छलांग से अर्थ ह्रदय जमीं की तैयारी से है . वरना क्रमशः  ही  चलते जाना है,...प्रकृति स्वयं सभी को धक्का दे रही है .
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इस अनुभव में  उतरने  का कुछ स्वयं साहस करते है ,तो कुछ को इस साहस का भान परिस्थतिगत सहायता से होता है तो कुछ  स्वयं की शक्तिहीनता  अथवा सहायता के आभाव में   धैर्य खो देते है . इसमें भी  भावुक होने की आवश्यकता नहीं , सब  कर्म  और भोग के अंदर ही है सहायता का मिलना भी ईश्वरीय आभार है  पुरस्कार है  अनुकम्पा है . स्वयं की शक्ति का जागना , अथवा सहायता का मिलना , धक्का खटखटाहट अनुभव सब इसी यात्रा का भाग है जो हमको अगले स्तर स्टेशन या प्रोजेक्ट  या भोग  या कर्म के फल पे ले जा के खड़ा कर देता है , ये भी   मैट्रिक्स  जैसा है  अजूबा ,  हमे भान भी नहीं होता  और हम स्वयं अगली जमीं पे खड़ा पाते है अगला कार्य  अगले  फल अगले पड़ाव  के लिए.... संभवतः  कुछ अभी ...कुछ  बाद के लिए .... और कुछ  और भी बाद के लिए  अपने  गुरुत्व के अनुसार  स्वयं ही आते है  स्वाभाविक प्राकतिक , इसीलिए  ये भी अनुभव किया गया है की  संभवतः  कर्म+भोग का सम्बन्ध पुराना है एक गठरी है जो   जीव के साथ साथ चलती है , और ज्ञान  की अवस्था इसी गठरी को हल्का करती है.
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दिव्य  का आभार  तो जागरण की पहली घटना है  , दूसरी घटना है  अपने ही समान अन्य को समझना ,  अपने जरिये  दूसरे की यात्रा का भान होना  उसका आदर होना , किन्तु  ये तभी हो सकता है  जब जीव जीवन यात्रा का  बृहत् स्तर पे भान करलेता है  अनुभव करलेता है , संवेदनशीलता का  जागरण होता है... यानी  सीधा सम्बन्ध इसका स्वयं के जागरण से है , स्वयं का जागरण ही सबसे जोड़ता है  और स्वयं का अज्ञान सबसे तोड़ता है . इसीलिए अध्यात्म की  पहली और आखिरी शर्त है स्वयं से जुड़ना , स्वयं से जुड़ के ही  दिव्यता का आभास हो सकता है. ज्ञान हो  या विज्ञानं सभी प्रकार की चिकित्सा  की शुरुआत  स्वयं से ही है ,  फिर वो मानसिक हो या शारीरिक.  जहाँ बीमारी का जन्म हो रहा है कहीं न कहीं उसका निदान भी वहीँ है , जहाँ जड़ है पोषण भी वहीँ है. और यही  आधार  अध्यात्म में बनता है  जिसको  हम  बाहर खोज रहे होते है   वो शक्ति  तो हमारे पास है.
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आगे इसीमे  आत्मिक  परिपक्वता  , आत्मा की आयु  और  मिलती जुलती तरंगो  को जानेंगे  जो  स्वाभाविक  बहाव से अचानक  मिलती है, और अपना शक्ति समय दे के विलुप्त भी होती जाती है , तरंगो की गति ऐसी ही है  " अचानक " इसलिए  क्यूंकि हम बौद्धिक जीव है  मंथन करते है समझना  चाहते है  प्रकर्ति की चाल ( गति ) को   वरना प्रकृति  के साम्राज्य में सब स्वाभाविक ही है.


