Wednesday, 22 April 2015

Think wise

Just a little thought of Karma and Destiny



* Our body have  lacks of Cells  , who are involve daily in living  and fighting for existence and still going to dead  , few are but cause of fights  and few  are getting dead for self respective life . 


* Just think big .... find your body as Source existence  and find cells  as energy manifestation in being . find   nature tendencies  to fight  to protect , to  going decay  same as cell in your body . 


* Now think :- how much you responsible  for cells fights and illness  and decay  naturally ... and what can you do best for them ? 


* Suppose , you are doing  best ( though less possibility of error ) and  you are busy  to keep cells healthy ( through yog and healthy Intakes including vibrational and physical )


* Still you find Something is going  beyond your efforts  still decaying  and fighting cell is continue ....... 


* Now think : why you are next to god ?  because all things you are doing  in smaller way as existence doing in bigger way .. you have  quality of creation ( within tatva and available source of energy ) you also involve in distortion , you also find yourself as Guardian of Inner and outer . so here you find  "trinity" lives within . 


* Think now : what you can do  for yourself as yours One Institutional Body  . are you doing same  as Source is doing for self Institution with perfection. 


* Now Think : Is Source really responsible  for all your works ? just think to be as Cell in One Institutional Body !


* Think : Find  difference  among Nature process among tendencies  and Energy Involvement  as to give balance . and you will find * one is born  to get die, you will find *one is lives with basic needs and basic tendencies , you will find * you can do best  for yourself  still  decaying  is continue , you will find *  senses  are natural gift * through sense every cell get alert in danger , you will find hunger /eat / fights/struggle  energy consumption in various way doing each manifest cell . including you . 


* Find inside  which is differ  from others on Earth and Quality which gives you spacial status out of all !!  ,


Thoughtfully involvement in power of balancing 
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Involves in creation 
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Compassion for others 
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Compact-Love towards higher expression 

(and you will find to self  just helper for self  in front of lord's creation , not a pinch extra )

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* In general Human Performed Prayers as fear after self limitations and find  Similar  more strong powerful Entity is above to you to control all upon you .Isn't it ?


* Now think , Really  what you are doing  tactfully is worth  equal to lord !  you are doing to kill those  which you can not produce , do you think ! it is against the rule of Source . you can destroy toys, you can destroy  your products which create by you , no Source will get angry . do you ever seen source  get involve  in others territory  for destroy . Never .. so you have no right to destroy / kill of thy Creation . 

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* Now think   : after churning process of do and don't ..  how you special / beloved / and  next to Lord ...... and how  you get punished  for  mistakes ... but  must think all about to find  nature and nature tendencies with self and In lord . 

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* Now think : what you find wrong today  in  your bag , and what you find  today to Lord with limitation . 

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* Where  destiny works as lord wish  and where  human works for self pains and wounds .

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 * Are Still you find  lord is responsible  for all about you  as tiny cell  in his Institutional Body  ? are you responsible for one  tiny cell . what you can do and what you are doing  best for  your body Institution?   are lord is not doing that's way for his body Institution ? 

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* find similar position ~ As one cell is in your body , you lives in Lord's Body Institution or it may be more smaller ; cos cell is  each star planet and including Earth. Still you are close to lord cos of same Oceanic quality in Drop of water . the drop  can merge in Ocean  cos of quality similarity ... but drop can not  merged Ocean with-self its out of possibility. 

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* Reply all within you and Find In every meditation . meditation is only source  to connect  with self center  is equally big as lord . 



Om Pranam



ps: special though sharing ! Are lacs of cell can give promotion of one As Mighty  to next to you ! yes if one Intelligent cell knows reality of self  and only that Cell is putting effort to convey reality to all .. and cells  start worship to that cell .. though " Intelligent Cell Knows about  self existence is only a Cell ...." 

* find this thought uniformly among all human creations including religion+ religious Books  and literature art music , intelligently  find to all as pointer only . 

* with this find in meditation  the exact meaning .. why our body is temple of lord ! and why Soul is guest here !  and why lord has same temple as we are blessed. and you will find all reply within . 

Tuesday, 21 April 2015

आत्मतत्व को जानने के लिए क्या करें ? Osho


In meditation you are throwing yourself into the cosmos to be purified. All the energy that you throw is purified in the cosmos. The cosmos is so vast and so great an ocean, you cannot make it dirty. In meditation we are not related with persons. In meditation we are related directly to the cosmos. 
Osho
The Supreme Doctrine
Chapter #5
Chapter title: It is Your Being
10 July 1973 pm in Mt Abu Meditation Camp


धर्म और आनंद ( अंश ) :-
बेचारे भगवान क्या कर सकते हैं; आप नचाना चाहोगे, नाचने लगेंगे। लेकिन भगवान वहां बिलकुल नहीं है, आपकी कल्पना ही नाच रही है। और अगर पागलपन बढ़ता चला जाएगा तो बातचीत भी शुरू हो जाएगी दोनों तरफ से, आप ही उत्तर दोगे। और आस-पड़ोस के लोग कहेंगे कि हमें तो नहीं दिखाई पड़ते, तो आप कहोगे, तुम नास्तिक हो, विश्वास की कमी है, तुम्हें नहीं दिखाई पड़ते। हमारी आस्तिकता घनी है। और अहंकार फूल कर बड़ा हो जाएगा कि मैं विशेष व्यक्ति हूं मुझे भगवान नाचते हुए दिखाई पड़ते हैं।

जिस दिन दुनिया अच्छी होगी ऐसे लोगों का हम इलाज करने की व्यवस्था करेंगे। ये धार्मिक लोग नहीं हैं। ये विक्षिप्त लोग हैं, ये एबनार्मल हैं। यह सामान्य चित्त इनका स्वस्थ नहीं रहा, अनबैलेंस्ड हो गया। उसने, मार्ग से च्युत हो गया और गलत रास्ता खोज लिया सपने का। सत्य का रास्ता नहीं खोजा, सपने में खो गया है। शास्त्र को गलत समझने का सवाल नहीं है, शास्त्र को बिलकुल ठीक समझने का भी सवाल नहीं है, समझना है स्वयं को, किसी शास्त्र को नहीं। जानना है अपने को, किसी शास्त्र को नहीं। और जिस दिन आप अपने को समझेंगे, और अपने को समझने की व्यवस्था ही और है।
~ "ओशो "~

किसी और ने भी पूछा: क्या करें? उस आत्मतत्व को जानने के लिए क्या करें?

किसी ने पूछा: वह अल्टीमेट रियलिटी का स्वरूप क्या है? वह आत्यंतिक सत्ता का स्वरूप क्या है? 

किसी ने पूछा कि वह आत्मज्ञान कैसे हो सकता है? सारे लोग, सारे साधु, सारे संत, सारे द्रष्टा, सारे जाग्रतपुरुष उसकी ही बात करते हैं। वह कैसे हो सकता है?

तो मैं आपको कहूंगा, प्रभावित होने का मार्ग बंद करिए; अप्रभावित होना शुरू करिए, मुझसे भी प्रभावित मत होइए। क्योंकि वह भी संस्कार बनेगा। साधु से भी प्रभावित मत होइए, वह भी संस्कार बनेगा। तीर्थंकर से भी प्रभावित मत होइए, वह भी संस्कार बनेगा। वह शुभ संस्कार होगा; लेकिन शुभ भी बांधता है, अशुभ भी बांधता है। महावीर कहे, सोने की कड़ियां बांध भी लेती हैं, लोहे की कड़ियां भी बांध लेती हैं। और खतरा सोने की कड़ियों में ज्यादा है, क्योंकि सोने की होने की वजह से उनको छोड़ने का मन भी नहीं होता। अशुभ संस्कार भी बांधता है, शुभ संस्कार भी बांधता है। कोई संस्कार मत बांधिए। अगर शुद्ध होना है तो शुभ और अशुभ संस्कारों को तिलांजलि दीजिए। शुभ-अशुभ के छूटने पर जो शेष रह जाता है वह शुद्ध है। शुभ-अशुभ दोनों अशुद्ध हैं।

जैसे मैंने कहा कि सुख और दुख बाहर हैं, वैसे ही शुभ और अशुभ भी बाहर हैं। जैसे मैंने कहा: आनंद भीतर है और सुख-दुख बाहर हैं, वैसे ही शुभ-अशुभ बाहर हैं शुद्ध भीतर है। पाप-पुण्य बाहर हैं, धर्म भीतर है। हमें आनंद की तरफ, शुद्ध की तरफ, धर्म की तरफ चलना है। तो जैसे मैंने कहा कि दुख छोड़ना तो सब चाहते हैं, सुख कोई नहीं छोड़ना चाहता। वैसे ही पाप को सब छोड़ना चाहते हैं, पुण्य कोई नहीं छोड़ना चाहता। वैसे ही अशुभ को सब छोड़ना चाहते हैं, शुभ कोई नहीं छोड़ना चाहता। जैसे मैंने कहा कि सुख नहीं छोड़ना चाहता, वह दुख नहीं छोड़ पाएगा; जो पुण्य नहीं छोड़ना चाहता, वह पाप नहीं छोड़ पाएगा; जो शुभ नहीं छोड़ना चाहता, वह अशुभ नहीं छोड़ पाएगा।

अशुभ और पाप और दुख सब छोड़ना चाहते हैं, वह कोई साधना नहीं है। साधना की शुरुआत तो वहां है जहां आप दुख को, पुण्य को, शुभ को भी छोड़ना चाहते हैं। तब आप शुद्ध की ओर उन्मुख होते हैं, तब आप धर्म की ओर उन्मुख होते हैं, तब आप आनंद की ओर उन्मुख होते हैं। जरा गौर से देखिए, सुख-दुख बाहर हैं, तो पाप-पुण्य भी तो बाहर हैं। जब आप किसी कर्म को कहते हैं, यह पाप है, तो किस वजह से कहते हैं? बाहर उसका परिणाम गलत है। जब आप किसी कर्म को पुण्य कहते हैं, तो किस वजह से कहते हैं? बाहर उसका परिणाम गलत नहीं है। बाहर उसका परिणाम प्रीतिकर है तो वह पुण्य हो जाता है; बाहर उसका परिणाम अप्रीतिकर है तो वह पाप हो जाता है। किसी ने पूछा अभी कि वहां जर्मनी में वह जो कैदियों की हत्या की उन्होंने, कनसनट्रेशन कैंप में, तो वह क्या किया?

लोग कहेंगे, वह पाप किया। वह पाप किया इसलिए कि बाहर उसका परिणाम बुरा है। और अगर वैसा न किया जाता कि इन कैदियों को आप मुक्त कर दें, तो वह पुण्य होगा, क्योंकि बाहर उसका परिणाम प्रीतिकर है। बाहर परिणाम प्रीतिकर हो तो पुण्य मालूम होता है; बाहर परिणाम अप्रीतिकर हो तो पाप मालूम होता है। अपने पर परिणाम प्रीतिकर मालूम हो तो सुख मालूम होता है; अपने पर परिणाम अप्रीतिकर मालूम हो तो दुख मालूम होता है।

अगर गौर से देखें, तो जो करने वाले के लिए पाप है वह झेलने वाले के लिए दुख हो जाता है। जो करने वाले के लिए पाप है वह झेलने वाले के लिए दुख हो जाता है। जो करने वाले के लिए पुण्य है वह झेलने वाले के लिए सुख हो जाता है। जो करने वाले के लिए शुभ है या पुण्य है या सुख है वह वैसा परिणाम लाता है। यह जो हमारी शृंखला है बाहर की, इस बाहर की व्यर्थ की शृंखला के पीछे एक अद्वैत भी है जहां कोई द्वैत नहीं है। बाहर जहां भी है सब द्वैत है। इसको स्मरण रखें, चाहे सुख-दुख हो, चाहे पाप-पुण्य हो, चाहे शुभ-अशुभ हो, बाहर सब द्वैत है, बाहर सब डुआलिटी है। भीतर डुआलिटी नहीं है। अगर यूं समझें, तो मनुष्य के जीवन में एक त्रिकोण है, एक ट्राएंगल है। दो कोण बाहर हैं, एक कोण भीतर है। वे दो कोण विरोधी कोण हैं--सुख के, दुख के; पाप के, पुण्य के; शुभ के, अशुभ के। उन दोनों के पीछे एक कोण है, वह ट्राएंगल का जो शीर्ष है, वह अंदर है। वह न शुभ है, न अशुभ है; न पाप है, न पुण्य है; न सुख है, न दुख है। वह आनंद है, वह शुभ है, वह धर्म है। उसकी तरफ चलना है। सुख को असहयोग करना है, पुण्य को असहयोग करना है।

एक भारतीय साधु चीन गया। उसका नाम था, बोधिधर्म। वह जब चीन गया तो वहां के बादशाह ने उसका स्वागत किया। उस बादशाह ने बुद्ध धर्म के प्रचार के लिए, जिसका कि बोधिधर्म भिक्षु था, करोड़ों रुपये खर्च किए थे। बड़ी-बड़ी मोनेस्ट्री, बड़े-बड़े आश्रम, बड़े मठ, बड़े मंदिर, हजारों मूर्तियां, बड़े ग्रंथ उसने प्रकाशित किए थे। उसने स्वागत किया। स्वागत करने के बाद उसने बोधिधर्म से पूछा कि मैंने इतना-इतना किया है--इतने मंदिर, इतनी मूर्तियां, इतने विहार, इतने ग्रंथ मैंने प्रकाशित किए, इतने-इतने करोड़ रुपये मैंने खर्च किए, महाराज, इससे मुझे क्या होगा?

दूसरे साधु जो आए थे उन सबने कहा था कि तुझे बड़ा लाभ होगा, बड़ा तुझे सुख मिलेगा, बड़ा तुझे...होगा। वह बोधिधर्म बोला, कुछ भी नहीं होगा।

वह तो बहुत हैरान हो गया। उसने कहा: कुछ भी नहीं होगा! यह मैंने सब किया व्यर्थ है?
तो उसने कहा: सार्थक तो वह है जो करने से नहीं मिलता, न करने से मिलता है। तूने जो किया वह बाहर किया, बाहर किया कुछ भी सार्थक नहीं है; सब रेत पर बनाए हुए चिह्नों की तरह हैं। हवाएं पोंछ देंगी। मंदिर तेरे गिर जाएंगे, ग्रंथ तेरे विलीन हो जाएंगे, विहार तूने बनाए धूल में मिल जाएंगे, जिन भिक्षुओं को तूने भोजन दिया उनकी देहें जिन्होंने भोजन ग्रहण किया जल जाएंगी, राख हो जाएंगी। बाहर तो कुछ भी किया हुआ अर्थपूर्ण नहीं, क्योंकि बाहर कुछ भी किया थिर नहीं। बाहर तो पानी पर खींची गई रेखाएं हैं।

आप बैठे हैं नदी के किनारे, पानी पर अपना नाम लिख दिया, आप लिख भी नहीं पाए कि नाम विलीन हो गया। बाहर के जगत पर सब पानी की रेखाओं जैसा है, वहां खींच भी नहीं पाते कि मिट जाता है, वहां बना भी नहीं पाते कि समाप्त हो जाता है, वहां जाग भी नहीं पाते कि नींद आ जाती है, वहां जीवन मिल भी नहीं पाता कि मौत चली आती है। इससे पहले कि वहां बनता है वह मिटना शुरू हो जाता है, इससे पहले कि वहां कुछ खड़ा हो वहां गिरना शुरू हो जाता है। बाहर के जगत में खींची गई कोई रेखा का कोई परिणाम नहीं है। वह रेखा चाहे सुख की हो, चाहे पुण्य की हो, चाहे शुभ की हो, परिणाम तो उसका है जो भीतर है और भीतर कुछ खींचा नहीं जाता।

जब सब खींचना बंद करके जो भीतर जागता है, जब बाहर की सब क्रियाओं को छोड़ कर, निवृत्त होकर कोई भीतर होश से भरता है, जब बाहर सारे क्रिया-कलाप, सारी चिंतनता से शून्य होकर कोई अचिंतन में जागता है तो उसे जानता है जो वहां मौजूद है। जो वहां मौजूद है वह नित्य और शाश्वत है, वही आत्यंतिक सत्ता है, वही अल्टीमेट रियलिटी है। उसमें, उसमें जागना है, उसमें होश से भरना है। और उसमें होश का एक ही मार्ग है, एक ही मार्ग है कि किसी भी भांति बाहर से जो प्रभाव आते हैं...अवेयर रहें, होश में रहें कि उन प्रभावों को हमें संग्रह नहीं करना है। जब कोई गाली दे जाए तो गाली को संग्रह नहीं करना है।

एक भिक्षु, एक संन्यासी एक गांव के करीब से निकलता था। कुछ लोगों ने आकर उसे गालियां दीं, उसका अपमान किया। उसने जब सारी बात सुन ली, उसने कहा: मित्र, मुझे दूसरे गांव जल्दी पहुंचना है, अगर तुम्हारी बातचीत पूरी हो गई, तुम्हारा संवाद पूरा हो गया, तो मैं जाऊं, मुझे आज्ञा दें।
वे लोग बोले, हमने तुमसे संवाद नहीं किया, बातचीत नहीं की; हमने तो तुम्हें गालियां दी हैं।
उस संन्यासी ने कहा: तुमने गाली दी वह तुम्हारा काम, मैंने उसे नहीं लिया यह मेरा काम है। देने में तुम स्वतंत्र हो, लेने में मैं भी स्वतंत्र हूं। तुम देते हो तुम जानो, मैं लेता नहीं इतना मैं जानता हूं। अभी पिछले गांव से मैं निकला था, वहां लोग मिष्ठान्न और फल-फूल लेकर आए थे और मुझसे बोले, इन्हें ले लें, मैंने कहा: पेट भरा है, मैंने नहीं लिया। तो उसने पूछा कि फिर उन्होंने उन फूलों का, उन मिष्ठानों का क्या किया होगा? वे लोग बोले, अपने घर ले गए होंगे। तो उसने कहा: तुम भी सोचो, तुम गालियां लेकर आए, मैं कहता हूं कि हम तो लेते नहीं, तो तुम क्या करोगे? गालियां घर ले जाओगे?

जो गाली न ली जाए वह वापस उसी पर लौट जाती है, जो क्रोध स्वीकार न किया जाए वापस लौट जाता है, जो प्रभाव गृहीत न किए जाएं वे अपने आप पीछे कदम वापस हो जाते हैं।

साधना जो आता है उससे लड़ने की नहीं, उसे न लेने की है। लड़ा तब तो लेना शुरू कर दिया। प्रेम करो या लड़ो, लेना शुरू हो जाता है। दुश्मन को भी हम ले लेते हैं और मित्र को भी ले लेते हैं। तो राग भी नहीं उससे, विराग भी नहीं उससे; उससे वीतराग, तटस्थता। न तो राग कि आ जाओ और न विराग कि मत आओ। क्योंकि मत आओ वाला भी घबड़ाया हुआ है, और उसने कुछ न कुछ ले लिया। वह जो घबड़ाहट है वह लेने की सूचना है। आपने मुझे गाली दी, मैंने कहा कि मुझे गाली मत दीजिए। जब मैंने यह कहा कि मुझे गाली मत दीजिए, मैं ले लिया। यह जो उत्तेजना मुझ में आई कि मुझे गाली मत दीजिए, यह तो मैंने ले लिया।

तो न तो मैं कहता हूं कि गाली दीजिए, न मैं कहता हूं कि न दीजिए। यह आपकी मौज है कि आपका गाली देने का मन है आप गाली दे रहे हैं, यह हमारी मौज है कि हम नहीं लेते हैं। अगर थोड़ी सी इस तरफ दृष्टि हो और साधना हो कि हम न लेने की साधना करें, तो आप हैरान होंगे, आप अदभुत हैरान हो जाएंगे। न लेने से तटस्थ चैतन्य के बोध से, साक्षी के बोध से, द्रष्टा के बोध से कि मैं केवल द्रष्टा मात्र हूं। तुमने गाली दी, यह देखा, बस देखा भर, तुमने गाली दी देखा और मैं अपनी राह चल दिया। अगर यह बोध बना रहे, प्रभाव आने बंद हो जाएंगे। नया प्रभाव नहीं पड़ेगा, नया आश्रय नहीं होगा। जब नया आश्रय नहीं होगा, जब नये प्रभाव नहीं पड़ेंगे, तो पुराने प्रभाव मेरे भीतर उठेंगे जिनको मैंने कभी ले लिया था। जब नये प्रभाव नहीं पड़ेंगे, जब नये-नये प्रभाव पड़ते जाते हैं तो पुराने प्रभाव नीचे दबते चले जाते हैं, उनको निकलने का मौका ही नहीं आता। हम रोज नई-नई चीजें इकट्ठी कर लेते हैं, वे और नीचे दब जाती हैं। जब नये प्रभाव मैं नहीं लूंगा, तो पुराने प्रभाव मेरे भीतर जाग्रत होंगे, वे खड़े होंगे। आज क्रोध नहीं लिया लेकिन पुराने जो क्रोध लिए थे उनके संस्कार, उनके कर्म-बंध मेरे भीतर उठेंगे, उनका ही द्रष्टा होना है। उनको भी देखना है कि तुम भी उठे। बाहर से किसी ने गाली दी थी, क्रोध प्रकट किया था, उसको देखा और कहा कि हम नहीं लेते। जब भीतर से तुम्हें उठे क्रोध तब भी उसे देखो, वह भी बाहर है, वह भी देखा जा सकता है। जो भी चीज देखी जा सकती है वह बाहर है।
जब भीतर क्रोध उठे, जब भीतर अपमान उठे, जब भीतर जलन,र् ईष्या उठे, तब कोई पिछले प्रभाव उठ रहें, उनको भी चुपचाप देखो। उनको भी कहो कि तुम भी आओ, तुमको भी हम देखते हैं। बाकी तुमसे भी हम कुछ लेते नहीं, तुम्हारे द्वारा हम सक्रिय नहीं होते। यानी उनका बाहर से लेना भी सक्रिय होना है। और किसी ने गाली दी, मैंने अगर ले लिया, तो मैं सक्रिय हो जाऊंगा। गाली दूंगा या फिर और उपाय करूंगा। भीतर कोई संस्कार उठता है कि वासना उठी है, वासना उठी कि कितना बड़ा महल मेरे पास हो। अगर मैंने उसे गृहीत किया तो मैं महल बनाने की चिंता और योजना में लग जाऊंगा। तो उसे गृहीत नहीं करना। उससे कहा कि तुम उठी, ठीक है, हम देखते हैं और देखेंगे, हमने लेना बंद किया, हम केवल देखने वाले रह गए, हम केवल दर्शक रह गए, हमने कर्ता होने की बात को छोड़ दिया। वह वासना भी तुम्हारे देखने मात्र से उठेगी, फैलेगी, जब वह रास्ता नहीं देखेगी कि आप उसको पकड़ें, जब आपका कोई राग और कोई विराग उससे संबंधित नहीं होगा, तो वह विसर्जित हो जाएगी। जैसे धुआं उठे और विसर्जित हो जाए। निर्जरा होगी उसकी अगर उसके प्रति भी तटस्थ बोध रहा, द्रष्टा का बोध रहा। नये आएंगे नहीं, पुराने धीरे-धीरे विसर्जित हो जाएंगे। नये नहीं आएंगे, पुराने विसर्जित हो जाएंगे, तो धीरे-धीरे निष्प्रभाव चैतन्य का अनुभव होगा, उसका अनुभव होगा जो नहीं है।

अब तक जिसको जाना वह पर्सनैलिटी थी, वे पर्तें थीं। अब जिसको जानेंगे वह इसेंस होगा, वह बीइंग होगा। अभी जिसको हम जानते हैं वह व्यक्तित्व है हमारा। हमारा नाम-धाम, पता-ठिकाना। तब हम उसको जानेंगे जिसका कोई नाम-धाम नहीं, कोई पता-ठिकाना नहीं, वह हमारा इसेंस, वह हमारा बीइंग, वह हमारा आत्मा है। जब हमारा यह तथाकथित मैं, ईगो और अहंकार गिर जाएगा, विलीन हो जाएगा, तब उसका जन्म होगा जो हमारा वास्तविक मैं है। वही आत्यंतिक सत्ता है। तो उसी की तरफ निष्प्रभाव साधना के द्वारा, अनुत्तेजना के द्वारा अपने भीतर निरंतर शांत होने की सतत चेष्टा के द्वारा; बाहर से जब-जब लहरें उठ आने को कोई उत्सुक हों, तब चुपचाप तटस्थ हो जाने के द्वारा व्यक्ति क्रमशः-क्रमशः, शनैः-शनैः आंतरिक में उतरता और अपने में विराजमान होता है। इसी माध्यम से उस सत्य को हम जान सकते हैं जिसे समस्त जाग्रत पुरुषों ने कहा है। 


- "ओशो "...
DHARM AUR ANAND # 01

Monday, 20 April 2015

एस धम्‍मो सनंतनो–(भाग–10) प्रवचन–92


ओशो
जिसके मन में आज भी बुद्ध के प्रति अपार श्रद्धा है, उसके लिए बुद्ध आज उतने ही प्रत्‍येक्ष है जैसे तब थे। कोई फर्क नहीं पड़ता है। श्रद्धा की आँख हो तो समय और स्‍थान की सारी दूरियां गिर जाती है। आज हमसे बुद्ध की दूरी पच्‍चीस सौ साल की हो गयी है। यह समय की दूरी है। लेकिन प्रेम और ध्‍यान के लिए न कोई समय है और न स्‍थान। दोनों तिरोहित हो जाते है। तब हम जीते है शाश्‍वत में। तब हम जीते है अनंत में। तब हम जीते है उसमें, जो कभी नहीं बदलता; जो सदा है, सदा था, सदा रहेगा। एस धम्‍मो सनंतनो। उसको जान लेना ही शाश्‍वत सनातन धर्म को जान लेना है।
ओशो

एस धम्‍मो सनंतनो

भाग—10
मृत्यु की महामारी में खड़ा जीवन—प्रवचन—92
मत्‍तासुखपरिच्‍चागा पस्‍से चे विपुलं सुखं।