3
ऊर्जा आकर्षण का विज्ञानं :
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चर्चा के इस तीसरे भाग में हम जानेंगे की इन अवस्थाओं को और स्तरों को अनुभव कैसे करें ? और कैसे कृष्ण और अर्जुन सरीखे व्यक्तित्व का मेल देह रूप में संभव होता है , कैसे ये मात्र उदाहरण बनते है और कैसे ये ऊर्जाएं संज्ञा से अलग , शरीर के नाम और दैहिक गुणों से अलग , एक गुणातमकता का दर्पण है और योग है , पूरक है .......!
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इस भाग में उतरने के लिए  पाठक बंधू  से निवेदन है उचित अनुभव के लिए ध्यान द्वारा एक उचित मानसिक अवस्था तक अपने को लाएं , जिसमे आप स्वयं के साक्षी को देह से कुछ समय के लिए स्वतंत्र करें , और तमाम संरचना जो प्रकर्ति की है संभवतः उसे तनिक ऊपर से विचारें , इतने ऊपर से की धरती के तत्व धरती पे ही रह जाएँ , आपकी ऊर्जा ऊपर को जाये , आपकी समझ आपके साथ जाये , और उस जगह से आप तत्वों के परिवर्तन और ऊर्जा के गुरुत्व को देख सके , उस जगह से आप देख सकें की ऊर्जा की आयु देह से मेल खा पा  रही है की नहीं , यदि नहीं तो इस ऊर्जा की आयु किस अवस्था से मेल खा रही है , वहां से आप जान पाएंगे की ऊर्जा का वास्तविक स्तर / आयु क्या है ! जब आप ऊर्जा की आयु को अनुभव कर पाएंगे , तब आप जानेंगे की ऊर्जाएं कैसे समान स्तर की ऊर्जा की और आकर्षित होती है , वास्तव में इनके आकर्षण का देह की आयु से कोई सम्बन्ध ही नहीं , वास्तव में इनके आकर्षण का आधार अत्यंत गुणात्मक है। जो इनकी अपनी आयु से मेल खाता है।
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सिर्फ कृष्ण और अर्जुन ही नहीं , किसी भी जीव का संपर्क, उसका आकर्षण , उसकी अपनी यात्रा को दर्शाता है , इसका योनि (प्रजाति ) से सम्बन्ध नहीं ना ही लिंग योनि से सम्बन्ध है , किसी  भी स्तर  पे  किसी भी जीव के साथ  ये आकषर्ण  अनुभव  किया जा सकता है  तो कभी विशेष स्थान  से भी ये खिंचाव  महसूस होता है , अंदाज लगाना कठिन है । वास्तव में ९९ प्रतिशत दैहिक स्तर की घटना में मनुष्य द्वारा बनाया समाज नामका तत्व शामिल है , जन्म परिवार धर्मं , सब शरीर से जुड़े है , और ये अपने अनुसार देह को बांधते है। पर ऊर्जा तत्व देह से परे है , ऊर्जा की यात्रा उसकी आयु , उसके आकर्षण बिलकुल अलग है। तो जो कृष्ण और अर्जुन का मेल है वो देह के माध्यम से ऊर्जा के धरातल पे है , इसी प्रकार राम रावण सीता या अन्य पात्र  दैहिक स्तर पे सामाजिक जीवन  जीते हुए उर्जात्मक रूप से अन्य तल पे मेल बनाते हुए विचरण कर रहे होते है। और उनके गुणात्मक  आयु  से मेल खातेआकर्षण उनको इस देह के साथ बांधते है और  अन्य  से कर्मबद्ध हो सम्बन्ध भी बनाते है, और इस प्रकार  इस जीवन की कथा का निर्माण  हो जाता है , जो संभवतः  सही और गलत  के औचित्य से परे  है , हमारी बुद्धि  कितना सही और गलत समझ सकती है ?  मात्र कुछ वर्ष  के संयोग  को इकठा कर सही गलत का बौद्धिक तुलनात्मक भेद कर डालते  है  । ऊर्जा तो केंद्र  से जुडी  है किन्तु  कर्म और भोग के चक्र में उलझी ऊर्जाएं भी  शैशव से लेकर वृद्धकाल  तक  कई सौहजार वर्ष या उससे भी अधिक  प्रकाश वर्ष की भी हो सकती है , ज्यु ज्यूँ  ऊर्जा की सत्ता  कर्म + भोग  के गुरुत्व  से भारविहीन  होती जाती है  त्यु त्यु  उसका जन्म का काल  और चयन भी बढ़ने लगता है परिपक्व होता जाता है।  इसी कारन उच्च कोटि की आत्माओ को सुविधा है  की  वो काल  स्थान  और  माता के गर्भ  का चयन  परिवार समेत कर पाती है।  ( ये अनुभव करना भी अधिक कठिन नहीं  बस थोड़ी साधना  और स्वयं आभास  होता है  ) संभवतः  अपरिपक्व नजर से  पढने पर ये परिकथा जैसा लग सकता है  और बौद्धिक आधार  न होने  पे तर्कशास्त्री  असहमत भी हो सकते है।  किन्तु ये विषय तर्क से नहीं भाव से ग्राह्य है।   मध्य से  कोई भी  अपने अनुसार निर्णय कर सकता है , पर अनुभव की एक  कड़ी बनती है  जिसको  पूरा कह पाना संभव नहीं , थोड़ा ही  बीच से  कहने का प्रयास होता है  ( जिस कार्य को ऋषि आदि  नहीं कर पाये दिव्य ग्रन्थ  नहीं कर पाये , अपने को मैं बहुत छोटा  पाती हूँ फिर भी प्रयास है )  ,  जहाँ तक गर्भ चयन  का प्रश्न है    थोड़ी  परिपक्वता  से ये ऊर्जा हासिल कर लेती है , क्यूंकि अपरिपक्व के जन्म का आधार  भी उतने ही कर्म के गुरुत्व बोझ से  भरा होता है ,जो बस  देह चाहती है अपनी इक्छाओं को पूरा करने के लिए , परिपक्व देह थोड़ा सोच के गर्भ का चयन करती है , इतना  जान लीजिये  उचित गर्भ का चयन भी  ऊर्जा के लिए सहज नहीं , कभी कोई किराये का मकान खोज है आपने  ! कितना कुछ देखने के बाद भी संतुष्टि नहीं मिलती  फिर ये तो  पूरा जन्म है ,   फिर भी  ज्यादा  कुछ  जैसे ही निर्धारित होता  है ये ऊर्जाएं जन्म लेती है  और  चूँकि  ये परिपक्व होती है  तो जन्म के उद्देश्य हमारी आपकी तरह भूलती भी नहीं  अपना उद्देश्य पूरा करती है,संतुलन का प्रयास करती है  और वापिस चली जाती है। हमारे  और आप जैसे कुछ बुद्धिशाली लोग  बाद में  व्याख्या करते है  बाल की खाल निकालते  है , कोई  बिना अनुभव अन्धविश्वास करते है , तो इन्ही को लेके  कोई कारोबार भी करते है।  उफ़ !!  मनुष्य बुद्धि  और माया जाल 
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प्रसिद्द  ग्रंथों के पात्रों के   बारे  में  व्यक्तियों  का  अलग अलग पालनपोषण और धार्मिक  भाव  के कारन जरा अलग दृष्टिकोण  होता है , जो आध्यात्मिक समझ से परे  है , कभी धार्मिक  भावना अंध श्रद्धा बनती है तो कभी उन्ही पात्रो  के प्रति   सामाजिक  कारणों से कई लोगों में अविश्वास की भावना  भी आती है ,  फिर भी  कथा है तो अस्तित्व भी है , कथानक  है तो पात्र भी है , और  पात्र है  तो देह में है देह है तो निश्चित  मनुष्य ही है , इसमें कोई संदेह नहीं है ! यहाँ  जरा अलग इन इतिहास के विख्यात / कुख्यात पात्रों  की संवेदनशील / संवेदनहीन  कथा से अलग हो के , अपने बारे में सोचते है ! तो भी आप यही पाएंगे। क्यूंकि उनकी प्रख्यातता सिर्फ ये बताती है की की वो असाधारण थे , पर मनुष्य थे तो मनुष्य देह के अपने नियम भी है , उनके भी देह और ऊर्जा के आयु के सम्बन्ध है , तो हमारे भी सम्बन्ध वैसे ही है , एक रत्ती भी अलग नहीं।
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हम भी देह के अंदर है , हमारी भी ऊर्जा की आयु है , हमारे भी गुरुत्व है , हम भी अपनी यात्रा में है और हमारी भी कथा है , सभी पात्र हमारे साथ भी है , सभी प्रकार के सम्बन्ध-यज्ञ , कर्म-यज्ञ , भोग-यज्ञ हम भी कर रहे है , उस रामायण से या इस महाभारत से हम अलग नहीं। ऊर्जाएं आज भी अपनी गुणता के साथ जन्म ले रही है। आज भी आकर्षण का भार उनको विवश कर रहा है। आज भी ऊर्जा अपनी समान उम्र या गुण ऊर्जा से आकर्षित है , देह के सम्बन्ध कोई भी हो सकते है , अनजान भी हो सकते है। उसी परिवार में यदि जन्म मिला तो दादा पोता होसकता है , या बेटा नाना या नानी भी , पुरुष स्त्री हो सकता है स्त्री पुरुष , ये सब ऊर्जा की उन्नत अवस्था और इक्षाशक्ति पे निर्भर है। आपको और हमको ही नहीं जीवन को अलग अलग प्रकार से जीना और समझना पड़ता है , ये तो आधा पक्ष है , इसी का दूसरा पक्ष है , ऊर्जाओं को भी बहुत कुछ भार वहन करना पड़ता है जो देह से जुड़े कर्मो के कारण इकठा होते है। जो ऊर्जा के गुरुत्व ( गठरी ) का कारण बनते है , जो ऊर्जा को देश काल और परिस्थति अनुसार जन्म लेने के लिए प्रेरित करते है। देह से जन्म लेते ही समाज का ताना बाना जकड लेता है , उनका एक अलग ही जाल अपना कार्य करने लगता है। तत्व से बंधे अंग दिमाग और इन्द्रियां अपना कार्य करने लगती है किन्तु ऊर्जा जिसे हम चेतना भी कहते है , आत्मा भी कहते है वो अपनी उम्र भूलती नहीं , उसकी अपनी यात्रा और अपने आकर्षण अभी भी है।
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अध्यात्म आपको यही याद दिलाता है की आपके जन्म का उद्देश्य आपकी आत्मा की आयु से जुड़ा है उसको समाज और इन्द्रियों में उलझ के भूलिए नहीं। अपनी गठरी को हल्का रखिये। क्यूंकि पिछला भी तो काटना है। इन्ही सब उपद्रव के बीच आत्मा स्वयं से अपने आकर्षण खोज लेती है , उसकी अपनी यात्रा ( देह की नहीं ) से सम्बंधित है , कभी समाज मानता है कभी नहीं मानता , ये दो कथाये बिलकुल अलग है , एक देह की दूसरी ऊर्जा की। ऊर्जा तत्व के साथ मेल कर जन्म लेती है सम्भावनाओ के कारन , इक्छाओं के कारण , और भोग के कारण। अंततोगत्वा उलझ जाती है अपने ही जाल में किसी मकड़ी की तरह , क्यूंकि एक जाल और भी है वो है अज्ञानता का माया का , माया और कुछ नहीं आत्मा की अज्ञान स्थति है। पर ये जाल कर्म नए कर्म , प्रेरित कर्म , लिप्सा कर्म , अहंकार कर्म , वासना कर्म यहाँ तक पवित्र प्रेम भी वासनाओं और दैहिकआकर्षण में उलझ अलग ही प्रकार का कर्म और फल का योगकारक बन जाता है … आदि आदि नए नए रूप में कर्म के नए फेरे बनाते जाते है।
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अपनी ऊर्जा की आयु को आपको स्वयं ही समझना है , स्वयं की यात्रा स्वयं ही करनी है , राह में मिलने वाली हर छोटी बड़ी सहायता का आभार , जन्म से मिले सम्बन्ध , कर्म भोग से फलित सम्बन्ध , सभी मिलने वाली उर्जात्मक प्रेरणा जिन्हे मित्र कहते है , सभी का आभार देते हुए अपनी यात्रा साहस से जारी रखनी है।
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ऊर्जा अपना रास्ता खोज ही लेगी। क्यूंकि देह तो इनकी यात्रा का आवश्यक आधार भी है वर्ना ऊर्जा अप्रकट हो यात्रा कैसे करेगी ? परिपक्वता का आधार भी तो योनि जन्म ही है।
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सारांश रूप में आपने जाना , देह धर्म अलग है और ऊर्जा धर्म अलग है , देह समाज लौकिक धर्म से बद्ध है तो ऊर्जा अपने भोग और अपनी परिपक्वता से यात्रा करती है। संभवतः देह और ऊर्जा दोनों समान रूप से इस यात्रा में सहायक है। जन्म का अपना महत्त्व है। कभी कभी परिवार सहायक होते है जब उर्जात्मक सूत्र गुणरूप में मिल जाते है। और कभी कभी विपरीत भी हो जाते है , जब ऊर्जा अपरिपक्व होती है , तो उनके चयन भी परिपक्व नहीं होते। उनके सहयोगी भी सहयोगी नहीं होते। अज्ञानता के ही दृश्य दीखते है। अंधकार ही अंधकार में यात्रा होती जाती है। किन्तु ये भी उनकी यात्रा का ही एक भाग है। इसी में उर्जाये गुण एवं आयु में मेल खाती मिल जाती है , तो मानव समाज के लिए अजूबा बन जाती है। कृष्ण और अर्जुन का जन्म संभव हो जाता है। राम सीता रावण आदि एक साथ मिल जाते है। दौपदी का जन्म हो जाता है। या यूँ कहे हो ही रहा है। लगातार ऊर्जाएं जन्म ले रही है अपनी अपनी गुणात्मकता के साथ।
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है न !

ओम प्रणाम

सारांश -

तीन भागो में  बंटा  हुआ है  हमारा जन्म , ऊर्जा  - देह - संयोग  और  जन्म से  जुड़े  कर्त्तव्य  तथा  उन  कर्तव्यों का बोध  , जन्म का बोध  , जो   देह धर्म  और आत्म  धर्म  और उनके अलग अलग आकर्षण  को कहने की चेष्टा  भी है , यद्यपि  दोनों ही बिलकुल अलग है  पर पूरक है देह >आत्मा  के बिना निष्क्रिय  और आत्मा > देह के बिना  निष्क्रिय ,  एक दूसरे से  वैसे ही जुड़े है  जैसे  खून के रिश्ते सम्बन्ध कर्त्तव्य युक्त ।   स्वयं से भी हमारा सम्बन्ध ऐसा ही कर्तव्ययुक्त  है।  जिसको निभाना  हमारे  जन्म के उद्देश्य को पूर्ण करता है।  

Monday, 18 May 2015

Duel Entity and Oneness


Intro : Very first hello to all Readers !  this pic is of Taiwan collected from net , choose  for this  article  cos i find  alike back-bone of body here  and i find  the rope walk in full balance among two high peaks , anyway ; in both terms  this pic talks a lot.  so that in making title   it is  deliberately  bridge is not disturbed  and title shifts to little left and little right .. ha ha .. in duality . 

Subject-line : Divinity  is how compassionate  and beloved is full of blessings , one alphabet announce  The  song of almighty is the H of Heart , yes ! my Dear .. fragrance  and flowers  in higher-show of plant ,which are ready  to bloom  and flow /blow to fragrance and ready to evaporate. Now flower is ready to produce seed of possibilities... (each seed have own possibility they get dead or may get life , quality query comes after  )


Very simple  to understand , nothing is complicated in  divine kingdom , if anything make  'the him' complicated  is ignorance (maaya)  and  duality (divided one sided thoughtfulness) , though duality is prescribed 'the way'  to merge  in non duel entity . but many times  its the cause of wandering also ... for brainy  people , cos their  soul is resting in dark place , so mind is extra working to them ( by brain itself  many time check my soul is in rest after  finding they get satisfied ; yes ! i have her on same place ).  by brainy  even  7 chakra puzzle  get solved by them and they find only knowledgeable to every mystic aspect , its  amazing Nature ; if brain wants to run  she never interrupt , only lessons tells the reality ,here brain should be silent listener / observer  , In duality  walks are also  appears of two side  , and its the joke of entity towards brain after knowing  information the brain get firmed and ( re ) confirmed , the knowledge  is absolutely  final and correct ,  but ............ still ........... what to do of two side walks for brain ! this two side walk  every-time  attached in term of duel  with  frequency  and with tatvas .... yes with both ...... frequency also gives  dual  aspect  and tatva  is  famous for duality in oldest scriptures , Middle point of a Road  is always  appears where brain is stand , and  always appears for him two sides of roads  .... and even  the soul get fruit of solves chakras  wisely  as final bringing upon  Sahastradhar ( lotus chakra ) brain's  lotus with light is also appears , but this lotus is illusive !  now .... here  its  questionable  by brain , ' how we know the lotus is illusive or not illusive !'  the knowing  is very simple  if  one is aware  and alert  they may get signs  very thin  cos  this stage is precious  very few can touch this point -

* check , is brain listening you  or you listening to brain !  is you  listening to brain their  ego will appear  as secondary symptom ,  and anger , and greed  also  with joint hands .. even though one  can feel enlightened  ! must check this aspect ... 

* check ,  how frequent hunger for knowledge  appears  and  what intensity is ? cos   finally  this hunger get settle  permanent. cos no information-hunger is for wise.  no outside  spring can sober wise. he has own  spring inside . 

*  check , to get reality-check, now  no wordily / para fears  can attack  cos acceptance  and surrender is final .  keep check on self  how often  wordily rules  able to command upon you through mind or heart ! ( here is force Important , if those wash away forcefully to you its thinkable , you are  taking how much effort for those  to protect self is also important )  here i am not talking  body and soul basic needs . they will work according their nature  but not blindly .  ex  what are basic  hunger thirst  breath digestion system  including  chakras  those are connected  with both end of duel and non duel. on duel end they  comes  with effect  in the form of  body needs . but  another end of same rope  of non duality  is  also comes with them  and this way mind  can not work  as master-mind . 

 *  check , for very important ... on walks  when one  stand on road , One side of movement on this road called positive side   another side of this  road called negative ... now the grace of lord will help here to choose  the non illusive bright-side for walk   , in term of intuition-talk , cos on long roads  how  one able to find right direction walk ?  just check  as  final fruit  will be still  positive each step  will nourish to soul  and negative comes  subjective logical  and with poor results , those negatives still force  you to select one among them and move according forces not by wisdom !  

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Why i am saying all this !  cos  just i get feel , the  duel  world is very much  magical  and illusive  every aspect and  fruit  subjective and  divided of two edges .  and  here if the cell and universe  is same  in quality, same with Chakras  also  they also have two way edge they also born  with  combo of energy and tatva , find each Chakra have capable  to move two side , and ..walks ....which is basically depends upon inner  quality / strength .  Finally  ; while controlling those chakras... the fine ego may runs with thread  analogously . The ego force  to brain for choose  quality either positive or negative .  here  please  pay attention ; If  the all 7 chakra  victory is illusive  this  thin and fine  ego-sign  must find attached with soul .  ( many time this sign  visible  clear in  top rated  Gurus / Relgious  Pujaries / and  High Ranked  Performers  in any field  )  just opposite of all saying above the sign-less souls  are free  light  and relaxed  from any wordily affairs here  and after that they also relaxed  cos they aware about limits  and nature working absolutely .
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be aware  and be wise .. so that the  three worlds  works from start 
..... * Alert      ( self intakes ) 
....  * Aware   (  what going out from self ) 
....  * Awake  (  whats going inside ) All time  find these three real gem and ultimate friends ; with self , Dear walkers ! 
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In last  here specially expression for walkers ;  on the road of  divine  , for some extant Informations goes to  knowledge  , which is works  to understand mechanism of  frequencies  and  particles ( subjective ) must take help ... just for rest on that point  and move on , and other is ;  everybody (brainy and wise ) knows in the world  either  things are  moving  or they dead ( changing ) in this sutra  either  you are  decaying  or improving ,either blooming or rotting ..(nature continues in dance  only cause of this each cell is busy in dance  ).. its continues  with body and mind  and  with absorbed frequencies . this way  till than you (soul) not able to know / absorbs system full .. your run  will be continue either positive  or negative ...  so you can not stand  helplessly  at one point , if you are not collecting positive score , there  very possible  to enter negative score ...  this is a tight rope walk  with balance , among two high peaks ... always keep check of your mind walk  and heart walks ..  after getting  essence all tatva will dance naturally for health  your wordily  matters will dance  naturally in controlled surroundings  but  very inside  you (flame) will resting  without Dance . cos now she is awakes not in Sleep not in Ignorance . 