चजे मत्‍तासुखं धीरो संपस्‍सं विपुलं सुखं ।।241।।
परदुक्‍खूपदानेन यो अत्‍तनो सुखमिच्‍छति।
वेरसंसग्‍गसंसट्ठे वेरा से न परिमुच्‍चति ।।242।।
यं ही किच्चं तदपविद्धं अकिच्चं पन कयिरति।
उन्नलानं पमत्तानं तेसं बड्ढंति आसवा ।।243।।
येसज्च सुसमारद्धा निच्चं कायगतासति ।
अकिन्चन्ते न सेवंति किच्चे सातच्‍चकारिनो
सतानं संपजानान हंत्वा गच्छंति आसवा ।।244।।
मातरं पितरं हंत्या राजानो व खत्तियो।
रट्ठं सानुचरं’ हंत्वा अनीघो याति ब्राह्मणो ।।245।।
मातरं पितरं हंत्वा राजानो द्वे च सोत्थिये ।
वेय्यग्‍धपज्‍चमं हंत्‍वा अनीधो याति ब्राह्माणो ।।246।।
प्रथम दृश्य—
एक समय वैशाली में दुर्भिक्ष हुआ था और महामारी फैली थी। लोग कुत्तों की मौत पर रहे थे। मृत्यु का तांडव नृत्य हो रहा था। मृत्यु का ऐसा विकराल रूप तो लोगों ने कभी नहीं देखा था न सुना था। सब उपाय किए गए थे लेकिन सब उपाय हार गए थे। फिर कोई और मार्ग न देखकर लिच्छवी राजा राजगृह जाकर भगवान को वैशाली लाए। भगवान की उपस्थिति में मृत्यु का नंगा नृत्य धीरे— धीरे शांत हो गया था— मृत्यु पर तो अमृत की ही विजय हो सकती है। फिर जल भी बरसा था सूखे वृक्ष पुन: हरे हुए थे; फूल वर्षों से न लगे थे फिर से लगे थे फिर फल आने शुरू हुए थे। लोग अति प्रसन्न थे।
और भगवान ने जब वैशाली से विदा ली थी तो लोगों ने महोत्सव मनाया था उनके हृदय आभार और अनुग्रह से गदगद थे। और तब किसी भिक्षु ने भगवान से पूछा था— यह चमत्कार कैसे हुआ? भगवान ने कहा था—भिक्षुओ बात आज की नहीं है। बीज तो बहुत पुराना है वृक्ष जरूर आज हुआ है। मैं पूर्वकाल में शंख नामक ब्राह्मण होकर प्रत्येक बुद्धपुरुष के चैत्यों की पूजा किया करता था। और यह जो कुछ हुआ है उसी पूजा के विपाक से हुआ है। जो उस दिन किया था वह तो अल्प था अत्यल्प था लेकिन उसका ऐसा महान कल हुआ है, बीज तो होते भी छोटे ही हैं। पर उनसे पैदा हुए वृक्ष आकाश को छूने में समर्थ हो जाते हैं। थोड़ा सा त्याग भी अल्पमात्र त्याग भी महासुख लाता है। थोड़ी सी पूजा भी थोड़ा सा ध्यान भी जीवन में क्रांति बन जाता है। और जीवन के सारे चमत्कार ध्यान के ही चमत्कार हैं। तब उन्होंने ये गाथाएं कही थीं—
मत्‍तासुखपरिच्‍चागा पस्‍से चे विपुलं सुखं।
चजे मत्‍तासुखं धीरो संपस्‍सं विपुलं सुखं ।।241।।
परदुक्‍खूपदानेन यो अत्‍तनो सुखमिच्‍छति।
वेरसंसग्‍गसंसट्ठे वेरा से न परिमुच्‍चति ।।242।।
‘थोड़े सुख के परित्याग से यदि अधिक सुख का लाभ दिखायी दे तो धीरपुरुष अधिक सुख के खयाल से अल्पसुख का त्याग कर दे।’
‘दूसरों को दुख देकर जो अपने लिए सुख चाहता है, वह वैर में और वैर के चक्र में फंसा हुआ व्यक्ति कभी वैर से मुक्त नहीं होता।’
पहले तो इस छोटी सी कथा को ठीक से समझ लें, क्योंकि कथा में ही सूत्रों के प्राण छिपे हुए हैं।
मनुष्य का मन ऐसा है कि दुख में ही भगवान को याद करता है। सुख हो तो भगवान को भूल जाता है। और दुर्भाग्य की बात है यह। क्योंकि जब तुम दुख में याद करते हो तो भगवान से मिलन भी हो जाए तो भी तुम्हारी बहुत ऊपर गति नहीं हो पाती। ज्यादा से ज्यादा दुख से छूट जाओगे। अगर सुख में याद करो तो सुख से छूट जाओगे और महासुख को उपलब्ध होओगे। जब तुम दुख में याद करते हो तो याद का इतना ही परिणाम हो सकता है कि दुख से छूट जाओ, सुख में आ जाओ। लेकिन सुख कोई गंतव्य थोड़े ही है। सुख कोई जीवन का लक्ष्य थोड़े ही है। जो सुखी हैं वे भी सुखी कहां हैं! दुखी तो दुखी है ही, सुखी भी सुखी नहीं है। इसलिए अगर सुख भी मिल जाए तो कुछ मिला नहीं बहुत।
जो सुख में याद करता है, उसकी सुख से मुक्ति हो जाती है, वह महासुख में पदार्पण करता है। वह ऐसे सुख में पदार्पण करता है जो शाश्वत है, जो सदा है। सुख तो वही जो सदा हो। सुख की इस परिभाषा को खूब गांठ बांधकर रख लेना। सुख तो वही जो सदा रहे। जो आए और चला जाए, वह तो दुख का ही एक रूप है। आएगा, थोड़ी देर भांति होगी कि सुख हुआ, चला जाएगा—और भी गहरे गड्डे में गिरा जाएगा, और भी दुख में पटक जाएगा।
जो क्षणभंगुर है, वह आभास है, वास्तविक नहीं। वास्तविक तो मिटता ही नहीं, मिट सकता नहीं। जो है, सदा है और सदा रहेगा। जो नहीं है, वह कभी भासता है कि है और कभी तिरोहित हो जाता है। जैसे दूर मरुस्थल में तुम्हें जल—सरोवर दिखायी पड़े। अगर है, तो तुम उसके पास भी पहुंच जाओ तो भी है, तुम उससे जल पी लो तो भी है, तुम उससे दूर भी चले जाओ तो भी है। लेकिन अगर मृगमरीचिका है, अगर सिर्फ दिखायी पड़ रहा है, अगर सिर्फ तुम्हारे प्यास के कारण तुमने ही कल्पना कर ली है, तो जैसे —जैसे पास पहुंचोगे वैसे—वैसे जल का सरोवर तिरोहित होने लगेगा। जब तुम ठीक उस जगह पहुंच जाओगे जहां जल—सरोवर दिखायी पड़ता था, तब तुम अचानक पाओगे, रेत के ढेरों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। तुम्हारी प्यास ने ही सपना देख लिया था।
प्यास सपने पैदा करती है। अगर तुमने दिन में उपवास किया है तो रात तुम सपना देखोगे भोजन करने का। भूख ने सपना पैदा कर दिया। अगर तुम्हारी कामवासना अतृप्त है तो रात तुम सपने देखोगे कामवासना के तृप्त करने के। क्षुधा ने सपना पैदा कर दिया। गरीब धन के सपने देखता है। अमीर स्वतंत्रता के सपने देखता है। जो हमारे पास नहीं है, उसका हम सपना देखते हैं। और अगर हमारी क्षुधा इतनी बढ़ जाए, प्यास इतनी बढ़ जाए कि हमारा पूरा मन आच्छादित हो जाए उसी प्यास से, तो फिर हम भीतर ही नहीं देखते, आंख बंद करके ही नहीं देखते, खुली आंख भी सपना दिखायी पड़ने लगता है। वही मृगमरीचिका है। तब तुम्हारा सपना इतना प्रबल हो गया कि तुम सत्य को झुठला देते हो और उसके ऊपर सपने को आरोपित कर लेते हो।
हम सबको ऐसा अनुभव है, हमने चाहे समझा हो चाहे न समझा हो, जो नहीं है, उसको भी हम देख लेते हैं। किसी स्त्री से तुम्हारा प्रेम है, तुम्हें उसकी क्षुधा है, तुम्हें उसकी प्यास है, उस स्त्री को तुमसे कुछ लेना—देना नहीं है, लेकिन तुम उसकी भाव— भंगिमा में, उसके उठने —बैठने में देख लोगे इशारा कि उसको तुमसे प्रेम है। वह तुमसे अगर हंसकर भी बोल लेगी—हंसकर वह सभी से बोलती होगी—अगर वह तुम्हें कभी घर चाय पिलाने के लिए बुला लेगी, तो तुम समझोगे कि उसे प्रेम है। तुम इस छोटी सी बात पर अपनी पूरी वासना को आरोपित कर दोगे। राह पर रुककर तुमसे बात कर लेगी तो तुम समझोगे कि उसको भी मेरी आकांक्षा है।
हम प्रतिपल ऐसा करते हैं। जो नहीं है, उसको देख लेते हैं, क्योंकि हम चाहते हैं कि वह हो। जो है, उसको झुठला देते हैं, क्योंकि हम चाहते नहीं कि वह हो। ऐसे हम जीवन को झूठ करके जीते हैं। क्षणभर को दिख भी जाए, इससे कुछ फर्क न पड़ेगा। सपना तो टूटेगा। सपनों में सुख कहां! सुख तो शाश्वतता में है।
इसलिए बुद्ध कहते हैं—एस धम्मो सनंतनो। जो सदा रहे वही धर्म है। सनातन धर्म का स्वभाव है।
वैशाली में दुर्भिक्ष हुआ। वैशाली के पास ही राजगृह में भगवान ठहरे हैं, लेकिन जब तक दुखी न थे लोग तब तक उन्हें निमंत्रित न किया था।
ये कथाएं तो प्रतीक—कथाएं हैं। यही तो हमारी दशा है। जब सब ठीक चलता होता, कौन मंदिर जाता, कौन पूजा करता, कौन प्रभु को स्मरण करता! जब तुम जीत रहे होते, तब तो परमात्मा की याद भूल जाती है, जब तुम हारने लगते, तब तुम साधु—सत्संग खोजते। जब जीवन में विषाद पकड़ता, जब तुम्हारे किए कुछ भी नहीं होता, तब तुम कोई सहारा खोजते, तब तुम राम —राम जपते, तब तुम माला पकड़ते, तब तुम ध्यान में बैठते। और खयाल रहे, दुख में ध्यान करना बहुत कठिन है। दुख बड़ा व्याघात है। दुख बड़ा विध्‍न है। सुख में ध्यान करना सरल है, लेकिन सुख में कोई ध्यान करता नहीं।
सुख की तरंग पर अगर तुम ध्यान में जुड़ जाओ—मन सुख से भरा है, मन प्रफुल्लित है, मन ताजा है, युवा है—इस उत्साह के क्षण को अगर तुम ध्यान में लगा दो, तो जो ध्यान वर्षों में पूरा न होगा, वह क्षणों में पूरा हो सकता है।
इसलिए मेरी अनिवार्य शिक्षा यही है कि जब सुख का क्षण हो, तब तो चूकना ही मत। तब तो सुख के क्षण को ध्यान के लिए समर्पित कर देना। तब भगवान को याद कर लेना। वह याद बड़ी गहरी जाएगी। वह तुम्हारे अंतस्तल को छू लेगी। वह तुम्हारे प्राणों की गहराई में प्रतिष्ठित हो जाएगी। तुम मंदिर बन जाओगे।
जब तुम्हारी आंखें आंसू से भरी हैं, तब तुम भगवान को बुलाते हो, द्वार तो अवरुद्ध है। जब तुम्हारे ओंठ मुस्कुराहट से भरे हैं, तब बुलाओ। तब द्वार खुले हैं। तब उस मुस्कुराहट के सहारे तुम्हारे प्रभु का स्मरण तुम्हारी आत्मा तक को रूपांतरित करने में सफल हो जाएगा। सुख में करो याद। जो दुख में करते हैं, दुख से राहत मिल जाती है। प्रभु की स्मृति है, राहत तो देगी। लेकिन जो सुख में याद करते हैं, वे मुक्त हो जाते हैं। इस बात को खयाल में रखना।
वैशाली में पड़ा दुर्भिक्ष, बड़ी महामारी फैली, लोग कुत्तों की मौत मरने लगे, तब घबडाए। मृत्यु का तांडव नृत्य, ऐसा कभी देखा न था, सुना भी न था। इतिहास में वर्णित भी न था। सब उपाय किए..।
खयाल रखना, आदमी पहले और सब उपाय कर लेता है, परमात्मा अंतिम उपाय है। और जिसको तुम अंतिम उपाय मानते हो, वही प्रथम है। लेकिन तुम उसे क्यू में आखिर में खड़ा करते हो। तुम पहले और सब उपाय कर लेते हो। जब तुम्हारा कोई उपाय नहीं जीतता, तब तुम परमात्मा की तरफ झुकते हो। थके —हारे, इस विचार से कि शायद, अब और तो कहीं होता नहीं, शायद हो जाए। यह आस्था नहीं है—आस्थावान तो पहले परमात्मा की तरफ झुकता है—यह अनास्था है। पहले तुम जाओगे उस दिशा में जिसमें तुम्हारी आस्था है।
समझो कि बीमार पड़े। तो तुम पहले होमियोपैथ के पास नहीं जाओगे, पहले एलोपैथ के पास जाओगे। उसमें तुम्हारी आस्था है। फिर अगर एलोपैथ न जीत सका, तो तुम आयुर्वेद के पास जाओगे, उसमें तुम्हारी थोड़ी सी डगमगाती आस्था है—पुराना संस्कार है। फिर वह भी न जीता, तो तुम शायद होमियोपैथ के पास जाओ। अब तुम सोचते हो, शायद! होमियोपैथ भी न जीते तो फिर —तुम शायद नेचरोपैथ के पास जाओ। और जब सब पैथी हार जाएं, तो शायद तुम परमात्मा का स्मरण करो, तुम कहो, अब तो कोई सहारा नहीं, अब तो बेसहारा हूं। अंत में तुम याद करते हो? अंत में याद करते हो, यही बताता है कि तुम्हारी कोई आस्था नहीं। अन्यथा पहले तुम परमात्मा की याद किए होते। पहला मौका तुम उसको देते हो जिसमें तुम्हारी आस्था है। परमात्मा आखिर में हमने रख छोड़ा है।
वैशाली के लोग हमसे कुछ भिन्न न थे, ठीक हम जैसे लोग थे। ऐसी घटना कभी घटी या नहीं घटी, इसकी फिकर में मत पड़ना। वैशाली के लोग हम जैसे लोग थे। इसीलिए तो लोग बुढ़ापे में परमात्मा का स्मरण करते हैं, जवानी में नहीं। तब तो सब ठीक चलता मालूम पडता है। नाव बहती मालूम पड़ती है। दूसरा किनारा बहुत दूर नहीं मालूम पड़ता। पैरों में बल होता है, अपने अहंकार पर भरोसा होता है, कर लेंगे। खुद जूझने की हिम्मत होती है। फिर धीरे— धीरे पैर कमजोर हो जाते हैं, नाव टूटने —फूटने लगती है, दूसरा किनारा दूर होने लगता है, लगता है मझधार में ही ड़बकर मरना है; अपने पर अब भरोसा नहीं रह जाता, अपने सब किए उपाय व्यर्थ होने लगते हैं, तब आदमी भगवान की स्मृति करता है। तब सोचता है, शायद! पर खयाल रखना, जिसने अंत में भगवान को मौका दिया है उसके भीतर शायद तो मौजूद रहेगा ही। अंत में मौका देने का मतलब ही है कि तुम्हारा भगवत्ता में विश्वास नहीं है।
ये वैशाली के लोग, दुर्भिक्ष फैला होगा, महामारी फैली होगी, सब उपाय किए होंगे, चिकित्सा—व्यवस्था की होगी, लेकिन कुछ भी रास्ता न मिला, लोग कुत्तों की मौत मर रहे थे यह कुत्तों की मौत शब्द मुझे बहुत ठीक लगा।
गुरजिएफ निरंतर अपने शिष्यों से कहा करता था कि जिस व्यक्ति ने ध्यान नहीं किया, वह कुत्ते की मौत मरेगा। किसी ने उससे पूछा, कुत्ते की मौत का क्या अर्थ होता है? तो गुरजिएफ ने कहा, कुत्ते की मौत का अर्थ यह होता है कि व्यर्थ जीआ और व्यर्थ मरा। दुत्कारे खायी, जगह—जगह से भगाया गया, जहां गया वहीं दुत्कारा गया, रास्ते पर पड़ी जूठन से जिंदगी गुजारी, कूडे—करकट पर बैठा और सोया, और ऐसे ही आया और ऐसे ही व्यर्थ चला गया, न जिंदगी में कुछ पाया न मौत में कुछ दर्शन हुआ—कुत्ते की मौत!
लेकिन, हमें लगता है कि कभी—कभी कोई कुत्ते की मौत मरता है। बात उलटी है, कभी—कभी कोई मरता है जिसकी कुत्ते की मौत नहीं होती। अधिक लोग कुत्ते की मौत ही मरते हैं। हजार में एकाध मरता है जिसकी मौत को तुम कहोगे कुत्ते की मौत नहीं है। जो जीआ, जिसने जाना, जिसने जागकर अनुभव किया, जिसने जीवन को पहचाना, जिसने जीवन की किरण पकड़ी और जीवन के स्रोत की तरफ आंखें उठायीं, जो ध्यानस्थ हुआ, वही कुत्ते की मौत नहीं मरता।
फिर हम बड़े बेचैन हो जाते हैं—महामारी फैल जाए, लोग मरने लगें, तो हम बड़े बेचैन हो जाते हैं। और एक बात पर हम कभी ध्यान ही नहीं देते कि सभी को मरना है—महामारी फैले कि न फैले। इस जगत में सौ प्रतिशत लोग मरते हैं। खयाल किया? ऐसा नहीं कि निन्यानबे प्रतिशत लोग मरते हैं, कि अट्ठानबे प्रतिशत लोग मरते हैं, कि अमरीका में कम मरते हैं और भारत में ज्यादा मरते हैं। यहां सौ प्रतिशत लोग मरते हैं—जितने बच्चे पैदा होते हैं उतने ही आदमी यहां मरते हैं। महामारी तो फैली ही हुई है। महामारी का और क्या अर्थ होता है? जहां बचने का किसी का भी कोई उपाय नहीं। जहां कोई औषधि काम न आएगी। साधारण बीमारी को हम कहते हैं—जहां औषधि काम आ जाए, तो उसको कहते हैं बीमारी, रोग। महामारी कहते हैं जहां कोई औषधि काम न आए। जहां हमारे सब उपाय टूट जाएं और मृत्यु अंततः जीते। महामारी तो फैली हुई है, सदा से फैली हुई है। इस पृथ्वी पर हम मरघट में ही खड़े हैं। यहां मरने के अतिरिक्त और कुछ होने वाला नहीं है। देर —अबेर घटना घटेगी। थोड़े समय का अंतर होगा।
वैशाली के लोगों ने यह कभी न देखा था कि सभी लोग मरते हैं, सभी को मरना है। अगर यह देखा होता तो भगवान को पहले बुला लाए होते कि हमें कुछ जीवन के सूत्र दे दें, कोई सोपान दें कि हम भी जान सकें, अमृत क्या है? लेकिन नहीं गए, क्योंकि महामारी फैली नहीं थी।
आदमी ने कुछ ऐसी व्यवस्था की है कि मौत दिखायी नहीं पड़ती। जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण है वह दिखायी नहीं पड़ती। और जो व्यर्थ की बातें हैं, खूब दिखायी पड़ती हैं। तुम एक कार को खरीदते हो तो जितना सोचते हो, जितनी रात सोते नहीं, जितनी केटलाग देखते हो, तुम एक मकान खरीदते हो तो जितनी खोजबीन करते हो, तुम एक सिनेमागृह में जाते हो तो जितना विचार करते हो अखबार उठाकर कि कहां जाना, कौन सी फिल्म देखनी, तुम जीवन के संबंध में इतना भी नहीं सोचते! तुम यह भी नहीं देखते कि यह जीवन हाथ से बहा जा रहा है और मौत रोज पास आयी चली जा रही है। मौत द्वार पर खड़ी है, कब ले जाएगी कहा नहीं जा सकता। हमने इस तरह से झुठलाया है मौत को कि जिसका हिसाब नहीं!
मेरी एक किताब है—अनटिल यू डाय, जब तक तुम मरो नहीं। इंग्लैंड में एक प्रकाशक उसे छापना चाहता है—शैल्टन प्रेस। उनका पत्र मुझे मिला तो मैं चकित हुआ। उन्होंने लिखा, किताब अदभुत है, हम इसे छापना चाहते हैं इंग्लैंड में, लेकिन नाम हम यह नहीं रख सकते। अनटिल यू डाय, यह तो इसका शीर्षक देखकर ही लोग इसे खरीदेंगे नहीं। लोग मौत से इतना डरते हैं। ऐसी किताब कौन खरीदेगा जिसके ऊपर यह लिखा हो—अनटिल यू डाय! नाम यह हम नहीं रख सकते हैं, नाम हमें बदलना पड़ेगा, उन्होंने लिखा।
सूचक है बात, हम मौत की बात ही कहा करते हैं! कोई मर जाता है तो कहते हैं, देहावसान हो गया। छिपाते हैं। कोई मर गया तो कहते हैं, स्वर्गवासी हो गए। चाहे नरक ही गए हों! सौ में से निन्यानबे नरक ही जा रहे होंगे, जैसा जीवन दिखता है उसमें शायद ही कोई कभी स्वर्गवासी होता हो। लेकिन यहां जो भी मरे, जहां भी मरे—दिल्ली में भी मरो—तों भी स्वर्गवासी! बस मरे कि स्वर्गवासी हो गए! कि परमात्मा के प्यारे हो गए! कि प्रभु ने उठा लिया! मौत शब्द का सीधा उपयोग करने में भी हम घबड़ाते हैं। क्यों?
मौत शब्द से बेचैनी होती है, मौत शब्द में अपनी मौत की खबर मिलती है, धुन मिलती है। मौत शब्द हमें याद दिलाता है कि मुझे भी मरना होगा। देहावसान में ऐसी धुन नहीं मिलती। स्वर्गीय में ऐसा भाव नहीं पैदा होता है, कि चलो किसी दिन हम भी स्वर्गीय हो जाएंगे, कोई बात नहीं, स्वर्ग मिलेगा। मौत बहुत स्‍सष्ट कह देती है बात को, स्वर्गीय में बहुत छिपाकर बात कही गयी है। जहर को छिपा दिया मिठास में, ऊपर एक शक्कर की पर्त लगा दी।
मरघट को देखते हो, सारी दुनिया में, कोई जाति हो, कोई धर्म हो, कोई देश हो, गांव के बाहर बनाते हैं। और मौत खड़ी है जिंदगी के बीच में। ठीक जहां तुम्हारा बाजार है, एम जी रोड पर, वहां होना चाहिए मरघट। ठीक बीच बाजार में। ताकि जितनी बार तुम बाजार जाओ—सज्जी खरीदो, कि कपड़ा खरीदो, कि सिनेमा—गृह जाओ—हर बार तुम्हें मौत से साक्षात्कार हो, हर बार तुम देखो कि कोई चिता जल रही है। हर बार तुम देखो कि फिर कोई अर्थी आ गयी। बीच बाजार में होना चाहिए मरघट, क्योंकि जिंदगी के बीच में खड़ी है मौत। उसे हम बाहर हटाकर रखते हैं—दूर गांव के, जहां हमें जाना नहीं पड़ता। या कभी—कभी किसी के साथ जाना पड़ता है अर्थी में, तो बड़े बेमन से चले जाते हैं और जल्दी से भागते हैं वहां से। जाना वहीं पड़ेगा जहां से तुम भाग— भाग आते हो। जैसे तुम दूसरों को पहुंचा आए वैसे दूसरे तुम्हें पहुंचा आएंगे—ठीक ऐसे ही।
मैं छोटा था—तो जैसा सभी घरों में होता है—कभी कोई मर जाए तो मेरी मां मुझे जल्दी से अंदर बुलाकर दरवाजा बंद कर लेती, चलो अंदर चलो, अंदर चलो! मैं पूछता, बात क्या है? वह कहती, अंदर चलो, बात कुछ भी नहीं है। मेरी उत्सुकता बढ़ी, स्वाभाविक था, कि बात क्या है? जब भी कोई हंडी लिए निकलता, बाजा—बैंड बजता, मुझे अंदर बुला लिया जाता, दरवाजा बंद कर दिया जाता—मौत दिखायी नहीं पड़नी चाहिए बच्चों को। अभी से इतनी खतरनाक बात दिखायी पड़े, कहीं जीवन में हताश न हो जाएं। मगर मेरी मा का दरवाजे को बंद करना मेरे लिए बड़ा कारगर हो गया, वह एक दरवाजे को बंद करतीं, मैं दूसरे से नदारद हो जाता। मैं धीरे — धीरे जो भी गाव में मरता उसी के साथ मरघट जाने लगा। फिर तो गांव में जितने आदमी मरे, मैं सुनिश्चित था, लोग मुझे पहचानने भी लगे कि वह लड़का आया कि नहीं! कोई भी मरे, इसकी फिर मुझे फिकर ही नहीं रही कि कौन मरता है, इससे क्या फर्क पड़ता है, फिर मैं जाने ही लगा। हर आदमी की मौत पर मरघट जाने लगा। और धीरे — धीरे बात यह मुझे खयाल में उस समय से आने लगी कि मरघट को गांव के बाहर छिपाकर क्यों बनाया है, दीवाल उठा दी है, सब तरफ से छिपा दिया है, कहीं से दिखायी न पड़े।
एक म्युनिसिपल कमेटी में विचार किया जा रहा था मरघट के चारों तरफ बड़ी दीवाल उठाने का, सब पक्ष में थे, एक झक्की सा आदमी खड़ा हुआ और उसने कहा कि नहीं, इसका क्या सार! क्योंकि जो वहां दफना दिए गए हैं, वे निकलकर बाहर नहीं आ सकते, और जो बाहर हैं, वे अपने आप भीतर जाना नहीं चाहते, इसलिए दीवाल की जरूरत क्या?
मगर दीवाल का प्रयोजन दूसरा है। उसका प्रयोजन है, जो बाहर हैं, उनको दिखायी न पड़े कि जीवन का सत्य क्या है। जीवन का सत्य है मृत्यु। जीवन महामारी है। क्योंकि जीवन सभी को मार डालता है। इसका कोई इलाज नहीं है।
तुमने कभी सोचा, जीवन का कोई इलाज है! टी. बी का इलाज है, कैंसर का भी इलाज हो जाएगा अगर नहीं है तो, मगर जीवन का कोई इलाज है! और जीवन सभी को मार डालता है, तुमने देखा? सौ प्रतिशत मार डालता है। जो जीवित हुआ, वह मरेगा ही। जीवन का कोई भी इलाज नहीं है। जीवन महामारी है।
लेकिन वैशाली के लोगों को पता नहीं था—जैसा तुमको पता नहीं है, जैसा किसी को पता नहीं है—हम महामारी के बीच ही पैदा होते हैं। क्योंकि हम मरणधर्मा दो व्यक्तियों के संयोग से पैदा होते हैं। हम मौत के बीच ही पैदा होते हैं, हम मौत के नृत्य की छाया में ही पैदा होते हैं। हम मौत की छाया में ही पलते और बड़े होते हैं। और एक दिन हम मौत की ही दुनिया में वापस लौट जाते हैं—मिट्टी मिट्टी में गिर जाती है। हम महामारी में ही जी रहे हैं। जिसे यह दिख जाता है, उसके जीवन में क्रांति का सूत्रपात होता है।
वैशाली में दुर्भिक्ष हुआ तब लोगों को याद आयी, महामारी फैली तब याद आयी, सब उपाय कर लिए, सब उपाय हार गए, तब याद आयी। फिर उन्होंने अपने राजा को राजी किया होगा कि अब आप जाएं, भगवान राजगृह में ठहरे हैं, उन्हें बुला लाएं। शायद! शायद उनकी मौजूदगी और चीजें बदल जाएं।
खयाल रखना कि तुम चाहे शायद ही भगवान को बुलाओ तो भी चीजें बदल जाती हैं। कभी—कभी तुम संयोगवशांत ही याद करो तो भी परिवर्तन हो जाता है। तुम्हारी आस्था अगर होती है तब तो बड़ा गहरा परिवर्तन हो जाता है, तुम अगर कभी संदेह से भरे हुए भी याद कर लेते हो, तो तुम्हारे संदेह को भी हिलाकर परिणाम होते हैं। तुम्हारा संदेह बाधा तो बनता है, लेकिन बिलकुल ही रोक नहीं पाता, कुछ न कुछ हो ही जाता है। पूरा सागर मिल सकता था अगर आस्था होती, अब पूरा सागर शायद न मिले, मगर छोटा—मोटा झरना तो फूट ही पड़ता है। तुम्हारे संदेह को तोड़कर भी भगवान फूट पड़ता है। इसलिए जो न बुला सकते हों आस्था से, कोई फिकर नहीं, शायद— भाव से ही बुलाएं, मगर बुलाएं तो। जो न बुला सकते हों सुख में, कोई फिकर नहीं, दुख में ही बुलाएं, मगर बुलाएं तो। आज दुख में बुलाया, कल शायद सुख में भी बुलाएंगे।
राजा गया, राजगृह जाकर भगवान को वैशाली लिवा आया। भगवान ने एक बार भी न कहा कि अब आए! बड़ी देर करके आए। और मैं तो निरंतर यही कहता रहा हूं कि जीवन दुख है और जीवन मृत्यु है और सब क्षणभंगुर है और सब जा रहा है, तुमने कभी न सुना! मेरी नहीं सुनी, महामारी की सुन ली!
कभी—कभी ऐसा होता है, श्रेष्ठतम पुकार हम नहीं सुनते, निकृष्ट की पुकार हमें समझ में आ जाती है, क्योंकि हम निकृष्ट हैं। हमारी भाषा निकृष्ट की भाषा है। बुद्ध बीच में खड़े होकर हमें पुकारें तो शायद हम न सुनें, दिवाला निकल जाए और हमारी समझ में आ जाए। पत्नी मर जाए और हमारी समझ में आ जाए। जुए में हार जाएं और हमारी समझ में आ जाए। और बुद्ध पुकारते रहें और हमारी समझ में न आए। हमारी एक दुनिया है, कीड़े —मकोड़ों की दुनिया है, जमीन पर सरकती हुई दुनिया है। हम आकाश में उड़ते नहीं, आकाश की भाषा हमारी पकड़ में नहीं आती। लेकिन बुद्ध ने इनकार न किया। उन्होंने कहा, चलो, किसी बहाने सही, मुझे याद किया। चलो महामारी इनको एक संदेश ले आयी कि अब भगवान की जरूरत है, चलो इसका भी उपयोग कर लें।
भगवान की उपस्थिति में मृत्यु का नंगा नृत्य धीरे— धीरे शांत हो गया।
ऐसा हुआ या नहीं, इसकी फिकर में मत पड़ना। ये बातें कुछ भीतर की हैं। बाहर हुआ हो तो ठीक, न हुआ हो तो ठीक। लेकिन भगवान की उपस्थिति में मृत्यु का नृत्य शांत हो ही जाता है। तुम अपने हृदय की वैशाली में भगवान को बुलाओ, इधर भगवान का प्रवेश हुआ, उधर तुम पाओगे, मौत बाहर निकलने लगी। यह है अर्थ।
बौद्ध शास्त्रों में भी ऐसा अर्थ नहीं लिखा है। वे यही मानकर चलते हैं कि यह तथ्यगत बात है। मैं नहीं मानता कि यह तथ्यगत बात है। यह बड़ी महत्वपूर्ण बात है—तत्वगत है, तथ्यगत नहीं। इसमें तत्व तो बहुत है, लेकिन इसको फैक्ट और तथ्य मानकर मत चलना। अन्यथा व्यर्थ के विवाद पैदा होते हैं कि ऐसा कैसे हो सकता है! महामारी कैसे दूर हो जाएगी! और कैसे दूर होगी, बुद्ध कौ खुद भी तो एक दिन मरना पडा। यह शरीर तो जाता ही है, बुद्ध का हो तो भी जाता है। बुद्ध जैसे प्यारे आदमी का शरीर हो तो भी जाता है।
तो मौत बुद्ध की मौजूदगी में हट गयी हो वैशाली से, ऐसा तो लगता नहीं, लेकिन किसी और गहरे तल पर बात सच है। जब भी कोई व्यक्ति भगवान को बुला ले आता है अपने हृदय में, तो मौत हट जाती है। तुम्हें पहली दफा अमृत की प्रतीति होनी शुरू होती है। भगवान की मौजूदगी में तुम्हारे भीतर पहली दफे वे स्वर उठते हैं जो शाश्वत के हैं। एस धम्मो सनंतनो। तुम्हें एक दृष्टि का नया आयाम खुलता हुआ मालूम पड़ता है।
हमने देह के साथ अपने को एक समझ लिया है, तो हम मरणधर्मा हो गए हैं। हम भूल ही गए हैं कि हम देह नहीं हैं—देह में जरूर हैं। हमें स्मरण नहीं रहा है कि हम मिट्टी के दीए नहीं हैं। मिट्टी के दीए में जलती हुई जो चिन्मय ज्योति है, वही हैं। तुम्हारे भीतर जो जागरण है, होश है, चैतन्य है, वही तुम हो। देह तो मंदिर है, तुम्हारा देवता भीतर विराजमान है। और देवता मंदिर नहीं है। देवता के हटते ही मंदिर कचरा हो जाएगा, यह भी सच है। मगर देवता के रहते मंदिर मंदिर है। जैसे ही तुम्हारी अंतर्दृष्टि बदलती है, तुम्हें अपने साक्षीभाव का स्मरण आता है, वैसे ही अमृत का प्रवेश होता है।
तो मैं तो इसका ऐसा अर्थ करता हूं —तत्वगत। तथ्यगत, मुझे चिंता नहीं है। मैं कोई ऐतिहासिक नहीं हूं। और मेरे मन में तथ्यों का कोई बड़ा मूल्य नहीं है। मैं तथ्यों को हमेशा तत्वों की सेवा में लगा देता हूं। भगवान की उपस्थिति में मृत्यु का नंगा नृत्य धीरे— धीरे शांत हो गया था।
हो ही जाना चाहिए। हो ही जाता है। जैसे ही याद आनी शुरू होती है कि मैं आत्मा हूं कि मैं परमात्मा हूं, कि मेरे भीतर दिव्य ज्योति जल रही है, वैसे ही देह की बात समाप्त हो गयी। फिर जो तुम्हारे मां—बाप से पैदा हुए तुम, वह तुम न रहे। तादात्म्य टूट गया। तुम तो वह हो गए जो सदा से हो। तुम्हारे मां—बाप भी न थे तब भी तुम थे। तुम्हारी देह मिट्टी में गिर जाएगी फिर भी तुम रहोगे। उसकी जरा सी याद आती है, सब बदल जाता है।
मृत्यु पर तो अमृत की ही विजय हो सकती है।
और जिसको अमृत की उपलब्धि हो गयी है, उसकी मौजूदगी में यह सरलता से घट जाता है। इसलिए सत्संग का बडा मूल्य है। महामारी तो सभी नगरियों में फैली हैं, सभी नगरियां वैशाली हैं। तुम भी छोटे—मोटे नहीं हो, तुम भी एक बड़े नगर हो। एक—एक व्यक्ति एक—एक नगर है।
हमारे पास जो शब्द है पुरुष, वह बहुत बहुमूल्य है। पुरुष उसी से बना है जिससे पुर—नगर। पुरुष का मतलब होता है, तुम एक पूरे नगर हो, और तुम्हारे नगर में छिपा हुआ, बसा हुआ मालिक हैं—पुरुष।
वैज्ञानिकों से पूछो तो वे कहते हैं, एक शरीर में कम से कम सात करोड़ जीवाणु हैं। सात करोड़! बंबई छोटी नगरी है। बंबई से समझो कि चौदह गुना ज्यादा। एक शरीर में सात करोड़ जीवाणु हैं। सात करोड़ जीवन। उन सबके बीच में तुम बसे हो। नगर तो हो ही। वैशाली छोटी रही होगी। और इस नगर में जल्दी ही मौत आने वाली है, महामारी आने वाली है। उसके कदम तुम्हारी तरफ पड़ ही रहे हैं। इस बीच अगर तुम्हें कभी भी, कहीं भी भगवत्ता का साथ मिल जाए, किसी भी ऐसे व्यक्ति का साथ मिल जाए जिसके भीतर घटना घट गयी हो, तो उसकी मौजूदगी तुम्हें तुम्हारी गर्त से उठाने लगेगी—सिर्फ मौजूदगी।
सत्संग का अर्थ होता है, गुरु कुछ करता नहीं—करने का यहां कुछ है भी नहीं, किया कुछ जा भी नहीं सकता—लेकिन उसकी मौजूदगी, सिर्फ उसकी उपस्थिति, उसकी तरंगें तुम्हें सोते से जगाने लगती हैं। तुमने देखा न, कोई नाचता हो, तुम्हारे पैर में थाप पड़ने लगती है। कोई हंसता हो, तुम्हारे भीतर हंसी फूटने लगती है। कोई उदास हो, तुम्हारे भीतर उदासी घनी हो जाती है। दस आदमी उदास बैठे हों, तुम जब आए थे तो बड़े प्रसन्न थे, उनके पास बैठ जाओगे उदास हो जाओगे। तुम बड़े उदास थे, दस आदमी बड़े खिलखिलाकर हंसते थे, गपशप करते थे, तुम आए, तुम अपनी उदासी भूल गए, तुम भी हंसने लगे। किसी जागरूक पुरुष के सत्संग में, जो उसके भीतर घटा है, वह तुम्हारे भीतर तरंगित होने लगता है। हम अलग—अलग नहीं हैं, हम एक—दूसरे से जुड़े हैं। हमारे तंतु एक—दूसरे से गुंथे हैं। अगर तुम किसी भी व्यक्ति के साथ हो जाओ, तो जैसा वह व्यक्ति है वैसे तुम होने लगोगे।
इसलिए अपने से छोटे व्यक्तियों का साथ मत खोजना—अक्सर हम खोजते हैं; क्योंकि अपने से छोटे के साथ एक मजा है, क्योंकि हम बड़े मालूम होते हैं। अपने से छोटे के साथ एक रस है, अहंकार की तृप्ति मिलती है। दुनिया में लोग अपने से छोटे का साथ खोजते रहते हैं। अपने से बड़े के साथ तो अड़चन होती है।