Om Pranam

Saturday, 16 May 2015

गुणात्मक- ध्यान

मान्यता , धारणा,  कर्म (अच्छे या बुरे )और गुणात्मक  ध्यान  

एक संकेत 



आएये आपसे  कीमती  अनुभव बांटती हूँ, शायद आपके काम आये , वैसे  अनुभव अपने ही होते है  और रंगों  के लाखों मिश्रण की तरह  ही होते है , कोई एक  दूसरे पे  काम नहीं करता , पर  फिर भी  प्रयोग है क्यूंकि  इनका भी अपना ताना बाना है , एक अत्यंत सूक्ष्म धागा है और मोती अनेक हो सकते है  पर धागा  और उसका स्वभाव अनेक नहीं है, इसी आधार पे  शायद कोई प्रयोग किसी पे काम कर जाये , जब ध्यान में बैठे  तो  प्रथम आह्वाहन इस संकल्प यज्ञ  में  किया  वो मुक्ति का , शायद आपको पता ही नहीं  जब आप मुक्ति के लिए छटपटा रहे होते है  तो आपके अंदर भी कोई आपसे मुक्ति चाहता  है , क्यूंकि अब वो आपके शरीर में  बेचैन है आप उसको रहने भी नहीं दे रहे और मुक्त भी नहीं कर रहे , यकीं कीजिये जो भी एक पहलु हमें दिखता है / समझ आता है , ठीक- ठीक उसका उल्टा बिल्कुल  छाया और देह की तरह उसी विषय का  दूसरा  पहलु  वहीँ उपस्थित होता है , यहाँ भी वो ही है , ध्यान दीजियेगा ) एक नहीं  अनेक और  गिनती से आगे है   क्यूंकि संचय ( ज्ञान )  जान के है या अनजाने (अग्यान ), सभी ही एक गठरी में  इकठा है और तर्क बुद्धि से  एक दूसरे के आदी  और आश्रित भी है  और चूँकि  ये संचय  पुराना है, संयम से , कठोर नहीं , हठ नहीं ,  मधुर संकल्प से आह्वाहन करना है ,  क्यूंकि वे आपकी इक्छानुसार आपके ही अतिथि रहे है , आपने उनका यथासंभव पोषण भी किया है , ससम्मान   देना  है पुरे "बुद्धि" के संज्ञान  में  और भाव की सहमति से ।

 ....... तो जब  आह्वाहन किया तो मान्यताएं ही नहीं  धारणाएं  भी संकुचित होक  भयभीत हो   अंदर ही  छोटे से  कोने  में स्वयं को ढक के सिमट जाती है  हा हा हा  , किसी वख्त बलशाली किन्तु आज  भयभीत  हो  बालक समान समझती है की इस भांति अदृश्य हो गयी , पर जब अपनी  मुक्ति का आभास  होता है  और स्वामी का  पवित्र संकल्प देखा समझा जाता है  तो  एक एक कर के  यही मान्यताये  स्पष्टता  से  ईमानदारी से  उपस्थ्ति हो , एक एक करके  कतार में बद्ध अनुशासन के साथ आती और स्वामी ने भी एक एक  जन्म से एकत्रित  मान्यताओं को एक एक करके ही मुक्त किया, इसी प्रकार धारणाओं की नीव  ज्यादा गहरी होती है  , इसलिए संकल्प को भी सघन करना है  , पर  जैसे ही धारणाएं  संतुष्ट होती है की अब वो मुक्त होने जा रही  है वे भी एक एक करके  वैसे ही  अनुशासन से  कतार  में लग  अपनी स्वतंत्रता के लिए  बेचैन  दिखाई  देती है । आह ! पवित्र होम अग्नि  प्रज्ज्वलित हुई और  एक एक की आहुति  पड़ती गयी  और वे  तरंगित हो  व्योम  में  विलीन  होती गयी, और ज्यु ज्यु  वो विलीन होती गयी त्यु त्यु अपना भार कम होने लगा। अपना  एक स्वतंत्र सांसारिक आधारविहीन वजूद  विकसित होने लगा , अब ये स्वामी  तमाम  सांसारिक   मान्यताओं  और धारणाओं  से मुक्त  है  और  तब जाके  जैसे अंधे को नयन मिले  वो दिख पाया   जिसकी चर्चा  ऋषि मुनि करते थे , नहीं-नहीं, धैर्य-धैर्य , इतनी सरलता से नहीं  अभी तप बाकी है ,  साक्षात्कार की नहीं ,  बल्कि प्रथम पड़ाव से प्रस्थान और द्वित्य  पड़ाव से पहले ' मात्र  मध्य रास्ते की बात ' कर रही हूँ , दूसरे  पड़ाव के रूप में  तब आपको अपना अस्तित्व और  जन्म का अर्थ   जाने का अवसर  मात्र मिलता है।   चूँकि  हमारा तात्विक  अस्तित्व पृथ्वी के आकर्षण से  गुरुत्व ( भार ) ग्रहण  करता है  अर्थात बंध  स्वीकार करता है , तो ही हम  पृथ्वी के गुणों को भी आत्मसात करते है  , प्रकृति की इस  देयता  में उपहार है ;  हमारी  स्वीकृति / ग्राह्यता  की सहमति  अथवा असहमति  इस प्राकतिक " गुणों " को स्वीकार नहीं , और वैसे भी  हम  मूर्च्छाकाल  में  चयन  करने योग्य भी   नहीं होते  क्यूंकि ये सब अर्ध सुसुप्तावस्था में कार्य होता है, हम को यह  "एक" बण्डल रूप में  जन्म से मदहोशी की  अवस्था  में  मिलता है , जब ज्ञान होता है  तब हम असाध / शारीरिक रूप से  शक्तिहीन होते है , और जब शक्ति आती है  तो हम स-देह सातो चक्रो  सहित अज्ञानता के साथ  मस्तिष्क तक लिप्त  हो चुके होते है , फिर तो कृपा  ही हमारी  नींद  तोड़ती है और ये कृपा  प्रकर्ति का  नैसर्गिक स्वभाव है , सत्य  के रूप में वो प्रकट होती ही रहती  है  ,  किन्तु  माया  का नाम हमने जिस  भाव को दिया है  वो सघन है  विस्मृति  में सहयोगी है , अद्भुत है जो संसार में सुखद और मित्र है  वो ही मित्रता असंसार  की अवस्था में रोड़ा बन जाती  है।  पर  इसका माप भी यही है जो  माया स्वयं  अपना परिचय देती , और जब उसकी परोसी कोई भी  अवस्था  आपके अंदर   सुख महसूस नहीं करती  तो  अंदर जो माया का तत्व वास है  वो ही स्वतंत्र होने के लिए  छटपटाता  है , जिसकी बेचैनी  आपको  यानी तपस्वी  को  आभासित  होती है ,( इसको  तकनिकी की भाषा  में यदि कहूँ तो आज के वैज्ञानिक सन्दर्भ में समझना आसान है   जैसे  कम्प्यूटर  पे एप्प्स  का  डाऊनलोड सूत्र  जब तक  कम्प्यूटर  में पहले से नहीं होगा या  फ़ाइल रूप में नहीं डाला जायेगा, सिस्टम उस तरंग को नहीं ले पायेगा स्टेशन जिसको लगातार  वायु में घोल रहा है आपका  शरीर भी ऐसा ही है  , माया का  सॉफ्टवेयर गुण रूप  आपके शरीर में पहले से है  बस  माया तरंग फैलाती है  आपके सिस्टम की सही ट्यूनिंग  उसे  कैच  करती है , बस  माया का काम खत्म और कम्प्यूटर  का  नर्तन शुरू / दिव्यता का कार्य भी तरंगो से ही संभव है बस  गुण  परिवर्तित है , आवश्यकता स्वयं को जानने की है  कर्म  भोग  योग को  जड़ से समझने की है  )  जब भी  कोई परेशानी  या बेचैनी महसूस हो , ध्यान में आप पाएंगे  वो अवस्था  अब बेचैन और असहज  है  आपकी देह में उसे सुख नहीं अब वो सहज निवास नहीं कर पा रही। आप यकीं कर सकते है  द्वित्व में  बनती इस दुनिया  में  मात्र देह ही नहीं खंडित भाव भी खंडित है एक वो जो हमें दिखता है  और दूसरा वो  जो उसके साथ है , तात्विक हो या तरंगित  हर अवस्था के दो पहलु है , एक वो जो हमारे पास है और एक वो  जो उससे जुडी है  जो छाया रूप है क्यूंकि तरंगित है , जो हमसे जुडी  है वो प्रकट है उपयोग में है  जो छाया है वो तरंग उपयोग में नहीं  पर  उसी तरंग का दूसरा  टुकड़ा है  जो उससे अलग भी नहीं।  जब दृष्टि का विकास  द्वित्व से ऊपर उठता है तो  दोनों अवस्थाएं सहज हो अपना परिचय देती है।  पर ये भी यकीं मानिये , द्वित्व में विभाजित करता हुआ मान्यताओं और धारणाओं के अनुसार   सहज कर्म में लिप्त आपका शातिर दिमाग  संसार को छल सकता , स्वयं को छल सकता है , किन्तु  असंसारी तत्वों को छलना उसके  बस / शक्ति  के बाहर  है  यहीं वो  निष्क्रिय हो जाता है।   ( मस्तिष्क की  इस  चतुराई से भरे भाव को समझने के लिए  साक्षी तत्व को साधना ही है )