तुमने सुना न, ऊंट जब हिमालय के पास पहुंचा तो उसे बड़ा दुख हुआ। उसने हिमालय की तरफ देखा ही नहीं, वह रास्ता बदलकर वापस अपने मरुस्थल में लौट आया। ऊंट को हिमालय के पास बड़ी पीड़ा होती है, क्योंकि ऊंट को पहली दफा पता चलता है कि अरे, मैं कुछ भी नहीं हूं। ऊंट को तो रेगिस्तान जमता है, जहां वह सब कुछ है, सबसे ऊंची चीज है।
अक्सर यह होता है, यह मन की एक बहुत बुनियादी प्रक्रिया है कि हम अपने से छोटे को खोज लेते हैं। यह रोज होता है, सब दिशाओं में होता है। राजनेता अपने से छोटे छुटभइयों को खोज लेते हैं। अपने से छोटे लोगों पर ही अपने अहंकार को बसाया जा सकता है, और कोई उपाय नहीं है।
सत्संग का अर्थ है, अपने से बड़े को खोजना। वह मन की प्रक्रिया के विपरीत जाना है, वह ऊर्ध्वगमन है, वह मन का नियम तोड़ना है। क्योंकि अगर अपने से छोटे को खोजा तो तुम्हारा अहंकार मजबूत होगा, अपने से बड़े को खोजा तो तुम्हारा अहंकार विसर्जित होगा। अपने से बड़े को खोजा तो उसकी दूर जाती हुई किरणें तुम्हें भी दूर ले जाने लगेंगी, उसके भीतर हुआ प्रकाश तुम्हारे भीतर सोए प्रकाश को भी तिलमिला देगा। उसकी चोट तुम्हें जगाएगी—सिर्फ मौजूदगी।
सत्संग अनूठा शब्द है, दुनिया की किसी भाषा में ऐसा कोई शब्द नहीं है, क्योंकि दुनिया में कभी इस बात को ठीक से खोजा ही नहीं गया है जैसा हमने इस देश में खोजा। सत्संग अनूठा शब्द है। इसका मतलब है, सिर्फ उसके साथ हो जाना जिसे सत्य मिल गया हो। सिर्फ उसके पास हो जाना, बैठ जाना—चाहे चुप बैठे रहो तो भी चलेगा—उसके संग—साथ हो लेना; उसके और अपने बीच की दीवालें गिरा देना, अपने ऊपर कोई रक्षा का इंतजाम न करना, अपने हृदय को खोल देना कि अब जो हो हो, उसकी तरंगों को अपने भीतर आने देना, उसकी स्वरलहरी को गंजने देना, धीरे— धीरे तुम उसमें ड़बकी लगा लोगे। उसको अमृत मिला है, तुम्हें भी अमृत की तरफ पहले—पहले अनुभव आने शुरू हो जाएंगे, झरोखा खुलेगा।
मृत्यु पर तो अमृत की ही विजय हो सकती है। फिर जल भी बरसा, फिर वृक्षों में पत्ते आए; फिर फूल खिले, जहां फूल खिलने बंद हो गए थे, जहां जीवन सूखा जा रहा था वहा नए पल्लव लगे।
एक जीवन है बाहर का और एक जीवन है भीतर का, सत्संग की वर्षा हो जाए तो भीतर के जीवन में फूल आने शुरू होते हैं। वे ही फूल वास्तविक फूल हैं, क्योंकि वे टिकेंगे, उनकी सुगंध सदा रहेगी, सुबह खिले सांझ मुर्झा गए ऐसे फूल नहीं, खिले तो खिले, फिर मुर्झाते नहीं।
इस कथा को दोनों तल पर समझना।
लोग अति प्रसन्न थे। और भगवान ने जब वैशाली से विदा ली तो लोगों ने महोत्सव मनाया था। उनके हृदय आभार और अनुग्रह से गदगद थे। और तब किसी भिक्षु ने भगवान से पूछा—यह चमत्कार कैसे हुआ? लोगों का दुख मिट गया है, लोग शांत हुए हैं, लोगों की मृत्यु से दृष्टि हट गयी, महामारी विदा हो गयी, सूखे वृक्षों पर पत्ते आ गए हैं, जिन्होंने कभी जीवन का रस न जाना था उनमें जीवन की रसधार बही, यह चमत्कार कैसे हुआ?
लोग अति प्रसन्न थे। यद्यपि और बहुत कुछ हो सकता था, लेकिन दुख में पुकारों तो इतना ही हो सकता है। इससे ज्यादा हो सकता था, अगर सुख में पुकारते। जब दुखी थे तो भगवान को ले आए थे, जब सुखी हो गए तो रोकना न चाहा। तब रोक लेना था, कहते कि अब कहां जाते हैं! अब तो न जाने देंगे। जिससे दुख में इतना मिला था, काश उसे रोक लेते सुख में भी, तो फिर सब कुछ मिल जाता! लेकिन सोचा होगा, बात तो पूरी हो गयी, अब क्यों रोकना? अब क्या प्रयोजन? सुख आया कि फिर हम फिर भूलने लगते हैं, फिर हम विदा देते हैं। हम कहते हैं, अब जब जरूरत होगी तब फिर याद कर लेंगे। हम भगवान का भी उपयोग करते हैं। और यह भगवान का उपयोग बडा छोटा है। यह तो ऐसे ही है जैसे कोई तलवार से एक चींटी को मारे। चींटी को मारने के लिए तलवार की क्या जरूरत है?
भगवान की मौजूदगी से सिर्फ दुख मिटे, तो यह तुमने तलवार का उपयोग चींटी मारने के लिए किया। चींटी तो बिना ही तलवार के मारी जा सकती थी।
यहां मेरी दृष्टि तुम्हें समझा देना चाहता हूं। इसलिए मैं विज्ञान का पक्षपाती हूं। मैं कहता हूं यह काम तो विज्ञान से हो सकता है, इसके लिए धर्म की कोई जरूरत नहीं। बीमारी तो विज्ञान से दूर हो सकती है, दरिद्रता तो विज्ञान से दूर हो सकती है, विक्षिप्तता तो विज्ञान से दूर हो सकती है, देह की और मन की आधियां और व्याधियां तो विज्ञान से दूर हो सकती हैं, इसके लिए धर्म की कोई जरूरत नहीं है। धर्म की तो तब जरूरत है जब विज्ञान अपना काम पूरा कर चुका, तुम सब भांति सुखी हो, अब महासुख चाहिए। इसलिए मैं विज्ञान का पक्षपाती हूं। तो मैं मानता हूं विज्ञान का कुछ काम है।
मेरे पास लोग आ जाते हैं, वे कहते हैं कि लड़के को नौकरी नहीं मिलती, कि पत्नी बीमार है, कि बेटी को वर नहीं मिल रहा है, आप कुछ करें। मैं कहता हूं कि इन बातों का इंतजाम तुम खुद ही कर ले सकते हो, कर ही लोगे, कुछ न कुछ हो ही जाएगा, इन बातों के लिए मेरे पास मत आओ। कुछ और बड़ा नहीं खोजना है? कुछ और विराट की दिशा में यात्रा नहीं करनी है?
गांव के लोग प्रसन्न थे, अति प्रसन्न थे। बहुत छोटा ही पाया था, शुरुआत ही हुई थी यात्रा की, लेकिन बुद्ध को उन्होंने रोका नहीं।
बुद्ध के भिक्षुओं ने पूछा होगा किसी ने राह में जाते वक्त—यह चमत्कार कैसे हुआ? भगवान ने कहा—भिक्षुओ, बात आज की नहीं है।
बुद्ध बड़े वैज्ञानिक हैं। वह प्रत्येक चीज की श्रृंखला जोड़ते हैं। विज्ञान का अर्थ होता है, कार्य —कारण का नियम। अगर वृक्ष है, तो बीज रहा होगा। अगर बीज था, तो पहले भी वृक्ष रहा होगा। अगर वृक्ष था, तो उसके भी पहले बीज रहा होगा। एक चीज से दूसरी चीज पैदा होती है, सब चीजें संयुक्त हैं, कार्य—कारण का जाल फैला हुआ है। यहां अकारण कुछ भी नहीं होता, सब सकारण है। बुद्ध का इस पर बहुत जोर था। इस सकारण होने की धारणा का ही नाम कर्मवाद है।
तो बुद्ध से जब भी कोई कुछ पूछता है तब वह तत्‍क्षण श्रृंखला की बात करते हैं। वे कहते हैं, किसी कृत्य को आणविक रूप से मत लेना, एटामिक मत लेना, कोई कृत्य अपने में पूरा नहीं है, उस कृत्य का जोड़ कहीं पीछे है और कहीं आगे भी। तो बुद्ध ने कहा—बात आज की नहीं है। बीज बहुत पुराना है, वृक्ष जरूर आज हुआ है।
जब भी बुद्ध के शिष्य उनसे पूछते हैं उनके संबंध में कोई बात, वह उन्हें अपने अतीत जीवनों में ले जाते हैं। वह बड़ी गहरी खोज करते हैं कि कहां से यह संबंध जुड़ा होगा, कैसे यह घटना शुरू हुई होगी। बीज से ही शुरुआत करो तो ही वृक्ष को समझा जा सकता है। कारण को ठीक से समझ लो तो कार्य समझा जा सकता है। सूक्ष्म को ठीक से समझ लो तो स्थूल समझा जा सकता है। क्योंकि सारे स्थूल की प्रक्रियाएं सूक्ष्म में छिपी हैं।
वृक्ष जरूर आज हुआ है, बुद्ध ने कहा। मैं पूर्वकाल में शंख नामक ब्राह्मण होकर प्रत्येक बुद्धपुरुष के चैत्यों की पूजा किया करता था।
प्रत्येक बुद्धपुरुष की! ऐसा कोई हिसाब न रखता था कि कौन जैन, कौन हिंदू कौन अपना, कौन पराया, कौन श्रमण, कौन ब्राह्मण, ऐसी कर्हे चिंता न रखता था। जो भी जाग गए हैं, उन सभी की पूजा करता था। गांव में जितने मंदिर थे, सभी पर फूल चढ़ा आता था। ऐसी निष्पक्ष भाव से मेरी पूजा थी। कुछ बहुत बड़े काम न था। लेकिन, बुद्ध ने कहा, उसका ही जो बीज मेरे भीतर पड़ा रहा, उससे ही चमत्कार हुआ है। वह जो निष्पक्ष भाव से पूजा की थी, वह जो निष्कपट भाव से पूजा की थी, अपना—पराया न देखा था, वही बीज खिलकर आज इस जगह पहुंच गया है कि मैं अमृत को उपलब्ध हुआ हूं। और जिनका मुझसे साथ हो जाता है, जो मुझे किसी भी कारण पुकार लेते हैं अपने पास, उनको भी अमृत की झलक मिलने लगती है, उनके जीवन से भी मृत्यु विदा होने लगती है।
मैं प्रत्येक बुद्धपुरुष के चैत्यों की पूजा किया करता था। और यह जो कुछ हुआ, उसी के विपाक से हुआ है। जो उस दिन किया था वह तो अल्प था, अत्यल्प था, लेकिन उसका ऐसा महान फल हुआ है। बीज तो होते भी छोटे ही हैं। पर इससे पैदा हुए वृक्ष, छोटे से बीज से पैदा हुए वृक्ष आकाश के साथ होड़ लेते हैं। थोड़ा सा त्याग भी, अल्पमात्र त्याग भी महासुख लाता है।
कुछ बड़ा मैंने त्याग भी न किया था उस जन्म में, इतना ही त्याग किया था, अपना—पराया छोड़ दिया था। सभी जाग्रतपुरुषों को बेशर्त आदर दिया था।
समझते हो, यह धार्मिक आदमी का लक्षण है। छोटा मत समझना इसे, बुद्ध कितना ही कहें कि अल्पमात्र, यह छोटा नहीं है। तुम मस्जिद के सामने से ऐसे ही गुजर जाते हो जैसे मस्जिद है ही नहीं। तुम गुरुद्वारे के सामने से ऐसे निकल जाते हो जैसे गुरुद्वारा है ही नहीं। अगर तुम मुसलमान हो तो हिंदू का मंदिर तुम्हें दिखायी नहीं पड़ता। अगर तुम हिंदू हो तो जैन का मंदिर तुम्हें दिखायी नहीं पड़ता। यह धार्मिक होने का लक्षण न हुआ। यह तो राजनीति हुई। यह तो समूह और संप्रदाय और धारणा और सिद्धात से बंधे होना हुआ।
धार्मिक व्यक्ति को तो जहां भी दीए जले हैं, जिसके भी दीए जले हैं, वे सभी दीए परमात्मा के हैं। फिर नानक का दीया जला हो गुरुद्वारे में तो कोई फर्क नहीं पड़ता, वहा भी झुक आएगा। फिर राम का दीया जला हो राम के मंदिर में, वहा भी झुक आएगा। फिर कृष्ण का दीया हो, वहां भी झुक आएगा। फिर मोहम्मद का दीया हो, वहां भी झुक आएगा। धार्मिक व्यक्ति ने तो एक बात सीख ली है कि जब भी कहीं कोई दीया जलता है तो परमात्मा का ही दीया जलता है।
बुझे दीए संसार के, जले दीए भगवान के। बुझे बुझों में भेद होगा, जले जलों में कोई भेद नहीं है। बुझा दीया एक तरह का, दूसरा बुझा दीया दूसरे तरह का! मिट्टी अलग होगी, कोई चीनी का बना होगा, कोई लोहे का बना होगा, कोई सोने का बना होगा, कोई चांदी का बना होगा। स्वभावत:, मिट्टी के दीए और चांदी के दीए में बडा फर्क है। लेकिन जब ज्योति जलेगी तो ज्योति कहीं चांदी की होती है, कि सोने की होती है, कि मिट्टी की होती है! ज्योति तो सिर्फ ज्योति की होती है। ज्योति को जो देखेगा, उसको तो सभी जले दीयों में एक ही ज्योति का निवास दिखायी पड़ेगा। एक ही सूरज उतर आया है, एक ही किरण प्रविष्ट हो गयी है।
इसको बुद्ध तो कहते हैं अल्प, लेकिन मैं न कहूंगा अल्प। क्योंकि यह अल्प भी हो नहीं रहा है। लोग सोचकर जाते हैं, अपना मंदिर, अपना गुरु, अपना शास्त्र। दूसरे का मंदिर तो मंदिर ही नहीं है। दूसरे के मंदिर में जाना तो पाप। ऐसे शास्त्र हैं इस देश में…।
जैन—शास्त्रों में लिखा है—ऐसा ही हिंदू —शास्त्रों में भी लिखा है—कि अगर कोई पागल हाथी तुम्हें रास्ते पर मिल जाए, जैन—शास्त्र कहते हैं, और तुम मरने की हालत में आ जाओ, और पास में ही हिंदुओं का देवालय हो, तो हाथी के पैर के नीचे मर जाना बेहतर, लेकिन हिंदुओं के देवालय में शरण मत लेना। ऐसा ही हिंदू के शास्त्र भी कहते हैं—ठीक यही का यही। पागल हाथी के पैर के नीचे दबकर मर जाना बेहतर है, लेकिन जैन—मंदिर में शरण मत लेना। अगर जैन—मंदिर के पास से निकलते हो और जैन—गुरु कुछ समझा रहा हो तो अपने कानों में अंगुलियां डाल लेना, सुनना मत।
ये धार्मिक आदमी के लक्षण हैं? तो फिर अधार्मिक के क्या लक्षण होंगे?
बुद्ध कहते हैं—कुछ और मेरी विशिष्टता न थी, जब मैं शंख नामक ब्राह्मण था किसी जन्म में, तो मेरी इतनी ही विशिष्टता थी—छोटी ही समझो, बीजमात्र— कि मैं सभी बुद्धपुरुषों को नमस्कार करता था, सभी चैत्यों में जाता, सभी शिवालयों में जाता और प्रार्थना कर आता था, पूजा कर आता था। मैंने कोई भेदभाव न रखा था। उस अभेद दृष्टि से यह धीरे— धीरे बीज फैला।
जो अभेद को देखेगा, वह एक दिन अभेद को उपलब्ध हो जाएगा। जिसने मिट्टी के दीयों का हिसाब रखा, वह दीयों में ही पड़ा रहेगा। जिसने ज्योति देखी, वह एक दिन ज्योतिर्मय हो जाएगा। तुम जो देखते हो वही हो जाते हो। दृष्टि एक दिन तुम्हारे जीवन की सृष्टि हो जाती है।
तो बुद्ध कहते हैं, आज यह जो चमत्कार हुआ, इसका बीज बड़ा छोटा है। अब समझना। मैंने इसलिए कहा कि दो तल पर यह कथा है। एक तल पर तो बुद्ध का आना महामारी से भरी हुई वैशाली में, वह एक तल है। फिर दूसरा तल है, भिक्षुओं का बुद्ध से पूछना। बुद्ध कोई अवसर नहीं चूकते। उन्होंने अपने भिक्षुओं को भी संदेश दे दिया कि कैसा भाव होना चाहिए। अगर कभी तुम अमृत को उपलब्ध करना चाहते हो, मृत्यु के विजेता होना चाहते हो, वस्तुत: जिन होना चाहते हो, तो भेद मत करना। सभी बुद्धपुरुष, सभी जाग्रतपुरुष एक ही सत्य को उपलब्ध हो गए हैं—इस बीज को अपने भीतर जितने गहराई में डाल सको डाल देना। इसी से किसी दिन वृक्ष पैदा होगा, फूल लगेंगे। ठीक समय, ठीक अवसर पर तुम्हारे जीवन में बसंत आ जाएगा। तब न केवल तुम्हारे भीतर बसंत आएगा, तुम जहां से गुजर जाओगे वहा भी बसंत की हवा बहेगी। तुम जिनके साथ खड़े हो जाओगे, उनके भीतर भी ज्योति पैदा होगी। तुम जिनका हाथ पकड़ लोगे, उनका जीवन से छुटकारा होना शुरू हो जाएगा। तुम्हारा जो सहारा पकड़ लेंगे, तुम उनके लिए नाव बन जाओगे।
‘थोड़े सुख के परित्याग से यदि अधिक सुख का लाभ दिखायी दे तो धीरपुरुष अधिक सुख के खयाल से अल्पसुख का त्याग कर दे। ‘
और बुद्ध ने कहा, यह छोटा सा गणित याद रखो कि कभी—कभी ऐसा होता है कि आज हमें लगता है कि इसमें खूब सुख है और हमें यह भी दिखायी पड़ता है कि अगर इसका त्याग कर दें तो कल अनतगुना सुख हो सकता है, लेकिन वह कल होगा, तो हम आज के ही सुख को पकड लेते हैं। कल के अनंत गुने को छोड़ देते हैं। इसलिए हम दीन रह जाते हैं, दरिद्र रह जाते हैं। समझो कि तुम्हारे पास मुट्ठीभर अन्न है, तुम आज खा लो उसे, तो थोड़ा सा सुख मिलेगा। लेकिन अगर तुम इसे बो दो—तो शायद दों—चार महीने प्रतीक्षा करनी पड़ेगी—लेकिन बड़ी फसल पैदा होगी। शायद सालभर के लायक भोजन पैदा हो जाए।
तो बुद्ध कहते हैं, बुद्धिमान कौन है? बुद्धिमान वह है, जो अल्प को छोड़कर विराट को उपलब्ध करने में लगा रहता है। जो जीवन के आत्यंतिक गणित पर सदा ध्यान रखता है कि जो मैं कर रहा हूं इसका अंतिम फल क्या होगा? आज का ही सवाल नहीं है, इसका आत्यंतिक परिणाम क्या होगा?
स्वभावत:, उस दिन जब बुद्ध शंख नाम के ब्राह्मण थे, थोड़ी अड़चन हुई होगी। अगर जैनों के मंदिर में गए होंगे तो हिंदुओं ने कहा होगा, तू वहां क्यों जाता है—ब्राह्मण थें—कष्ट हुआ होगा। अगर हिंदुओं के मंदिर में गए होंगे तो जैनों ने कहा होगा, कि तू तो हमारे मंदिर में आता है, अब वहां क्यों जाता है? कष्ट हुआ होगा। गाव में शायद पागल समझे जाते होंगे।
तुम जरा सोचो कि तुम सब मंदिर—मस्जिद में जाकर नमस्कार करने लगो, लोग समझेंगे दिमाग खराब हो गया। जिनका दिमाग खराब है, वे समझेंगे कि तुम्हारा दिमाग खराब हो गया। कष्ट हुआ होगा। प्रतिष्ठा गंवायी होगी। लोगों ने पागल समझा होगा।
लेकिन बुद्ध कहते हैं, वह छोटा सा त्याग था, क्या फर्क पड़ता है कि लोगों ने पागल समझा! क्या फर्क पड़ता था अगर लोग समझते कि मैं पागल नहीं हूं! कुछ भी फर्क नहीं पड़ता था। लेकिन उसका जो परिणाम हुआ, व्यापक है।
जब गंगा पैदा होती है तो बूंद—बूंद पैदा होती है। गोमुख से गिरती है गंगोत्री, तुम अपनी मुट्ठी में सम्हाल ले सकते हो। फिर रोज बड़ी होती जाती है, बड़ी होती जाती है। जब गंगा सागर में गिरती है तब तुम विश्वास भी न कर सकोगे कि यह वही गंगा है जो गोमुख से गिरती है। जो गंगोत्री में बूंद—बूंद टपकती है, जिसको तुम मुट्ठी में बांध ले सकते थे, यह वही गंगा है? पहचान नहीं आती।
बीज छोटा, वृक्ष बहुत बड़ा हो जाता है। बुद्धिमान व्यक्ति अल्पसुख को छोड़ता चले महासुख के लिए। छोटे को न पकड़े, क्षुद्र को न पकड़े, विराट पर ध्यान रखे। ‘दूसरे को दुख देकर जो अपने लिए सुख चाहता है, वह वैर—चक्र में फंसा हुआ व्यक्ति कभी वैर से मुक्त नहीं होता। ‘
और बुद्ध ने कहा, सुख तो सभी चाहते हैं, मगर सुख की चाह में एक बात खयाल रखना—पहला तो सूत्र कहा, अल्पसुख को छोड़ देना महासुख के लिए; दूसरा सूत्र कहा—यह खयाल रखना कि सुख तो चाहना, लेकिन दूसरे के दुख पर तुम्हारा सुख निर्भर न हो। दूसरे के दुख पर आधारित सुख तुम्हें अंतत: दुख में ही ले जाएगा, महादुख में ले जाएगा।
हम जो जीवन में दुख भोग रहे हैं, वह हमने कभी न कभी उन सुखों की आकांक्षा में पैदा कर लिए थे, जिनके कारण हमें दूसरों को दुख देना पड़ा था। दूसरों के लिए खोदे गए गड्डे एक दिन स्वयं को गिराते हैं।
मैं एक गांव में ठहरा हुआ था। उस रात उस गांव में एक बड़ी अनूठी घटना घट गयी, फिर मैं उसे भूल न सका। छोटा गांव, बस एक ही ट्रेन आती और एक ही ट्रेन जाती, तो दो बार स्टेशन पर चहल—पहल होती। आने वाली ट्रेन दिन को बारह बजे आती, जाने वाली ट्रेन रात को दो बजे। स्टेशन पर भी कुछ ज्यादा लोग नहीं हैं—एक स्टेशन मास्टर है, एकाध पोर्टर है, एकाध और आदमी क्लर्क है। कोई ज्यादा यात्री आते —जाते भी नहीं हैं।
उस रात ऐसा हुआ कि एक आदमी रात की गाड़ी पकड़ने के लिए सांझ स्टेशन पर आया। वह बार—बार अपने बैग में देख लेता था। स्टेशन मास्टर को संदेह हुआ, शक हुआ कि कुछ बड़ा धन लिए हुए है। वह अपने बैग को भी दबाए था, एक क्षण को भी उसे छोड़ता नहीं था। आदमी देखने से भी धनी मालूम पड़ता था। रात दो बजे ट्रेन जाएगी। मन में बुराई आयी। उसने पोर्टर को बुलाकर कहा कि ऐसा कर, दो बजे रात तक कहीं भी इसकी जरा भी झपकी लग जाए—और आठ बजे रात के बाद तो गांव में सन्नाटा हो जाता है, गाव भी कोई दो मील दूर—इसको खतम करना है।
पोर्टर ने कुल्हाड़ी ले ली और वह घूमता रहा कि यह कब सो जाए। मगर वह भी आदमी जागा रहा, जागा रहा, जागा रहा। पोर्टर को झपकी आ गयी। और जब पोर्टर को झपकी आ गयी तो वह आदमी जिस बेंच पर बैठा था उससे उठकर, उसको नींद आने लगी थी तो अपना बैग लेकर वह टहलने लगा प्लेटफार्म पर। इस बीच स्टेशन मास्टर आकर उस बेंच पर लेट गया, जिस पर वह धनी लेटा था। पोर्टर की आंख खुली, देखा कि सो गया, उसने आकर गर्दन अलग कर दी। स्टेशन मास्टर मारा गया। सुबह गांव में खबर आयी। मैं उसे भूल नहीं सका उस घटना को। इंतजाम उसी ने किया था, मारा खुद ही गया।
जीवन में करीब—करीब ऐसा ही हो रहा है। जो दुख तुमने दूसरों को दिए हैं, वे लौट आएंगे। जो सुख तुमने दूसरों को दिए हैं, वे भी लौट आएंगे। दुख भी हजारगुने होकर लौट आते हैं, सुख भी हजारगुने होकर लौट आते हैं।
इसलिए बुद्ध कहते हैं, दूसरा सूत्र याद रखना, सुख बन सके तो दे देना; अगर सुख न दे सको, तो कम से कम दुख मत देना। दूसरों को दुख मत देना। अपना सुख ऐसा बनाना कि तुम पर ही निर्भर हो, दूसरे के दुख पर निर्भर न हो।
फर्क समझो।
एक आदमी धन के इकट्ठे करने में सुख लेता है। निश्चित ही यह कई लोगों का धन छीनेगा। बिना धन छीने धन आएगा भी कहां से? धन बहुत बहुलता से है भी नहीं, न्यून है। धन ऐसा पड़ा भी नहीं चारों तरफ। जितने लोग हैं, उनसे धन बहुत कम है। तो धन छीनेगा तो धन इकट्ठा कर पाएगा। यह आदमी दूसरों को दुख दिए बिना धनी न हो सकेगा। और धन पाने से जो सुख मिलने वाला है, दो कौड़ी का है। और जितना दुख दिया है, उसके जो दुष्परिणाम होंगे, अनंत समय तक उसकी जो प्रतिक्रियाएं होंगी, वे बहुत भयंकर हैं।
एक दूसरा आदमी ध्यान में सुख लेता है। ध्यान और धन में यही खूबी है। ध्यान जब तुम करते हो तो तुम किसी का ध्यान नहीं छीनते। तुम्हारा ध्यान बढ़ता जाता है, किसी का ध्यान छिनता नहीं।
तो बुद्ध कहेंगे, अगर ध्यान और धन में चुनना हो तो ध्यान चुनना, यह अप्रतियोगी है, इसकी किसी से कोई स्‍पर्धा नहीं है। और तुम्हारा आनंद बढ़ता जाएगा। और आश्चर्य की बात यह है कि तुम जितने आनंदित होते जाओगे अनायास तुम दूसरों को भी आनंद देने में सफल होने लगोगे, समर्थ होने लगोगे।
जो है, उसे हम बांटते हैं। दुखी आदमी दुख देता है, सुखी आदमी सुख देता है —देना ही पड़ेगा। जब फूल खिलेगा और गंध निकलेगी तो हवाओं में बहेगी ही। जब तुम्हारा ध्यान सघनीभूत होगा, तो तुम्हारे चारों तरफ गंध उठेगी। सुख दोगे तो सुख मिलेगा। ऐसा सुख खोजना जो किसी के दुख पर आधारित न होता हो, यही बुद्ध की मौलिक शिक्षा है।
और फिर अल्प भी सुख मिले आज, अल्प भी शायद छोड़ना पड़े कल के महासुख के लिए, तो उसे भी छोड़ देना। अल्प मिले तो अल्प ले लेना, अल्प छोड़ना पड़े तो छोड़ देना, मगर एक खयाल रखना—जीवन का पूरा विस्तार खयाल रखना। चीजें एक —दूसरे से संयुक्त हैं। अंतिम परिणाम क्या होगा, उस पर ध्यान रहे। और ऐसा सुख कमाना, जो तुम्हारा अपना हो, जिसके लिए दूसरे को दुखी नहीं करना पड़ता है।
अब एक आदमी को राजनेता बनना है, तो उसे दूसरों को दुखी करना होगा। अब इंदिरा और मोरारजी दोनों साथ—साथ सुखी नहीं हो सकते, इसका कोई उपाय नहीं है। कोई न कोई दुखी होगा।
तो बूद्ध कहते हैं, ऐसी दिशा में मत जाना, जहां किसी को बिना दुखी किए तुम सुखी हो ही न सको। हजार और उपाय हैं जीवन में आनंदित होने के।
अब एक आदमी बांसुरी बजाता हो, तो इससे किसी का कुछ लेना—देना नहीं है, यह अपने एकांत में बैठकर बांसुरी बजा सकता है। एक आदमी नाचता हो, यह एकांत में नाच सकता है। एक आदमी ध्यान करता हो, यह एकांत में ध्यान कर सकता है। इसका किसी से कुछ लेना—देना नहीं है।
ऐसे सुख खोजना जो निजी हैं। और ऐसे बहुत सुख हैं जो निजी हैं। वस्तुत: वे ही सुख है’। क्योंकि दूसरे को दुखी कर कैसे सुखी होओगे? कैसे सुखी हो सकते हो? पूरे वक्त पीड़ा भीतर बनी रहेगी कि दूसरे को दुख दिया है, बदला आता होगा प्रतिकार होकर रहेगा, दूसरा भी क्षमा तो नहीं कर देगा।
इसलिए बुद्ध कहते हैं, वैर—चक्र पैदा हो जाता है; विशियस सर्किल पैदा हो जाता है, दुष्ट—चक्र पैदा हो जाता है। तुम दूसरे को दुख देते हो, दूसरा तुम्हें दुख देने को आतुर हो जाता है। फिर इस श्रृंखला का कहीं कोई अंत नहीं है।
महासुख के लिए अल्प को छोड़ देना, बड़े के लिए छोटे को छोड़ देना, शाश्वत के लिए क्षणभंगुर को छोड़ देना; और ऐसा सुख खोजना जो तुम्हारा अपना हो, जिसके लिए दूसरे पर निर्भर नहीं होना पड़ता है, तब तुम स्वतंत्र हो गए। यही मुक्त जीवन की आधारशिला है।
दूसरा सूत्र, द्वितीय दृश्य—
मन के मार्ग अति सूक्ष्म हैं। संसार के छोड़ने में ही मन नहीं छूटता है। मन संसार का मूल है, संसार मन का मूल नहीं है। संसार छोड़ना हो तो फूल—पत्ते तोड्ने जैसा है, और जड़ें तो इससे नष्ट नहीं होती हैं। हां, जड़ें उखाड़ फेंक देने पर निश्चय ही संसार वृक्ष अपने आप सूख जाता है। मन है जड़ संसार की, इसलिए मन से मुक्ति ही वास्तविक संन्यास है।
भगवान के जात्यावन नामक विहार में विहरते समय की घटना है। कुछ भिक्षु भिक्षापात्रों को सुंदर बनाने या वस्त्रों पर नाना बेल— बूटे निकालने या नाना प्रकार की पादुकाएं रचने उन पर पच्चीकारी करने या इसी तरह के कामों में संलग्न रहते थे। उन्हें ध्यान— भावना का समय ही नहीं था। और समय भी हो तो ध्यान का तो वे जैसे विस्मरण ही कर बैठे थे।
इस बात की खबर भगवान को मिली। उन्होंने उन भिक्षुओं को खूब डांटा। वे उन्हें डांटते समय अति कठोर थे। वह करुणा का ही रूप है। गुरु का प्रयोजन ही यही है कि वह चेताए फिर चेताए और फिर— फिर चेताए। उन्होंने उन भिक्षुओं से कहा— किसलिए आए हो और क्या कर रहे हो! आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास! क्या इसीलिए भिक्षु— जीवन स्वीकार किया था? सुंदर पादुकाएं बनाने के लिए? वस्त्रों पर बेल— बूटे काखने के लिए? फिर संसार में ही क्या बुराई थी? मन के जाल को समझो भिक्षुओ! मन के सूक्ष्म खेल समझो भिक्षुओ! एक पल को भी लक्ष्य को विस्मृत मत करो। सोते— जागते उठते— बैठते होश रखो भिक्षुओ! तो ही समय पाकर अनुकूल ऋतु में निर्वाण की फसल काट सकोगे। ध्यान नहीं बोया तो निर्वाण की फसल भी हाथ लगने वाली नहीं है। फिर पछताओगे। और फिर पछताए होत का जब चिडिया चुग गयी खेत। अभी समय है अभी कुछ कर लो। और तब उन्होंने ये गाथाएं कहीं—
यं ही किच्चं तदपविद्धं अकिच्चं पन कयिरति।
उन्नलानं पमत्तानं तेसं बड्ढंति आसवा ।।
‘जो करने योग्य है उसको तो छोड़ देता है, लेकिन जो न करने योग्य है उसे करता है, ऐसे उमड़ते मलों वाले प्रमादियो के आसव बढते हैं।’
येसज्च सुसमारद्धा निच्चं कायगतासति ।
अकिन्चन्ते न सेवंति किच्चे सातच्‍चकारिनो
सतानं संपजानान हंत्वा गच्छंति आसवा ।।
‘जिन्हें नित्य कायगता—स्मृति उपस्थित रहती है, वे अकर्तव्य को नहीं करते और कर्तव्‍य का से कभी नहीं चूकते हैं। उन स्मृतिवान और संप्रज्ञावान पुरुषों के आसव अस्त हो जाते हैं।’
ऐसा निरंतर होता है। तुम बाहर के रूप तो बदल लेते हो, लेकिन भीतर की वृति नहीं बदलती। बाहर के ढंग बदलना तो बहुत आसान है, असली बात तो भीतर के ढंग बदलने की है। इसका यह भी अर्थ नहीं कि बाहर के ढंग मत बदलो। बाहर के ढ़ंग इसलिए बदलों ताकि भीतर के ढंग बदलने में सहारा मिले। लेकिन भूलकर भी यह मत समझना कि बाहर का ढंग बदल लिया तो भीतर के ढंग अपने आप बदल गए।
ना ब कोई भिक्षु होंगे, संन्यस्त हो गए। जब संन्यस्त न हुए होंगे तो सुंदर वस्त्र पहनते होंगे, पोशाक पहनते होंगे, कीमती जूते पहनते होंगे, रास्तों पर अकड़कर चलते होंगे, इत्र—खुशबूएं अपने वस्त्रों पर छिडकते होंगे, मोहक, सुंदर होने की चेष्‍टा करते होंगे। संन्यस्त हो गए, लेकिन अब भी चेष्टा जारी है, नए ढंग से जारी है। अब कुछ और नहीं है उनके पास, भिक्षापात्र है, तो भिक्षापात्र में ही खुदाई कर—कर के उसे सुंदर बना रहे हैं, उसमें ही कंकड़—पत्थर लगाकर सुंदर बना रहे हैं। अब कुछ नहीं है, लकड़ी की पादुकाएं हैं, तो उन पादुकाओं को भी सुंदर बनाने की चेष्‍टा में लगे हैं। अब कुछ बचे नहीं हैं, तीन चीवर हैं, तीन वस्त्र हैं, मगर उन पर भी कसीदा तो किया ही जा सकता है, उनको भी सुंदर तो बनाया ही जा सकता है। वह पुराना मन अभी भी पीछा कर रहा है।
इससे फर्क नहीं पड़ता, तुम सोने —चांदी के आभूषण पहनो, या जाकर जंगल के पतों के आभूषण बना लो और उनको पहन लो, इससे कोई फर्क नहीं पडता, आभुषण पहनने की आकांक्षा वाला मन तो वही का वही है।
मैं मोहक दिखूं, यह वासना क्यों पैदा होती है? यह इसलिए पैदा होती है कि कोई मुझे मोहक जाने, कोई मुझमें आकर्षित हो, कोई मुझमें आसक्त हो, कोई मुझे पाने योग्य, चाहने योग्य माने। तो इसका अर्थ साफ है कि तुम किसी को पाने में लगे हो, तुम किसी को अपने में उलझाने में लगे हो।
संसार में तो ठीक है कि तुम बन—संवरकर निकलते हो रास्ते पर, लेकिन भिक्षु बन—संवरकर निकले तो फिर बात गलत हो गयी। बात इसलिए गलत हो गयी कि भिक्षु होने का अर्थ ही यही था कि अब मुझे और आसक्ति के जाल नहीं फैलाने हैं। बहुत हो चुका। मैंने देख लिया कि आसक्ति से सिवाय दुख के कुछ भी नहीं मिलता है। तो अब मुझमें कोई आसक्त हो, इसकी मैं कोई योजना न करूंगा। मुझे लोग देखें, इसकी चेष्टा न करूंगा। मैं ऐसे निकल जाऊंगा जैसे निकला ही नहीं। कोई मुझे देखे न, कोई मुझमें उत्सुक न हो, मैं चुपचाप ऐसे निकल जाऊंगा जैसे था ही नहीं। ऐसे चुपचाप जीने जो लगता है, वही संन्यासी है। दूसरा मुझे पकड़े, दूसरा मुझे समझे मूल्यवान, दूसरा मुझमें उत्सुक हो, दूसरा मुझसे सम्मोहित हो, इसके पीछे वासना ही छिपी है, ताकि मैं दूसरे का भोग कर सकूं।
लोग बड़ी उलटी वासनाओं से भरे हैं। स्त्रियां घर में बैठी रहती हैं भूत—प्रेत बनीं, घर से बाहर जाती हैं, खूब सज—संवर जाती हैं, फिर जवान हो जाती हैं। सौ प्रतिशत सौंदर्य में नब्बे प्रतिशत तो प्रसाधन से होता है, दस प्रतिशत शायद स्वाभाविक होता हो। और वह जो दस प्रतिशत स्वाभाविक होता है, उसको नब्बे प्रतिशत की जरूरत भी नहीं होती। नब्बे प्रतिशत की जरूरत तो वह जी दस प्रतिशत भी नहीं होता, उसी को छिपाने के लिए होती है। कुरूप व्यक्ति ज्यादा सजता—संवरता है। कुरूप स्त्री ज्यादा आभूषणों में रस लेती है। परिपूरक करना होता है। जो सौंदर्य से नहीं पूरा हो रहा है, उसे किसी और चीज से पूरा कर देना है। चेहरा तो सुंदर नहीं है, तो बालों की शैली बदली जा सकती है। नाक तो बहुत सुंदर नहीं है, तो हीरे की नथ पहनी जा सकती है। नाक न दिखायी पड़ेगी फिर, जब दूसरा आदमी देखेगा तो उसे हीरा चमकता हुआ दिखायी पड़ेगा। और हीरे की ओट में नाक सुंदर हो जाएगी। जैसे ही स्त्रियां बाहर निकलती हैं, खूब सज —संवर जाती हैं—वही पुरुष भी करते हैं —फिर अगर कोई धक्का मार दे स्त्री को, या कंकड़ फेंक दे, या एक फिल्मी गाना गा दे, तो वह नाराज होती है। और आयोजन यही करके निकली है। इसको मैं कहता हूं विरोधाभासी चित्त की दशा।