यही से  ध्यान आपका मित्र बन जाता है , और उनका भी  मित्र जो इसके परिणाम से असहज है , दोनों की स्वतंत्रता  को  निर्भार  करने का दायित्व " ध्यान-मित्र "  करता है।  मैंने  आज  अपने ही हाथ में साबुन लगा जब जल के नीचे हाथ  दिया  तो गिरते जल के साथ  अजब सा  अहसास जगा जो संभवतः  मुझे कुछ कह रहा था , मैंने सुना स्पष्ट  वो अपनी कहानी  कह रहा था ," मेरा (जल) उपयोग  किसी  वैज्ञानिक खोज या  उपलब्धि के तहत नहीं वरन मनुष्य अपनी  भाौतिक  (तात्विक ) आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उपयोग करता है अपने इस स्वार्थी भाव से  वो स्वयं मुझे नहीं समझ पता  और  मेरे गुणात्मक पक्ष को  बिसरा देता  है ,उपयोग से जो पूर्ति हुई उससे वो क्षणिक सुख महसूस करता है ,(मानव का मूल स्वभाव भी यही है " आवश्यकता अविष्कार की जननी है "  किन्तु ये समझना अति आवश्यक है की मैं  मौलिक-शक्ति हूँ , मेरा अपना एक प्राकतिक  गुण है बिलकुल वैसा जैसा अन्य चार तत्वों का है , मुझे पूरा यकीं है इस मदहोश इंसान ने  उन अन्य तात्विक गुणों  को भी  उपयोग तक ही सिमित रखा होगा , क्यूंकि  मनुष्य  का अपना  मायारचित  स्वभाव है , उपयोग शब्द (ध्यान दीजियेगा) इस शब्द का विच्छेद करते है  उप + योग  , अर्थात  शब्द की संरचना का ही अर्थ  योग से जुड़ा है जो  प्रचलित शब्द में  मात्र स्वयं पे खर्च करने से  जुड़  गया  है , मूल भाव विलुप्त हो गया है , इस अर्थ में मेरा उपयोग मात्र दिनचर्या और आवश्यकता पूर्ति  में है  और  बस  सभी अर्थ  यहाँ पे आ के खत्म हो जाते है , किन्तु योगी (संवेदनशील ) से मैं ( जल ) कहता हूँ कि  मेरा  गुण समझो , मेरी शक्ति समझो तो प्रकति के पांच तत्व  में से कम से कम मुझ एक  का अनावरण हो सकता है  , और यदि एक का हुआ  तो अन्य का अनावरण स्वयं ही हो जायेगा , क्यूंकि  ज्ञान अपना रास्ता पा ही लेता है , तो मेरा गुण में पहला है १- परिवर्तन  २- बहाव  ३- अपने बहाव  और परिवर्तन के इस गुण के साथ जो मेरे साथ बहता है  उसका  भी  रूप और गुण परिवर्तित होता है , और इसी कारण  मैं  मल ( गन्दगी ) प्रक्षालन ( धोने ) में   उपयोगी पाया गया , न अग्नि ,  न वायु , और  न ही मिटटी , ये कार्य प्रधान-व्योम के तो बस  का ही नहीं , यक़ीनन  सिर्फ मैं इस कार्य के लिए  उप + योगी  हुआ।  यह तो देह की बात किन्तु , सत्य और मूल  गुण  अटल है , इसी प्रकार मेरा मूल धर्म  भी अटल है  की मैं देह स्वक्छ करता  हूँ  और आपको पता ही होगा की  भाव में भी  मेरी ही प्रधानता  है  तो निश्चित है की भाव भी मैं ही  स्वक्छ करता हूँ , ( अब मुझे भी  उसकी चर्चा में रूचि आई  और जरा ध्यान से उसकी  बात सुनने लगी )  ध्यान  देना   जो मैं कह रहा हूँ  , क्यूंकि आज  तुमको मैं सुनाई दिया हूँ , मैं कहना चाहता हूँ की जो भाव  मुझे  धुल के  निर्मल हो रहे है  वे भी तत्व के  अंदर ही है , और  यही इन तत्वों  और तरंगों का  माप भी है  ( कि  वे धरती के है या  वातावरण  का कवच तोड़ के ऊपर उठ सकते है ), आप  मौलिक तत्वों की शक्ति को पहचान के  उनके गुणों के अनुसार  भौतिक  और अभौतिक को  अलग कर सकते है  स्वयं ही , और ये कार्य करते वख्त आपको अपने अंदर एक बालक के खेल का आभास  होगा। क्यूंकि आप  निर्भार है , भाव निर्भर नहीं  ,(  ओहो !  क्या आपने देखा , निर्भार  और निर्भर  में मात्र  एक छोटी  अ  की मात्र का अंतर है , यानि  निर्भार और निर्भर  एक ही गुणतत्व  के दो  पक्ष है , और इनका संतुलन मध्य में है  यानि  आप इन दोनों भाव को तब जान पाएंगे जब आप इन दोनों से ही बाहर होंगे , साक्षी रूप में। )  तो  मूल पे चलते है , मेरा मूल गुण  स्वक्छ्ता में है , जो मेरे बहाव में और परिवर्तन में  है  यदि मैं रुक  गया  तो मैं भी  दुर्गन्ध से भर गया  , फिर  मुझे  रूप  बदलना ही पड़ता है।   जब मैं स्वयं को जीवन देता पाता हूँ  तो ही मैं  इस धरा  को जीवन देता पाता  हूँ  और धरा में आप ( जीवरूप ) भी  एक अस्तित्वगत  कण है।  यदि मैं  और मुझ जैसे  और  चार, इस   प्रकर्ति  को गति दे रहे है   तो एक छोटा सा कण इस गति से कैसे  दूर रह सकता  है , कण  कण  का नर्तन इसी में है , परिवर्तन  मूल में है। 

निम्न तत्वों  के मूल (गुण) पे गौर कीजियेगा, आगे समझेंगे  की मूल के  भीतर अति गहरे में अंदर ही मौलिकगुण  कैसे छिपा बैठा है  और उस मौलिक  तात्विक गुण   के अंदर ही  अत्तव की अभेद सत्ता कैसी  है :ध्यान  दीजियेगा  कैसे  मूल तत्व  संसार से भी जुड़ा है  और व्योम से  भी वैसे ही जुड़ा है ,  सभी की एक ही गुणात्मक अवस्था  है  प्रकट हो या अप्रकट। जो भी संसार से जुड़ा है उसमे  आकर्षण का भार  है ,  अच्छे और बुरे कर्म  और  परिणाम से परे  मात्र ये गुणात्मक  भार है :-

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अग्नि मूल स्वभाव  राख बनाती है  शरीर को भी और भाव को भी । ( जो भी देह और जो भी  भाव जड़ता के साथ परिवर्तित अथवा  राख हो रहे है वो सब इसी  धरती के है  और गरूत्वाकर्षण के भीतर  है  चूँकि अग्नि का स्वरुप कोई भी हो गुण एक ही है राख बना  परिवर्तन  करना )

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जल यानि मैं  शरीर को  और भाव को  दोनों को  परिवर्तन भी करता ही हूँ  और मौलिक गति से  स्व्क्छ भी करता हुँ।  ( जल  भी  परिवर्तन करता है  अपने  अनुसार , भावों में भी हलचल   और शक्ति का कारन आपके जाने या अनजाने  जलतत्व ही बनता है ,  देह को धो धो कर  स्वक्छ  रखता है  निरंतर  परिवर्तन  में सक्रीय )

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वायु मूल में स्थिर नहीं , गुणात्मक अनुभव बहाव है , शुध्हता है और  निरंतरता में है  अर्थात  किसीकारणवश यदि दुर्गन्ध  है तो वायु  उसे अपने साथ बहा ले जाती है , सांसारिक अवस्था में भी वायु  निर्भार से भी हलकी है और इस तरह भावनात्मक / देह  गुरुत्वाकर्षण  भार से मुक्त है।   किन्तु  यहाँ भी ध्यान दीजियेगा  वो वायु  गुरुत्वाकर्षण से  बाहर नहीं  जो खगोलीय  ग्रह  के  वातावरण की  जेल में है , अवश्य ही इससे भी सूक्ष्म वायु  का एक अस्तित्व है जो वातावरण से मुक्त है , जो बौद्धिक संसार की पकड़ में नहीं और असंसार-भाव स्वभाव से जिसको  भासित ( महसूस ) किया जा  सकता  है।

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मिटटी  भी स्वयं को शुद्ध करती रहती  है , निरंतर , परिवर्तन से

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और व्योम का परिवर्तन  वृहत है   और हम सब उसी में है  इसीलिए  उसके परिवर्तन भी  गुणरूप में  महसूस होते है   , बिलकुल ठीक वैसे ही  जैसे  बंद कमरे के भीतर  बैठे  को बाहरी दीवालों के परिवर्तन दीखते नहीं , जब तक उनको बाहर से न देखा जाये।  

सहज दृष्टि के विकास के साथ  ये भी समझ आता है  की  हर मूल तत्व के  भी द्वित्व  में  दो पहलु है दोनों ही स्वभावतः  मूल ही है अंतर  सिर्फ इतना  की पहला  जो संसार के लिए है  दूसरा उसी में छिपा है  जो उसे असंसारी बनाता है , मूलतः गुण के अंदर गुण छिपा है जो उन गुणों को  उन तत्वों से मुक्त करता है  जब वो पर्यावरण के आवरण को  भेद  पाते  है।  और  इस दृष्टि से हम पाते है  की हम  बहुत सूक्ष्म  है इस बृहत् के अंदर अस्तित्वहीन है , एक कण से ज्यादा अस्तित्व नहीं है ,  एक उस विचार को पा के जीव ने अपना नाम ही कणादि रख लिया था  ....  कितना कुछ  जल कह गया  मौन में मुझसे , यहाँ विषय जल के सांसारिक कर्म  गुण से थोड़ा और असंसारी सूक्ष्म  से  भी सूक्ष्म  अभी हम  अति सूक्ष्म की अवस्था ( या कहें इसकी अवस्था है ही नहीं  ये अवस्था व्याख्या से परे है मौन में ही आभासित है )  पे है , यानी गुणातीत  अवस्था  की चर्चा  पे है। प्रयास है चर्चा करते करते  उस अवस्था को पाना / छूना , ताकि उसके  गुणों को  आभास कर सके , इस दृष्टि से  देख तो नहीं सकेंगे , पर परिचय ले सकते है।  संक्षेप में ,  यहाँ यदि  आत्मतत्व को हवा के रूप में जाने  जो हलके से भी हल्का है  तो यहाँ  स्पष्ट  पाएंगे की जो आत्मतत्व इस धरती से  पर्यावरण को भेद के   व्योम में जा पाता है  , वो वायु का  सूक्ष्मतम  स्वरुप है।   ये भी स्पष्ट है  की  जो  धरती पे  वायु है  वो गुरुत्वाकर्षण से युक्त है  मुक्त नहीं ,  गुरुत्वाकर्षण से  अर्थ  भौतिक , संसार  तत्व और तरंग दोनों रूप में है , अर्थात  वायु का  एक गुण भाग संसार को छूता है  और उसी वायु का दूसरा गुणभाग  व्योम को भेदता है।  जो संसार को छूता है  वो यही चक्कर काटता है , जो  निर्भार  होता है  वो  व्योम में प्रवेश पाता है।   अब ये साधारण बुद्धि से  भी जाना जा सकता है , तत्वों को  गुणसमेत  जानने के लिए  थोड़ा आभास  और थोड़ी बुद्धि  का मिश्रण करना है। विज्ञानं  की चाल  भौतिक है और  तरंगित है किन्तु अवस्था  सांसारिक है  क्यूंकि उपयोग से जुडी है  , उपयोग से जुडी हर   संरचना  की खोज संसार की ही है, तो इनके आभास और ज्ञान भी संसार  के ही है । ये सहयोगी है , इनका सहयोग लेना उचित है एक सीमा तक  उसके आगे ये नहीं जा सकते।  उसके आगे अत्तव की यात्रा  संभव है , किन्तु  ध्यान रहे की  विषय अंदर से जुड़े है  एक है , सिर्फ गहराई बढ़ती/ ऊंचाई बढ़ती  जाती है।  जो ज्ञान विज्ञानं दे सकता है  वो तात्विक है , और इसी के अंदर दूसरा गुणात्मक पहलु छिपा हुआ  जो सूक्ष्म से  सूक्ष्तम् होता जाता है। अपनी पकड़ बनाये रखिये , ध्यान  से स्वयं अनुभव कीजिये।  गुण के अंदर गुण छिपा है और उसके भी अंदर गुणातीत, यही शायद बहुत पहले  ऋषि मुनियों ने कहने का प्रयास किया  - एक कण भी  उसी से  जुड़ा है , केंद्र युक्त है और केंद्र से जुड़ा भी है।  एक  कण  बृहत्तम  का ही परिचय है  और बृहत्तम  को एक कण से देखा जा सकता है।

मुझे आभास  है  मूल से थोड़ा ज्यादा गहरा विषय हो गया  वस्तुतः  हमारा मौलिक  विषय  मान्यताओं और धारणाओं के जाल  को  समझना और समझ के तोडना था  साथ ही  कर्म  को  फिर वो अच्छे हो या बुरे परिणाम से नहीं  उत्पत्ति स्त्रोत  से  समझना  है ,  किन्तु  भरोसा है की यदि  इस लेख का तरंग भाव आपको छू पायेगा तो इस  पांच तत्व के मूल  के परिचय से  आपको लाभ  इतना ही होगा  की आप  अपनी  बनी / मिली / या पैदा हुई  समस्त  मान्यताओं  और धारणाओं को  निरर्थक जान   स्वतंत्र कर सकेंगे , जिस पल  इनकी जन्म योजना का ज्ञान होता  है  निरर्थकता  का भाव  भी  स्वामी को ही महसूस हो जाता है और  उसी पल एक और घटना घटती है  की ये उर्जाये भी  आपको  निरर्थक मान लेती है , फिर  ये स्वयं आपके अंदर सहज वास  नहीं कर पाती और छटपटाती है , इनकी छटपटाहट का  अनुभव  आपको अपनी बेचैनी के रूप में होता है।  यही एक माप है जो कहता है की  अब स्वतंत्रता दोनों तरफ से  अवश्यम्भावी है।  

इस स्वतंत्रता  के पश्चात , यक़ीनन  आप वो ही नहीं रह सकते , अब आप निर्भार  है ; निर्भर नहीं  है  ,और  इस अवस्था में  बस एक कदम और ,' इस  निर्भार  और निर्भर के मध्य साक्षित्व के साथ  ही आपको ठहरना है। ' फिर आप कर्म करेंगे   ये जान के आपका कुछ नहीं , अब आप आभार युक्त , सहजता  और प्रेम आपके व्यक्तिव का हिस्सा है।  समस्त  कृतिमता  अनावृत  है अब और छिप  नहीं सकती।