मैं एक विश्वविद्यालय में शिक्षक था। एक दिन बैठा था प्रिंसिपल के कमरे में, कुछ बात करता था, कि एक युवती आयी और उसने शिकायत की कि किसी ने उसे कंकड़ मार दिया। मैं बैठा था तो प्रिंसिपल ने मुझसे कहा कि अब आप ही बताइए क्या करें? यह रोज का उपद्रव है! मैंने उस लड़की की तरफ देखा, मैंने कहा, कंकड़ कितना बड़ा था? उसने कहा, जरा सा था। मैंने कहा, उसने जरा सा मारा यही आश्चर्य है, तुझे बडी चट्टान मारनी थी! तू इतनी सज—संवरकर आयी है, उसने कंकड़ मारा यह बात जंचती नहीं ठीक! इतने सज—संवरकर विश्वविद्यालय आने की जरूरत क्या थी? यहां कोई सौंदर्य —प्रतियोगिता हो रही है? इतने चुस्त कपड़े पहनकर, इतने आभूषण लादकर, इतने बालों को संवारकर, यहां तू पढने आयी है या किसी बाजार में!
फिर मैंने उस युवती से पूछा कि मैं एक बात और पूछना चाहता हूं तू किसी दिन इतना सज —संवरकर आए और कोई कंकड़ न मारे, तो तेरे मन को दुख होगा कि सुख? पहले तो वह बहुत चौंकी मेरी बात से, फिर सोचने भी लगी, फिर उसने कहा कि शायद आप ठीक ही कहते हैं। क्योंकि मैंने देखा विश्वविद्यालय में जिन लड़कियों के पीछे लोग कंकड़—पत्थर फेंकते हैं, वे दुखी हैं—कम से कम दिखलाती हैं कि दुखी है—और जिनके पीछे कोई कंकड़—पत्थर नहीं फेंकता, वे बहुत दुखी हैं, महादुखी हैं कि कोई कंकड़—पत्थर फेंकने वाला मिलता ही नहीं। कोई चिट्ठी—पत्री भी नहीं लिखता। जिनको चिट्ठी—पत्री लिखी जाती है वे शिकायत कर रही हैं और जिनको चिट्ठी पत्री नहीं लिखी जाती वे शिकायत कर रही हैं। मन बड़ा विरोधाभासी है।
लेकिन संसार में ठीक है, संसार विरोधाभास है। वहां हम कुछ चाहते हैं, कुछ दिखलाते है। कुछ दिखलाते हैं, कुछ और चाहते हैं। अगर तुम अपने मन को देखोगे तो बड़े चकित हो जाओगे कि तुमने कैसे सूक्ष्म जाल बना रखे हैं। तुम निकलते इस ढंग से हो कि प्रत्येक व्यक्ति तुम में कामातुर हो जाए, और अगर कोई कामातुर हो जाए तो तुम नाराज होते हो। आयोजन उसी का करते हो, फिर जब सफलता मिल जाए तब तुम बड़े बेचैन होते हो। और सफलता करने के लिए घर से बड़ी व्यवस्था। करके नकले थे। अगर कोई न देखे तुम्हें, रास्ते से तुम अपना सारा सौंदर्य—प्रसाधन करके नकल गए और किसी ने भी नजर न डाली, तो भी तुम उदास घर आओगे कि बात क्या है? मामला क्या है? लोग क्या मुझमें उत्सुक ही नहीं रहे?
दूसरे की उत्सुकता अहंकार का पोषण है। तुम्हें अच्छा लगता है जब दूसरे लोग उत्‍सुक होते हैं, तुम मूल्यवान मालूम होते हो। जिनके भीतर कोई मूल्य नहीं है, वे इसी मूल्य का अपने लिए धोखा पैदा करते हैं। दूसरे लोग उत्सुक हैं, जरूर मूल्‍यवान होना चाहिए। इतने लोगों ने मेरी तरफ आंख उठाकर देखा, जरूर मुझमें कुछ खूबी होनी चाहिए। तुम्हें खुद अपनी खूबी का कुछ पता नहीं है—है भी नहीं खूबी—एक झूठा भरोसा इससे मिलता है कि अगर खूबी न होती तो इतने लोग मुझसे उत्‍सुक क्यों होते? जरूर मैं सुंदर होना चाहिए, नहीं तो इतने लोग उत्सुक हैं! तुम्‍हें अपने सौंदर्य पर खुद तो कोई आस्था नहीं है, तुम दूसरों के मंतव्य इकट्ठे करते हो। मगर संसार में ठीक। संसार पागलों की दुनिया है।
बुद्ध ने संसारी को कुछ भी न कहा होता। लेकिन संन्यस्त हो जाने के बाद ये भिक्षु नाना प्रकार के आयोजन करते थे—पादुका सम्हालते, सजाते, वस्त्रों पर कसीदा निकालते। भिक्षापात्र! आदमी का मन कैसा है? भिक्षापात्र का मतलब ही यह होता कि अब मैं आखिरी जगह खड़ा हो गया, अब मुझे प्रथम खड़े होने की इच्‍छा ही नहीं। वह तो भिक्षापात्र का प्रतीक है, कि मैं अब अंतिम. हो गया, भिक्षु हो गया, भिखारी हो गया, अब मुझे कोई सम्राट होने का आकर्षण नहीं है, अब मैं प्रथम नहीं होना चाहता, मैं प्रतियोगिता से हट गया। प्रतियोगिता—त्याग की ही सूचना भिक्षापात्र है, कि मैं दीन—हीन हो गया, अब मैं भीख मांगकर ले लूंगा, दो रोटी मिल जाएं बस बहुत हैं। मगर वह भी भिक्षापात्र को सजाता है, वह भी उस पर बड़ी कारीगरी करता है। उसमें भी झंझट चलती है।
मैं तेरापंथी जैन—मुनियों के एक सम्मेलन में सम्मिलित हुआ, तो वहा जिसके पास जितना सुंदर भिक्षापात्र, जितना कारीगरी से बनाया भिक्षापात्र, वह उतना बड़ा भिक्षु, वह उतना बड़ा मुनि। तेरापंथी बड़ी मेहनत करते हैं, उनका भिक्षापात्र सुंदर होता है, चित्त लुभा जाए इतना सुंदर बनाते हैं।
अब भिक्षापात्र, उसको इतना सुंदर बनाने का क्या प्रयोजन है! पर आदमी ऐसा है कि भीतर तो वही रहता है, वह जहां भी जाएगा वहीं अपने भीतर के लिए कुछ न कुछ उपाय खोज लेगा, मन फिर नए जाल बुनने लगेगा।
तो बुद्ध ने उन्हें बुलाया, उन्हें खूब डांटा। बुद्ध डाटते हों, ऐसा सुनकर हमें हैरानी होती है। और न केवल डांटा, डाटते समय अति कठोर भी थे। यह कठोरता करुणा का ही रूप है। गुरु को कठोर होना ही पड़ेगा, बहुत बार उसे अति कठोर भी होना पड़ेगा। क्योंकि हमारी नींद इतनी गहरी है कि अगर वह न चिल्लाए तो शायद हम सुनेंगे भी नहीं। अगर वह न झकझोरे, तो शायद हम जागेंगे भी नहीं। हमारे सपने मधुर हैं और हम सपनों में बड़े ड़बे हुए हैं।
बुद्ध ने कहा—भिक्षुओ, किसलिए आए हो और क्या कर रहे हो?
तुम्हें ध्यान की फुर्सत ही नहीं है, समय ही नहीं है, तुम तो भूल ही गए कि ध्यान के लिए आए थे। संन्यास का मौलिक लक्ष्य ध्यान है। ध्यान से संन्यास निकलता है, संन्यास से और ध्यान निकलना चाहिए। फिर ध्यान से और संन्यास, फिर और संन्यास से और ध्यान—ध्यान और संन्यास एक—दूसरे को बढ़ाते चले जाएं, तो तुम्हारी गति होती है। ध्यान और संन्यास दो पंख हैं, जिनसे परमात्मा तक पहुंचा जा सकता है। लेकिन ध्यान ही भूल गए तो संन्यास का कोई मूल्य नहीं है।
मन के जाल समझो भिक्षुओं, बुद्ध ने कहा। सोते —जागते, उठते—बैठते होश रखो भिक्षुओ, नहीं तो पीछे पछताओगे। अभी समय है, अभी कुछ कर लो।
और तब उन्होंने ये सूत्र कहे, ‘जो करने योग्य है उसको तो छोड़ देता है, लेकिन जो न करने योग्य है उसे करता है!’
भिक्षापात्र पर खुदाई कर रहे हो! कि पादुका पर खुदाई कर रहे हो! तुम्हें होश है, क्या कर रहे हो? यह सारा समय व्यर्थ गया। पादुका यहीं पड़ी रह जाएगी, भिक्षापात्र यहीं पड़े रह जाएंगे। जैसे महल पड़े रह जाएंगे, वैसे ही झोपड़ियां भी पड़ी रह जाएंगी, सब यहीं पड़ा रह जाएगा। कुछ ऐसा कमाओ जो मौत के पार तुम्हारे साथ जा सके। वही करने योग्य है जो मौत के पार साथ जा सके।
‘जो उसे तो करता जो व्यर्थ था और उसे छोड़ देता जो सार्थक था, ऐसे उमड़ते मलों वाले प्रमादियो के आसव बढते हैं। ‘
इससे तो संसार और बड़ा होगा। इससे संसार छोटा नहीं होगा।
‘जिन्हें नित्य कायगता—स्मृति उपस्थित रहती है.। ‘
अपने शरीर का बोध रखो। कायगता—स्मृति बुद्ध के ध्यान का प्रथम चरण है। इसका अर्थ होता है—यह शरीर सुंदर है ही नहीं, लाख उपाय करो तो भी सुंदर न हो सकेगा, सब धोखा है।
बुद्ध ने बत्तीस कुरूपताएं शरीर में गिनायी हैं। इन बत्तीस कुरूपताओं का स्मरण रखने का नाम कायगता—स्मृति है। पहली तो बात, यह शरीर मरेगा। इस शरीर में मौत लगेगी। यह पैदा ही बड़ी गंदगी से हुआ है।
मां के गर्भ में तुम कहां थे, तुम्हें पता है? मल—मूत्र से घिरे पड़े थे। उसी मल—मूत्र में नौ महीने बड़े हुए। उसी मल—मूत्र से तुम्हारा शरीर धीरे— धीरे निर्मित हुआ। फिर बुद्ध कहते हैं कि अपने शरीर में इन विषयों की स्मृति रखे—केश, रोम, नख, दांत, त्वक्, मांस, स्नायु, अस्थि, अस्थिमज्जा, यकृत, क्लोमक, प्लीहा, फुस्फुस, आत, उदरस्थ मल—मूत्र, पित्त, कफ, रक्त, पसीना, चर्बी, लार आदि। इन सब चीजों से भरा हुआ यह शरीर है, इसमें सौंदर्य हो कैसे सकता है!
सौंदर्य तो सिर्फ चेतना का होता है। देह तो मल—मूत्र का घर है। देह तो धोखा है। देह के धोखे में मत पड़ना, बुद्ध कहते हैं। इस बात को स्मरण रखना कि इसको तुम कितने ही इत्र से छिडको इस पर, तो भी इसकी दुर्गंध नहीं जाती। और तुम इसे कितने ही सुंदर वस्त्रों में ढांको, तो भी इसका असौंदर्य नहीं ढकता है। और तुम चाहे कितने ही सोने के आभूषण पहनो, हीरे—जवाहरात सजाओ, तो भी तुम्हारे भीतर की मांस—मज्जा वैसी की वैसी है।
जिस दिन चेतना का पक्षी उड़ जाएगा, तुम्हारी देह को कोई दो पैसे में खरीदने को राजी न होगा। जल्दी से लोग ले जाएंगे, मरघट पर जला आएंगे। जल्दी समाप्त करेंगे। घड़ी दो घडी रुक जाएगी देह तो बदबू आएगी। यह तो रोज नहाओ, धोओ, साफ करो, तब किसी तरह तुम बदबू को छिपा पाते हो। लेकिन बदबू बह रही है। बुद्ध कहते हैं, शरीर तो कुरूप है। सौंदर्य तो चेतना का होता है। और सौंदर्य चेतना का जानना हो तो ध्यान मार्ग है। और शरीर का सौंदर्य मानना हो, तो ध्यान को भूल जाना मार्ग है। ध्यान करना ही मत कभी, नहीं तो शरीर का असौंदर्य पता चलेगा। तुम्हें पता चलेगा, यह शरीर में यही सब तो भरा है। इसमें और तो कुछ भी नहीं है।
कभी जाकर अस्पताल में टंगे अस्थिपंजर को देख आना, कभी जाकर किसी मुर्दे का पोस्टमार्टम होता हो तो जरूर देख आना, देखने योग्य है, उससे तुम्हें थोड़ी अपनी स्मृति आएगी कि तुम्हारी हालत क्या है। किसी मुर्दे का पेट कटा हुआ देख लेना, तब तुम्हें समझ में आएगा कि कितना मल—मूत्र भरे हुए हम चल रहे हैं। यह हमारे शरीर की स्थिति है।
बुद्ध कहते हैं, इस स्थिति का बोध रखो। यह बोध रहे तो धीरे — धीरे शरीर से तादात्म्य टूट जाता है और तुम उसकी तलाश में लग जाते हो जो शरीर के भीतर छिपा है, जो परमसुंदर है। उसे सुंदर करना नहीं होता, वह सुंदर है। उसे जानते ही सौंदर्य की वर्षा हो जाती है। और शरीर को सुंदर करना पड़ता है, क्योंकि शरीर सुंदर नहीं है। कर—करके भी सुंदर होता नहीं है। कभी नहीं हुआ है। कभी नहीं हो सकेगा। तृतीय दृश्य—
यह बहुत अनूठा सूत्र है। बुद्ध के अनूठे से अनूठे सूत्रों में एक। इसे खूब खयाल से समझ लेना।
प्रभातवेला आकाश में उठता सूर्य आम्रवन में पक्षियों का कलरव भगवान जेतवन में विहरते थे। उनके पास ही बहुत से आगंतुक भिक्षु भगवान की वंदना कर एक ओर बैठे थे। उसी समय लव कुंठक भद्दीय स्थविर भगवान से विदा ले कुछ समय के लिए भगवान से दूर जा रहे थे। उन्हें जाते देख भगवान ने उनकी ओर संकेत कर कहा— भिक्षुओ देखते हो इस भाग्यशाली भिक्षु को? वह माता— पिता को मारकर दुखरहित होकर जा रहा है।
माता—पिता को मारकर! वे भिक्षु भगवान की बात सुनकर चौके चौककर एक— दूसरे का मुंह देखने लगे कि भगवान ने यह क्या कहा? माता— पिता को मारकर दुखरहित होकर जा रहा है इस भाग्यशाली भिक्षु को देखो! उन्हें तो अपने कानों पर भरोसा नहीं हुआ! माता— पिता की हत्या से बड़ा तो कोई और पाप नहीं है। भगवान यह क्या कहते हैं? कहीं कुछ चूक है। या तो हम सुनने में चूक गए या भगवान कहने में चूक गए। माता— पिता के हत्यारे को भाग्यशाली कहना यह कैसी शिक्षा है? भगवान होश में हैं?
अत्यंत संदेह और विभ्रम में पड़े उन्होंने भगवान से पूछा— तथागत क्या कह रहे हैं? ऐसी बात न तो आंखों देखी न कानों सुनी। भगवान ने तब कहा— इतना ही नहीं इस अपूर्व भिक्षु ने और भी हत्याएं की हैं और बड़ी सफलता से और बड़ी कुशलता से। हत्या करने में इसको कोई सानी नहीं है। भिक्षुओ तुम भी इससे कुछ सीख लो। तुम भी इस जैसे बनो और तुम भी दुख— सागर के पार हो जाओगे। भिक्षुओं ने कहा—आप कहते क्या हैं! हत्यारे की प्रशंसा कर रहे हैं! और बुद्ध ने कहा— इतना ही नहीं भिक्षुको इसने अपनी भी हत्या कर दी है। यह आत्मघाती भी है। यह बड़ा भाग्यशाली है। और तब उन्होंने ये सूत्र कहे—
मातरं पितरं हंत्या राजानो व खत्तियो।
रट्ठं सानुचरं’ हंत्वा अनीघो याति ब्राह्मणो ।।
मातरं पितरं हंत्वा राजानो द्वे च सोत्थिये ।
वेय्यग्‍धपज्‍चमं हंत्‍वा अनीधो याति ब्राह्माणो ।।
‘माता अर्थात तृष्णा’—बुद्ध कहते हैं, सारे जीवन का जन्म तृष्णा से हुआ है —’माता अर्थात तृष्णा, पिता अर्थात अहंकार, दो क्षत्रिय राजाओं अर्थात शाश्वत दृष्टि और उच्छेद दृष्टि’—आस्तिकता और नास्तिकता— ‘और उनके अनुचरों को’ —सारे शास्त्रीय सिद्धातों को—’और उनके साथ सारे राष्ट्र को’ —आसक्तियों सहित अपने भीतर के सारे संसार कों—’मारकर यह ब्राह्मण निष्पाप हो गया है। ‘माता—पिता, दो श्रोत्रिय राजाओं और व्याघ्रपंचम को मारकर ब्राह्मण निष्पाप हो जाता है। ‘
समझने की कोशिश करें।
तृष्णा को कहा बुद्ध ने मा। तृष्णा है स्त्रैण। इसलिए स्त्रियां ज्यादा तृष्णातुर होती हैं पुरुष की बजाय। स्त्रियों की पकड़ वस्तुओं पर, धन पर, मकान पर बहुत होती है—तृष्णातुर होती हैं। और स्त्रियां ईर्ष्या से बहुत जलती हैं—किसी ने बड़ा मकान बना लिया, किसी ने नयी साड़ी खरीद ली!
तृष्णा स्त्रैण है, अहंकार पुरुष है। पुरुष को कष्ट होता है तभी जब किसी का अहंकार बढ़ता देखने लगे। जब उसके अहंकार को चोट लगती है तब वह बेचैन होता है। वस्तुएं चाहे न हों, मगर प्रतिष्ठा हो। प्रतिष्ठा के लिए सब भी छोड़ने को तैयार होता है पुरुष, मगर प्रतिष्ठा छोड़ने को तैयार नहीं होता। मैं कुछ हूं, ऐसा भाव रहे तो वह सब छोड़ने को तैयार है। भूखा मर सकता है, उपवास कर सकता है—अगर लोगों को खयाल रहे कि यह महातपस्वी है। नंगा खड़ा हो सकता है, धूप —ताप सह सकता है, बस एक बात भर बनी रहे कि यह आदमी गजब का है।
पुरुष की जड़ उसके अहंकार में है। इसलिए स्त्री की जड़ उसकी तृष्णा में है। तृष्णा शब्द भी स्त्रैण है, अहंकार शब्द भी पुरुषवाची है। यह पुरुष का रोग है अहंकार, और तृष्णा स्त्री का रोग है। इन दोनों के मिलन से हम सब बने हैं। न तो तुम पुरुष हो अकेले, न तुम स्त्री हो अकेले। जैसे मां और पिता से तुम्हारा जन्म हुआ—आधा हिस्सा मां ने दिया है तुम्हारे शरीर को, आधा हिस्सा तुम्हारे पिता ने दिया है। कोई पुरुष एकदम शुद्ध पुरुष नहीं है, क्योंकि मां का हिस्सा कहां जाएगा? और कोई स्त्री शुद्ध स्त्री नहीं है, क्योंकि पिता का हिस्सा कहां जाएगा? दोनों का मिलन है। ऐसे ही चित्त बना है तृष्णा और अहंकार से। स्त्रियों में तृष्णा की मात्रा ज्यादा, पुरुषों में अहंकार की मात्रा ज्यादा। भेद मात्रा का है। और दोनों महारोग हैं। और दोनों को मारे बिना कोई दुख से मुक्त नहीं होता।