ध्यान दजिएगा  की इस धर्म कर्म  विवेचना में  मनुष्य ही क्यों अन्य जीव क्यों नहीं  !  क्यूंकि   मनुष्य के पास वो  है और अन्य जीवन के पास नहीं   अपनी इस शक्ति के साथ ही  वो अन्य जीव संरचनाओ से अलग हो पाया है ,  बुद्धि  और  द्वित्व से बनी  देह  निरर्थक नहीं , जबकि प्रकर्ति में कुछ भी निरर्थक नहीं , औचित्य का ज्ञान यही भेंट को आभासित करना  दिव्य जिम्मेदारी की और पहला कदम है ; ध्यान  दीजियेगा मात्र पहला कदम। मनुष्य मात्र  ऐसा जीव है  जो संज्ञान में  कर्म और अकर्म  में भेद कर सकता है , पोषण और  विध्वंस कर सकता है , यहाँ अपने इस भाव से   ब्रह्मा  विष्णु और  शिवतत्व को स्पर्श करता है  उसकी  प्रवत्ति गुणात्मक है देवत्व को छूती  है  तो  राक्षत्व को भी छूती  है   और वो भी संज्ञान में इसे  आप  महसूस  कर  सकते है , जो प्रबलता के साथ वेग के साथ चरम  स्पष्ट  गुणों को पाते है  वे संज्ञान में है  की वे क्या कर रहे है , ( मध्य गुण मिश्रण में अज्ञानता हो सकती है ) वे अज्ञान में नहीं , मनुष्यों में एक साधु भी अपने कार्य परम को समर्पित करता है और एक राक्षस भी  अपने कार्य उसी को समर्पित करता है  , क्या और कोई दूसरा जीव है पृथ्वी पे जो इतने  बौद्धिक ज्ञान  के साथ फलयुक्त  कर्म कर सकता हो ? नहीं न ! सब  नैसर्गिक गुणों  के संपर्क में है , पर मनुष्य अपने ही ज्ञान में मस्त हो गुणवत्ता में अंतर कर बैठता है।  इसीलिए  मनुष्य जन्म के साथ   ये जिम्मेदारी गहरी हो जाती है  की वो एकत्व के सूत्र को  मूल से जाने , और अपने मूल  का  ज्ञान  होते  ही  फिर राक्षस राक्षस नहीं और देव देव नहीं रह जायेंगे । ये भेद भी सांसारिक  बौद्धिक और  अज्ञानता के कारन गुणात्मक ही है।  वस्तुतः  मूल के समक्ष  ये अस्तित्वविहीन है। आपने सुना होगा ' ईश्वर के तेज-प्रकाश के सामने  न देव टिकते  है और  न दानव , दोनों ही  ही गायब हो जाते है, देव  (शुभ ) तो फिर भी  गुणगान (समर्पण श्रद्धा और भक्ति ) करते है  दानव  (अशुभ )अपनी अंतिम अवस्था को पाते है  ' अपने उस ज्ञान को इस सन्दर्भ में दोबारा विचारियेगा, पर विचार की  अवस्था में  निराकार के ध्यान का अंत आपके भावों में  किसी भी  प्रकार  के  आकार  में  नहीं  हो , ध्यान  रहे !  मन  बुद्धि रचित   आकारों  का अपना गुरुत्वाकर्षण का भार  होता  है। 

ओम प्रणाम 

Thursday, 7 May 2015

आध्यात्म

अध्यात्म के जिस स्वरुप को मैंने जाना  है ,ऐसा लगता है , जैसे वहाँ समस्त उलझे  सांसारिक विभाजित विषय अध्यात्म में समा के स्वतः अपना परिचय समग्र रूप से  दे रहे हों   जो  अंततोगत्वा ॐ  नामके   भवसागर  में अस्तित्वगत   हो  गए हों  !   वहाँ  साहस  नहीं,  शौर्य  प्रदर्शन नहीं , होड़  नहीं , मात्र  " सरलता  सहजता  और  पूर्ण स्वीकृति "  कुंजी है , और यकीं मानिये  यही उस खजाने की  चाभी है जिसको जनम-जनम, तपस्या से , योग से,  भक्ति से और पराक्रम से  लोग ढूंढते है। जी हाँ  , सरलता, सजगता , सहजता ,पूर्ण  स्वीकृति   ये  गुण    परमात्मा  योग्य  बनाते  हैं।
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ये संसार  है , अपार  है , यहाँ  किसी भी  सुख का और न दुःख का कोई अंत है।  कोई  शब्द ही नहीं  जो इनको परिभाषित कर सके।  अनेकानेक परिस्थतियाँ  और असहनीय  दुखद अवस्थाये जिनके आगे सहनशक्ति भी कम पड़ने लगती है। बहुत लोग बहुत तरीके की परिस्थतियों में उलझे हो सकते है ,अवस्था  शारीरिक  और मानसिक रूप से  अत्यंत दुखद  हो सकती है , ऐसा भी हो सकता है  की  अवस्था  इतनी दुखद हो की   इंसान हार मान ले , संघर्ष करते करते  थक जाये , सब सच है , संसार  भोगना है , सच है।   किन्तु ये भी सच है की हर जीवन के कुछ निश्चित उद्देश्य  है वो उसे पूरे करने ही है , और जिस साहस  और धैर्य  से वो अपने गंतव्य  की और चलता है  वो ही उसकी तपस्या भी है
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और ये भी आप यकीं मानिये  की कथित  पराकाष्ठा  सी प्रतीत होती कोई भी अवस्था अंतिम नहीं मध्य की कड़ी ही है , इस  संसार में भोग्नो की कमी नहीं ।  व्याख्या  करू तो उसका भी ग्रन्थ बन जायेगा  पुराणो से भी बड़ा।
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मनोविज्ञान और चिकित्सा जगत  का वर्चस्व इसी कारन है , और  एक सीमा तक अध्यात्म भी  मनोविज्ञान की तरह ही  उपचार करता है , यहाँ एक बात तो स्पष्ट है  की संसार के विषय  जितने भी है  उनका सहयोग  और उपयोग  इस नश्वरता तक ही सिमित  है  इसी जन्म तक  या यूँ कहे बहुत थोड़ा सा  जीवन जीने योग्य बना देना , मनोविज्ञान और चिकित्सा आदि  पद्धतियाँ   यही करती है , आपके पीड़ा बिंदु तक पहुँच के उसका उपचार करती है।  ठीक है !  किन्तु  जैसे  संसार  अपार है  वैसे ही  चेतनाएं  और चेतनाओं की समस्याएं जो जड़ जगत की हो सकती है जैसे शारीरक चोट  या रोग  अथवा मानसिक  चोट अथवा रोग।  अब इनके  असंख्य कारन है  जो हर जीव के साथ  अलग अलग  उसकी परिस्थतियों के अनुसार बनते है।  यदि आपको अपनी गांठ मालूम है  तो निदान  हो सकता है  पर यदि नहीं पता  तो परिक्षण  करवाते रहिये और कोर्ट  की तारीखों की तरह  चिकित्सक से तारीखों पे  तारीखें लेते रहिये , पैसा का कोई अंत ही नहीं , ये उपचार इतने  महंगे है की साधारण पूंजीधारी के तो बस के नहीं।  फिर क्या करें ! परिस्थतियों से  लड़ते रहे  और लड़ते लड़ते थक जाएँ।  या किसी  आश्रम की शरण में जाये   तो वह भी  सस्ते महंगे आश्रमों की भरमार है ! इतने कष्टों में समाधान की एक रेखा भी नहीं , अपनों का सहयोग भी एक सीमा तक ही है , फिर  क्या करें ? कैसे  जीवन को स्वस्थ बनायें ? कैसे सम्बन्धो को  सुन्दर बनाये ?  कैसे अपने  संसार  को सुन्दर  बनाये ?
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ऊपर यदि आप पढ़ेंगे  तो पाएंगे  की अक्सर  एक निराशा का दौर  आता है  जब चहुँ ओर विष का ही प्रभाव छा जाता है। असफलता और  अँधेरा ही अँधेरा , बहतों ने महसूस किया होगा।  मन की सक्रियता जाती है  साथ ही तन की भी सक्रियता  चली जाती है , नतीजा  और शारीरिक तथा मानसिक बिमारिओं को निमंत्रण मिलता है।

नीचे लिखा ध्यान से पढियेगा , किसी भी ऐसे  मन की स्थति हो सकती  जो स्वयं की शक्ति से अपरिचित है  अभी तक।

Pradeep Agarwal : baba ji charan sparsh , mein apne bhotik jeevan ki asafaltao se haar chuka hu darta hu ki kahi is uljhan me aadhyatmik jeevan ki pragti ruk jaye. gurudev se mahakali ki deeksha mili hai guru mantra ki saadhna me laga hua hu gurudev ka nirvaan ho chuka hai,apne aap ko anath mehsoos karta hu mughe apni sharan me le lo baba mein kupatra hu gunheen hu mughe gale laga lo baba mera margdarshan karo baba taki me apne jeevan ka param lakshya prapt kar saku.

 नीचे  एक और  उदाहरण विचार योग्य है संभवतः  ये उदगार  गुरु   समक्ष  रखे गए  है  किन्तु  मौलिक  रूप  से  त्रुटियुक्त  है , आत्म संकल्प  ज्यादा आग्रह  है।  निकासी  और  प्रवेश  के  मार्ग   सूत्र  एक   ही  होता  है।  जो  भाव   प्रवेश  पायेगा  ही   निकासी   बाहर  भी  जायेगा  , यदि  किसी   को  प्रसन्न  करने   भाव  गहरा आया   बीज  रूप में  किसी  के  द्वारा प्रसन्न   होने  आकाँक्षा  भी  छिपी  है 

Binod Ghimire : Guru ji pranam, kabhi kabhi mai bhi depretionme aa jata hu. Mai depretion hatane hetu akant ki khj karake 2 ghantajarne ke bat jab man halaka mahasus karata hu to ghar lot ke aata hu ye tarika karyasid hoti  guhe.


एक और यकीं मानिये बिना विषय को समझे  सिर्फ बाहरी चमक धमक  में फंस के कठोर योग साधना या  प्रचलित  सन्यास आदि  तंत्र साधना  आपके जीवन का ध्येय नहीं  वो भटकाव है , या  आश्रम को सर्वस्व दान दे देना  किसी अभिलाषा के चलते की बदले में आपको वो मिलेगा  जो अद्वितीय है  तो भूल ही साबित होता है क्योंकि परिश्रम से जोड़ी  कौड़ी के खर्च से कौड़ी ही मिल सकती है ....अध्यात्म का रास्ता नहीं , भटकाव है  ।

आध्यात्म  सिर्फ  स्व  का  मार्ग  है ! स्वयं- भू  , स्व- यात्रा  , स्वनुष्ठान  , स्वसंकल्प , स्वमंथन , और स्वउत्थान।   क्यूंकि  स्वयं पे   कार्य -प्रयोग-होम   करते करते  मायावी-बाह्य-जगत  स्वतः  परिवर्तित   होता  है।  
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मैं यहाँ किसी एक विधा का पक्ष लेने नहीं बल्कि  आईने की तरह सब साफ जो दिख रहा है  वो ही कहना का प्रयास कर रही हूँ।  कुछ  उपचारो के लिए  चिकित्सा विज्ञानं की शरण में जाना ही पड़ता है , कोई अन्य उपाय काम नहीं आते   वरन  बुद्धिमत्ता का कार्य है , कुछ बिमारियों को दवा से  काबू करें   , पर ये निदान नहीं  सिर्फ रोगों की तेजी को रोकने का उपाय है।  कुछ उपाय दुआ से निकलते है  और ये उपाय  स्वयं के अंदर से आते है ,  कहते है दवाएं भी तभी काम करती है जब आत्मशक्ति का साथ हो ! ये आत्म शक्ति है क्या ?  ये आत्मशक्ति आत्मा की शक्ति है जो हम सभी में है , " हनुमान  जी की तरह  सुप्तावस्था में "  जब कोई याद दिलाता है  तो जागृत होती है।  और जिसदिन ये शक्ति जागृत होती है  उसदिन  से  रोगों की जड़ों का काटना शुरू होजाता है।  जिस आत्मा में  ये शक्ति जागती है उसे  किसी की शरण में नहीं जाना पड़ता  उसे परमात्मा स्वयं अपनी शरण में ले लेता है।  या इसको यूँ भी  कह  सकते है , सब कुछ तो पहले से अंदर  है ही, हर शक्ति के स्वामी हम है  पर  अज्ञानतावश  भूले हुए है।  और अपनी इसी भूल के कारण परमात्मा की सबसे प्रिय कृति का भरपूर निरादर भी करते है , क्यूंकि परमात्मा की कृति को अपना मान बैठे है।  और अन्य कृतियों को जाने अनजाने कारण मान बैठे है।  और यही  विषाक्त  वृक्ष का बीज है।   न हम अपने मालिक है  और न ही  बाह्य अन्य कृतियाँ हमारे   विषाक्त वातावरण की उत्तरदायी है।  वास्तिवक  ज्ञान  आने के बाद ही आभास होता है  की कितनी छल भरी माया है , बाहर तो सिर्फ प्रतिबिम् है , विषपान की  स्वीकृति तो अंदर से आ रही है।
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इतना अनुभव आने के लिए  ध्यान मार्ग को अपनाना  होता है , स्वयं का मंथन करना होता है , अपने  बीज अस्तित्व को छूना होता है , और  संसार के परिवर्तनशील  गुण को स्वीकृत करना  होता है , और अध्यात्म  का कार्य भी यही है , की  जीव को उसके मूल के दर्शन करा देना।   जीव को उसकी वास्तविकता से परिचित करवा देना।   बाह्य के जितने आवरण है  व्यतित्वगत , फिर वो कितने भी पुराने हो  कितने स्थायी  हो  एक बार  भेंट होने के बाद वो टिक नहीं सकते।  सरलता  का प्रवेश होता ही होता है।  और सजगता भी  की कही दोबारा विष आक्रमण न करे।   आभार  का आभास  ह्रदय से  क्यूंकि वास्तकिता  का सामना है।  फिर कोई छल नहीं  कोई प्रपंच  नहीं।  एक एक सम्बन्ध  ईशवर का आभार  और पुरस्कार है , जो  कुछ न कुछ लेनदेन  से जुड़ा है।  उसकी अपनी यात्रा है।
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अध्यात्म  की विशेषता है की  वो उस जड़ को  काट देता है  जो सांसारिक दुखों का मूल  है।  और यही से  अनहद  की यात्रा का आरम्भ भी।  अध्यात्म की गहराई के लिए कोई शब्द नहीं  सिर्फ भाव है , अनुभव है  और आभास  है।  इस यात्रा के सभी राहगीरों से निवेदन है  की अपनी शक्ति को स्वयं पहचाने।   किसी को  ये अधिकार न दे की वो आपकी शक्तियों का आपको ही  परिचय दे।  श्रद्धा करें ,स्वागत करें , मित्रता करें , सरलता से  जीवन के बहाव  पे डोलें।  किन्तु मध्यस्थ  की आवश्यकता ही नहीं , आप  और आपका परमात्मा  सीधा संपर्क में है , किसी और को उसकी योजना न बनाने दें , अक्सर  ऐसी ही मध्यस्थ  गतिविधयों में निराशा हाथ आती है  तो दोष किसका ?   निश्चय की आपकी तयारी  अपने केंद्र से मिलने की हुई नहीं है।  परमात्मा का आलोक सीधा ह्रदय के जरिये  ह्रदय में  उतरता है  मध्यस्थ के जरिये घूम के नहीं , वैसे भी प्रकाश की गति  सीधी ही है  . है ना !  प्रकाश की रेखा  को घूम फिर के चलना नहीं आता।
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इतना कहने का  मात्र इतना यही  तात्पर्य  है की स्वयं की शक्ति पे भरोसा कीजिये , अपनी शक्ति  को स्वयं पहचानिये  और अध्यात्म को  ओंकार  का सीधा  प्रतिनिधि मानिये बिना मध्यस्थ  के।  ओंकार आपको अवसर देगा  परीक्षा लेगा , और  स्वीकार की स्वीकृति भी देगा।  ओंकार का  आशीष  मिला  ही मिला है।  क्यूंकि इस अवस्था तक आते आते  परीक्षाएं  देते देते  अहंकार का रोआँ रोआँ  झड़  गया है , सहज स्वीकृति  का प्रवेश हुआ , सरलता  के लिए प्रयास नहीं करना पड़ता ,व्यक्तित्व के आडम्बर तो दूर दूर तक दिखाई नहीं देते  , अब आप वो ही नहीं  जब आपने अध्यात्म  के पहले पाठ में  ध्यान साधा था।  ध्यान अब भी आपके साथ है  पर अब आप वो नहीं न ही  वो कष्ट आपको घेरते है  जो पहले आपको विचलित  करते थे।  और वो ही कष्ट विष भी छोड़ते थे जिसकारण तन और मन रोगी थे।  अब आप पूर्ण स्वस्थ है।
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है ना   प्यारा दुलारा अध्यात्म !

किन्तु  स्मरण  रहे ये महा मन्त्र : आपो गुरु आपो भवः