इसलिए बुद्ध ने बड़ी अजीब बात कही है कि यह अपने माता—पिता को मारकर दुख से मुक्त हो गया है, देखते हैं इस भाग्यशाली भिक्षु को! इसकी तृष्णा भी नहीं रही—यह कुछ पाने को उत्सुक भी नहीं है। और इसका कोई अहंकार भी नहीं रहा—इसकी कोई मैं की घोषणा भी नहीं रही। यह शून्यवत हो गया है। जैसे है ही नहीं। इसने अपने को पोंछ लिया। इसलिए बुद्ध कहते हैं, इतना ही नहीं, इसने अपना भी आत्मघात कर लिया है।
अब खयाल करना, अगर हमारे जीवन की सारी दौड़ अहंकार और तृष्णा से बनी है, तो जिस दिन अहंकार और तृष्णा समाप्त हो जाएगी, उसी दिन हमारा जीवन भी समाप्त हो गया—आत्मघात भी हो गया। इसलिए तो बुद्धपुरुष कहते हैं कि जिस व्यक्ति ने तृष्णा और अहंकार छोड़ दिया, उसका दुबारा जन्म नहीं होगा, वह संसार में फिर नहीं आएगा, उसका फिर पुन: आगमन नहीं है। उसने जीवन का मूलस्रोत ही तोड़ दिया। वह महाजीवन में विराजता। आकाश उसका घर होगा, निर्वाण उसकी नियति होगी।
इतना ही नहीं, बुद्ध कहते हैं, माता—पिता को, दो क्षत्रिय राजाओं को..। यह भी बडी अनूठी बात है। बुद्ध कहते हैं, आस्तिकता और नास्तिकता, ये दो राजा हैं दुनिया में। कुछ लोग आस्तिक बनकर बैठ गए हैं, कुछ लोग नास्तिक बनकर बैठ गए हैं। कुछ के ऊपर आस्तिकता का राज्य है, कुछ पर नास्तिकता का राज्य है। दोनों से मुक्ति चाहिए। क्योंकि जो है, उसे न तो ही से कहा जा सकता, और न ना में कहा जा सकता। जो है वह इतना बड़ा है कि हां और ना में नहीं समाता।
इसलिए बुद्ध से जब कोई पूछता है, ईश्वर है? तब चुप रह जाते हैं। वह कुछ भी नहीं कहते। बुद्ध से कोई पूछता है, आप आस्तिक हैं? तो चुप रह जाते हैं। नास्तिक हैं? तो चुप रह जाते हैं। क्योंकि वह कहते हैं कि अस्तित्व इतना विराट है कि ही और ना की कोटियों में नहीं समाता। ही कहो तो भी गलती हो जाती है, ना कहो तो भी गलती हो जाती है। हां और ना, दोनों इसमें समाहित हैं। कोई कोटियां मन की काम नहीं आती।
इसलिए मन की सारी विभाजक कोटियों से मुक्त हो गया है। दो क्षत्रिय राजाओं को भी इसने मार डाला है।
हम अक्सर विभाजन में पड़े रहते हैं। कभी तुम कहते हो, दुख, कभी तुम कहते हो, सुख, विभाजन हो गया। कभी तुम कहते हो, मैं पुरुष, कभी तुम कहते हो, मैं स्त्री, विभाजन हो गया। जहां—जहां दो का विभाजन है, वहां—वहा तुम मन के प्रभाव में रहोगे। द्वैत यानी मन। और जहां दोनों गिरा दिए, तुम चुप हो गए—मौन यानी मन के पार हो जाना; मौन मन के बाहर हो जाने की स्थिति है, मौन अद्वैत है।
इसने दो राजाओं को मार डाला है। उनके अनुचरों कों भी मार डाला है—सब सिद्धात, सब शास्त्र, सब फिलासफी इसने आग लगा दी है। अब न यह सोचता, न यह विचारता, अब तो यह शून्य निर्विचार में ठहरा है। इसने सारे राष्ट्र को भी मार डाला है। इसने अपने भीतर के सारे संसार को ही उखाड़ डाला है।
खयाल करना, तुम्हारा संसार तुम्हारे पड़ोसी का संसार नहीं है। पत्नी का संसार पति का संसार नहीं है, बेटे का संसार बाप का संसार नहीं है। यहां उतने ही संसार हैं जितने लोग हैं। हर आदमी अपने संसार में रह रहा है। हर आदमी ने अपने मन का विस्तार किया हुआ है, वही उसका संसार है।
बुद्ध कहते हैं, इसने सारे अपने भीतर के जगत को ही जलाकर राख कर दिया। तो यह ब्राह्मण निष्पाप हो गया है।
‘माता—पिता, दो क्षत्रिय राजाओं, व्याघ्रपंचम को मारकर ब्राह्मण निष्पाप हो जाता है।’
पाच शत्रु हैं, जो मनुष्य को काटे डालते हैं। चाहे उनको पचेन्द्रिया कहो, या पांच शत्रु कहो, पांच प्रकार की कामवासनाए कहो, लेकिन पांच शत्रु हैं जो मनुष्य को काटे डालते हैं। यह उन पांचों को भी मारकर.।
हत्या का ऐसा अदभुत अर्थ! स्वभावत:, भिक्षु चौंक गए होंगे जब पहली दफा सुना होगा कि मां—बाप को मारकर यह दुख से मुक्त हो गया है।
उन्होंने पूछा—तथागत क्या कह रहे हैं!
तथागत शब्द का भी वही अर्थ होता है जो सुगत का। सुगत का अर्थ होता है, जो भलीभांति चला गया, जो इस जमीन पर दिखायी पड़ता है लेकिन अब यहां जिसकी चेतना नहीं है। तथागत का यह भी अर्थ होता है, जो भलीभांति आया और भलीभांति चला गया। जो ऐसे आया जैसे आया ही न हो और ऐसे चला गया जैसे गया ही न हो, जिसका होना न होना किसी को पता ही न चला, जैसे पानी पर लकीर खींचते हैं—ऐसे बुद्धों का आगमन है। इतिहास पर कोई रेखा नहीं छूटती।
इतिहास पर रेखा तो हिटलर, चंगेजखां, तैमूरलंग, इनकी छूटती है, बुद्धों की नहीं छूटती। न करते हैं विध्वंस, तो कैसे रेखा छूटेगी इतिहास पर! अंतर्जगत में प्रवेश करते हैं, बाहर के जगत में तो धीरे— धीरे शून्य हो जाते हैं, तो कैसे इतिहास पर रेखा छूटेगी? बुद्धों को तथागत कहा जाता है—चुपचाप आते हैं, चुपचाप चले जाते हैं। किसी को कानों —कान खबर नहीं पड़ती।
शिष्यों ने पूछा कि तथागत क्या कह रहे हैं? यह आप कैसी बात कर रहे हैं कि माता—पिता को मारकर! माता—पिता को मारना तो सब से बड़ा पाप है।
इसका एक और अर्थ मैं करना चाहूंगा, जो इस सूत्र में नहीं कहा गया है, लेकिन अगर बुद्ध आज होते तो कहते। अमरीका में मनोविज्ञान की एक नयी पद्धति विकसित हुई है, ट्राजेक्यानल एनालिसिस। महत्वपूर्ण है बहुत। ट्राजेक्यानल एनालिसिस के हिसाब से प्रत्येक व्यक्ति में तीन व्यक्ति होते हैं—एक तुम्हारी मां, एक तुम्हारा पिता, एक तुम्हारा बचपन। छोटा बच्चा है, हजार काम करना चाहता है, हजार रुकावटें पड़ती हैं। आग से खेलना चाहता है, मां कहती है, नहीं। बाहर जाना चाहता है मित्रों के पास, बाप कहता है, नहीं, रात हो गयी, सो जाओ। जब सोना नहीं चाहता है तब मां—बाप कहते हैं सो जाओ, जब उठना चाहता है सुबह तो उठने नहीं देते, जब नहीं उठना चाहता है तो उठाते हैं। जब खाना नहीं चाहता तो खिलाते हैं, जब खाना चाहता है तो रोकते हैं कि अब बहुत हो गया। हजार निषेध हैं, तो छोटा बच्चा निषिद्ध होता जाता है।
वह जो निषिद्ध छोटा बच्चा है तुम्हारे भीतर, वह कभी नहीं मरता, वह तुम्हारे भीतर मौजूद है। इसलिए कभी—कभी तुम अगर समझोगे ठीक से, ऐसी घड़ी आ जाती है जब तुम्हारा छोटा बच्चा प्रगट हो जाता है—किसी ने गाली दे दी, उस वक्त तुम जो व्यवहार करते हो वह छोटे बच्चे का व्यवहार है। तुम्हारी उमर पचास साल की हो, लेकिन तत्थण तुम ऐसा व्यवहार करते हो जैसे सात साल का बच्चा भी करने में संकोच करे। जरा सी बात और तुम भूल गए अपने पैंतालीस साल, लौट गए बचपन में। पीछे तुम पछताओगे, तुम कहोगे, यह मैंने कैसे किया, यह किस बात ने मुझे पकड लिया, यह तो शोभा नहीं देता। जरा सी बात हो गयी और तुम एकदम बचकानी अवस्था में व्यवहार कर लिए। वह बच्चा तुम्हारे भीतर जिंदा है, दबा पड़ा है, जरा सी चोट की जरूरत है, निकल आता है।
तुमने देखा होगा, किसी के घर में आग लग गयी मैं एक गांव में ठहरा था, एक घर में आग लग गयी। उस घर के मालिक को मैं बहुत दिन से जानता था, बड़े हिम्मत का आदमी, वह एकदम छाती पीट—पीटकर रोने लगा।
मैंने उसे जाकर कहा कि तू हिम्मतवर आदमी है—उसकी छाती भी बडी थी, वह गांव में रामलीला में अंगद का पार्ट करता था, उससे बड़ी छाती का आदमी मैंने फिर देखा नहीं, उसकी बड़ी चौड़ी छाती थी, वह एकदम छाती पीटकर—मैंने उसको जाकर कहा कि देख, जरा सुन भी, इतनी बडी छाती और ऐसे पीट रहा है! और तू अंगद का काम करता है! मकान में ही आग लग गयी है न!
वह मुझसे बोला, ज्ञान की बातें अभी नहीं! मुझे मत छेड़ो। अरे, मैं मर गया! वह फिर पीटने लगा कि मैं मारा गया, मैं लुट गया! छोटे बच्चे जैसा—जैसे छोटा बच्चा पैर पटकने लगता है और चिल्लाने लगता है।
तुमने कभी खयाल किया, छोटे बच्चे का एक लक्षण होता है, वह किसी भी चीज को चाहता है तो अभी चाहता है, इसी वक्त चाहता है। आधी रात में आइसक्रीम चाहिए, तो अभी चाहिए। वह मान ही नहीं सकता कि कल पर छोडा जा सकता है—क्यों कल पर? अभी क्यों नहीं?
तुमने अपने चित्त में भी यह वृत्ति देखी कई बार सिर मारती। एक कार रास्ते से गुजरते देखी और तुम कहते हो, अभी चाहिए, इसी वक्त चाहिए। चाहे अब घर बिक जाए, चाहे झंझट में पड़ जाओ, चाहे कर्ज लेना पड़े, चाहे जिंदगीभर चुकाने में लग जाए कर्ज, मगर इसी वक्त चाहिए, अब तो लेना ही है।
अमरीका इस समय दुनिया में सबसे ज्यादा बचकाना देश है, तो हर चीज इंस्टेंट—इंस्टेंट काफी—हर चीज इसी वक्त चाहिए। काफी बनाने की भी झंझट कौन करे? तैयार करने की भी झंझट कौन करे? तैयार चाहिए। हर चीज तैयार चाहिए। भोजन तैयार चाहिए, बस ज्यादा से ज्यादा डिब्बा खोलना आना चाहिए और कुछ खास जरूरत नहीं है।
हर चीज इसी वक्त हो, ये बचकानी बातें हैं। मगर ये मरती नहीं, ये भीतर रहती हैं, ये कभी भी लौट आती हैं। ये किसी दुर्दिन में, दुर्घटना में प्रगट हो जाती हैं। तुम्हारी प्रौढ़ता ऊपर—ऊपर है, भीतर तुम्हारा बच्चा छिपा है जो कभी नहीं बढ़ा, जिसमें कोई प्रौढ़ता आयी ही नहीं। सामान्य कामकाज में तुम सम्हाले रहते हो अपने को, लेकिन जरा भी असामान्य स्थिति आती है कि तुम्हारी प्रौढ़ता दो कौडी की साबित होती है। तुम्हारी प्रौढ़ता चमड़ी से ज्यादा गहरी नहीं है, जरा किसी ने खरोंच दिया कि तुम्हारा बच्चा प्रगट हो जाता है। तो यह बच्चा जाना चाहिए, इसकी मृत्यु होनी चाहिए, तो ही तुम प्रौढ़ हो पाओगे।
फिर तुम्हारी मां और पिता तुम्हारे भीतर सदा बैठे हैं। इनकी भी मृत्यु होनी चाहिए। इसका बाहर के माता—पिता से कोई संबंध नहीं है। ट्राजेक्यानल एनालिसिस का कहना यह है कि वही व्यक्ति ठीक से प्रौढ हो पाता है जिसके भीतर माता—पिता की आवाज समाप्त हो जाती है। नहीं तो तुम कुछ भी करो, माता—पिता की आवाज पीछा करती है।
समझो कि तुम बचपन में कुछ काम करते थे, मां —बाप ने रोक दिया था, अब भी तुम वह काम करना चाहते हो, भीतर से एक आवाज आती है, तुम्हारा पिता कहता है—नहीं। हालांकि अब तुम स्वतंत्र हो। तुम अंधेरी रात में बाहर जाना चाहते थे, पिता ने रोक दिया था। तुम छोटे बच्चे थे, यह ठीक भी था रोक देना, तुम्हारी परिस्थिति के अनुकूल था। अब भी तुम अंधेरे में जाते हो बाहर तो ऐसा लगता है पिता इनकार कर रहे हैं। साफ नहीं होता, भीतर से कोई रोकता है, भीतर से कोई दबाता है, भीतर से कोई कहता है—मत जाओ, यह मत करो, ऐसा मत करो। यह जो भीतर तुम्हारे पिता की आवाज है, यह तुम्हें कभी बढ़ने न देगी। तुम्हारी मां अभी भी तुम्हें पकड़े हुए है। वह तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ती। उससे छुटकारा चाहिए।
समझो कि तुम किसी एक लड़की के प्रेम में पड़ गए थे, और तुम्हारी मां ने बाधा डाल दी थी—शायद जरूरी था डालना, तुम्हारी उम्र भी नहीं थी अभी, अभी तुम प्रेम का अर्थ भी नहीं समझ सकते थे, अभी तुम झंझट. में पड़ जाते, अभी तुम उलझ जाते, तुम्हारी पढ़ाई—लिखाई रुक जाती, तुम्हारा विकास रुक जाता—मां ने रोक दिया था। मां ने सब तरह से तुम्हें लड़कियों से बचाया था।
अब तुम्हारी शादी भी हो गयी है, तुम्हारी पत्नी घर में है, लेकिन जब तुम पत्नी का भी हाथ हाथ में लेते हो, तुम्हारी मां भीतर से रोक रही है। वह कह रही है, सावधान! झंझट में. मत पड़ना। तो तुम पत्नी का हाथ भी हाथ में लेते हो, लेकिन पूरे मन से नहीं ले पाते। वह मां पीछे खींच रही है। इस मा का जाना होना ही चाहिए, नहीं तो तुम कभी प्रौढ़ न हो पाओगे।
ट्रांजेक्यानल एनालिसिस के लोगों को अगर बुद्ध के ये सूत्र मिल जाएं, तो उनके लिए तो बड़ा सहारा मिल जाएगा—माता—पिता की हत्या! माता—पिता की हत्या से तुम्हारे बाहर के माता—पिता की हत्या का कोई संबंध नहीं है। तुम्हारे भीतर जो माता—पिता की प्रतिमा बैठ गयी है उसकी हत्या होनी चाहिए, तभी तुम मुक्त हो पाओगे। और यह बड़े मजे की और विरोधाभासी बात है कि जिस दिन तुम भीतर के माता—पिता से मुक्त हो जाओगे, उस दिन तुम बाहर के माता—पिता को पहली दफा ठीक आदर दे पाओगे, उसके पहले नहीं। समादर पैदा होगा। अभी तो तुम भीतर इतने ग्रसित हो उनसे कि तुम्हारे मन में क्रोध है, मां—बाप को क्षमा करना भी मुश्किल है।
गुरजिएफ ने अपने दरवाजे पर लिख रखा था कि अगर तुमने अपने मां —बाप को क्षमा कर दिया हो तो मेरे पास आओ। अजीब सी बात! सत्य की खोज में आए आदमी से पूछना कि तुमने मां—बाप को क्षमा कर दिया या नहीं? क्षमा! लोग कहते, हम तो आदर करते हैं। वह कहता कि जाओ वापस, पहले क्षमा करो, आदर अभी कहां है, सब थोथा है। माफ तो करो पहले!
माफ तुम तभी कर सकोगे जब तुम्हारे भीतर से सारा मां—बाप का जाल मिट जाए, तुम मुक्त हो जाओ। जिनसे तुम बंधे हो, उन्हें माफ नहीं कर सकते। गुलामी को कोई माफ करता है! परतंत्रता को कोई माफ करता है! कारागृह को कोई माफ करता है! और जिसने तुम्हें गुलाम बनाया है, उसको तुम आदर कैसे दे सकते हो? इसलिए अगर बच्चे मां—बाप के प्रति अनादर से भर जाते हैं तो आश्चर्य नहीं है। मां —बाप के प्रति आदर तभी हो सकता है जब मां—बाप से पूरा छुटकारा हो जाए। और यह बाहर की बात नहीं है कि बाहर के मां —बाप को छोड़कर भाग जाओ। बाहर के मां—बाप को छोड़ने से कुछ भी नहीं होता। हिमालय चले जाओ, वहां भी भीतर के मां—बाप तुम्हारा पीछा करेंगे, वे तुम्हारे मन के हिस्से हो गए हैं। उस मन को बदलना जरूरी है।
बुद्ध के ये सूत्र, इसलिए मैंने कहे, बड़े महत्वपूर्ण हैं।
मातरं पितरं हंत्‍वा राजानो द्वे च खत्तिये।
रट्ठं सानुचरंहंत्‍वा अनीधो याति ब्राह्मणो ।।
ब्राह्मण मुक्त हो जाता है माता—पिता को मारकर, क्षत्रिय दो राजाओं को मारकर, राजा के अनुचरों को मारकर, सारे राष्ट्र की हत्या करके, अंततः स्वयं अपनी हत्या करके सारे दुखों के पार हो जाता है।
निर्वाण का अर्थ ही यही होता है—अपने हाथ से अपनी महामृत्यु को निमंत्रित कर लेना। निर्वाण का अर्थ होता है—दीए की ज्योति जैसे बुझ जाती है, ऐसा जो बुझ जाए, जिसके भीतर कोई मैं न बचे। इस न—मैं की अवस्था का नाम निर्वाण है।

आज इतना ही।